मंगलवार, 24 मई 2022

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग २)

विधेयात्मक चिन्तन की फलदायी परिणतियां

सोचने की प्रक्रिया में विषयों पर एकाग्रता ही नहीं स्वस्थ और सही दृष्टिकोण का होना भी आवश्यक है। किसी भी विषय पर दो प्रकार से सोचा जा सकता है—विधेयात्मक भी, निषेधात्मक भी। परस्पर विरोधी दोनों ही दिशाओं में एकाग्रता का अभ्यास किया जा सकता है। इस महत्वपूर्ण तथ्य को हर व्यक्ति जानता है कि निषेधात्मक चिन्तन से मनुष्य की वैचारिक क्षमताओं में ह्रास होता है। विधेयात्मक दृष्टिकोण से ही चिन्तन का सही लाभ लिया जा सकता है।

निषेधात्मक चिन्तन से बचने का तरीका यह भी हो सकता है कि अपनी गरिमा पर विचार करते रहा जाय तथा यह अनुभव किया जाय कि मानव जीवन एक महान् उपलब्धि है जिसका उपयोग श्रेष्ठ कार्यों में होना चाहिए। निकृष्ट चिन्तन मनुष्य को उसकी गरिमामय स्थिति से गिराता है, यह विश्वास जितना सुदृढ़ होता चला जायेगा—विधेय चिन्तन को उतना ही अधिक अवसर मिलेगा।

पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने पर भी सही चिन्तन बन नहीं पड़ता। किसी विचारक का यह कथन शत-प्रतिशत सच है कि ‘जो जितना पूर्वाग्रही हो वह चिन्तन की दृष्टि से उतना ही पिछड़ा होगा।’ परिवर्तनशील इस संसार में मान्यताओं एवं तथ्यों के बदलते देरी नहीं लगती। अतएव मन मस्तिष्क को सदा खुला रखना चाहिए ताकि यथार्थता से वंचित न रहना पड़े। खुले मन से हर औचित्य को बिना किसी ननुनच के स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए। तथ्यों की ओर से आंखें बन्द रखने पर कितनी ही जीवनोपयोगी बातों से वंचित रह जाना पड़ता है।

किसी विषय पर एकांगी चिन्तन भी सही निष्कर्षों पर नहीं पहुंचने देता। उस चिन्तन में मनुष्य की पूर्व मान्यताओं का भी योगदान होता है। सही विचारणा के लिए यह भी आवश्यक है कि अपनी पूर्व मान्यताओं, आग्रहों तथा धारणाओं का भी गम्भीरता से पक्षपात रहित होकर विश्लेषण किया जाय। पक्ष और विपक्ष दोनों पर ही सोचा जाय। किसी विषय पर एक तरह से सोचने की अपेक्षा विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखकर चिन्तन किया जाय। स्वस्थ और यथार्थ चिन्तन तभी बन पड़ता है। एकांगी मान्यताओं एवं पूर्वाग्रहों को तोड़ना सम्भव हो सके तो सर्वांगीण प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ४
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३२)

जिन प्रेम कियो तिनहिं प्रभु पायो

सुशान्त शर्मा की अनुभवकथा ने सुनने वालों को रोमांचित कर दिया। सभी की भावनाएँ भक्ति से भीग गयीं। अभी भी उनके मन के आंगन में सुशान्त शर्मा के जीवन की अनुभूतियाँ हीरककणों की तरह चमक रही थीं। यह चमक इन सब के अन्तःकरण के कोने-कोने में प्रकाश बिखेर रही थी। अद्भुत था यह प्रकाश। इसमें सात्त्विकता, सजलता, विमलता का अतुलनीय आनन्द घुला था। इस आनन्द में सबके सब ऐसे निमग्न हुए कि बात करना ही भूल गए। देर तक चहुँ ओर मौन पसरा रहा। हिमालय के शुभ्र शैलशिखर मौन साक्षी बने सभी अन्तः-बाह्य परिस्थितियों को निहार रहे थे। नीरवता जैसे भक्ति की पावन भावनाओं को आत्मसात करने में लगी थी।

देवगण, ऋषिगण, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व एवं सिद्धों का यह समुदाय इन क्षणों में यही सोच रहा था कि भक्ति में ऐसी असाधारण क्षमता है जो अनगढ़ को सुगढ़, अपावन को पावन- बड़ी सहजता से बना देती है। भक्ति रूपान्तरण का रसायन है। अन्य आध्यात्मिक विधियाँ क्षमतावान होते हुए भी इस क्षमता से रहित हैं। तप में ऊर्जा है, योग में बल है, इनसे असम्भव को सम्भव बनाने वाले चमत्कार तो किए जा सकते हैं, परन्तु व्यक्तित्व का रूपान्तरण कर पाना सम्भव नहीं है। कोयले का हीरा बन जाना तो केवल भक्ति से ही सम्भव है।

जो चमत्कार करना व चमत्कारी बनना चाहते हैं, उनके लिए अनेको मार्ग हैं, परन्तु जिन्हें केवल पवित्रता का प्रकाश चाहिए, जिन्हें बस परमात्मा का सान्निध्य, सुपास चाहिए उनके लिए तो भक्ति ही साधना, सिद्धि एवं साध्य है। चिन्तन की ये और ऐसी अनेक कड़ियाँ एक-दूसरे से जुड़ती रहीं। विचारों की इन वीथियों में अनेकों मन भ्रमण करते रहे। लेकिन ऋषिश्रेष्ठ पुलह की आकांक्षा इससे कुछ अधिक थी। वे तो देवर्षि नारद से भक्ति का अगला सूत्र सुनना चाहते थे। एकबारगी उन्होंने सभी की ओर देखा- अभी तक सब मौन थे। तभी अचानक उनके नेत्र ब्रह्मर्षि वशिष्ठ की ओर जा टिके। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने उनकी भावनाओं को समझा। वे हल्के से मुस्करा दिए। फिर उन्होंने अपने अन्तर्मन की डोर देवर्षि की भावनाओं से जोड़े।

ऐसा होते ही देवर्षि की दृष्टि ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के मुख की ओर गयी। वशिष्ठ के चेहरे के भावों को उन्होंने देखते ही पढ़ लिया, फिर हल्के से हँस दिए। अपनी इस हँसी को मुस्कराहट में बदलते हुए उन्होंने उपस्थित जनों से कहा- ‘‘यदि आप सभी की अनुमति व सहमति हो तो मैं भक्तिगाथा का अगला सूत्र प्रस्तुत करूँ।’’ देवर्षि के ऐसा कहते ही, ब्रह्मर्षि पुलह के गाल पुलकित हो गए। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एवं विश्वामित्र के मुख पर भी आह्लाद की चन्द्रिका चमक उठी। अन्य जन भी अपने सांकेतिक या प्रकट हाव-भाव से सहमति जताने लगे। इन सबकी सहमति पाकर देवर्षि ने मधुर स्वर में अपने अगले सूत्र को प्रकट करते हुए कहा-

‘त्रिरूपभङ्गपूर्वकं नित्यदास-नित्यकान्ताभजनात्मकं
वा प्रेमैव कार्यम्, प्रेमैव कार्यम्’॥ ६६॥

तीन (स्वामी, सेवक और सेवा) रूपों को भङ्ग कर नित्य दासभक्ति या नित्य कान्ताभक्ति से प्रेम ही करना चाहिए, प्रेम ही करना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५९

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