संसार में मनुष्य अपने क्षणिक सुख के लिए अनेक प्रकार के दुष्कर्म कर डालता है। उसे यह खबर नहीं होती कि इन दुष्कर्मों का फल हमें अन्त में किस प्रकार भुगतना पड़ेगा। मनुष्य को जो तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़ते हैं, उनके लिए किसी अंश तक समाज और देशकाल की परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी हो सकती हैं पर अधिकाँशतया वह अपने ही दुष्कर्मों के प्रतिफल भोगता है। किन्तु मनुष्य शरीर दुःख भोगने के लिए नहीं मिला। यह आत्म-कल्याण के लिए मुख्यतः कर्म-साधन है, इसलिए अपनी प्रवृत्ति भी आत्म-कल्याण या सुख प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति होना चाहिए और इसके लिए बुरे कर्मों से बचना भी आवश्यक हो जाता है।
मनुष्य-योनि में आकर जिसने जीवन में कोई विशेष कार्य नहीं किया, किसी के कुछ काम नहीं आया, उसने मनुष्य शरीर देने वाले उस परमात्मा को लज्जित कर दिया। अपने में अनन्त शक्ति होने पर भी दीनतापूर्ण जीवन बिताना, दयनीयता को अंगीकार करना अपने साथ घोर अन्याय करना है। मनुष्य जीवन रोने कलपने के लिए नहीं, हँसते मुस्कराते हुए अपना तथा दूसरों का उत्कर्ष करने के लिए है।
इच्छाओं के त्याग का अर्थ यह कदापि नहीं कि मनुष्य प्रगति, विकास, उत्थान और उन्नति की सारी कामनाएँ छोड़कर निष्क्रिय होकर बैठ जाये। इच्छाओं के त्याग का अर्थ उन इच्छाओं को छोड़ देना है जो मनुष्य के वास्तविक विकास में काम नहीं आतीं, बल्कि उलटे उसे पतन की ओर ही ले जाती हैं। जो वस्तुऐं आत्मोन्नति में उपयोगी नहीं, जो परिस्थितियाँ मनुष्य को भुलाकर अपने तक सीमित कर लेती हैं मनुष्य को उनकी कामना नहीं करनी चाहिये। साथ ही वाँछनीय कामनाओं को इतना महत्व न दिया जाये कि उनकी अपूर्णता शोक बनकर सारे जीवन को ही आक्रान्त कर ले।
मनुष्य-योनि में आकर जिसने जीवन में कोई विशेष कार्य नहीं किया, किसी के कुछ काम नहीं आया, उसने मनुष्य शरीर देने वाले उस परमात्मा को लज्जित कर दिया। अपने में अनन्त शक्ति होने पर भी दीनतापूर्ण जीवन बिताना, दयनीयता को अंगीकार करना अपने साथ घोर अन्याय करना है। मनुष्य जीवन रोने कलपने के लिए नहीं, हँसते मुस्कराते हुए अपना तथा दूसरों का उत्कर्ष करने के लिए है।
इच्छाओं के त्याग का अर्थ यह कदापि नहीं कि मनुष्य प्रगति, विकास, उत्थान और उन्नति की सारी कामनाएँ छोड़कर निष्क्रिय होकर बैठ जाये। इच्छाओं के त्याग का अर्थ उन इच्छाओं को छोड़ देना है जो मनुष्य के वास्तविक विकास में काम नहीं आतीं, बल्कि उलटे उसे पतन की ओर ही ले जाती हैं। जो वस्तुऐं आत्मोन्नति में उपयोगी नहीं, जो परिस्थितियाँ मनुष्य को भुलाकर अपने तक सीमित कर लेती हैं मनुष्य को उनकी कामना नहीं करनी चाहिये। साथ ही वाँछनीय कामनाओं को इतना महत्व न दिया जाये कि उनकी अपूर्णता शोक बनकर सारे जीवन को ही आक्रान्त कर ले।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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