सोमवार, 7 सितंबर 2020

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग २०)

जीवन कमल खिला सकती हैं—पंच वृत्तियाँ

मन की चौथी वृत्ति निद्रा है। निद्रा मन की अद्भुत जीवनदायिनी शक्ति है। चिकित्साशास्त्री हमें बताते हैं कि नैसर्गिक निद्रा शारीरिक स्वास्थ्य के लिए बहुत अनिवार्य है। वैसा इसका अध्यात्मिक पक्ष भी है। हालाँकि इससे विरले साधक ही परिचित हो पाते हैं। सामान्य लोग तो नैसर्गिक निद्रा का भी आनन्द नहीं उठा पाते। क्योंकि निद्रा मन की समग्र निर्विषय अवस्था है। कोई क्रिया, कोई चेष्टा मन में नहीं है, ऐसी अवस्था। जिसमें मन को सम्पूर्ण विश्रान्ति है। यह बड़ी सुन्दर, सुमधुर एवं जीवनदायिनी अवस्था है। पर इसका लाभ कम ही लोग उठा पाते हैं। अधिकांश तो स्वप्नों के मकड़जाल में उलझते रहते हैं। वे निद्रा के आनन्दमय संगीत से हमेशा वंचित रहते हैं।
  
जबकि योग साधक आचार्य शंकर के शब्दों में ‘निद्रा समाधिस्थितिः’ का आनन्द उठाते हैं। क्योंकि मन की समग्र निर्विषय अवस्था में यदि जागरूक हुआ जा सके, तो समाधि फलित हो जाती है। सचमुच ही निद्रा में सब कुछ वैसा ही होता है, जैसा कि समाधि में होता है। बस, जागरूकता नहीं होती। आन्तरिक जागरूकता सध जाने पर भी शरीर सोया रहता है, मन विश्रान्ति में रहता है और आन्तरिक चेतना पूर्णतया जाग्रत् होती है। परम पूज्य गुरुदेव की निद्रा ऐसी ही होती थी। सामान्य साधक इसमें धीरे-धीरे उतर सकते हैं। इस भावदशा में उतरने पर निद्रा समाधि का आनन्दोल्लास बन जाती है।
  
मन की पाँचवी एवं अन्तिम वृत्ति है-स्मृति। इस शक्ति का भी जीवन में प्रायः दुरुपयोग ही होता है। यदि जो घटना जैसे घटी है, उसे ठीक तरह से याद रखकर उसकी सच्चाई को जाना जाय, तो एक अनूठी ध्यान साधना जन्म लेती है। पर हममे से प्रायः किसी के जीवन में ऐसा हो नहीं पाता। हमारा अपना जीवन, तो बस स्मृतियों का एक बड़ा गोदाम भर है। जिसमें अगणित स्मृतियाँ यूँ ही बेतरतीब पड़ी हुई हैं। कौन स्मृति कहाँ किस स्मृति में जा मिली है? कोई ठिकाना नहीं है। स्मृतियों की यह गड़बड़ जब-तब हमारे सपनों में उलझती रहती है। ध्यान-साधना ही वह उपाय है, जिससे कि स्मृति को योग साधना का रूप दिया जा सकता है। भगवान् बुद्ध ने इसीलिए ध्यान को ‘सम्यक् स्मृति’ भी कहा है। इस साधना से अपने अतीत को, अपने विगत जन्मों को जानकर एक नए साधनामय जीवन की सृष्टि की जा सकती है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ३८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 अध्यात्म-लक्ष और उसका आवश्यक कर्तृत्व (अन्तिम भाग)

नृशंसता का प्रतिरोध

राजनैतिक पराधीनता एवं विदेशियों द्वारा बरती गई नृशंसता के विरुद्ध पिछले दिनों हमारे मनों में असंतोष उत्पन्न हुआ था तो उसका बाह्य स्वरूप स्वराज्य आन्दोलन के रूप में—स्वाधीनता संग्राम के रूप में—सामने आया था। जन-मानस का व्यापक असंतोष राजमुकुटों को तिनके के समान उड़ाकर फेंक सकता है। दुनियाँ का इतिहास साक्षी है कि बड़ी से बड़ी क्रूर सल्तनतें जन-असंतोष की आग में जलकर भस्म हो गईं। जनता की मनोभूमि जब करवट बदलती है तो बड़ी से बड़ी विडम्बनाएँ धराशायी हो जाती हैं। जिस हीन सामाजिक दुरवस्था में हम आज पड़े हैं वह भी तभी तक टिकी रह सकती है जब तक जन-मानस में उसके प्रति उभार नहीं आता। यह बुराइयाँ अभी अखरती तो हैं पर यदि काँटे की तरह उनकी चुभन हम अनुभव करने लगे तो फिर इन्हें उखाड़ फेंकने में कितनी देर लगेगी?

युग की प्रखर चुनौती

सामाजिक असभ्यता हमारे लिए राजनीतिक गुलामी से अधिक त्रासदायक स्थिति में हमारे सामने मौजूद है। स्वाधीनता संग्राम के बलिदानी सेनानी स्वर्ग से हमें पूछते हैं कि हमारा कारवाँ एक ही मंजिल पर पड़ाव डालकर क्यों पड़ा रहा? आगे का पड़ाव सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन का था, अगला मोर्चा वहाँ जमना था—पर सैनिकों ने हथियार खोलकर क्यों रख दिये? युग की आत्मा इन प्रश्नों का उत्तर चाहती है। हमें इसका उत्तर देना होगा। यदि हम सामाजिक असभ्यता के उन्मूलन के लिए कुछ नहीं करना चाहते, कुछ नहीं कर सकते तो जहाँ भावी इतिहासकार जिस प्रकार स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों को श्रद्धा से मस्तक झुकाते रहेंगे वहाँ हमें धिक्कारने में भी कसर न रहने देंगे।

लक्ष पूर्ति के लिए यह आवश्यक है

आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति के लिए अग्रसर हुए हम धर्मप्रेमी ईश्वरभक्त लोगों के कन्धों पर लौकिक कर्तव्यों की पूर्ति का भी एक बड़ा उत्तरदायित्व है। ईश्वर को हम पूजें और उसकी प्रजा से प्रेम करे; भगवान का अर्चन करें और उसकी वाटिका को—दुनियाँ को—सुरम्य बनावें तभी हम उसके सच्चे भक्त कहला सकेंगे तभी उसका सच्चा प्रेम प्राप्त करने के अधिकारी हो सकेंगे। हमारे आध्यात्मिक लक्ष की पूर्ति का प्रथम सोपान सुव्यवस्थित जीवन है। स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन, सभ्य समाज उसके तीन आधार हैं। इन आधारों को संतुलित करने के लिए सबल और समर्थ बनाने के लिए हमें कुछ करना ही पड़ेगा, कटिबद्ध होना ही पड़ेगा। युग-निर्माण का महान कार्य हमारे इस कर्तृत्व पर ही निर्भर है। इसकी न तो अब उपेक्षा की जा सकती है और न आँखें चुराई जा सकती हैं। भगवान यही हम से कराना चाहते हैं। यही हमें करना भी होगा।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1962 पृष्ठ 37

👉 TRUE PRAYER

True prayer is less about asking and begging for things we are attached to than it is about relinquishing our attachments to things, persons and possessions. We, in essence, being the sparks of the Divine Effulgence, ought to pray for illumination of our inner selves with the sublime glow of divinity –– no storm of hardship or turbulence of ups and downs of life could ever quaver the flame of our faith in our divine origin as souls.

“…. ‘O’ Lord! Please bless us with courage and wisdom so that we could welcome adversities as opportunities to refine our qualities and strengthen our potentials. Today’s blows of adversities should sound as messages of a brighter tomorrow….” –– This would be an ideal prayer to elevate our zeal and optimism and would protect us from becoming weak or coward.

We have to become intrepid warriors of the Spirit and not frightened fugitives in the battlefield of life.  Our attitude while praying should not be of begging but of ‘offering’ – “Lord, I am here, use me”.

~ Pt. Shriram Sharma Acharya

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