गुरुवार, 17 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 27)



पर शिष्यत्व को अपने जीवन का सार मानने वाले वाले इस मूढ़ता पर मुस्कराते हैं। क्योंकि गुरुदेव के दर्शन भले ही चर्म चक्षुओं से मिलते हों पर उनका बताया मार्ग तो अन्तःकरण में प्रवेश करके अन्तश्चक्षुओं से खोजना पड़ता है। जो बाहर भटकते हैं- वे सदा ही गुमराह बने रहते हैं। बाहर प्रतीक तो है पर सत्य नहीं है। प्रतीक सत्य की ओर इंगित तो करते हैं, पर सत्य नहीं है। सत्य के लिए तो हृदय गुफा में बैठकर उपासना करनी पड़ती है। जीवन का परिष्कार करना पड़ता है। उसे पवित्र बनाना पड़ता है। यदि मन पूछे कि कैसे? तो जवाब होगा ठीक उसी तरह जिस तरह अपने गुरुदेव ने बनाया।

हालांकि यह बड़ा साहस का काम है। क्योंकि बाहरी जीवन में जो पवित्रता को साधते हैं, वे किसी भी हालत में महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति नहीं कर सकते। महत्त्वाकांक्षाओं को, अहंकार की प्रतिष्ठा को, वासना की सन्तुष्टि को त्यागकर ही पवित्रता की राह पर आगे बढ़ा जा सकता है। यह किसी भी तरह से आसान नहीं है, साहस का काम है। जो साहसी हैं वे ही इस राह पर आगे बढ़ सकते हैं। और जो बढ़ते हैं उन्हीं को जीवन का रहस्य उजागर होता है, वह भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रवृत्ति को समझ पाते हैं। उन्हीं को इस रहस्य का ज्ञान होता है कि सद्गुरु की ज्योति ही आत्म ज्योति है, यही ईश्वरीयता का अनन्त प्रकाश भी है।

इस सम्बन्ध में एक बड़ी ही प्यारी कथा है। यह कथा सन्त रज्जब के बारे में है। सन्त रज्जब को दादू जैसे सद्गुरु की शरण तो मिली थी पर अन्तस में उजियारा नहीं हुआ था। गुरु मिले पर मार्ग नहीं मिला था। क्या करें? किधर जाएँ? ऐसे सवाल उन्होंने दादू साहब से कई बार पूछे पर उन्होंने हँसकर टाल दिया। बहुत पूछने पर एक दिन बोले जो गुरु को देह जानता है, वह भटकता रहता है। पर जो गुरु को चेतना मानता है उसका पथ प्रकाशित हो जाता है। इससे ज्यादा उन्होंने कुछ कहा नहीं। रज्जब की भी आगे हिम्मत नहीं पड़ी। हार- थककर उन्होंने अपने गुरुदेव की छवि को अपने अन्तस में प्रतिष्ठित कर लिया। अपने अस्तित्त्व की सारी भक्ति, सारा प्यार, सारा अनुराग उन्होंने उस छवि में न्यौछावर कर दिया। यह छवि उनके मानस में विहंस उठी।

ध्यान ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ हुआ त्यों ही यह छवि रज्जब की चेतना में आत्म ज्योति बनकर जल उठी। रज्जब यहाँ पर ठहरे नहीं वह अपनी साधना करते रहे और वह शुभ घड़ी भी आयी जब आत्म ज्योति ने अनन्त ईश्वरीय प्रकाश का रूप ले लिया। समाधि की इस परम भावदशा में उन्हें यह समाधान मिला कि सद्गुरु और ईष्ट एक ही हैं। गुरु ही गोविन्द है। गुरु से भिन्न और कुछ भी नहीं। रज्जब की साधना का यह मर्म वही जानेंगे जो अपने अन्तःकरण में प्रवेश करके मार्ग की शोध के लिए व्याकुल हैं। शिष्यों की इस व्याकुलता का समाधान शिष्य संजीवनी के अगले सूत्र में निहित है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/sadg
 

जो भी योजना बनाये उसमें आत्म निर्भरता का ही प्रधान भाग रहना चाहिए। दूसरों की सहायता के आधार पर जो क्रिया-कलाप खड़े किये जाते हैं वे आमतौर पर अधूरे और असफल ही रहते हैं। दूसरों का सहयोग भी मिलता ही है पर वह आगे तब आता है जब अपनी पात्रता और प्राथमिकता सिद्ध कर दी जाय। ऐसा स्वावलम्बी लोग ही कर सकते हैं वे ऐसी व्यावहारिक गतिविधियाँ अपनाते हैं जो आज की परिस्थितियों, आज के साधनों से अपने बलबूते खड़ी की जा सकती हो। भले ही इस प्रकार का शुभारम्भ छोटे रूप में हो पर उसमें यह संभावना भरी पड़ी है कि उस छोटे काम में बरती गई तत्परता और सावधानी के आधार पर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की जा सके। यही से दूसरों का सहयोग द्वार खुलता है। भला कोई कैसे पसन्द करेगा कि किसी हवाई कल्पना की उड़ान में उड़ने वाले शेखचिल्ली के नीचे अपनी उँगली फँसा दे और अपनी कीमती सहायता को जोखिम में डालने का खतरा अंगीकार करे।

सहयोग देने की तरह सहयोग लेने की भी आवश्यकता रहती है। पर निर्भर अपने ही पक्षधर रहना चाहिए। इतनी बड़ी बात सोची ही क्यों जाय? इतना बड़ा स्वप्न देखा ही क्यों जाय जिसमें दूसरों का सहयोग न मिलने पर खीज़ या निराशा ही पल्ले बँधे?

कठिनाइयों से कोई बच नहीं सकता। जीवन इतना सरल नहीं है कि उसे गुप-चुप बिना किसी झंझट के जिया जा सके। हमें वह साहस एकत्रित करना ही होगा कि आये दिन नाम रूप बदल कर आने वाली कठिनाइयों का सामना और समाधान करने की सूझ-बूझ परिपक्व होती रहे। शान्ति की आकांक्षा अशान्ति को परास्त करके पाई गई विशय के रूप में की जानी चाहिए। बिना झंझट का सरल और सुख सुविधाओं से भरा पूरा जीवन क्रम एक मधुर कल्पना भर है व्यावहारिक वास्तविकता नहीं जीवन का निर्माण ही खुद इस तरह हुआ है कि उस्तरे की तरह उस पर बार-बार धार रखने की रगड़ से वास्ता पड़ता रहे। जो इस यथार्थता का सामना नहीं करना चाहता, सरलता को ही शान्ति मानता है उसे खाली हाथ ही रहना पड़ेगा अपना शरीर और मन भी क्या कम अशान्ति उत्पन्न करते हैं। नगर निवासियों की तरह ही वनवासी और सक्रियों की तरह ही निष्क्रिय भी क्षुब्ध रहते हैं। उलझनों का स्वरूप बदला जा सकता है पर उनसे न ता कोई गृही बच सकता है और न वैरागी। शान्ति तो उन्हें ही मिल सकती है जो अशान्ति से टकराने की कला के अभ्यस्त और पारंगत बन चुके  है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 34
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1973/January.34
बस थोड़ा सा सोचने की देर है……
 

शादी की बीसवीं वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर पति-पत्नी साथ में बैठे चाय की चुस्कियां ले रहे थे। संसार की दृष्टि में वो एक आदर्श युगल था। प्रेम भी बहुत था दोनों में लेकिन कुछ समय से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है। शिकायतें धीरे-धीरे बढ़ रही थीं।

बातें करते-करते अचानक पत्नी ने एक प्रस्ताव रखा कि मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना होता है लेकिन हमारे पास समय ही नहीं होता एक-दूसरे के लिए। इसलिए मैं दो डायरियाँ ले आती हूँ और हमारी जो भी शिकायत हो हम पूरा साल अपनी-अपनी डायरी में लिखेंगे।

अगले साल इसी दिन हम एक-दूसरे की डायरी पढ़ेंगे ताकि हमें पता चल सके कि हममें कौन सी कमियां हैं जिससे कि उसका पुनरावर्तन ना हो सके। पति भी सहमत हो गया कि विचार तो अच्छा है। डायरियाँ आ गईं और देखते ही देखते साल बीत गया।

अगले साल फिर विवाह की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर दोनों साथ बैठे। एक-दूसरे की डायरियाँ लीं। पहले आप, पहले आप की मनुहार हुई। आखिर में महिला प्रथम की परिपाटी के आधार पर पत्नी की लिखी डायरी पति ने पढ़नी शुरू की।

पहला पन्ना...... दूसरा पन्ना........ तीसरा पन्ना

..... आज शादी की वर्षगांठ पर मुझे ढंग का तोहफा नहीं दिया।
.......आज होटल में खाना खिलाने का वादा करके भी नहीं ले गए।
.......आज मेरे फेवरेट हीरो की पिक्चर दिखाने के लिए कहा तो जवाब मिला बहुत थक गया हूँ
........ आज मेरे मायके वाले आए तो उनसे ढंग से बात नहीं की
.......... आज बरसों बाद मेरे लिए साड़ी लाए भी तो पुराने डिजाइन की

ऐसी अनेक रोज़ की छोटी-छोटी फरियादें लिखी हुई थीं। पढ़कर पति की आँखों में आँसू आ गए। पूरा पढ़कर पति ने कहा कि मुझे पता ही नहीं था मेरी गल्तियों का। मैं ध्यान रखूँगा कि आगे से इनकी पुनरावृत्ति ना हो।

अब पत्नी ने पति की डायरी खोली
पहला पन्ना.......कोरा
दूसरा पन्ना.........कोरा
तीसरा पन्ना...........कोरा
अब दो-चार पन्ने साथ में पलटे वो भी कोरे फिर 50-100 पन्ने साथ में पलटे तो वो भी कोरे

पत्नी ने कहा कि मुझे पता था कि तुम मेरी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकोगे। मैंने पूरा साल इतनी मेहनत से तुम्हारी सारी कमियां लिखीं ताकि तुम उन्हें सुधार सको। और तुमसे इतना भी नहीं हुआ। पति मुस्कुराया और कहा मैंने सब कुछ अंतिम पृष्ठ पर लिख दिया है। पत्नी ने उत्सुकता से अंतिम पृष्ठ खोला। उसमें लिखा था

मैं तुम्हारे मुँह पर तुम्हारी जितनी भी शिकायत कर लूँ लेकिन तुमने जो मेरे और मेरे परिवार के लिए त्याग किए हैं और इतने वर्षों में जो असीमित प्रेम दिया है उसके सामने मैं इस डायरी में लिख सकूँ ऐसी कोई कमी मुझे तुममें दिखाई ही नहीं दी। ऐसा नहीं है कि तुममें कोई कमी नहीं है लेकिन तुम्हारा प्रेम, तुम्हारा समर्पण, तुम्हारा त्याग उन सब कमियों से ऊपर है। मेरी अनगिनत अक्षम्य भूलों के बाद भी तुमने जीवन के प्रत्येक चरण में छाया बनकर मेरा साथ निभाया है। अब अपनी ही छाया में कोई दोष कैसे दिखाई दे मुझे।

अब रोने की बारी पत्नी की थी। उसने पति के हाथ से अपनी डायरी लेकर दोनों डायरियाँ अग्नि में स्वाहा कर दीं और साथ में सारे गिले-शिकवे भी। फिर से उनका जीवन एक नवपरिणीत युगल की भाँति प्रेम से महक उठा।

दोस्तो, ये एक काल्पनिक कहानी हो सकती है। पति की जगह पत्नी भी हो सकती है और पत्नी की जगह पति भी। सीखना केवल ये है कि जब जवानी का सूर्य अस्ताचल की ओर प्रयाण शुरू कर दे तब हम एक-दूसरे की कमियां या गल्तियां ढूँढने की बजाए अगर ये याद करें हमारे साथी ने हमारे लिए कितना त्याग किया है, उसने हमें कितना प्रेम दिया है, कैसे पग-पग पर हमारा साथ दिया है तो निश्चित ही जीवन में प्रेम फिर से पल्लवित हो जाएगा।

बस थोड़ा सा सोचने की देर है ………

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...