शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 10 Nov 2023

संसार में मनुष्य अपने क्षणिक सुख के लिए अनेक प्रकार के दुष्कर्म कर डालता है। उसे यह खबर नहीं होती कि इन दुष्कर्मों का फल हमें अन्त में किस प्रकार भुगतना पड़ेगा। मनुष्य को जो तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़ते हैं, उनके लिए किसी अंश तक समाज और देशकाल की परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी हो सकती हैं पर अधिकाँशतया वह अपने ही दुष्कर्मों के प्रतिफल भोगता है। किन्तु मनुष्य शरीर दुःख भोगने के लिए नहीं मिला। यह आत्म-कल्याण के लिए मुख्यतः कर्म-साधन है, इसलिए अपनी प्रवृत्ति भी आत्म-कल्याण या सुख प्राप्ति के उद्देश्य की पूर्ति होना चाहिए और इसके लिए बुरे कर्मों से बचना भी आवश्यक हो जाता है।

मनुष्य-योनि में आकर जिसने जीवन में कोई विशेष कार्य नहीं किया, किसी के कुछ काम नहीं आया, उसने मनुष्य शरीर देने वाले उस परमात्मा को लज्जित कर दिया। अपने में अनन्त शक्ति होने पर भी दीनतापूर्ण जीवन बिताना, दयनीयता को अंगीकार करना अपने साथ घोर अन्याय करना है। मनुष्य जीवन रोने कलपने के लिए नहीं, हँसते मुस्कराते हुए अपना तथा दूसरों का उत्कर्ष करने के लिए है।

इच्छाओं के त्याग का अर्थ यह कदापि नहीं कि मनुष्य प्रगति, विकास, उत्थान और उन्नति की सारी कामनाएँ छोड़कर निष्क्रिय होकर बैठ जाये। इच्छाओं के त्याग का अर्थ उन इच्छाओं को छोड़ देना है जो मनुष्य के वास्तविक विकास में काम नहीं आतीं, बल्कि उलटे उसे पतन की ओर ही ले जाती हैं। जो वस्तुऐं आत्मोन्नति में उपयोगी नहीं, जो परिस्थितियाँ मनुष्य को भुलाकर अपने तक सीमित कर लेती हैं मनुष्य को उनकी कामना नहीं करनी चाहिये। साथ ही वाँछनीय कामनाओं को इतना महत्व न दिया जाये कि उनकी अपूर्णता शोक बनकर सारे जीवन को ही आक्रान्त कर ले।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जीवन के मूल्यवान क्षणों का सद्व्यय (भाग ३)

जो व्यक्ति अपनी आय का प्रारम्भिक बजट बना कर खर्च करता है, वह प्रत्येक रुपये, इकन्नी और पैसे से अधिकतम लाभ निकालता है। इसी प्रकार दैनिक कार्यक्रम बनाकर समय को व्यय करने वाला जीवन के प्रत्येक क्षण का अधिकतम लाभ उठाता है और आत्म-विकास करता है।

प्रत्येक क्षण जो आप व्यय करते हैं, अन्तिम रूप से व्यय कर डालते हैं, वह वापस लौटकर आने वाला नहीं है। जब मृत्यु समीप आती है तो हमें जीवन के दो चार क्षणों का ही बड़ा मूल्य लगता है। यदि हम विवेकपूर्ण रीति से अपने उत्तरदायित्व और जिम्मेदारियों को धीरे-धीरे समाप्त करते चलें तो हम जीवन में इतना कार्य कर सकते हैं कि हमें उस पर गर्व हो।

क्या आप ‘जौन जेक रूसो’ नामक विद्वान के जीवन के सदुपयोग की कहानी जानते हैं। वह कहार का कार्य करते-करते फालतू समय के परिश्रम से विद्वान बना था। दिन भर रोटी के लिए परिश्रम करता और रात्रि में पढ़ता था। एक व्यक्ति ने उससे पूछा- ‘आपने किस स्कूल से शिक्षा पायी है?’ रूसो ने कहा-’मैंने विपत्ति की पाठशाला में सब कुछ सीखा है।’ यह कहार दिन-भर सख्त मेहनत की रोटी कमाता और बचे हुए समय में पढ़कर धुरन्धर शास्त्रकार हुआ है। हम भी यह कर सकते हैं।

समय के अपव्यय के पश्चात् भाव, विचार, वासना, उत्तेजना आदि अनेक रूपों से जीवन का अपव्यय किया करते हैं। दुर्भाव न केवल दूसरों के लिये हानिकर है वरन् ‘स्वयं’ हमें बड़ी हानि पहुँचा जाते हैं। एक बार का किया हुआ क्रोध दूसरों पर तो बाद में प्रभाव डालता है, पहले तो हमारे रक्त को विषैला और स्वभाव को चिड़चिड़ा बना डालता है पाचन-क्रिया को शिथिल कर डालता है, बहुत देर तक सम्पूर्ण शरीर थरथराता रहता है। यदि हम वासना को नियंत्रण में रखकर वीर्य संचय करें, तो जीवन में जीवाणुओं, पौरुष, बल की, बुद्धि की, वृद्धि हो सकती है। व्यर्थ जो वीर्य नष्ट किया जाता है, वह जीवन का अपव्यय ही है।

📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी १९५७ पृष्ठ ५

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1957/February/v1.5

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