गुरुवार, 12 जनवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 Jan 2017


👉 आज का सद्चिंतन 13 Jan 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 6) 13 Jan

🌹 अध्यात्म तत्त्वज्ञान का मर्म जीवन साधना

🔴 समुद्र में सभी नदियाँ जा मिलती हैं। यह उसकी गहराई का ही प्रतिफल है। पर्वत की चोटियों पर यदि शील की अधिकता से बर्फ जम भी जाय तो वह गर्मी पड़ते ही पिघल जाता है और नदियों से होकर समुद्र में पहुँचकर रुकता है। इसी को कहते हैं-पात्रता पात्रता का अभिवर्द्धन ही साधना का मूलभूत उद्देश्य है। ईश्वर को न किसी की मनुहार चाहिये और न उपहार। वह छोटी-मोटी भेंट-पूजाओं से या स्तवन गुणगान से प्रसन्न नहीं होता। ऐसी प्रकृति तो क्षुद्र लोगों की होती है। भगवान् का ऐसा मानस नहीं। वह न्यायनिष्ठ और विवेकवान है। व्यक्ति में उत्कृष्ट आदर्शवादिता का समावेश होने पर जो गरिमा उभरती है उसी के आधार पर वह प्रसन्न होता और अनुग्रह बरसाता है। उसे फुसलाने का प्रयास करने वालों की बालक्रीड़ा निराशा ही प्रदान करती है।         

🔵 ऋषि ने पूछा-कस्मै देवाय हविषा विधेम्’’ अर्थात् ‘‘हम किस देवता के लिये भजन करें’’? उसका सुनिश्चित उत्तर है-आत्मदेव के लिये। अपने आप को चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की कसौटियों पर खरा सिद्ध करना ही वह स्थिति है जिसे सौ टंच सोना कहते हैं। पेड़ पर फल फूल ऊपर से टपक कर नहीं लदते, वरन् जड़ें जमीन से जो रस खींचती हैं उसी से वृक्ष बढ़ता है और फलता-फूलता है। जड़ें अपने अन्दर है, जो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। जिनके आधार पर आध्यात्मिक महानता और भौतिक प्रगतिशीलता के उभयपक्षीय लाभ मिलते है।

🔴 यही उपासना, साधना और आराधना का समन्वित स्वरूप है। यही वह साधना है जिसके आधार पर सिद्धियाँ और सफलतायें सुनिश्चित बनती हैं। दूसरे के सामने हाथ पसारने, गिड़गिड़ाने भर से पात्रता के अभाव में कुछ प्राप्त नहीं होता। भले ही वह दानी परमेश्वर ही क्यों न हों! कहा गया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करने को तत्पर हैं। आत्मपरिष्कार, आत्मशोधन यही जीवन साधना है। इसी को परम पुुरुषार्थ कहा गया है। जिन्होंने इस लक्ष्य को समझा तो जानना चाहिये कि उन्होंने अध्यात्म तत्त्वज्ञान का रहस्य और मार्ग हस्तगत कर लिया। चरम लक्ष्य तक पहुँचने का राजमार्ग पा लिया।    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भगवान की नजरो से कौन बचा है?

🔴 ऋषिवर के आश्रम मे एक दिन एक राहगीर आया और ऋषिवर को सादर प्रणाम के बाद उसने ऋषिवर के सामने अपनी एक जिज्ञासा प्रकट की हॆ नाथ, मैंने किसी के साथ कुछ गलत नही किया और ना ही मैं किसी के साथ कुछ गलत करना चाहता हुं पर ये संसार मेरे बारे मे न जाने क्या क्या कहता है और सोचता है मैं क्या करूँ देव?

🔵 ऋषिवर - हॆ वत्स पहले जो मैं कहूँ उसे ध्यान से सुनना!

🔴 राहगीर - जी गुरुदेव!

🔵 ऋषिवर - एक नगर मे एक नर्तकी रहती थी उसके घर के सामने एक ब्राह्मण रहता था और पिछे एक साधु की कुटिया थी! साधु रोज नगर जाते और मन्दिर जाते नगरवासियों की सेवा करते और आकर कुटिया मे अपना काम करते साधु बड़े भले थे किसी को कभी किसी काम के लिये मना नही किया! नर्तकी अकेली थी और उसका पेशा नृत्य करना था वो नृत्य करके जीवन बीता रही थी ब्राह्मण अत्यंत गरीब था और अकेला था मज़दूरी करके जीवन यापन कर रहा था और दिनभर श्री भगवान के गुणगान मे तल्लीन रहता था!

🔵 साधु की बड़ी प्रसिद्धि थी और ब्राह्मण के बारे मे उल्टीसीधी बाते होती थी!

🔴 समय बीतता गया संयोगवश तीनो की एक ही समय मे मृत्यु हुई ब्राह्मण और नर्तकी को बैकुंठ मिला और साधु को पहले नर्क फिर वापिस मृत्युलोक मे भेज दिया गया!

 
🔵 राहगीर - क्षमा हॆ नाथ पर ऐसा कैसे हुआ?

🔴 ऋषिवर - हॆ वत्स साधु जब भी मन्दिर जाता तो उस ब्राह्मण और नर्तकी को कई बार बात करते हुये देखता और वो यही सोचता रहता की काश मेरा घर इस ब्राह्मण के यहाँ होता तो कितना अच्छा होता वो साधु रात दिन उस नर्तकी के विचारों मे ही खोया हुआ रहता था संसार के सामने उसने चतुराई से प्रसिद्धि पाई पर ठाकुर की नजरो से कौन बचा है?

🔵 और नर्तकी मन से बड़ी दुःखी रहती थी एक बार वो ब्राह्मण के घर गई तो ब्राह्मण ने उसे कहा कहो देवी आज यहाँ कैसे आई और जैसे ही उस ब्राह्मण ने उसे देवी कहा नर्तकी फूटफूटकर रोने लगी और कहने लगी ये सारा संसार मुझे हेय द्रष्टि से देखता है और हॆ ब्राह्मण देव आप और वो साधु जी कितने भाग्यशाली है जिसे ईश्वर के गुणगान का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है और फिर उस ब्राह्मण ने उसे समझाया और भगवान की भक्ति की राह से जोड़ा!

🔴 अब नर्तकी का सम्पुर्ण ध्यान भगवान श्री भगवान के चरणों मे लगा रहता चौबीसों घण्टे वो भगवान श्री भगवान मे खोई रहती और जब कोई समस्या आती तो वो ब्राह्मण के पास जाती और उनसे उस समस्या पर बातचीत करती!

🔵 जब दोनो बात करते थे तो संसार ब्राह्मण के बारे मे न जाने क्या क्या उल्टी सीधी बाते करते थे फिर एक दिन उस नर्तकी ने कहा हॆ ब्राह्मण देव आपने जो मुझे भगवान भक्ति से जोड़ा है आपका इस जीवन पर ये वो उपकार है जिससे मैं कभी उऋण नही हो पाऊंगी पर हॆ देव ये संसार आपके बारे मे न जाने क्या क्या बाते करता है!

🔴 तो ब्राह्मण ने बहुत ही सुन्दर जवाब दिया, ब्राह्मण देव ने कहा

🔵 संसार आपके और हमारे बारे मे क्या सोचता है क्या कहता है वो इतना महत्वपूर्ण नही है यदि हम अपनी नजरो मे सही है तो फिर संसार कुछ भी सोचे सोचने दो कुछ भी कहे कहने दो क्योंकि संसार कुछ तो कहेगा कुछ तो सोचेगा बिना सोचे बिना कहे तो रह ही नही सकता है!

🔴 अरे जब राम और कृष्ण तक को नही बक्शा इस संसार ने तो आप और हम क्या चीज है!

🔵 अरे हम तो अपना निर्माण करे ना, हम भला क्यों किसी और की सोच की परवाह करे!

🔴 जिसकी जैसी प्रवर्ति होगी उसका वैसा स्वभाव होगा और जिसकी जैसी प्रवर्ति होगी स्वयं नारायण उसके जीवन मे वैसे ही साथी भेज देंगे!

🔵 अपनी प्रवर्ति और स्वभाव अपने काम आयेगा और औरों का स्वभाव और प्रवर्ति औरों के काम आयेगी!

🔴 यदि हमने अपनी और अपने भगवान की नजरो मे अपने आपको बना लिया तो फिर और क्या चाहिये, और यदि हम अपनी और भगवान की नजरो मे न बन पायें तो फिर क्या मतलब?

🔵 संसार क्या सोचे सोचने दो, संसार क्या कहे कहने दो लक्ष्य पर एकाग्रचित्त हो जाओ!

🔴 संसार की सेवा करते रहो संसार सेवा के लायक है विश्वास के लायक नही और विश्वास करो नारायण पर क्योंकि एक वही नित्य है बाकी सब अनित्य है और जो अनित्य है उसके लिये क्यों व्यथित होते हो? व्यथित होना ही है तो उस परमात्मा के लिये होवे ना किसी और के लिये क्यों एक वही सार है बाकी सब बेकार है!

🔵 अब कुछ समझ मे आया वत्स बस एक ध्यान रखना की स्वयं की नजर और नारायण की नजर दो अति महत्त्वपूर्ण है !

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 22) 13 Jan

🌹 अशौच में प्रतिबंध

🔴 जन्म और मरण का सूतक तथा स्त्रियों का रजोदर्शन होने की अवधि को अस्पर्श जैसी स्थिति का माना जाता है। उन दिनों गायत्री उपासना भी बन्द रखने के लिए कहा जाता है। इसको औचित्य-अनौचित्य का विश्लेषण करने से पूर्व यह जान लेना चाहिए कि सूतक एवं रजोदर्शन के समय सम्बन्धित व्यक्तियों के प्रथक रखने का कारण उत्पन्न हुई अशुद्धि की छूत से अन्यों को बचाना है। साथ ही इन अव्यवस्था के दिनों में उन्हें शारीरिक, मानसिक श्रम से बचाना भी है। यही सभी बातें विशुद्ध रूप से स्वच्छता-नियमों के अन्तर्गत आती हैं। अस्तु प्रतिबन्ध भी उसी स्तर के होने चाहिए, जिससे अशुद्धता का विस्तार न होने पाये। विपन्न स्थितियों में फंसे हुए व्यक्तियों पर से यथासम्भव शारीरिक, मानसिक दबाव कम करना इन प्रतिबन्धों का मूलभूत उद्देश्य है।

🔵 भावनात्मक उपासना क्रम इन अशुद्धि के दिनों में भी जारी रखा जा सकता है। विपन्नता की स्थिति में ईश्वर की शरणागति, उसकी उपासनात्मक समीपता हर दृष्टि से उत्तम है। उन दिनों यदि प्रचलित छूत परम्परा को निभाना हो तो इतना ही पर्याप्त है कि पूजा उपकरणों का स्पर्श न किया जाय। देवपूजा का विधान-कृत्य न किया जाय। मानसिक उपासना में किसी भी स्थिति में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। मुंह बन्द करके—बिना माला का उपयोग किये, मानसिक, जप, ध्यान इन दिनों भी जारी रखा जा सकता है। इससे अशुद्धि का भाव हलका होने में भी सहायता मिलती है।

🔴 सूतक किसको लगा, किसको नहीं लगा, इसका निर्णय इसी आधार पर किया जा सकता है कि जिस घर में बच्चे का जन्म या किसी का मरण हुआ है, उसमें निवास करने वाले प्रायः सभी लोगों को सूतक लगा हुआ माना जाय। वे भले ही अपने जाति-गोत्र के हों या नहीं। पर उस घर से अन्यत्र रहने वाले—निरन्तर सम्पर्क में न आने वालों पर सूतक का कोई प्रभाव नहीं हो सकता, भले ही वे एक कुटुम्ब-परम्परा या वंश, कुल के क्यों न हों। वस्तुतः सूतक एक प्रकार की अशुद्धि-जन्य छूत है, जिसमें संक्रामक रोगों की तरह सम्पर्क में आने वालों को लगने की बात सोची जा सकती है यों अस्पतालों में भी छूत या अशुद्धि का वातावरण रहता है, पर सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों अथवा साधनों को उससे बचाने की सतर्कता रखने पर भी सम्पर्क और सामंजस्य बना ही रहता है। इतना भर होता है कि अशुद्धि के सम्पर्क के समय विशेष सतर्कता रखी जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 5

कीमत चुकाइए

🔴 इसलिए मित्रो! ऊँचा उठने और श्रेष्ठ बनने के लिए जिस चीज की, जिस परिश्रम की जरूरत है, उसके लिए आप कमर कसकर खड़े हो जाइए। कीमत चुकाइए और सामान खरीदिये। पाँच हजार रुपए लाइए, हीरा खरीदिये। नहीं साहब, पाँच पैसे का हीरा खरीदूँगा। बेटे, पाँच पैसे का हीरा न किसी ने खरीदा है और न कहीं मिल सकता है। सस्ते में मुक्ति बेटे हो ही नहीं सकती। अगर तुम कठिन कीमत चुकाना चाहते हो तो सुख- शांति पा सकते हो। सूख और शांति पाने के लिए हमको कितनी मशक्कत करनी पड़ी है, आप इससे अंदाजा लगा लीजिए। सुख बड़ा होता है या शांति? पैसे वाला बड़ा होता है या ज्ञानवान? बनिया बड़ा होता है या पंडित? तू किसको प्रणाम करता है- बनिया को या पंडित को और किसके पैर छूता है?

🔵 लालाजी के या पंडित जी के? पंडित जी के। क्यों? क्योंकि वह बड़ा होता है। ज्ञान बड़ा होता है और धन कमजोर होता है। इसलिए सुख की जो कीमत हो सकती है, शांति की कीमत उससे ज्यादा होनी चाहिए। सुख के लिए जो मेहनत, जो मशक्कत, जो कठिनाई उठानी पड़ती है, शांति के लिए उससे ज्यादा उठानी पड़ती है और उठानी भी चाहिए। आपको यदि यह सिद्धांत समझ में आ जाए तो में समझूँगा कि आपने कम से कम वास्तविकता को जमीन पर खड़ा होना तो सीख लिया। आप इस पर अपनी इमारत भी बना सकते हैं और जो चीज पाना चाहते हैं, वह पा भी सकते"।

🔴 इतना बताने के बाद अब मैं आपको क्रियायोग की थोड़ी सी जानकारी देना चाहूँगा। उपासना की सामान्य प्रक्रिया हम आपको पहले से बताते रहे हैं। इसमें सबसे पहला प्रयोग चाहे वह उपासना के पंचवर्षीय साधनाक्रम में शामिल हो, चाहे हवन में, चाहे अनुष्ठान में, पाँच कृत्य आपको अवश्य करने पड़ते हैं। ये आत्मशोधन की प्रक्रिया पाँच हैं- (( १ )) पवित्रीकरण करना (२) आचमन करना (३) शिखाबंधन (४) प्राणायाम और (५) न्यास इन चीजों के माध्यम से मैंने आपको एक दिशा दी है, एक संकेत दिया है। हमने यह नियम बनाया है कि आपको स्नान करना चाहिए, प्राणायाम करना चाहिए, न्यास करना चाहिए। इन माध्यमों से आपको अपनी प्रत्येक इंद्रिय का परिशोधन करना चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 16) 13 Jan

🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये

🔵 व्यवस्थारत होकर उन्होंने सम्पत्ति तो जुटा ली पर कभी भी अपव्यय में उसका दुरुपयोग नहीं किया सदा सदा जीवन उच्च विचार का ही सिद्धान्त अपनाया। समृद्धि उनकी चेरी बनी पर व्यक्तिगत उपभोग के लिए नहीं, लोक मंगल के लिए। जब वे मरे तो वे बीस लाख पौण्ड से भी अधिक धनराशि छोड़ गये। सामान्य व्यक्तियों की भांति आगामी पीढ़ियों को गुलछर्रे उड़ाने मौज मजा करने के लिए उन्होंने अपनी सम्पदा को नहीं छोड़ा वे एक वसीयत बनाकर गये जो उन्हें अमर कर गई। मानव की विशिष्ट सेवा में लगे विभिन्न क्षेत्रों के पांच व्यक्तियों को जो पुरस्कार हर वर्ष वितरित किया जाता है वह अल्फ्रेड नोबुल की उदारता का ही परिणाम है।

🔴 अमेरिका के प्रसिद्ध अरबपति रॉकफेलर की गणना विश्व के समृद्धतम व्यक्तियों में होती है। पर यह कम ही व्यक्ति जानते हैं कि उन्होंने अपना आरम्भिक जीवन घोर विपन्नता में बिताया। अपना तथा अपनी मां का पेट भरने के लिए वे एक पड़ौसी के मुर्गी खाने में सवा रुपया रोज पर काम करते। यह कार्य भी हफ्ते में कुछ ही दिन मिल पाता था। अतएव मेहनत मजदूरी का अन्य मार्ग भी ढूंढ़ना पड़ता था। बचत करने का गुण बचपन से ही उनमें था। थोड़ी-थोड़ी राशि बचाते हुए आगे चलकर उन्होंने स्वतन्त्र व्यवसाय आरम्भ कर दिया पचास वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते अपने प्रचण्ड पुरुषार्थ एवं आत्म-विश्वास के सहारे वे मूर्धन्य समृद्धों की श्रेणी में जा पहुंचे।

🔵 आज सारे विश्व के सम्पन्न और प्रसिद्ध व्यक्ति जिस कम्पनी की कारें प्रयोग में लाते हैं तथा जो समृद्धि-प्रतिष्ठा का चिन्ह समझी जाती हैं वे फोर्ड कम्पनी की ही हैं। इसके अधिष्ठाता एवं संचालक हैं हैनरी फोर्ड। प्रतिवर्ष फोर्ड मोटर कम्पनी की गाड़ियां करोड़ों की संख्या में बिकती हैं। हैनरी के पिता एक सामान्य किसान थे। आजीविका का एक मात्र साधन था कृषि। अर्थाभाव के कारण हैनरी की उच्च शिक्षा की व्यवस्था नहीं बन सकी। पढ़ने के साथ-साथ परिवार के भरण-पोषण के लिए भी स्वयं हैनरी को ही प्रयास करना पड़ता था। एक फर्म में अन्ततः उन्हें पढ़ाई छोड़कर नौकरी करनी पड़ी, नौकरी से ही थोड़ी-थोड़ी बचत करते हुए उनने इतनी रकम एकत्रित कर ली कि फोर्ड मोटर कम्पनी की नींव पड़ सके। सत्तर वर्ष के भीतर ही भीतर यह कम्पनी प्रतिवर्ष दस लाख गाड़ियां तैयार करके बेचने लगी। गाड़ियां अपनी कार्य क्षमता एवं टिकाऊपन के कारण दिन प्रतिदिन लोकप्रिय होती गयीं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 70)

🌹 बौद्धिक क्रान्ति की तैयारी

🔴 (7) मधुर भाषण, शिष्टाचार, नम्रता, सज्जनता, स्वच्छता, सदा प्रसन्न रहना, नियमितता, मितव्ययिता, सादगी, श्रमशीलता, तितिक्षा, सहिष्णुता जैसे सद्गुणों को विकसित करने के लिए आवश्यक उपाय कराये जावेंगे। बौद्धिक और व्यवहारिक प्रशिक्षण का मनोवैज्ञानिक क्रम इस प्रकार रहेगा जिससे शिक्षार्थी को सद्गुणी बनने का अधिकाधिक अवसर मिले।

🔵 (8) जीवन में विभिन्न अवसरों पर आने वाली समस्याओं को हल करने के लिये ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जायगा, जिसके आधार पर शिक्षार्थी हर परिस्थिति में सुखी और सन्तुलित रहकर प्रगति की ओर अग्रसर हो सके।

🔴 (9) दाम्पत्ति-जीवन में आवश्यक विश्वास, प्रेम तथा सहयोग रखने, बालकों को सुविकसित बनाने तथा परिवार में सुव्यवस्था रखने के सिद्धान्तों एवं सूत्रों का प्रशिक्षण।

🔵 (10) आध्यात्मिक उन्नति एवं मानव जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने का सुव्यवस्थित एवं व्यवहार में आ सकने योग्य कार्यक्रम बनाकर चलने का परामर्श एवं निष्कर्ष।

🔴 उपरोक्त आधार पर एक महीने की प्रशिक्षण व्यवस्था बनाई गई है। सप्ताह में छह दिन शिक्षा चलेगी, एक दिन छुट्टी रहेगी, जिसका उपयोग शिक्षार्थी मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, महावन, दाऊजी, गोवर्द्धन, नन्दगांव, बरसाना, राधाकुण्ड आदि ब्रज के प्रमुख तीर्थों को देखने में कर सकेंगे। शिक्षण का कार्यक्रम काफी व्यस्त रहेगा, इसलिये उत्साही एवं परिश्रमी ही उसका लाभ उठा सकेंगे। आलसी, अवज्ञाकारी, व्यसनी तथा उच्छृंखल प्रकृति के लोग न आवें तो ही ठीक है।

🔵 यह शिक्षा पद्धति बहुत महत्वपूर्ण है पर स्थान सम्बन्धी असुविधा तथा अन्य कठिनाइयों के कारण अभी थोड़े-थोड़े शिक्षार्थी ही लिए जा सकेंगे। जिन्हें आना हो पूर्व स्वीकृति प्राप्त करके ही आवें। बिना स्वीकृति प्राप्त किये, अनायास या कम समय के लिए आने वाले इस शिक्षण में प्रवेश न पा सकेंगे।

🔴 परिवार के सदस्यों में से जिन्हें अपने लिए यह उपयुक्त लगे वे अपने आने के सम्बन्ध में पत्र व्यवहार द्वारा महीना निश्चित करलें, क्योंकि शिक्षार्थी अधिक और व्यवस्था कम रहने से क्रमशः ही स्थान मिल सकना सम्भव होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 21)

🌞 समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग

🔴 अध्यात्म प्रयोजनों के लिए गुरु स्तर के सहायक की इसलिए आवश्यकता पड़ती है कि उसे पिता और अध्यापक का दुहरा उत्तरदायित्व निभाना पड़ता है। पिता बच्चे को अपनी कमाई का एक अंश देकर पढ़ने की सारी साधन सामग्री जुटाता है। अध्यापक उनके ज्ञान अनुभव को बढ़ाता है। दोनों के सहयोग से ही बच्चे का निर्वाह और शिक्षण चलता है। भौतिक निर्वाह की आवश्यकता तो पिता भी पूरा कर देता है, पर आत्मिक क्षेत्र में प्रगति के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है, उसमें मनःस्थिति के अनुरूप मार्गदर्शन करने तथा सौंपे हुए कार्य को कर सकने के लिए आवश्यक सामर्थ्य गुरु अपने संचित तप भण्डार में से निकालकर हस्तांतरित करता है। इसके बिना अनाथ बालक की तरह शिष्य एकाकी पुरुषार्थ के बलबूते उतना नहीं कर सकता, जितना कि करना चाहिए, इसी कारण-‘‘गुरु बिन होई न ज्ञान’’ की उक्ति अध्यात्म क्षेत्र में विशेष रूप से प्रयुक्त होती है।

🔵 दूसरे लोग गुरु तलाश करते फिरते भी हैं, पर सुयोग्य तक जा पहुँचने पर निराश होते हैं। स्वाभाविक है, इतना घोर परिश्रम और कष्ट सह कर की गई कमाई ऐसे ही कुपात्र और विलास संग्रह, अहंकार, अपव्यय के लिए हस्तांतरित नहीं की जा सकती। देने वाले में इतनी बुद्धि भी होती है कि लेने वाले की प्रामाणिकता किस स्तर की है, जो दिया जा रहा है, उसका उपयोग किस कार्य में होगा, यह भी जाँचें। जो लोग इस कसौटी पर खोटे उतरते हैं, उनकी दाल नहीं गलती। इन्हें वे ही लोग मूँड़ते हैं, जिनके पास देने को कुछ नहीं है। मात्र शिकार फँसाकर शिष्य से जिस-तिस बहाने दान-दक्षिणा माँगते रहते हैं। प्रसन्नता की बात है कि इस विडंबना भरे प्रचलित कुचक्र में हमें नहीं फँसना पड़ा। हिमालय की एक सत्ता अनायास ही घर बैठे मार्गदर्शन के लिए आ गई और हमारा जीवन धन्य हो गया।

🔴  हमें इतने समर्थ गुरु अनायास ही कैसे मिले? इस प्रश्न का एक ही समाधान निकलता है कि उसके लिए लम्बे समय से जन्म-जन्मांतरों में पात्रता अर्जन की धैर्य पूर्वक तैयारी की गई। उतावली नहीं बरती गई। बातों में फँसाकर किसी गुरु की जेब काट लेने जैसी उस्तादी नहीं बरती गई, वरन् यह प्रतीक्षा की गई कि अपने नाले को किसी पवित्र सरिता में मिलाकर अपनी हस्ती का उसी में समापन किया जाए। किसी भौतिक प्रयोजन के लिए इस सुयोग की ताक-झाँक नहीं की गई, वरन् यही सोचा जाता रहा कि जीवन की श्रद्धांजलि किसी देवता के चरणों में समर्पित करके धन्य बनाया जाए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 21)

🌞  हिमालय में प्रवेश

आलू का भालू

🔵 भालू की बात जो घण्टे भर पहले बिलकुल सत्य और जीवन- मरण की समस्या मालूम पड़ती रही, अन्त में एक और भ्रान्ति मात्र सिद्ध हुई। सोचता हूँ कि हमारे जीवन में ऐसी अनेकों भ्रांतियाँ घर किये हुए हैं और उनके कारण हम निरन्तर डरते रहते हैं पर अन्तत: वे मानसिक दुर्बलता मात्र साबित होती हैं। हमारे ठाट- बाट, फैशन और आवास में कमी आ गई तो लोग हमें गरीब और मामूली समझेंगे, इस अपडर से, अनेकों  लोग अपने इतने खर्चे बढ़ाए रहते हैं जिनकों पूरा करना कठिन पड़ता है। लोग क्या कहेंगे यह बात चरित्र पतन के समय याद आवे तो ठीक भी है; पर यदि यह दिखावे मे कमी के समय मन में आवे तों यहीं मानना  पडे़गा कि वह अपडर मात्र है, खर्चीला भी और व्यर्थ भी। सादगी से रहेंगे, तो गरीब समझे जायेंगे कोई हमारी इज्जत न करेगा। यह भ्रम दुर्बल मस्तिष्कों में ही उत्पन्न होता है, जैसे कि हम लोगों को एक छोटी- सी नासमझी के कारण भालू का डर हुआ था।

🔴 अनेकों चिन्ताएँ परेशानियाँ, दुबिधाएँ, उत्तेजनाएँ, वासनाएँ तथा दुर्भावनाएँ आए दिन सामने खडी़ रहती हैं लगता है यह संसार बड़ा दुष्ट और डरावना हैं। यहाँ की हर वस्तु भालू की तरह डरावनी है; पर जब आत्मज्ञान का प्रकाश होता है, अज्ञान का कुहरा फटता है, मानसिक दौर्बल्य घटता है, तो प्रतीत होता हें कि जिसे हम भालू समझते थे, वह तो पहाड़ी गाय थी। जिन्हें शत्रु मानते हैं वे तो हमारे अपने ही स्वरूप हैं । ईश्वर अंश मात्र हैं। ईश्वर हमारा प्रियपात्र है तो उसकी रचना भी मंगलमय होनी चाहिए। उसे जितने विकृत रूप में हम चित्रित करते हैं, उतना ही उससे डर लगता है। यह अशुद्ध चित्रण हमारी मानसिक भ्रान्ति है, वैसी ही जैसी कि कुली के शब्द आलू को भालू समझकर उत्पन्न कर ली गई थी। 

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 20)

🌞  हिमालय में प्रवेश

आलू का भालू

🔵 कुहरा कुछ कम हुआ आठ बज रहे थे। सूर्य का प्रकाश भी दीखने लगा। घनी वृक्षा वली भी पीछे रह गई, भेड- बकरी चराने वाले भी सामने दिखाई दिये। हम लोगों ने सन्तोष की साँस ली। अपने को खतरे से बाहर अनुभव किया और सुस्ताने के लिए बैठ गये। इतने में कुली भी पीछे से आ पहुँचा। हम लोगों को घबराया हुआ देखकर वह कारण पूछने लगा। साथियों ने कहा- तुम्हारे बताये हुए भालुओं से भगवान् ने जान वचा दी, पर तुमने अच्छा धोखा दिया बजाय उपाय बताने के तुम खुद छिपे रहे।

🔴 कुली सकपकाया उसने समझा उन्हें कुछ भ्रम हो गया। हमलोगों ने उसके इशारे से भालू बताने की बात दुहराई तो वह सब बात समझ गया कि हम लोगो को क्या गलतफहमी हुई है। उसने कहा- झेलागाँव का आलू मशहूर बहुत बड़ा- बड़ा पैदा होता है, ऐसी फसल इधर किसी गाँव में नहीं होती वही बात मैंने अँगुली के इशारे से बताई थी। झाला का आलू कहा था आपने उसे भालू समझा। वह काले जानवर तो यहाँ की काली गायें हैं, जो दिन भर इसी तरह चरती फिरती हैं। कुहरे के कारण ही वे रीछ जैसी आपको दीखी। यहाँ भालू कहाँ होते हैं वे तो और ऊपर पाए जाते हैं आप व्यर्थ ही डरे। मैं तो टट्टी करने के लिए छोटे झरने के पास बैठ गया था। साथ होता तो आपका भ्रम उसी समय दूर कर देता।

🔵 हम लोग अपनी मूर्खता पर हँसे भी और शर्मिन्दा भी हुए। विशेषतया उस साथी को जिसने कुली की बात को गलत तरह समझा, खूब लताडा गया। भय मजाक में बदल गया। दिन भर उस बात की चर्चा रही। उस डर के समय में जिस- जिस ने जो- जो कहा था और किया था उसे चर्चा का विषय बनाकर सारे दिन आपस की छीटाकशी चुहलबाजी होती रही। सब एक दूसरे को अधिक डरा हुआ परेशान सिद्ध करने में रस  लेते। मंजिल आसानी से कट गई। मनोरंजन का अच्छा विषय रहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 20)

🌞 समर्थगुरु की प्राप्ति-एक अनुपम सुयोग

🔴 रामकृष्ण, विवेकानन्द को ढूँढ़ते हुए उनके घर गए थे। शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ने खोजा था। चाणक्य चन्द्रगुप्त को पकड़ कर लाए थे। गोखले गाँधी पर सवार हुए थे। हमारे सम्बन्ध में भी यही बात है। मार्गदर्शक सूक्ष्म शरीर से पंद्रह वर्ष की आयु में घर आए थे और आस्था जगाकर उन्होंने दिशा विशेष पर लगाया था।

🔵 सोचता हूँ कि जब असंख्य सद्गुरु की तलाश में फिरते और धूर्तों से सिर मुड़ाने के उपरांत खाली हाथ वापस लौटते हैं, तब अपनी ही विशेषता थी, जिसके कारण एक दिव्य शक्ति को बिना बुलाए स्वेच्छापूर्वक घर आना और अनुग्रह बरसाना पड़ा। इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि जन्मान्तरों से पात्रता के अर्जन का प्रयास। यह प्रायः जल्दी नहीं हो पाता। व्रतशील होकर लंबे समय तक कुसंस्कारों के विरुद्ध लड़ना होता है।

🔴 संकल्प, धैर्य और श्रद्धा का त्रिविध सुयोग अपनाए रहने पर मनोभूमि ऐसी बनती है कि अध्यात्म के दिव्य अवतरण को धारण कर सके। यह पात्रता ही शिष्यत्व है, जिसकी पूर्ति कहीं से भी हो जाती है। समय पात्रता विकसित करने में लगता है, गुरु मिलने में नहीं। एकलव्य के मिट्टी के द्रोणाचार्य असली की तुलना में कहीं अधिक कारगर सिद्ध होने लगे थे। कबीर को अछूत होने के कारण जब रामानंद ने दीक्षा देने से इंकार कर दिया, तो उनने एक युक्ति निकाली।

🔵 काशी घाट की जिस सीढ़ियों पर रामानंद नित्य स्नान के लिए जाया करते थे, उन पर भोर होने से पूर्व ही कबीर जा लेटे, रामानंद अँधेरे में निकले, तो पैर लड़के के सीने पर पड़ा। चौंके राम-नाम कहते हुए पीछे हट गए। कबीर ने इसी को दीक्षा संस्कार मान लिया और राम-नाम को मंत्र तथा रामानंद को गुरु कहने लगे। यह श्रद्धा का विषय है। जब पत्थर की प्रतिमा देवता बन सकती है, तो श्रद्धा के बल पर किसी उपयुक्त व्यक्तित्व को गुरु क्यों नहीं बनाया जा सकता? आवश्यक नहीं कि इसके लिए विधिवत् संस्कार कराया ही जाए, कान फुकवाए ही जाएँ।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 69)

🌹 बौद्धिक क्रान्ति की तैयारी

🔴  (3) इस एक मास में प्रत्येक शिक्षार्थी दो गायत्री अनुष्ठान पूरे करेगा एक पूर्णिमा से अमावस्या तक दूसरा अमावस्या से पूर्णिमा तक। जिन्हें कोई विशेष उपासना की आवश्यकता समझी जायगी उन्हें वे भी बता दी जायगी।

🔵 (4) शरीर एवं मन के शोधन के लिए जो सज्जन चान्द्रायण व्रत करना चाहेंगे उन्हें आवश्यक देख-रेख के साथ उसे आरम्भ कराया जायगा। जो वैसा न कर सकेंगे उन्हें दूध कल्प, छाछ कल्प, शाक कल्प, फल कल्प, अन्न कल्प आदि के लिए कहा जायगा। जो उसे भी न कर सकेंगे उन्हें चिकित्सा विभाग की एक विशेष पद्धति द्वारा अन्न कल्प कराया जायगा, जो बालकों तक के लिए सुगम हो सकता है। इन व्रतों का परिणाम शारीरिक ही नहीं, मानसिक परिशोधन की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है।

🔴 (5) प्राकृतिक चिकित्सा विधि से शिक्षार्थियों के पेट सम्बन्धी रोगों की चिकित्सा इस अवधि में होती रहेगी और यह प्रयत्न किया जायगा कि पाचन यन्त्र की विकृति को सुधारने के लिए अधिक से अधिक उपचार किया जाय। पाचन-तन्त्र के उदर रोगों के अतिरिक्त अभी अन्य रोगों की चिकित्सा का प्रबन्ध यहां नहीं हो पाया है। उपवास, एनेमा, मिट्टी की पट्टी, टब बाथ, सूर्य स्नान, आसन, प्राणायाम, वाष्प स्नान, मालिश आदि उपचारों का लाभ देने के अतिरिक्त इस विज्ञान की आवश्यक शिक्षा भी दी जायगी ताकि अपने या दूसरों के स्वास्थ्य-संकट को निवारण कर सकने में यह शिक्षार्थी समर्थ हो सकें।

🔵  (6) आवेश, ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता निराशा, भय, क्रोध, चंचलता उद्विग्नता, संशय, इन्द्रिय, लोलुपता, व्यसन, आलस, प्रमाद जैसे मनोविकारों का उपचार प्रवचनों द्वारा वस्तुस्थिति समझाकर विशिष्ठ आध्यात्मिक साधनाओं द्वारा तथा व्यवहारिक उपाय बताकर किया जायगा। प्रयत्न यह होगा कि मानसिक दृष्टि से भी शिक्षार्थी रोग मुक्त होकर जाय।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 15) 12 Jan

🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये

🔵 जन्म से ही तरह-तरह की अनुकूलताएं किन्हीं-किन्हीं विरलों को ही प्राप्त होती हैं। अधिकांश को प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता तथा अपना मार्ग स्वयं गढ़ना पड़ता है। कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी व्यक्ति अपना आत्म विश्वास साहस एवं सूझ बूझ बनाये रखे तो कोई कारण नहीं कि उन पर विजय न प्राप्त कर सके। निराशा जन्य मनःस्थिति ही जीवन की असफलताओं का प्रमुख कारण बनती है तथा चट्टान की भांति प्रगति के मार्ग में अवरोध बनकर अड़ी रहती है अस्तु प्रगति के इच्छुक व्यक्तियों को सर्वप्रथम इस अवरोध को हटाना पड़ता है।

🔴 अर्थाभाव के कारण हजारों लाखों नहीं करोड़ों लोग दिन रात चिन्ता और निराशा की अग्नि में जलते रहते तथा उत्तुंग लहरों के बीच थपेड़े खाती नाव की भांति अपनी जीवन नैया खेने का प्रयास करते रहते हैं। पर जिन्होंने निराशा के घोर क्षणों में भी आशा और पुरुषार्थ की पतवार का आश्रय लिया उनने न केवल परिस्थितियों को परास्त कर दिखाया वरन् यह भी सिद्ध कर दिया कि प्रयास करने पर मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। ढूंढ़ने पर ऐसे अनुकरणीय उदाहरण असंख्यों मिल जायेंगे।

🔵 बहु प्रख्यात नोबुल पुरस्कार से अधिकांश व्यक्ति परिचित होंगे। इसके प्रवर्तक थे अल्फ्रेड नोवल। इस तथ्य के कम ही व्यक्ति अवगत होंगे कि नोबेल ने अपना प्रारम्भिक जीवन घोर कष्टों में बिताया। उनके पिता एक जहाज में कैविन बॉय के रूप में काम करते थे। बाद में उनकी रुचि विस्फोटक पदार्थों के आविष्कार में हुई। इस कार्य में ही उन्हें अपना जीवन गंवा देना पड़ा। अल्फ्रेड नोवेल और उनकी विधवा मां के पास गुजारे के लिए पैतृक सम्पत्ति के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं थी। निर्वाह के लिए नोवेल मेहनत मजदूरी करने लगे। सामान्य व्यक्तियों की तरह सम्पन्नता अर्जित करने की चाह तो अल्फ्रेड में भी थी पर इसके पीछे लक्ष्य महान था आमोद-प्रमोद से भरा विलासिता युक्त जीवन बिताने को वे एक अपराध मानते थे।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 4

कमाना कठिन, गँवाना सरल

🔴 मित्रो! पच्चीस हजार रुपए कमाना कितना कठिन होता है, कितना जटिल होता है, आप सभी जानते हैं। इसी तरह जीवन को, व्यक्तित्व को बनाना, विकसित करना कितना कठिन, कितना जटिल है? यह उन लोगों से पूछिए जिन्होंने सारी जिन्दगी मेहनत- मशक्कत की और आखिर के दिनों में पंद्रह हजार रुपए का मकान बना पाए। देखिए साहब, अब हम मर रहे हैं, लेकिन हमने इतना तो कर लिया कि अपने बाल- बच्चों के लिए एक मकान बनाकर छोड़े जा रहे हैं। निज का मकान तो है। पंद्रह हजार रुपए बेटा क्या है? पंद्रह हजार रुपए हमारी सारी जिन्दगी की कीमत है। जिन्दगी की कीमत किसे कहते हैं? अपने व्यक्तित्व को बनाना, अपने जीवन को बनाना, अपनी जीवात्मा को महात्मा, देवता बनाना और परमात्मा बनाना, यह विकास कितना बड़ा हो सकता है? इसके लिए कितना संघर्ष करना चाहिए, कितनी मेहनत करनी चाहिए, कितना परिश्रम और कितना परिष्कार करना चाहिए।

🔵 अगर आपके मन में यह बात नहीं आई और आप यही कहते रहे कि सरल रास्ता बताइए, सस्ता रास्ता बताइए, तो मैं यह समझूँगा कि आप जिस चीज को बनाना चाहते हैं, असल में उसकी कीमत नहीं जानते। कीमत जानते होते तो आपने सरल रास्ता नहीं पूछा होता। आप इंग्लैण्ड जाना चाहते है? अच्छा साहब इंग्लैण्ड जाने के लिए छह हजार रुपए लाइए, आपको हवाई जहाज का टिकट दिलवाएँ। नहीं साहब, इतने पैसे तो नहीं खरच कर सकते। क्या करना चाहते हैं? सरल रास्ता बताइए इंग्लैण्ड जाने का।

🔴 इंग्लैण्ड जाने का सरल रास्ता जानना चाहते हैं? कैसा सरल रास्ता बताऊँ बेटे? बस गुरुजी ज्यादा से ज्यादा मैं छह नए पैसे खरच कर सकता हैं, पहुँचा दीजिए न। अच्छा ला छह नए पैसे। इंग्लैण्ड अभी चुटकी में पहुँचाता हूँ। ये देख हरिद्वार मैं बैठा था और पहुँच गया इंग्लैण्ड देख ये लिखा हुआ है इंग्लैण्ड। अरे महाराज जी, यह तो आप चालाकी की बात कहते हैं। अच्छा बेटे, तू क्या कर रहा था? तू चालाकी नहीं कर रहा था। नहीं महाराज जी, भगवान तक पहुँचा दीजिए, मुफ्त में अपनी सिद्धि से पहुँचा दीजिए। यहाँ पहुँचा दीजिए वहाँ पहुँचा दीजिए। पागल कहीं का, पहुँचा दे तुझे ज़हन्नुम में। तू कहीं नहीं जा सकता, जहाँ है वहीं बैठा रह।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 21) 12 Jan

🌹 गायत्री शाप मोचन

🔴 लगता है मध्यकाल में जब चतुर धर्माध्यक्षों में अपना स्वतन्त्र मत चलाने की प्रतिस्पर्धा जोरों पर थी, तब उनने गायत्री की सर्वमान्य उपासना को निरस्त करके उसका स्थान अपनी प्रतिपादित उपासनाओं को दिलाने का प्रयत्न किया होगा। इसके लिए पूर्व मान्यता हटाने की बात मस्तिष्क में आई होगी। सीधा आक्रमण करने से सफलता की सम्भावना न देखकर बगल से हमला किया होगा। गायत्री की सर्वमान्य महत्ता को धूमिल करने के लिए, उसे शापित, कीलित होने के कारण निष्फल होने की बात कहकर लोगों में निराशा, अश्रद्धा उत्पन्न करने का प्रयत्न चला होगा और उस मनःस्थिति से लाभ उठा कर अपने सम्प्रदाय का गुरुमन्त्र लोगों के गले उतारा होगा।

🔵 इसके अतिरिक्त और कोई कारण समझ में नहीं, जिसके आधार पर गायत्री महाशक्ति के प्रमुख उपासकों द्वारा शाप देकर व्यर्थ कर दिये जाने जैसी ऊल-जुलूल बात कही जा सके। सूर्य को, बादलों को, पवन को, बिजली को, पृथ्वी को कौन शाप दे सकता है? इतना बड़ा शाप दे सकने की सामर्थ्य इस धरती के निवासियों की तो हो नहीं सकती। अस्तु, गायत्री को शाप लगने और उसके निष्फल होने की बात को किसी विकृत मस्तिष्क की उपज ही कहा जा सकता है। उसे मान्यता देने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। हर कोई बिना किसी शंका-कुशंका के गायत्री उपासना कर सकता है और उसके सत्परिणामों की आशा कर सकता है।

🔴 शाप लगने की बात को एक बुझौअल के रूप में अधिक से अधिक इतना ही महत्व दिया जा सकता है कि वशिष्ठ जैसे विशिष्ठ और विश्वामित्र जैसा विश्व-मानवता का परिपोषक व्यक्ति सहयोगी, मार्गदर्शक मिलने पर इस महान साधना के अधिक सफल होने की आशा है। जिसे ऐसा गुरु न मिलेगा उसे अंधेरे में टटोलने वाले की तरह असफल रह जाने की भी संभावना हो सकती है। गायत्री को गुरुमन्त्र कहा गया है। उसकी सफलता ब्रह्मविद्या में पारंगत वशिष्ठ स्तर के एवं तपश्चर्या की अग्निपरीक्षा में खरे उतरे हुए विश्वामित्र स्तर के गुरु मिल जाने पर सुनिश्चित होती है। अन्यथा शाप लगने और निष्फल जाने का भय बना ही रहेगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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