संसार में जितने भी सफल और समुन्नत व्यक्ति हुए हैं उनकी सफलता का एक महत्त्वपूर्ण कारण उनके सहायक भी हैं। कोई व्यक्ति चाहे कितना ही विद्वान्, बुद्धिमान्, चतुर, शक्तिवान् क्यों न हो, पर सहयोग के अभाव में लुंज-पुंज ही रहेगा। उससे कोई महत्त्वपूर्ण कार्य न बन सकेगा। असहयोग भले ही द्वेष के बराबर हानिकारक न हो, पर वह भी जीवन की प्रगति को रोक देने में एक विशालकाय पर्वत की तरह अड़कर खड़ा हो जाता है।
अपनी मनोदशा मिशन को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न और संतुष्ट होने की है। अब उसी में अपना सारा आनंद, उल्लास केन्द्रीभूत हो गया है। सो जो कोई उस दिशा में आगे बढ़ता दीखता है तो लगता है अपने कर्त्तव्य के लिए ही नहीं हमारे लिए भी बहुत कुछ करने में संलग्न है। ऐसे लोगों के प्रति हमारी श्रद्धा, कृतज्ञता, ममता और सहानुभूति का अंतःप्रवाह अनायास ही प्रवाहित होने लगता है। वस्तुतः शरीर की सेवा-समीपता से नहीं, भावना और आदर्शों की प्रखरता ही से अपने को शान्ति और संतुष्टि मिलती है।
यदि केवल हमारे व्यक्तित्व के प्रति ही श्रद्धा है, शरीर से ही मोह है और उसी की प्रशस्ति-पूजा की जाती है और मिशन की बात ताक पर उठाकर रख दी जाती है तो लगता है हमारे प्राण का तिरस्कार करते हुए केवल शरीर पर पंखा ढुलाया जा रहा हो।
अपनी मनोदशा मिशन को आगे बढ़ते देखकर प्रसन्न और संतुष्ट होने की है। अब उसी में अपना सारा आनंद, उल्लास केन्द्रीभूत हो गया है। सो जो कोई उस दिशा में आगे बढ़ता दीखता है तो लगता है अपने कर्त्तव्य के लिए ही नहीं हमारे लिए भी बहुत कुछ करने में संलग्न है। ऐसे लोगों के प्रति हमारी श्रद्धा, कृतज्ञता, ममता और सहानुभूति का अंतःप्रवाह अनायास ही प्रवाहित होने लगता है। वस्तुतः शरीर की सेवा-समीपता से नहीं, भावना और आदर्शों की प्रखरता ही से अपने को शान्ति और संतुष्टि मिलती है।
यदि केवल हमारे व्यक्तित्व के प्रति ही श्रद्धा है, शरीर से ही मोह है और उसी की प्रशस्ति-पूजा की जाती है और मिशन की बात ताक पर उठाकर रख दी जाती है तो लगता है हमारे प्राण का तिरस्कार करते हुए केवल शरीर पर पंखा ढुलाया जा रहा हो।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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