पर शिष्यत्व को अपने जीवन का सार मानने वाले वाले इस मूढ़ता पर मुस्कराते हैं। क्योंकि गुरुदेव के दर्शन भले ही चर्म चक्षुओं से मिलते हों पर उनका बताया मार्ग तो अन्तःकरण में प्रवेश करके अन्तश्चक्षुओं से खोजना पड़ता है। जो बाहर भटकते हैं- वे सदा ही गुमराह बने रहते हैं। बाहर प्रतीक तो है पर सत्य नहीं है। प्रतीक सत्य की ओर इंगित तो करते हैं, पर सत्य नहीं है। सत्य के लिए तो हृदय गुफा में बैठकर उपासना करनी पड़ती है। जीवन का परिष्कार करना पड़ता है। उसे पवित्र बनाना पड़ता है। यदि मन पूछे कि कैसे? तो जवाब होगा ठीक उसी तरह जिस तरह अपने गुरुदेव ने बनाया।
हालांकि यह बड़ा साहस का काम है। क्योंकि बाहरी जीवन में जो पवित्रता को साधते हैं, वे किसी भी हालत में महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकते। महत्त्वाकांक्षाओं को, अहंकार की प्रतिष्ठा को, वासना की सन्तुष्टि को त्यागकर ही पवित्रता की राह पर आगे बढ़ा जा सकता है। यह किसी भी तरह से आसान नहीं है, साहस का काम है। जो साहसी हैं वे ही इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। और जो बढ़ते हैं उन्हीं को जीवन का रहस्य उजागर होता है, वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति को समझ पाते हैं। उन्हीं को इस रहस्य का ज्ञान होता है कि सद्गुरु की ज्योति ही आत्म ज्योति है, यही ईश्वरीयता का अनन्त प्रकाश भी है।
इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्यारी कथा है। यह कथा सन्त रज्जब के बारे में है। सन्त रज्जब को दादू जैसे सद्गुरु की शरण तो मिली थी पर अन्तस में उजियारा नहीं हुआ था। गुरु मिले पर मार्ग नहीं मिला था। क्या करें? किधर जाएँ? ऐसे सवाल उन्होंने दादू साहब से कई बार पूछे पर उन्होंने हँसकर टाल दिया। बहुत पूछने पर एक दिन बोले जो गुरु को देह जानता है, वह भटकता रहता है। पर जो गुरु को चेतना मानता है उसका पथ प्रकाशित हो जाता है। इससे ज्यादा उन्होंने कुछ कहा नहीं। रज्जब की भी आगे हिम्मत नहीं पड़ी। हार- थककर उन्होंने अपने गुरुदेव की छवि को अपने अन्तस में प्रतिष्ठित कर लिया। अपने अस्तित्त्व की सारी भक्ति, सारा प्यार, सारा अनुराग उन्होंने उस छवि में न्यौछावर कर दिया। यह छवि उनके मानस में विहंस उठी।
ध्यान ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ हुआ त्यों ही यह छवि रज्जब की चेतना में आत्म ज्योति बनकर जल उठी। रज्जब यहाँ पर ठहरे नहीं वह अपनी साधना करते रहे और वह शुभ घड़ी भी आयी जब आत्म ज्योति ने अनन्त ईश्वरीय प्रकाश का रूप ले लिया। समाधि की इस परम भावदशा में उन्हें यह समाधान मिला कि सद्गुरु और ईष्ट एक ही हैं। गुरु ही गोविन्द है। गुरु से भिन्न और कुछ भी नहीं। रज्जब की साधना का यह मर्म वही जानेंगे जो अपने अन्तःकरण में प्रवेश करके मार्ग की शोध के लिए व्याकुल हैं। शिष्यों की इस व्याकुलता का समाधान शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में निहित है।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/sadg
हालांकि यह बड़ा साहस का काम है। क्योंकि बाहरी जीवन में जो पवित्रता को साधते हैं, वे किसी भी हालत में महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकते। महत्त्वाकांक्षाओं को, अहंकार की प्रतिष्ठा को, वासना की सन्तुष्टि को त्यागकर ही पवित्रता की राह पर आगे बढ़ा जा सकता है। यह किसी भी तरह से आसान नहीं है, साहस का काम है। जो साहसी हैं वे ही इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। और जो बढ़ते हैं उन्हीं को जीवन का रहस्य उजागर होता है, वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति को समझ पाते हैं। उन्हीं को इस रहस्य का ज्ञान होता है कि सद्गुरु की ज्योति ही आत्म ज्योति है, यही ईश्वरीयता का अनन्त प्रकाश भी है।
इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्यारी कथा है। यह कथा सन्त रज्जब के बारे में है। सन्त रज्जब को दादू जैसे सद्गुरु की शरण तो मिली थी पर अन्तस में उजियारा नहीं हुआ था। गुरु मिले पर मार्ग नहीं मिला था। क्या करें? किधर जाएँ? ऐसे सवाल उन्होंने दादू साहब से कई बार पूछे पर उन्होंने हँसकर टाल दिया। बहुत पूछने पर एक दिन बोले जो गुरु को देह जानता है, वह भटकता रहता है। पर जो गुरु को चेतना मानता है उसका पथ प्रकाशित हो जाता है। इससे ज्यादा उन्होंने कुछ कहा नहीं। रज्जब की भी आगे हिम्मत नहीं पड़ी। हार- थककर उन्होंने अपने गुरुदेव की छवि को अपने अन्तस में प्रतिष्ठित कर लिया। अपने अस्तित्त्व की सारी भक्ति, सारा प्यार, सारा अनुराग उन्होंने उस छवि में न्यौछावर कर दिया। यह छवि उनके मानस में विहंस उठी।
ध्यान ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ हुआ त्यों ही यह छवि रज्जब की चेतना में आत्म ज्योति बनकर जल उठी। रज्जब यहाँ पर ठहरे नहीं वह अपनी साधना करते रहे और वह शुभ घड़ी भी आयी जब आत्म ज्योति ने अनन्त ईश्वरीय प्रकाश का रूप ले लिया। समाधि की इस परम भावदशा में उन्हें यह समाधान मिला कि सद्गुरु और ईष्ट एक ही हैं। गुरु ही गोविन्द है। गुरु से भिन्न और कुछ भी नहीं। रज्जब की साधना का यह मर्म वही जानेंगे जो अपने अन्तःकरण में प्रवेश करके मार्ग की शोध के लिए व्याकुल हैं। शिष्यों की इस व्याकुलता का समाधान शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में निहित है।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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