सोमवार, 11 जून 2018

👉 मृतक भोज के सम्बन्ध में इस प्रकार भी सोचें (अन्तिम भाग)

🔷 स्वजन के शोक के साथ मृतक-भोज की अनावश्यक, अपव्ययता के दोहरे दण्ड से बच कर वह न जाने कितना खुश होगा। हां इसमें थोड़ी सी यह बात अवश्य हो सकती है कि इस भोज के मृतक का सम्बन्धी स्वजनों एवं जातीय लोगों के आगमन से अपने तथा अपने घर को पवित्र होने की जो धारणा रखता है उसको कुछ ठेस लगेगी। इसके स्थान पर पवित्रीकरण के लिए थोड़ा कर्मकांड एवं थोड़ा दान-पुण्य स्वेच्छापूर्वक किया जा सकता है।

🔶 अब मृतक-भोज के समर्थकों एवं परिपालकों को सोचना चाहिए कि वे अपने किसी सजातीय बन्धु पर मृतक-भोज देने के लिए दबाव डाल कर कितना बड़ा अत्याचार करते हैं। किसी का घर बरबाद कर देना सामाजिकता अथवा सजातीयता इसमें है कि मृतक भोज का दण्ड देने के बजाय अपने जातीय बन्धु को अधिक से अधिक सान्त्वना दी जाये, उसे न घबराने के लिए ढांढस बंधाया जाये और यदि घर का संचालक दिवंगत हो गया है तो उसकी विधवा तथा बच्चों की यथासंभव सहायता की जाये। चाहिए तो यह कि उसकी जाति-बिरादरी के लोग और बन्धु-बांधव अपने शोक-संतप्त भाई को सान्त्वना एवं सहायता दें किन्तु लोग उससे मृतक-भोज लेकर मरे को और मार डालते हैं यदि कोई इस दण्ड का भार वहन नहीं कर पाता तो उसकी जाति बाहर करके दीन-दुनियां के अयोग्य बना देते हैं।

🔷 अपने किसी सजातीय अथवा बन्धु-बांधव की इस प्रकार उभय प्रकारेण हत्या ठीक नहीं। इससे सामाजिक एवं जातीय ह्रास होता है। बन्धु-वध जैसा पाप लगता है। अस्तु, आवश्यक है कि मृतक भोज खाने वाले इसे हर प्रकार से अनुचित समझकर इसका सर्वथा बहिष्कार करके समाज एवं जाति का उपकार करें।

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✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 भारतीय संस्कृति की रक्षा कीजिए पृष्ठ 86

👉 आत्मबोध की प्राप्ति

🔷 मनुष्य को विवेक बुद्धि प्राप्त है। इसलिए वह श्रेष्ठ है, पर यदि मनुष्य इस विवेक बुद्धि को ताक में रखकर केवल पेट-प्रजनन और लोभ-लिप्सा में ही संलग्र रहे, तो बहुत कुछ मायने में पशु भी उससे अच्छे ही सिद्ध होंगे। अप्राकृतिक आहार-विहार पशुओं को पसंद नहीं, जबकि मनुष्य अपनी प्रकृति के विपरीत अभक्ष्याभक्ष्य खाने और उदर को कब्रगाह बनाने में परहेज नहीं करता। ऐसी स्थिति में मनुष्य को मात्र शरीर संरचना के बल पर ही श्रेष्ठ कहना उचित नहीं। उसमें विद्यमान असीमित शक्ति-सामथ्र्य का जब विवेकपूर्वक समाज उत्थान, राष्ट उत्थान में नियोजन किया जाता है, तो वही व्यक्ति सच्चा इंसान, मानव कहलाने का हकदार बनता है, अन्यथा नर पशु का जीवनयापन करता हुआ पूरे समाज के लिए हानिकारक ही सिद्ध होगा।
  
🔶 बाह्य ज्ञान के समान अंत:ज्ञान का होना भी आवश्यक माना गया है। सुख- सुविधाओं की वृद्धि के साथ-साथ उनके उपयोग, उपभोग की भी समुचित जानकारी होनी चाहिए।  आत्म ज्ञान के अभाव में मनुष्य भी दर-दर की ठोंकरें खाता फिर रहा है। इस पर उसे विचार करना चाहिए कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है? इस विषय में सबसे ज्यादा खोज-अनुसंधान कार्य प्राचीन काल से भारत में ही हुआ है। भारतीय मनीषियों ने इसे सर्वसुलभ भी बनाया था, तभी भारत बहुमुखी विकास के मार्ग में आगे बढ़ सका था।
  
🔷 परमाणु सविस्तृत पदार्थ का ही एक छोटा-सा घटक है। इसी प्रकार प्रकाश ऊर्जा क्या है? दिग्-दिगन्त में विस्तृत महासूर्य का ही एक अंश है। महासागरों में उठने वाली लहरें आखिरकार उसी सागर का ही तो एक अंश है। इसी प्रकार आत्मा भी परमात्मा का ही एक अंश मात्र है। देखने में इन सभी का स्वतंत्र अस्तित्व दिखाई पड़ता  है, किन्तु यह सभी अपने मूल तत्त्व के ही एक अंश मात्र होते हैं। एक ही आकाश तत्त्व घर-घर में समाया हुआ है, जबकि है वह सभी महाकाश का भाग। ऐसे ही प्राणियों की जीवात्मा भी विश्व ब्रह्माण्ड में व्याप्त महाचेतना का ही एक अंश है।
  
🔶 आत्मा को उसके सीमित दायरे से निकालकर बाहर कर देने से संकीर्ण स्वार्थपरता का भाव तिरोहित होता चला जाता है। स्वयं को  उस समाज का अभिन्न अंग मानकर चलने से अपना महत्त्व व सम्मान भी बना रहता है। मशीन हजारों छोटे-बड़े पुर्जों को जोडक़र बनती व चलती है। उसके एक-एक पुर्जे का पृथक् कोई महत्त्व नहीं होता। इसी प्रकार मानव भी समाज रूपी विस्तृत मशीन का एक पुर्जा ही है। समाज से बाहर पृथक् उसका कोई महत्त्व नहीं है। यह बात जिसके गले जितनी जल्दी उतर सके, समझा जाना चाहिए कि उसने अपना विस्तार कर लिया। समाज में ऐसे ही लोग सम्मानित और प्रशंसित होते हैं। पृथक्तावादी अपनापन प्राणिमात्र के लिए बहुत ही प्रिय है। इस प्रकार की आत्मीयता जिस व्यक्ति, जीव या पदार्थ पर आरोपित कर दी जाती है, वही परम प्रिय प्रतीत होने लगता है।

🔷 अपना दायरा संकीर्ण कर लेने से अपने शरीर, अपने परिवार की ही सुख-सुविधा का ध्यान रखा जाता है। यदि यही प्यार का दायरा विस्तृत कर पास-पड़ौस और पूरे समाज तक फैला दिया जाय, तो अपना आत्म विस्तार होता चला जाता है। यही दायरा धीरे-धीरे सीमित से असीम तक पहँुचाया जा सकता है। परमात्मा की समस्त शक्तियाँ व गुण आत्मा में अंश रूप में विद्यमान होते हैं। उसे विकसित करने भर की आवश्यकता है। अग्रि की एक चिनगारी में वह सभी गुण विद्यमान होते हैं, जो दावानल में होते हैंं। अणु के परमाणु उसी गति व गुण, धर्म के अनुरूप गतिशील पाए जाते हैं। इस प्रकार समूचा विश्व ब्रह्माण्ड जिसमें मानवीय चेतना भी है, उसी एक महाचेतना के साथ सूक्ष्म रूप में सूत्रबद्ध होकर गतिमान हो रहे हैं।

✍🏻 पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 मेहनत की कमाई

🔷 किसी नगर में एक नारायण नाम का एक अमीर साहूकार रहता था। उसके दो संतान थी जिनमे से एक बेटा और एक बेटी थी। बेटी की शादी हुए चार साल से अधिक हो गया था और वो अपने ससुराल में बहुत खुश थी। जबकि उसका बेटा राजू वैसे तो मुर्ख नहीं था लेकिन फिर भी गलत संगति और बाप की और बचपन में दिए अधिक लाड प्यार ने उस बिगाड़ दिया था।

🔶 अपनी मेहनत की कमाई को बेटे के द्वारा यूँ उड़ाते देखकर नारायण को चिंता हुई तो उस नगर में एक गृहस्थ विद्वान थे नारायण ने उनसे सलाह मांगने की सोची। खूब बाते हुए नारायण ने उन्हें पूरी बात बताई।

🔷 दूसरे दिन नारायण ने राजू को बुलाया और बोला कि बेटा आज शाम का खाना तुम्हे तभी मिलेगा जब तुम आज कुछ कमाकर लाओगे। सुनकर राजू को रोना आ गया उसे रोता देखकर राजू के माँ की ममता पिघल गयी सो उसने उसे एक रुपया दे दिया। शाम को जब नारायण ने उसे बुलाया और उस से पुछा तो उसने एक रुपया दिखना दिया कि मैं ये कमाकर लाया हूँ इस पर राजू के पिता ने उसे उस रूपये को कुँए में फेकने के लिए कहा उसने बिना किसी हिचकिचाहट के उसे कुँए में फेक दिया क्योंकि वो उसकी मेहनत का नहीं था। अब नारायण को अपनी पत्नी पर शक हुआ तो उसने अपनी पत्नी को उसके मायके भेज दिया। दुसरे दिन भी यही परीक्षा हुई तो राजू की बहन जो मायके आई हुई थी उसने उसे रुपया दे दिया और फिर पिछली शाम की तरह उसने बिना किसी झिझक के वो भी पिता के कहने पर कुए में फेक दिया। तो फिर से नारायण को लगा कि दाल में कुछ तो काला है उसने अपनी बेटी को उसके ससुराल वापिस भेज दिया।

🔶 अब तीसरी बार राजू का इम्तिहान होना था लेकिन इस बार उसकी मदद के लिए कोई नहीं था क्योंकि माँ और बहन तो जा चुके थे और दोस्तों ने भी कुछ मदद करने से मना कर दिया। दोपहर तक सोचने के बाद उसे शाम के खाने की चिंता सता रही थी और उसे लग रहा था कि अब तो मेहनत करके ही कुछ करना पड़ेगा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सो वो एक जगह गया और दो घंटे बोझा ढोने के बाद उसे एक रुपया नसीब हुआ। पसीने से भीगा हुआ वो एक रुपया लेकर घर पहुंचा उसे लगा अब तो उसके पिता उस पर तरस खायेंगे लेकिन नारायण ने आते ही उसे उसकी कमाई के बारे में पुछा राजू ने अपनी जेब में से कड़ी मेहनत एक रुपया निकाला पहले की भांति राजू को उसने पिता ने उस रूपये को कुँए में फेक आने के लिए कहा तो राजू छटपटाया।

🔷 राजू ने कहा ‘आज मेरा कितना पसीना बहा है बस इस एक रूपये को पाने के लिए मैं इसे नहीं फेंक सकता।’ जैसे ही ये शब्द उसके मुह से निकले उसे अपनी गलती का खुद ही अहसास हो गया। नारायण खुश हुआ कि उसके बेटे को अब मेहनत के  रूपये की कीमत पता चल गयी है।

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