गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

👉 दो प्रेम पारखी

🔶 बहुत प्राचीन काल की बात है। इस मथुरा नगरी में वासवदत्ता नामक एक वेश्या रहती थी। उसका रूप वैभव किसी महारानी से कम न था। देश-देशों के राजा उसके दरवाजे पर खाक छानने आते थे। जिस पर वह मुस्कुरा देती वही अपने को धन्य समझने लगता। ऐसी थी वह उर्वशी की अवतार वासवदत्ता।

🔷 एक दिन वह सोने-चाँदी से झिलमिलाते हुए रथ में बैठ कर नगर की सैर करने निकली। उसका वैभव कोई साधारण सा थोड़े ही था। जिस बाजार में उसकी दासी भी निकल जाती वह इत्रों की सुगंध से महक जाते। जब उसका झिलमिलाता हुआ रथ निकलता तो नगर निवासी अपना-अपना काम छोड़ कर सड़क के किनारे उसकी शोभा देखने खड़े हो जाते। उस दिन वह सैर को निकली थी। दर्शकों की भारी भीड़ सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध होकर खड़ी थी। सब के मुख पर उसी के रूप वैभव की चर्चा थी।

🔶 नगर के एक पुराने खंडहर मुहल्ले की एक टूटी झोंपड़ी में एक युवक रहता था। नाम था उसका उपगुप्त। उसने गेरुए कपड़े नहीं पहने, फिर भी वह संन्यासी था। भिक्षा उसने नहीं माँगी, फिर भी आकाशी वृत्ति पर उसका भोजन निर्भर था। प्रेत की तरह घूमता, यक्ष की तरह गाता, बैताल की तरह कार्य करता और जनक की तरह कर्म योग की साधना करता। जन्म भूमि तो उसकी कहीं दूर देश थी, पर अब रहता यहीं था। बहुत कम लोग उसके बारे में कुछ जानते थे, पर इतना सब जानते थे कि यह आदर्शवादी युवक निर्मल चरित्र का है, ईश्वर भक्ति में लीन रहना और प्रेम का प्रचार करना इसका कार्य-क्रम है।

🔷 उस दिन उपगुप्त अपनी झोंपड़ी के दरवाजे पर बैठा हुआ तन्मय होकर कुछ गा रहा था। आत्म-विभोर होकर वह कुछ ऐसा कूक रहा था कि सुनने वालों के दिल हिलने लगे। मधुर स्वर के साथ मिली हुई आत्मानुभूति पुष्प के पराग की तरह फैलकर दूर-दूर तक के लोगों को मस्त बनाये दे रही थी।

🔶 वासवदत्ता की सवारी सन्ध्या होते-होते उस खंडहर मुहल्ले में पहुँची। गोधूलि वेला में उस दरिद्र उपनगर की झोंपड़ियों में दीपक टिमटिमाने लगे थे। वेश्या उन्हें उपेक्षा भाव से देखती जा रही थी कि उसके कानों में संगीत की वह मधुर लहरें जा पहुँची। वह कला की पारखी थी। इतना उच्च कोटि का गायन आज तक उसने न सुना था। उसकी आँखें वह स्थान तलाश करने लगीं। जहाँ से यह ध्वनि आ रही थी। सवारी धीरे 2 आगे बढ़ रही थी। स्वर क्रमशः निकट आ रहा था। आगे चलकर उसने देखा कि फूस की एक जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ी का सुन्दर युवक आत्म विभोर होकर गा रहा है। वेश्या रथ में से उतर पड़ी, उसने निकट जाकर देखा कि देवताओं जैसे सुन्दर स्वरूप वाला एक भिक्षुक फटे चिथड़े पहने मिट्टी की चबूतरी पर बैठा है और बेसुध होकर गा रहा है। वेश्या ने कुछ कहना चाहा पर देखा कि यहाँ सुनने वाला कौन है। वह उलटे पाँवों वापिस लौट आई।

🔷 वासवदत्ता अपने शयन कक्ष में पड़ी हुई थी। बहुत रात बीत चुकी, पर नींद उसकी आँखों के पास न झाँकी। भिखारी का स्वर और स्वरूप उसके मन में बस गया था। इधर से उधर करवटें बदल रही थी पर चैन कहाँ? अब तक वह बड़े-बड़े कहलाने वाले अनेकों को उंगलियों पर नचा चुकी थी, पर आज जीवन में पहली बार उसने जाना कि ‘जी की जलन क्या होती है’। क्षण बीत रहे थे, उसका मन काबू से बाहर हो रहा था। युवक के चरणों पर अपने को समर्पण करने के लिए उसके सामने तड़फने लगे।

🔶 रात के दो बज चुके थे। वेश्या चुपचाप दासी को लेकर घर से बाहर निकल पड़ी। गली कूचों को पार करती हुई वह खंडहर मुहल्ले की उसी टूटी झोंपड़ी में पहुँची। युवक चटाई का फटा टुकड़ा बिछाये हुए जमीन पर सोया हुआ था। दासी ने धीरे से उसे जगाया और कहा- इस नगर की वैभवशालिनी अप्सरा वासवदत्ता आपके दर्शनों के लिये आई हैं।

🔷 उपगुप्त ने आँखें मलीं और चटाई पर बैठा हो गया। वासवदत्ता का ऐश्वर्य वह सुन चुका था। मुझ दरिद्र के यहाँ वह वैभवशालिनी आई है? क्यों आई है? मुझ से क्या प्रयोजन? एक बारगी अनेक प्रश्नों का ताँता उसके सामने उपस्थित हो गया? उसके मन में अविश्वास की भावना आई। कहीं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं? उपगुप्त बार-बार आँखें मल कर सामने खड़ी दो मूर्तियों को देखने लगा।

🔶 वासवदत्ता ने कहा प्यारे, सन्देह मत करो। बड़े-बड़े राजा-महाराजा जिसके चरणों पर लोटते हैं, वही वासवदत्ता आपको अपना हृदय समर्पण करने आई है। मेरा सारा वैभव आप के लिए समर्पित है। मैं आपकी दासी बनना चाहती हूँ। मेरे टूटे हुए दिल को जोड़ कर कृत-कृत्य कर दीजिए।

🔷 युवक को मानो साँप सूँघ गया हो, वह सन्न रह गया। उसने कहा--माता! तुम यह क्या कह रही हो। तुम्हारे मुख से यह कैसे शब्द निकल रहे हैं। मेरी आँखें स्त्री जाति को माता के ही रूप में देख सकती हैं। आपका पाप प्रस्ताव मुझे स्वीकार नहीं हो सकता।

🔶 वेश्या बोलने में बड़ी पटु थी। नाना प्रकार के तर्क और प्रलोभनों से उपगुप्त को प्रस्ताव स्वीकार कर लेने को समझाने लगी, परन्तु युवक टस से मस भी न हुआ। उसका जीवन एक साधना थी, उसमें इधर-उधर हिलने के लिए कोई गुँजाइश न थी। कोई प्रलोभन उसे डिगा न सका। वेश्या खिन्न होती हुई लौट आई।

🔷 एक अरसा बीत गया। वेश्या के शरीर में कोढ़ फूट गया। उसके अंग गल-गल कर गिरने लगे। अतुलित वैभव कुछ ही समय में न जाने कहाँ पलायन कर गया। उस पर मरने वालों में से कोई उधर आँख उठा कर भी नहीं देखता। यह दुरवस्था अधिक बढ़ी। उपचार के अभाव में उसके अंग सड़ने लगे। घावों में से कीड़े झरना आरम्भ हो गया।

🔶 ऐसी अवस्था में कौन उसके पास जाता; परन्तु उपगुप्त था, जो उसकी सेवा कर रहा था। दुर्गन्ध के मारे वहाँ जाने में नाक फटती थी, पर वह प्रसन्नता पूर्वक उसके घाव बाँधता, कपड़े धोता, मल-मूत्र उठाता। सगी माता की तरह उसने वेश्या की एकनिष्ठ सेवा की।

🔷 आज बीमारी बहुत बढ़ गई थी। वासवदत्ता मृत्यु के मुख में जा रही थी। उपगुप्त बैठा पंखा झल रहा था। रोगिणी ने अधखुले नेत्रों से उपगुप्त की ओर देखा और कहा—पुत्र! तेरा स्वर और संगीत मैंने जैसा परखा था, आज वैसा ही देख लिया। उपगुप्त ने उसके चरणों की धूलि मस्तक पर चढ़ाते हुए कहा—माता! तेरा सौंदर्य जैसा मैंने समझा था, आज तेरा पुत्र-भाव पाकर वैसा ही पा लिया।

🔶 उपगुप्त और वासवदत्ता आज इस लोक में नहीं हैं, पर मथुरा के निवासी जानते हैं कि वे दोनों सच्चे पारखी थे।

📖 अखण्ड ज्योति मई 1942

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 22 Dec 2017

👉 आज का सद्चिंतन 22 Dec 2017


👉 परिधि से केन्द्र की ओर

🔶 देह परिधि है और आत्मा अपने अस्तित्व का केन्द्र। परिधि से केन्द्र की ओर यात्रा करने से ही आध्यात्मिक विकास सुनिश्चित होता है। जो इस सच से अनजान हैं, वे सारे जीवन परिधि पर ही टिके रहते हैं। ऐसे आत्म विमुख लोगों के लिए देह और उससे जुड़े वैभव-भोग ही जीवन का सब कुछ बन जाते हैं। सांसारिक पद-प्रतिष्ठा के भ्रम एवं झूठे मान-यश के अंधेरों की चाहत ही उनकी चेतना को हर पल घेरे रहती है।

🔷 लेकिन ज्यों ही आत्मचेतना परिधि से केन्द्र की ओर मुड़ती है आध्यात्मिक-अन्तर्यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। आत्मजिज्ञासा की पहली प्रकाश किरण का उजियारा जीवन में प्रवेश कर जाता है। परन्तु परिधि से केन्द्र की ओर इस यात्रा की शुरुआत कैसे हो? गिरीशचन्द्र घोष ने अपने सद्गुरु श्री रामकृष्ण देव से एक समय यही सवाल पूछा था।

🔶 उत्तर में परमहंस देव ने मुस्कराते हुए गिरीश बाबू को बड़ी ही ममता से छू लिया। परमहंस देव के इस अलौकिक स्पर्श से गिरीश बाबू रोमांचित हो उठे। वह कुछ बोल पाते, इससे पहले श्री रामकृष्ण देव ने उनसे कहा- ध्यान के समय, निद्रा की गोद में जाते समय मन ही मन मेरे इस स्पर्श को बड़ी ही प्रगाढ़ता से अनुभव करना और सोचना तेरी चेतना, तेरा समूचा अस्तित्व मुझमें, मेरी चेतना में विलीन हो रहा है।

🔷 बात छोटी सी है, परन्तु अभ्यास करने वाले के लिए इसके परिणाम बहुत बड़े हैं, क्योंकि मन ही मन सद्गुरु के स्पर्श की प्रगाढ़ रूप से होने वाली अनुभूति में देह से प्राण, प्राण से मन और मन से आत्मा की ओर अन्तर्चेतना गतिशील हो जाती है। इस अनोखे अभ्यास से सम्पन्न होने वाली अन्तर्यात्रा ने ही श्रीयुत गिरीशचन्द्र घोष को महात्मा बना दिया।

🔶 बाद के दिनों में वह अपने अनुभवों को अपने गुरुभाइयों से बताते हुए कहा करते- सर्वोत्तम ध्यान है- सद्गुरु के कृपापूर्ण स्पर्श का ध्यान। उनके स्पर्श के समय हुए अनुभव का ध्यान। इससे सहज ही अन्तर्चेतना देह की परिधि से अपने अस्तित्व के केन्द्र आत्मा की ओर बढ़ चलती है। और इसकी तीव्रता के अनुपात में ही आत्मशक्तियों का अलौकिक जागरण स्वयमेव होने लगता है।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 99

👉 दुःखों का कारण और निवारण (भाग 4)

🔷 दुःख का आधार अपनी अनुभूति विशेष को न मान कर किन्हीं बाह्य परिस्थितियों को मानना अज्ञान है। इस अज्ञान को दूर किए बिना यदि कोई चाहे कि दुःख से छुटकारा हो जाये तो यह सम्भव न होगा। अनुकूल परिस्थितियों में हर्षातिरेक के वशीभूत हो जाना और प्रतिकूलताओं में रोने-झींकने का स्वभाव स्वयं एक अज्ञान है। इससे मनुष्य का मस्तिष्क असन्तुलित सा हो जाता है। वह यथार्थ से हटकर अधिकतर भ्रम में ही भटकता और ठोकरें खाता रहता है। उसके ठीक-ठीक समझने और मूल्यांकन करने की क्षमता नष्ट हो जाती है। वह किसी बात में ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता कि जिन बातों में मैं दुःख मना रहा हूं वह दुःख के योग्य हैं भी या नहीं। असन्तुलित स्थिति में मनुष्य गलत-गलत सोचता और वैसा ही व्यवहार करता है, जिससे दुःख का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है।

🔶 दुःख के कारणों में आसक्ति भी एक बड़ा कारण है। यहां पर आसक्ति का एक मोटा-सा अर्थ यह लिया जा सकता है—अत्यधिक अपनेपन का लगाव। जिन बातों में अत्यधिक लगाव होता है, उनको सर्वथा अपने अनुकूल रखने की कामना रहती है किन्तु किसी भी वस्तु या व्यक्ति को हर स्थिति में सर्वथा अपने अनुकूल रख सकना संभव नहीं होता। वे अपनी गति में कभी किसी समय भी विपरीत दशा में घूम सकती हैं। ऐसी दशा में उनके प्रति अत्यधिक अपनत्व के कारण दुख की अनुभूति से बचा नहीं जा सकता। यदि वस्तुओं और व्यक्तियों का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार किया जा सके और उन्हें सर्वथा अपने अनुकूल देखने की इच्छा का त्याग किया जा सके तो कोई कारण नहीं कि व्यर्थ में अनुभव होने वाले बहुत से दुःखों का सामना करना पड़े।

🔷 ऐसे लोग जो संसार नाटक के तट परिवर्तन से जल्दी प्रभावित नहीं होते दुःखों के आक्रमण से बचे रहते हैं। कामनाओं की पूर्ति के समय उल्लसित हो उठने और आपूर्ति के समय मलीन मन हो जाने का यदि अपना स्वभाव बदला जा सके तो दुःखों के बहुत से कारण आप से आप ही नष्ट हो जायें। यदि संसार में उदार गम्भीर और यथार्थ जीवन लेकर चला जा सके और आसक्ति के साथ अत्यधिक संवेदना को संक्षेप किया जा सके तो हमारी मनोभूमि निश्चय ही इतनी दृढ़, परिपक्व हो सकती है कि उस पर सुख-दुःख की कोई प्रतिक्रिया ही न हो।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1971 पृष्ठ 15

👉 Amrit Chintan 22 Dec

🔶 As long as there is prevalances of nasty traditions and group of social bad habits people no one can have peace in life. The individual social growning or prosperity will not get any stability. Every one’s happy life depends on the condition of society, he lives in that is why for our own happiness also we depend  on the good social atmosphere. Every one should try to work to create a civic society of good people around him.

🔷 Sadhana is to develop right way of thinking to develop ideality. He should also solve his probles at his level. This will give him a self Stand. If you grow on others help, this will make you crippled. It is no way good to depend on others for help at all stages of life. In absence of self  dependence one looses his self-respect in society.

🔶 It is subtle part of human body that holds the moral and desciplenary codes his wisdom. Honesty, responsibility and courage develop in that the direction. Can never be self-control but simultaneously he will look into that others interest or independace is not hurt.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 उच्चस्तरीय अध्यात्म साधना के तीन चरण (भाग 5)

🔶 भाव साधना का तीसरा चरण है- चिंतन। चिंतन अर्थात् शारीरिक गतिविधियों का आदर्शवादिता का और मानसिक हलचलों का उत्कृष्टता के आधार पर सुसंतुलित निर्धारण। इसके लिए प्रातःकाल उठते ही “हर दिन नया जनम-हर रात नई मौत” का तथ्य सामने रखकर आज की -समय परक और भाव परक दिनचर्या निर्धारित करनी चाहिए। एक ही दिन के लिए यह जनम है। आज ही रात की मृत्यु, निद्रा की गोदी में जाना है इसलिए ईश्वर प्रदत्त समय संपदा और भाव वैभव का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने के लिए-जीवन लाभ देने के लिए साहस पूर्वक तत्पर होना चाहिए। किसी भी व्यवधान को इस निर्धारण में बाधक नहीं होने देना चाहिए।
                  
🔷 प्रातःकाल से लेकर सोने के समय तक की समयचर्या निर्धारित करनी चाहिए। नित्य कर्म, विश्राम, उपार्जन से लेकर परमार्थ प्रयोजनों तक के लिए उचित रीति से समय विभाजन किया जाय। उपार्जन के और परिवार पोषण के उत्तरदायित्व अभी जिनके कंधों पर पर हैं उन्हें भी आठ घंटा कमाने के लिए, छः घंटा सोने के लिए, चार घंटा नित्य नैमित्तिक कर्मों के लिए लगाकर साँसारिक प्रयोजनों के लिए अधिकतम 20 घंटे ही खर्च करने चाहिए। शेष 4 घंटे जीवनोद्देश्य की पूर्ति में लगाने चाहिए।
    
🔶 हर क्रिया के साथ एक विचारणा अनिवार्य रूप से जुड़ी रहती है। क्या कार्य, किस लाभ प्रयोजन के लिए किया जा रहा है, उसमें रुचि या उत्साह किसलिए है, इसका कुछ न कुछ कारण आकर्षण होना ही चाहिए। मनोगत आकांक्षा और शरीरगत क्रिया दोनों के सम्मिश्रण से समग्र कर्म बनता है, उसी के आधार पर संस्कार बनते हैं पाप पुण्य का निर्धारण होता है और कर्मफल की प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। भाव रहित क्रिया तो मात्र उछल कूद भर होती है। हमें अपने पर क्रिया-कलाप के साथ उच्च आदर्शों से भरी-पूरी भावना नियोजित रखनी चाहिए, पत्नी को अपने संरक्षण में रखी गई ईश्वर की पुत्री समझा जाना चाहिए और वह पिता के घर से जिस स्थिति में आई थी उसकी अपेक्षा अधिक स्वस्थ, सुयोग्य, सुविकसित, प्रसन्न, प्रफुल्लित बनाने का प्रयास निरंतर करते रहने की बात सोचनी चाहिए। यदि उसके प्रति कर्तव्य, स्नेह, सौजन्य बरसाया जाता रहा तो वह पत्नी भौतिक सुविधा और आत्मिक प्रगति की दोनों ही दृष्टि से बड़ी सुखद, श्रेयस्कर सिद्ध होगी।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 5
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1973/January/v1.5

👉 दुःखों का कारण और निवारण (भाग 3)

🔷 दुःख के कुछ मनोवैज्ञानिक कारण भी हैं। उनमें से एक संवेदनशीलता भी है। यों तो सामान्य रूप में संवेदनशीलता एक गुण है। किन्तु जब यह औचित्य की सीमा से परे निकल जाती है तब दुर्गुण बन जाती है जिसका परिणाम दुःख ही होता है। अति संवेदनशील व्यक्ति का हृदय भावुकता के कारण बड़ा निर्बल हो जाता है। वह यथार्थ दुःख तो दूर काल्पनिक दुःखों से भी व्यग्र एवं व्याकुल होता रहता है। इस क्षण-क्षण बदलते रहने वाले संसार का एक साधारण-सा थपेड़ा ही उन्हें व्याकुल कर देने के लिए बहुत होता है। क्षण-क्षण परिवर्तित और बनने बिगड़ने वाले पदार्थ, परिस्थितियों और संयोगों के प्रभाव से सुरक्षित रह सकना उनके वश की बात नहीं होती। उन्हें संसार की एक नगण्य सी परिस्थिति झकझोर कर रख देती है और वे क्षुब्ध होकर दुःख अनुभव करने लगते हैं।

🔶 इस प्रकार के संवेदनशील व्यक्ति भावुकता के कारण अपनी ही एक काल्पनिक दुनिया बनाए और उसमें ही विचरण करते रहते हैं। विशेषता यह होती है कि उनकी वह काल्पनिक दुनिया इस यथार्थ संसार से सर्वथा भिन्न होती है। होना भी चाहिए यदि उनका संसार इस संसार से भिन्न न हो तो उसके बनाने का प्रयोजन ही क्या रह जाता है? इस भिन्नता के कारण इस यथार्थ संसार और उनकी काल्पनिक दुनिया में टकराव पैदा होता रहता है। कमजोर एवं निराधार होने से उनकी दुनिया टूटती है, जिसके शोक में वे दुःखी और व्यग्र होते रहते हैं। यदि मनुष्य भावुकता का परित्याग कर, यथार्थ के कठोर धरातल पर ही रहे, उसी के अनुसार व्यवहार करे, हर तरह की आने वाली परिस्थिति को संसार का स्वाभाविक क्रम समझकर खुशी-खुशी स्वागत करने को तत्पर रहे तो वह बहुत कुछ दुःख के आक्रमण से अपनी रक्षा कर सकता है।

🔷 अज्ञान को तो सारे दुःखों का मूल ही माना गया है। मनुष्य को अधिकांश दुःख तो उसके अज्ञान के कारण ही होते हैं। सुख-दुःखों के विषय में यदि मनुष्य का अज्ञान दूर हो जाये तो वह एक बड़ी सीमा तक दुःखों से छुटकारा पा सकता है। सुख-दुःख का अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। उनका अनुभव भ्रम अथवा अज्ञान के कारण ही होता है। यदि मनुष्य एक बार यह समझ सके और विश्वास कर सके कि सुख-दुःखों का सम्बन्ध किन्हीं बाह्य परिस्थितियों से नहीं है, यह मनुष्य की अपनी अनुभूति विशेष के ही परिणाम होते हैं तो शायद वह उनसे उतना प्रभावित न हो जितना कि होता रहता है। मनुष्य की मान्यता, कल्पना, अनुभूति विशेष और उसकी अपनी मानसिक अवस्था से ही सुख-दुःख का जन्म होता है। यदि इन अवस्थाओं में अनुकूल परिवर्तन लाया जा सके तो दुःख से छूटने की सम्भावना कोई काल्पनिक बात नहीं है। यदि मनुष्य के दुःखों का सम्बन्ध बाह्य परिस्थितियों से होता तो उनका प्रभाव सब पर एक समान ही पड़ना चाहिए! किन्तु ऐसा होता नहीं है। जिन एक तरह की परिस्थितियों में कोई एक दुःख और शोक का अनुभव करता है, उन्हीं परिस्थितियों में दूसरा हर्षित और प्रसन्न होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1971 पृष्ठ 14
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/August/v1.14

http://literature.awgp.org/book/sukh_shanti_ki_sadhana_/v1.4

👉 Amrit Chintan

🔶 Your utmost devotion for the ideality in life can only be achieved by constant practice of self control on vices and weakness of life. God worship is a practice to develop high emotions. Towards all the living unit. Of the world.  Human intellect or any limit of knowledge can not discriminate so precisely between right and wrong at all level. A devotee develop the right vistion of life for which he has come. 

🔷 Our normal  good action is routine life is not enough to wipe off the deep impression on ‘chitt’. Gone they can only be nullified by spiritual practice of penance and austerity. These practices dilute the reactions and also awaken the potential divine centers in human body. Finally these practices also lead to the final aim of life. That is God realization.

🔶 By sitting and worshipping God is to express own faults and Sins and commiting not to repeat them and not pleasing God by flower or food. The aim of God worship is to rectify our bad habits and ill-actions in the future life. The people do follow ritual actions and does not follow the philosophy behind.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 उच्चस्तरीय अध्यात्म साधना के तीन चरण (भाग 4)

🔶 मृत्यु को, आयुष्य की क्षण भंगुरता को, विषयों की मृग मरीचिका को , कुछ भी साथ न जाने वाले वैभव की निरर्थकता को यदि मनुष्य गंभीरतापूर्वक समझे तो उसकी आँखें खुले कि क्या करना चाहिए था और क्या किया जा रहा है? किधर चलना चाहिए था और किधर चला जा रहा हैं। जीवन और मृत्यु दोनों एक दूसरे के साथ इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि किसी के कभी भी नीचे ऊपर होने में तनिक भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। यह वस्तुस्थिति समझ में आये तो हर व्यक्ति अपने बहुमूल्य क्षणों का ठीक प्रकार उपयोग करना सीखे, और उन निरर्थक बाल-क्रीड़ाओं में न उलझे जिनमें आमतौर से लोग अपने को घुलाये भुलाये रहते हैं। मृत्यु की विस्मृति ही वह कारण है जिसने नर जनम के श्रेष्ठतम सदुपयोग के प्रति उदासीनता उत्पन्न कर रखी है।
                  
🔷 मनन का दूसरा अर्थ है- आत्मबोध। अपना वास्तविक स्वरूप, जीवन का उद्देश्य, शरीर और आत्मा का संबंध , श्रेय और प्रेय में से एक का चुनाव-अपनी गतिविधियों और रीति-नीतियों का सुनियोजित निर्धारण जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय इसी केंद्र पर टिके हुए हैं कि आत्मबोध हुआ या नहीं यह चेतना जब तक जगेगी नहीं तब तक लोभ और मोह की लिप्सा प्रचंड ही बनी रहेगी, तृष्णा और वासना की प्रबलता उभरी ही रहेगी, माया पाश के भव-बंधनों छुटकारा मिलेगा ही नहीं, फलतः व्यथा वेदनाओं में झुलसते रहने की दुर्गति से छुटकारा भी नहीं मिलेगा। यदि आत्मबोध का लाभ न मिल सका तो समझना चाहिए कि मानव जीवन उद्देश्य और आनंद हाथ से चला गया।
     
🔶 भजन अर्थात् ईश्वरीय सत्ता के साथ आत्म सत्ता का समीकरण-परस्पर विलय समन्वय की अनुभूति। मनन अर्थात् आत्मबोध। शरीर और आत्मा के स्वार्थों और संबंधों का पृथक्करण जीवन-लक्ष्य के प्रति आस्था और रीति-नीति का साहस पूर्वक निर्धारण। दोनों की साधना विधियाँ सरल है। एक ही समय या पृथक-पृथक सुविधा के समय और शांत एकांत स्थान में, सुसंतुलित चित्त से यह दोनों ध्यान, चिंतन, किये जा सकते हैं। भावनाओं की जितनी गहराई इनमें लगेगी उतनी ही अंतर्ज्योति प्रखर होती चली जायेगी और आत्मा के साथ परमात्मा का प्रणय परिणाम होने पर जिन दिव्य संपदाओं की उपलब्धि होनी चाहिए वे सहज ही करतल गत होती चली जायेगी।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1973 पृष्ठ 4
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1973/January/v1.4

👉 आज का सद्चिंतन 21 Dec 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 21 Dec 2017

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