मंगलवार, 13 जुलाई 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४०)

सृष्टि जगत का अधिष्ठाता

नियामक विधान किसी मस्तिष्कीय सत्ता का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है। हमारे जीवन का आधार सूर्य है। वह 10 करोड़ 30 लाख मील की दूरी से अपनी प्रकाश किरणें भेजता है जो 8 मिनट में पृथ्वी तक पहुंचती हैं। दिन भर में यहां के वातावरण में इतनी सुविधाएं एकत्र हो जाती हैं कि रात आसानी से कट जाती है। दिन रात के इस क्रम में एक दिन भी अन्तर पड़ जायें तो जीवन संकट में पड़ जायें। सूर्य के लिए पृथ्वी समुद्र में बूंद का-सा नगण्य अस्तित्व रखती है फिर, उसकी तुलना में रूप के साईबेरिया प्राप्त में एक गड़रिये के घर में जी रही एक चींटी का क्या अस्तित्व हो सकता है, पर वह भी मजे में अपने दिन काट लेती है।

सूर्य अनन्त अन्तरिक्ष का एक नन्हा तारा है ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने एक एटलस छापा है उसमें सौर-मण्डल के लिए एक बिन्दु मात्र रखा है और तीर का निशान लगा कर दूर जाकर लिखा है—‘‘हमारा सौर-मण्डल यहां नहीं है’’ यह ऐसा ही हुआ कि कोई मेरी आंख का आंसू समुद्र में गिर गया। सूर्य से तो बड़ा ‘‘रीजल’’ तारा ही है जो उससे 15 हजार गुना बड़ा है। ‘‘अन्टेयर्स’’ सूर्य जैसे 3 करोड़ 60 लाख गोलों को अपने भीतर आसानी से सुला सकता है। जून 1967 के ‘‘साइन्स टुडे’’ में ‘‘ग्राहम बेरी’’ ने लिखा है। पृथ्वी से छोटे ग्रह भी ब्रह्माण्ड में हैं और 5 खरब मील की परिधि वाले भीमकाय नक्षत्र भी। किन्तु यह सभी विराट् ब्रह्माण्ड में निर्द्वन्द विचरण कर रहे हैं यदि कहीं कोई व्यवस्था न होती तो यह तारे आपस में ही टकरा कर नष्ट-भ्रष्ट हो गये होते।

सूर्य अपने केन्द्र में 1 करोड़ साठ लाख डिग्री से.ग्रे. गर्म है, यदि पृथ्वी के ऊपर अयन मण्डल (आइनोस्फियर) की पट्टियां न चढ़ाई गई होती तो पृथ्वी न जाने कब जलकर राख हो गई होती। सूरज अपने स्थान से थोड़ा सा खिसक जाये तो ध्रुव प्रदेशों की बर्फ पिघल कर सारी पृथ्वी को डुबो दे यही नहीं उस गर्मी से कड़ाह, में पकने वाली पूड़ियों की तरह सारा प्राणि जगत ही पक कर नष्ट हो जाये। थोड़ा ऊपर हट जाने पर समुद्र तो क्या धरती की मिट्टी तक बर्फ बनकर जम सकती है। यह तथ्य बताते हैं ग्रहों की स्थिति और व्यवस्था अत्यन्त बुद्धिमत्ता पूर्वक की गई है। यह परमात्मा के अतिरिक्त और कौन चित्रकार हो सकता है।

इतने पर भी कुछ लोग हैं जो यह कहते नहीं थकते कि ईश्वरीय सत्ता का कोई प्रमाण कोई अस्तित्व नहीं है। मार्क्स ने किसी पुस्तक में यह लिखा है कि—‘यदि तुम्हारा ईश्वर प्रयोगशाला की किसी परखनली में सिद्ध किया जा सके तो मैं मान लूंगा कि वस्तुतः ईश्वर का अस्तित्व है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४०)

हरिकथा का श्रवण भी है भक्ति का ही रूप
    
वह कहने लगे कि ‘‘आप सभी अवगत हैं मेरे जीवन के एक दुर्लभ कथाप्रसंग से और वह है- मेरा कथावाचन और महाराज परीक्षित का कथाश्रवण। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में मेरा कथावाचन जितना अनमोल रहा, उससे कहीं अधिक अनमोल था-महाराज परीक्षित का कथाश्रवण। भावशुद्धि हो, हृदय में प्रभु मिलन की उत्कट अभिलाषा हो, भक्ति के अलावा किसी अन्य तत्त्व की कामना न बची हो तो कथा चमत्कार किये बिना नहीं रहती। श्रोता एवं वक्ता दोनों ही साथ-साथ सरिता में स्नान करें तो भक्ति एवं भगवान दोनों ही प्रकट हुए बिना नहीं रहते।’’
    
इतना कहकर शुकदेव किञ्चित ठहरे, उनके मुख के भावों में थोड़ा परिवर्तन हुआ और वह कहने लगे कि ‘‘यदि भगवान की कथा का वक्ता यश का आकांक्षी है, वह प्रभुनाम का प्रचार न करके स्वयं के नाम का प्रचार करने में लगा है तो फिर ऐसी कथाओं में भक्ति प्रकट नहीं होती। यदि भगवान की कथा का वाचन करने वाला धन के लोभी हैं और उनकी दृष्टि कथा से होने वाली आय में लगी रहती है तो फिर ऐसी कथाओं में जाना भगवान एवं भक्ति का अपमान है। यदि कथावाचक धन को कमाने के लिए काले-सफेद धन के कुटिल षड्यंत्र करने लगे तो फिर उसके अशुद्ध व्यक्तित्व से शुद्ध भक्ति कभी भी नहीं प्रवाहित हो सकती।’’
    
अपनी इन बातों को कहते हुए परम वीतराग महामुनि शुकदेव का कण्ठ रुद्ध हो आया। उनकी आँखें छलक पड़ीं। वे जैसे-तैसे भर्राये गले से बोले-‘‘कलिमलनाशिनी भगवान की कथा को भी इन कलियुग के दूत कथावाचकों ने मलिन कर दिया है। अरे! कथावाचक का जीवन तो तप एवं भक्ति का साकार विग्रह होना चाहिए। तप की अंतर्भूमि में ही भक्ति का पौधा पनपता है।’’ मुनि शुकदेव के इन वचनों में छिपी पीड़ा ने सभी को उद्वेलित किया। महर्षि वशिष्ठ की आँखें भीग गयीं, जबकि परम तेजस्वी विश्वामित्र की आँखें दहकने लगीं।
    
लेकिन शुकदेव तो अपने भावों में डूबे थे, वे कहे जा रहे थे-‘‘कथा कहने  वालों के साथ कथा सुनने वालों की भी महिमा है। ऐसा नहीं है कि आज किसी की कथा सुनने में रुचि नहीं। अरे कथा के लिए रुचि तो भारी है, परन्तु भगवान की कथा के प्रति अनुराग नहीं है। ईर्ष्या, निन्दा, चुगली, कलंक, लाँछन की कथाएँ कहने-सुनने के लिए सभी आतुर हैं। किसी के कलंक-लाँछन या अपमान की कथा हो तो कहने-सुनने के लिए बिना बुलाये पूरा गाँव सिमट आता है। इसके लिए न तो किसी को संदेशा भेजना पड़ता है और न कहलवाने की आवश्यकता पड़ती है। जबकि कथा भगवान की हो तो लोग बुलाने पर भी नहीं जाते हैं। यदि किसी तरह चले भी गये तो वहाँ भी भगवत कथा की अनदेखी करके अपनी कुटिल चर्चाएँ करते रहते हैं। ऐसों के जीवन में भला भक्ति का संचार कैसे होगा?’’
    
फिर शुकदेव ने कुछ क्षणों तक शून्य की ओर निहारा और फिर अपने अतीत की स्मृतियों को कुरेदा। उनके मानस पटल पर महाराज परीक्षित का मुख-मण्डल दमक उठा। वह बोले-‘‘यह सच है कि महाराज परीक्षित से ऋषि शमीक के प्रति प्रमाद हुआ था, परन्तु उनकी भावनाएँ शुद्ध थीं, उन्होंने अपने अपराध की अनुभूति भी कर ली थी और उसके प्रायश्चित के लिए तत्पर भी हुए थे। यह काल का कुयोग ही था कि ऋषिपुत्र ने उन्हें सर्पदंश का शाप दे डाला परन्तु महाराज परीक्षित अपनी मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर भी भयग्रस्त नहीं हुए थे, बल्कि उन्होंने तो मृत्यु को मोक्ष में परिवर्तित करने का निश्चय कर लिया था। यही है कथा सुनने वाले की सार्थक योग्यता। भला कौन नहीं जानता कि उसकी मृत्यु निश्चित है, फिर भी उपाय मोक्ष के नहीं, भोग के किये जाते हैं। कथाएँ भक्ति की नहीं, आसक्ति की कही-सुनी जाती है। और स्थितियों की तो जाने भी दें, उनकी कहें जो मृत्युशैय्या पर पड़े हैं, जिन्हें अपनी अगली साँस का भी भरोसा नहीं है, वे भी अपने नाती-पोतियों के लिए सुनहरे संसार के सपने देखते हैं। कल्पनाएँ रचते हैं-व्यूह बनाते हैं कि किस तरह उनकी सम्पदा युगों तक सुरक्षित रहेगी। ऐसे लोगों ने यदि मृत्यु समय प्रभु नाम लिया भी तो क्या, और न लिया तो क्या?
    
कथाश्रवण तो महाराज परीक्षित ने किया था। उनका सारा अस्तित्त्व भागवत एवं भगवान में विलीन हो गया था। हर दिन उनकी चेतना ऊर्ध्वगमन का एक सोपान चढ़ती थी। सातवें दिन तो वह ब्राह्मीस्थिति में पहुँच गये थे। राग-द्वेष, मोह-आसक्ति आदि सभी बन्धनों से मुक्त। भक्ति से आवेष्टित एवं अलंकृत थी उनकी चिंतन चेतना। उन्होंने कथा श्रवण का मर्म जाना था और मैं भी उन्हें कथा सुनाकर कृतकार्य हुआ था। ऐसी है भगवान की कथा महर्षि गर्ग जिसे भक्ति का पर्याय कहते हैं।’’ शुकदेव की इस भाववाणी ने सभी को  आत्मचिंतन में निमग्न कर दिया। इसी में अगले भक्ति सूत्र को प्रकट होना था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७५

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