सोमवार, 20 दिसंबर 2021

👉 जनम - जनम के साक्षी व साथी हैं हमारे गुरु देव

यह घटना महर्षि अरविन्द और उनके शिष्य दिलीप कुमार राय के बारे में थी। विश्व विख्यात संगीतकार दिलीप राय उन दिनों श्री अरविन्द से दीक्षा पाने के लिए जोर जबरदस्ती करते थे। वह ऐसी दीक्षा चाहते थे, जिसमें श्री अरविन्द दीक्षा के साथ ही उन पर शक्तिपात करें। उनके इस अनुरोध को महर्षि हर बार टाल देते थे। ऐसा कई बार हो गया। निराश दिलीप ने सोचा कि इनसे कुछ काम बनने वाला नहीं है। चलो किसी दूसरे गुरु की शरण में जाएँ। और उन्होंने एक महात्मा की खोज कर ली। ये सन्त पाण्डिचेरी से काफी दूर एक सुनसान स्थान में रहते थे।

दीक्षा की प्रार्थना लेकर जब दिलीप राय उन सन्त के पास पहुँचे। तो वह इस पर बहुत हँसे और कहने लगे- तो तुम हमें श्री अरविन्द से बड़ा योगी समझते हो। अरे वह तुम पर शक्तिपात नहीं कर रहे, यह भी उनकी कृपा है। दिलीप को आश्चर्य हुआ- ये सन्त इन सब बातों को किस तरह से जानते हैं। पर वे महापुरुष कहे जा रहे थे, तुम्हारे पेट में भयानक फोड़ा है। अचानक शक्तिपात से यह फट सकता है, और तुम्हारी मौत हो सकती है। इसलिए तुम्हारे गुरु पहले इस फोड़े को ठीक कर रहे हैं। इसके ठीक हो जाने पर वह तुम्हें शक्तिपात दीक्षा देंगे। अपने इस कथन को पूरा करते हुए उन योगी ने दिलीप से कहा- मालूम है, तुम्हारी ये बातें मुझे कैसे पता चली? अरे अभी तुम्हारे आने से थोड़ी देर पहले सूक्ष्म शरीर से महर्षि अरविन्द स्वयं आए थे। उन्होंने ही मुझे तुम्हारे बारे में सारी बातें बतायी।

उन सन्त की बातें सुनकर दिलीप तो अवाक् रह गये। अपने शिष्य वत्सल गुरु की करुणा को अनुभव कर उनका हृदय भर आया। पर ये बातें तो महर्षि उनसे भी कह सकते थे, फिर कहा क्यों नहीं? यह सवाल जब उन्होंने वापस पहुँच कर श्री अरविन्द से पूछा, तो वह हँसते हुए बोले, यह तू अपने आप से पूछ, क्या तू मेरी बातों पर आसानी से भरोसा कर लेता। दिलीप को लगा, हाँ यह बात भी सही है। निश्चित ही मुझे भरोसा नहीं होता। पर अब भरोसा हो गया। इस भरोसे का परिणाम भी उन्हें मिला निश्चित समय पर श्री अरविन्द ने उनकी इच्छा पूरी की।

यह सत्य कथा सुनाकर गुरुदेव बोले- बेटा! गुरु को अपने हर शिष्य के बारे में सब कुछ मालूम होता है। वह प्रत्येक शिष्य के जन्मों- जन्मों का साक्षी और साथी है। किसके लिए उसे क्या करना है, कब करना है वह बेहतर जानता है। सच्चे शिष्य को अपनी किसी बात के लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। उसका काम है सम्पूर्ण रूप से गुरु को समर्पण और उन पर भरोसा। इतना कहकर वह हँसने लगे, तू यही कर। मैं तेरे लिए उपयुक्त समय पर सब कर दूँगा। जितना तू अपने लिए सोचता है, उससे कहीं ज्यादा कर दूँगा। मुझे अपने हर बच्चे का ध्यान है। अपनी बात को बीच में रोककर अपनी देह की ओर इशारा करते हुए बोले- बेटा! मेरा यह शरीर रहे या न रहे, पर मैं अपने प्रत्येक शिष्य को पूर्णता तक पहुँचाऊँगा। समय के अनुरूप सबके लिए सब करूंगा। किसी को भी चिन्तित- परेशान होने की जरूरत नहीं  है। गुरुदेव के यह वचन प्रत्येक  शिष्य के लिए महामंत्र के समान हैं। अपने गुरु के आश्रय में बैठे किसी शिष्य के लिए कोई चिन्ता और भय नहीं है।

अखण्ड ज्योति जुलाई 2003

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है।

हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है -- उपहास, विरोध और स्वीकृति। जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है। इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान् में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे।

भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है- और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है।

जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा,तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९४)

उबारता है सत्संग

वर्षों पूर्व अतीत में साधु द्वारा सुनाए गए उस प्रभाती गीत का स्मरण करके महर्षि रूक्मवर्ण की आँखें छलक आयीं। वह देर तक यूं ही मौन बैठे आकाश को निहारते रहे। इस बीच न तो उन्हें किसी ने टोका और न ही वह स्वयं ही कुछ बोले। बस उन्हें अनन्त आकाश की ओर देखते हुए कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कि वह इस अनन्त अन्तरिक्ष में व्याप्त रहस्यमय विधाता द्वारा लिखे गए रहस्यमय अक्षरों को पढ़ने की कोशिश कर रहे हों। इस बीच सब कुछ ठहरा रहा। हवाओं में निस्पन्द नीरवता संव्याप्त रही। हिमालय के उत्तुंग पर्वत शिखर, बर्फ की श्वेत-धवल चादर ओढ़े मौन खड़े रहे। बीतते क्षणों के साथ शान्ति सघन होती रही। तभी किसी हिमपक्षी की कलरव ध्वनि ने नीरवता में सुरों का रव घोला। सभी को जैसे चेत आया, स्वयं महर्षि रूक्मवर्ण भी सजग हुए।

उन्होंने उपस्थित समुदाय को देखा और हल्के से मुस्करा दिये। उनकी विशेष दृष्टि देवर्षि नारद की ओर थी। देवर्षि ने भी जैसे उनका अभिप्राय समझ लिया। उन्होंने भगवान् श्रीहरि का पावन नाम ‘नारायण’ उच्चारण करने के साथ अपने नए सूत्र का सत्योच्चार किया-

‘कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाश-सर्वनाशकारणत्वात्’॥४४॥
क्योंकि वह (दुःसंग) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश एवं सर्वनाश का कारण है।

देवर्षि के इस सूत्र को सुनकर महर्षि रूक्मवर्ण अतीत की स्मृति की बिखरी कड़ियों को एक-दूसरे से जोड़ने लगे। उनकी इस मानसिक क्रिया के स्पर्श ने कहीं चेतना के अन्तराल में देवर्षि को स्पन्दित किया और उन्होंने बड़े धीमे किन्तु मधुर स्वरों में अनुरोध किया- ‘‘इस सूत्र की व्याख्या भी आप ही करें महर्षि।’’

उत्तर में महर्षि रूक्मवर्ण ने कहा- ‘‘अवश्य देवर्षि। आप जैसे महान भगवद्भक्त का अनुरोध भी मेरे लिए आदेश है। इसी बहाने आप सबको अपनी आपबीती कहने का अवसर मिल जाएगा।’’ इतना कहकर वह फिर से चुप हो गए किन्तु यह चुप्पी कुछ ही पलों की थी। इन पलों के बाद वे बोले- ‘‘दुःसंग भले ही कितना मधुर एवं सम्मोहक लगे किन्तु उसका यथार्थ महाविष की भांति संघातक होता है लेकिन तब मैं यह सब समझ नहीं सका। उन व्यवसायी महाशय की बातों ने मेरे अन्दर उथल-पुथल मचा दी थी। अपनी बाल्यावस्था से ही मैं अपने आचार्य, अभिभावक उन भगवद्भक्त महापुरुष के साथ था। उनके साथ सदा ही मैंने सात्त्विक एवं अपरिग्रही जीवन जिया था, ऐसा जीवन जिसमें न तो ऐश्वर्य था, न कोई वैभव और न ही विलास। साधन-सुविधाओं की भरमार की बात तो क्या, उनके पास तो सामान्य साधन-सुविधाएँ तक नहीं थीं।

इन असुविधाओं की कठोरता के बीच मैं पला था। सम्भवतः कहीं मन की गहरी परतों के नीचे लालसाओं-वासनाओं के बीज दबे-छुपे रहे होंगे जिन्होंने उस घड़ी में प्रकट होकर उस सम्पन्न व्यवसायी का रूप लिया था। उन व्यवसायी की बातें, उनका यह अनुरोध, उनकी अतुल धन-सम्पत्ति और सबसे बढ़कर उनकी षोडश वर्षीया अतिरूपवती कन्या, जिसे देखते ही मैं पलकें झपकना भूल गया था।

उस श्रेष्ठ कन्या के पिता ने अपनी सुदीर्घ आयु में अनगिनत सांसारिक अनुभव बटोरे थे। उन्हें मेरी मानसिक स्थिति का अहसास करने में देर न लगी। सारी स्थिति भांपकर और यह जानकर कि मेरा मन विलासिता की ओर आकर्षित हो रहा है, उन्होंने एक बार फिर से गरम लोहे पर चोट करनी शुरू की। यह लोहा और कुछ नहीं बस लालसाओं और वासनाओं के अतिरेक से उत्तप्त हुआ मेरा मन था, जिस पर वे अपनी मायावी बातों की चोटें किए जा रहे थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७९

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