बुधवार, 27 जुलाई 2022

👉 धर्म प्रसार का प्रमुख आधार

प्राचीन काल के जिन महापुरुषों की छाप हमारे हृदय पर लगी हुई है, उसका कारण उनकी विद्या, प्रतिभा, वाणी या चातुरी नहीं वरन् उनका आदर्श जीवन निर्मल चरित्र, उज्ज्वल लक्ष्य एवं तप त्याग ही है। चरित्रहीन व्यक्ति प्रचार द्वारा क्षणिक भावावेश तो उत्पन्न कर सकते हैं, पर उसका प्रभाव कभी भी स्थायी नहीं हो सकता।

धर्म प्रचार के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने जीवन को आदर्श बना कर दूसरों के सामने अनुकरणीय आदर्श उपस्थित करें। काम ही सबसे बड़ा प्रचार है। श्रेष्ठ काम करके ही हम दूसरों को श्रेष्ठ बनने के लिए सच्ची और ठोस शिक्षा दे सकते हैं। उपदेशकों की नहीं अब उन आदर्शवादियों की आवश्यकता है जो धर्म कर्तव्यों को अपने जीवन में ओत-प्रोत करते हुए कुछ जनता का व्यावहारिक मार्ग दर्शन कर सकें।

हम आज जहाँ हैं वहीं से आगे बढ़ने का प्रयत्न करें। पूर्णता की ओर चलने की यात्रा आरम्भ करें। दोषों को ढूँढ़ें और उन्हें सुधारें। गुणों का महत्व समझें और उन्हें अपनायें। इस प्रकार आन्तरिक पवित्रता में जितनी कुछ अभिवृद्धि हो सकेगी उतने का भी दूसरों पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। सन्मार्ग की दिशा में चलने के लिए उठाया हुआ प्रत्येक कदम अपने लिए ही नहीं, समस्त संसार के लिए श्रेयस्कर होता है।

लोकमान्य तिलक
अखण्ड ज्योति मई 1964 पृष्ठ 1

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

👉 मनुष्य का व्यक्तित्व

जो व्यक्ति वास्तव में अपने से प्रेम नहीं करते वे ही मन, वचन तथा कर्म से बुरा काम करके अपने लिए पतन का पथ प्रशस्त करते हैं। किन्तु ऐसे व्यक्ति मुँह से यही कहते हैं कि “मैं अपने को प्यार करता हूँ।” इसके विपरीत ऐसा व्यक्ति जो कहता है कि “मैं अपने को प्यार नहीं करता” बुरे कर्मों से बच कर मन, वचन तथा कर्म से शुभ कर्त्तव्यों में संलग्न रहते हैं भोग, विलास, प्रमाद जैसी प्रवृत्तियों से दूर रहते हैं, वे ही वास्तव में अपने आप से प्रेम करने वाले माने जा सकते हैं। इसलिए यह निश्चय रूप से समझ लो कि जो आदमी अपनी आत्मा को प्यार करता है वह सदैव उसे दुराचरण से दूर रखेगा, क्योंकि बुरा काम करने वाला कभी भी आनन्द नहीं पा सकता।

जिस समय मौत आ घेरती है, मनुष्य उसके पंजे में बेबस होकर फँस जाता है तो उस समय वह किस चीज को अपनी कह सकता है? वह कौन सी चीज है जिसे वह अपने साथ ले जा सकता है और जो छाया की तरह कभी उसका साथ नहीं छोड़ती? जो काम वह करता है, चाहे वे भले हों या बुरे, उन्हीं को वह अपने साथ ले जा सकता है, उन्हीं को वह अपना कह सकता है और वे ही छाया की तरह उसके साथ रहते है। इसलिए हर एक मनुष्य को उचित है कि वह अच्छे कार्य करके भविष्य के सुख के लिए एक खजाना इकट्ठा कर ले।

भगवान बुद्ध
अखण्ड ज्योति जुलाई 1963 पृष्ठ 1

सोमवार, 18 जुलाई 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण 18 July 2022

हँसना एक दैवी गुण है। हँसाना एक उत्कृष्ट स्तर का उपकार है। मुस्कराता हुआ चेहरा भले ही काला-कुरूप क्यों न हो, सदा अति सुंदर लगेगा। प्रसन्नता एक आदत है, जो कुछ समय के निरन्तर अभ्यास से अपने अंदर उत्पन्न की जा सकती है। अपनी सुविधाओं को देखें और प्रसन्न रहें। शुभ और प्रिय देखें। उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करें, सद्भावना और सत्प्रवृत्तियों का चिंतन करें । यदि हम हँसता और हँसाता जीवन जी सकें, तो समझना चाहिए कि हमने सच्चे कलाकार  जैसी मंगलमयी सफलता एवं उल्लास भरी उपलब्धि प्राप्त कर ली।

योग का उद्देश्य मानसिक परिष्कार है। उसमें संग्रहीत कुसंस्कारों का शमन करना पड़ता है। स्वभाव का अंग बनी हुई दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन में जुटना होता है। भौतिक लिप्साओं की ललक शान्त करनी पड़ती है। चिंतन को उत्कृष्टता में रस लेने के लिए सहमत किया जाता है। आत्मा और परमात्मा के बीच की खाई पाटनी होती है। यह सारे कार्य अंतःपरिशोधन और आत्म परिष्कार से संबंधित हैं। इसलिए योग साधना वस्तुतः मन को साधने की ही विद्या है।

बुराई को लेकर सक्रिय रहने वाले व्यक्ति के भी सुधरने की आशा की जा सकती है, किन्तु आदर्शों, सिद्धान्तों को बघारने वाले, उपदेश देने वाले अकर्मण्य-आलसी लोगों के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

👉 बुरे विचारों से दूर रहिए। (अंतिम भाग)

संसार के अत्याधिक मनुष्यों को यह समझाना ही कठिन है कि उनके विचार ही उनके सुख-दुख के कारण हैं। मनुष्यमात्र में अपने आप पर विवेचना करने की शक्ति का अभाव होता है। हम सभी बहिर्मुखी हैं। हम अपने कष्टों का कारण दूसरों को मानने में सन्तोष पाते हैं। अपने दोषों को दूसरे में देखते हैं। जिस अवाँछनीय घटना की जड़ हमारे विचारों में ही है उसे हम दूसरे व्यक्तियों में देखते हैं। इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति को दोषारोपण की प्रवृत्ति कहते हैं अथवा प्रोजेक्शन कहते है।

वही मनुष्य बुरे विचारों के निरोध में समर्थ होता है, जो अपने आपके विषय में सदा चिन्तन करता है और जो परोक्ष रूप से भी यह जानता है कि मनुष्य का मन ही दुख और दुखों का कारण है। ऐसे ही मनुष्य में भले ओर बुरे विचारों के पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है।

किसी भी ऐसे विचार को बुरा विचार कहना चाहिये जो आत्मा को दुःख देता हो, उसको भ्रम में डालता हो। बीमारी के विचारों और असफलता के विचारों को सभी बुरा कहेंगे यह प्रत्यक्ष ही है कि इन विचारों से मन को दुख होता है और अनहोनी घटना होके रहती है। किन्तु इस बात को मानने के लिये कम लोग तैयार होंगे कि शत्रुता के विचार, दूसरों को क्षति पहुंचाने के विचार भी बुरे विचार है। ये विचार भी उसी प्रकार हमारी आत्मा का बल कम कर देते हैं जिस प्रकार कि असफलता और बीमारी के विचार आत्मा का बल कम कर देते हैं।

समाप्त
अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14

👉 बुरे विचारों से दूर रहिए। (भाग 2)

हमारे जीवन का सुख और दुःख हमारे विचारों पर ही निर्भर रहता है। आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों से पता चलता है कि मनुष्य का न सिर्फ आन्तरिक जीवन वरन् उसके समस्त जीवन के व्यवहार तथा शारीरिक स्वास्थ्य भी मन की कृष्ट तथा अकृष्ट गतियों का परिणाम मात्र है। अशुभ विचारों का लाना ही अपने जीवन को दुखी बनाना है, तथा शुभ विचारों का लाना सुखी बनाना है।

अब प्रश्न यह आता है कि हम अशुभ विचारों को आने से कैसे रोकें जिससे कि उनसे पैदा किये दुखों से हम बच सकें? यह प्रश्न बड़े महत्व का है और संसार के समस्त मनस्वी लोगों ने इस प्रश्न पर गम्भीर विचार किया है। किन्तु इस विषय पर जितना ही विचार किया जाय श्रेयस्कर है। प्रत्येक मनुष्य को इस विषय पर विचार करना चाहिये। दूसरों के विचारों से हमें लाभ अवश्य होता है किन्तु जब तक हम दूसरों के विचारों का मनन नहीं करते, उनसे भली प्रकार लाभ नहीं उठा सकते। लेखक पहले इस विषय पर अपने विचारों का उल्लेख करेगा इस लेख का तात्पर्य यहाँ है कि प्रत्येक पाठक को इस विषय पर विचार करने को प्रस्तुत किया जाय, ताकि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्या को अपने आप सुलभ कर सकें।

बुरे विचारों के निरोध का उपाय सबसे प्रथम उनको पहचानना ही है। जिनके विचारों को। हम बुरे विचार मानते ही नहीं, उन्हें हम अपने मनोमन्दिर में प्रवेश करने से क्योंकर रोक सकेंगे? यदि दूसरों के धनापहरण के विचार को हम उत्तम विचार मानते हैं तो उसे अपने मन में आने से रोकने की जगह भली प्रकार से उसका स्वागत करेंगे। जो विचार बुरे होते हैं। वे उनके प्रथम स्वरूप में ही बुरे नहीं लगेंगे, उनके परिणाम बुरे होते हैं। विचारवान व्यक्ति ही इस बात को जान सकता है कि अमुक विचार अन्त में दुखदायी होगा। 

क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14 

👉 बुरे विचारों से दूर रहिए। (भाग 1)

हमारा मन अभ्यास का दास है। जिस प्रकार का अभ्यास मन को कराया जाता है उसी प्रकार उसका अभ्यास सदा के लिए बन जाता है। जिस मनुष्य को पढ़ने-लिखने का अभ्यास रहता है, उसका मन रुचि के साथ ऐसे काम को करने लगता है। ऐसे व्यक्ति से बिना पढ़े-लिखे रहा ही नहीं जाता। जिस मनुष्य को दूसरों की निन्दा करने का अभ्यास है, जो दूसरों के अहित का सदा चिन्तन किया करता है, वह भी उन कर्मों को किये बिना रह नहीं सकता ऐसे कार्य उसकी एक प्रकार की नशा जैसे व्यसन हो जाते हैं, वह व्यक्ति अनायास ही दूसरों की निंदा और अकल्याण सोचने में लग जाता है। दूसरों की स्तुति सुनकर उसे बुखार जैसा आ जाता है।

जिस व्यक्ति का इस प्रकार का अभ्यास हो जाता है वह जब अपने आपके विष में अशुभ विचार लाता है तो उन विचारों का भी विरोध नहीं कर सकता। जिनको दूसरों की बुराई का चिन्तन भला लगता है, वह अपनी बुराई का भी चिन्तन करने लगता है फिर इस प्रकार के विचार उसके मन को नहीं छोड़ते। अब यदि वह चाहे कि अमुक अशुभ विचार को हम छोड़ दें तो भी अब वह उसे छोड़ने में असमर्थ होता है। वहीं मनुष्य अपने विचारों पर नियन्त्रण कर सकता है जिसकी आत्मा बलवान और विवेकी है। जिस साँप को हम दूसरों के काटने के लिये पाले हैं, वहीं साँप किसी असावधानी की अवस्था में अपने आपको काट सकता है। दूसरों को दुःख देने के विचार साँप के सदृश है। अतएव सबका सदा कल्याण सोचना, किसी का भी अहित न सोचना, बुरे विचारों के निराकरण का पहला उपाय है।

जिस व्यक्ति के प्रति हम बुरे विचार लाते हैं उससे हम घृणा करने लगते हैं। घृणा की वृत्ति उलट कर भय की वृत्ति बन जाती है। जो दूसरों की मानहानि का इच्छुक है उसके मन में अपने आप ही अपनी मान हानि का भय उत्पन्न हो जाता है। जो दूसरों की शारीरिक क्षति चाहता है, उसे अपने शरीर के विषय में अनेक रोगों की कल्पना अपने आप उठने लगती है। जो दूसरों की असफलता चाहता है वह अपनी सफलता के विषय में सन्देहात्मक हो जाता है।

हमें यहाँ ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी भावना व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित नहीं रहती। हम किसी समय एक विशेष व्यक्ति से डर रहे हों, संभव है वह व्यक्ति हमारा कुछ बुरा न कर सके वह किसी कारण से हमसे दूर हो जाये। किन्तु इस प्रकार व्यक्ति विशेष से दूर हो जाने पर हम अपनी दुर्भावना से मुक्त नहीं होते। यह भावना अपना एक दूसरा विषय खोज लेगी।

क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 13

👉 मनुष्य तुच्छता को छोड़े और महान बने

भारत माता चाहती हैं कि उसके पुत्रों की नस-नस में एक नवीन शक्ति का विद्युत सञ्चार हो। लोग साहसी बनें। कायरता से घृणा करें। संकीर्णता और स्वार्थपरता कायरता के चिह्न हैं। आदर्श के मार्ग पर चलते हुए जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उन्हें प्रसन्नतापूर्वक शिरोधार्य करना ही साहस और वीरता है। कायर घड़ी-घड़ी मरते रहते हैं पर वीर पुरुष केवल एक ही बार मरते हैं और वह भी शानदार परंपरा स्थापित करते हुए।

मनुष्य तभी तक मनुष्य है जब तक वह पशु प्रवृत्ति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता रहता है। संसार पर विजय प्राप्त करना गौरव-पूर्ण है पर अपनी दुर्बलताओं ही को जीत लेना सब से बड़ी विजय है। साहित्य, विज्ञान और कला-कौशल में निष्णात होना अच्छी बात है पर मनुष्य जीवन की समस्याओं वासनाओं, भावनाओं और आकाँक्षाओं को समझना और उनके नियन्त्रण करने की विधि जानना सब से बड़ी बात है। आज की सब से बड़ी आवश्यकता है कि लोग साहसी बनें। संकीर्णता, स्वार्थपरता और तुच्छता से घृणा करें और महान बनने के लिए साहसपूर्वक कदम बढ़ाते चलें।

स्वामी विवेकानन्द
अखण्ड ज्योति जून 1963 पृष्ठ 1

👉 सच्चा आनन्द प्राप्त करने का मार्ग

कर्म करना—कर्तव्य धर्म का पालन मनुष्य का धर्म है। इसको छोड़ने की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है। पर काम करते समय आत्म-भाव को न भुलाना चाहिए और इसके लिए प्रतिदिन नियमपूर्वक ध्यान करना भी जरूरी है। इस प्रकार के ध्यान से आत्मिक विचारधारा दूसरे कार्य करते समय भी बहती रहेगी।

इससे दुनिया को मनुष्यों एवं घटनाओं को तुम दूसरी ही दृष्टि से देखने लगोगे। इससे स्वार्थ भी छूट जायगा और दुनिया के बन्धन भी कष्ट नहीं देंगे। सच्चा आनन्द प्राप्त करने का यही मार्ग है। संसार में कोई जाने या अनजाने आनन्द प्राप्त करने की ही चेष्टा कर रहे हैं। कोई शराब पीकर उस आनन्द का भागी बनना चाहता है और कोई उत्तम मार्ग का अवलम्बन करके उसे प्राप्त करता है। आनन्द ही मनुष्यों का सच्चा और सहज स्वभाव है।

सभी लोग ऐसा निर्मल सुख चाहते हैं जिसमें किसी दुःख का पुट न हो। सभी ऐसे ही आनन्द की खोज में हैं। पर यह केवल उन्हीं को मिल सकता है जो कर्म और ज्ञान का—लौकिकता और आध्यात्म का उचित सामञ्जस्य करने में सक्षम होते हैं।

महर्षि रमण
अखण्ड ज्योति अप्रैल 1963 पृष्ठ 1

👉 बेहूदा मजाक

द्वापर के अन्त की बात है। युधिष्ठिर को राज सिंहासन मिलने वाला था। चारों ओर खूब सजावट हो रही थी, राजमहल तो अद्भुत कला कौशल के साथ सजाया गया था। कलाकारों ने बहुमूल्य काँच और मणियों से इस प्रकार के नक्षत्र बनाये थे जहाँ जल से भरे हुए स्थान थल, और थल दिखाई पड़ने वाले स्थान जलाशय प्रतीत होते। बड़े-बड़ों की बुद्धि वहाँ चकरा जाती थी। दुर्योधन को यह सब पता न था, जब वे उधर से निकले थे, सूखी जमीन के धोखे जलाशय में चले गये। कपड़े भीगकर तर हो गये, दर्शकों की दन्तावली उपहास करती हुई खुल पड़ी। उतावली द्रौपदी से न रहा गया उसने कह ही तो दिया- “अन्धे के अन्धे ही होते हैं।”

मजाक करना उच्चकोटि की कला है। किसी को चिढ़ाना मजाक नहीं मूर्खता है और खासतौर से जब कोई व्यक्ति किसी कष्ट में पड़ गया हो तब उसे चिढ़ाना तो परले सिरे का बेहूदापन है। दुर्योधन के कलेजे में द्रौपदी के शब्द तीर की तरह पार निकल गये। एक स्त्री द्वारा अपने पिता तक का अपमान होते सुनकर दुर्योधन का कलेजा जल-भुनकर खाक हो गया। मुँह से उस समय वह कुछ न बोला पर विषधर सर्प की तरह प्रतिहिंसा की आग स्थायी रूप से उसकी छाती में सुलग गई।

हर आदमी जानता है कि महाभारत में कैसी रोमाँचकारी रक्त की नदियाँ बहीं और अनेक दृष्टियों के कैसे-कैसे दुष्परिणाम निकले। इस सब की मूल में एक बहुत ही छोटी वस्तु थी, और वह थी- ‘बेहूदा मजाक।’ हममें से बहुत आदमी द्रौपदी की गलती को अक्सर दुहराया करते हैं और अकारण मित्रों को शत्रु बनाया करते हैं।

अखण्ड ज्योति से

सोमवार, 4 जुलाई 2022

👉 आध्यात्मिकता की मुस्कान

इस संसार में सब कुछ हँसने को लिए उपजाया गया है। जो बुरा और अशुभ है वह हमारी प्रखरता की चुनौती के रूप में है। परीक्षा के प्रश्न पत्रों के देखकर जो छात्र रोने लगे, उसे अध्ययनशील नहीं माना जा सकता। जिसने थोड़ी-सी आपत्ति-असफलता एवं प्रतिकूलता को देखकर रोना-धोना शुरू कर दिया, उसकी आध्यात्मिकता पर कौन विश्वास कर सकता है? प्रतिकूलता हमारा साहस बढ़ाने, धैर्य को मजबूत करने और सामर्थ्य को विकसित करने आती है। सरल जिन्दगी यदि संयत हो सके तो वह सबसे भद्दे ढंग की ही होगी क्योंकि वह जो सरलता पूर्वक दिन गुजारता रहता है उसमें न तो किसी प्रकार की विशेषता रह जाती है और न प्रतिभा। संघर्ष के बिना भी भला कहीं, इस दुनिया में किसी का जीना सम्भव हुआ है।

नई उपलब्धियों में हमें हँसना चाहिए, अब तक मिल चुका उससे सन्तोष व्यक्त करना चाहिए और भविष्य की शुभ सम्भावनाओं की कल्पना करके सदा प्रमुदित होते रहना चाहिए। रोना एक अभिशाप है जो केवल अविवेकी लोगों को शोभा देता है। जिसे आत्मा के स्वरूप का ज्ञान है और परमात्मा की महत्ता, कुशलता और विनोद को समझता है उसे हँसने मुस्कराने की परिस्थितियों के अतिरिक्त और कुछ इस जीवन में अनुभव ही क्या हो सकता है?

~ महर्षि रमण
~ अखण्ड ज्योति जनवरी 1965 पृष्ठ 1

👉 जड़े गहरी जानी चाहिए

जापान में जहाँ देवदारु के पेड़ तीन-चार सौ फीट तक ऊँचे होते है, वहाँ कुछ ऐसे भी होते हैं जो बहुत पुराने होने पर भी दो-चार फीट के ही रह जाते हैं। इन बौने पेड़ों के बारे में मुझे बड़ा अचम्भा हुआ और उनके न बढ़ने का कारण मालूम किया तो बताया गया कि जापानी लोग जान बूझकर कौतूहलवश इन्हें छोटा बनाये रहते हैं, अपनी कारिस्तानी से बढ़ने नहीं देते। कारिस्तानी यह कि वे पेड़ की टहनियाँ और पत्तों को जरा भी नहीं छेड़ते पर उसकी जड़ों को जमीन में बढ़ने नहीं देते और उनकी बराबर काट-छाँट करते रहते हैं।

इंसानों में से अनेकों ऐसे होते हैं जिन्हें बहुत छोटा या ओछा कहा जाता है। जापान के देवदारु पेड़ों की तरह उनकी भी जड़ें भीतर ही भीतर कटती रहती हैं और वे बौनी जिन्दगी बिताते रहते हैं। जो पेड़ बढ़ना और फलना-फूलना चाहता है उसकी जड़ों को गहराई तक जाना जरूरी हैं। जो मनुष्य उन्नतिशील बनना चाहता है उसके लिए यही उचित है कि अन्तरात्मा की जमीन में सद्गुणों को जड़ों की निरन्तर बढ़ाता चले, जब तक जड़ें न बढ़ेंगी पेड़ के बढ़ने और फलने फूलने की आशा कैसे की जा सकती है?

~ स्वामी रामतीर्थ
~ अखण्ड ज्योति सितम्बर 1963 पृष्ठ 1

👉 देने से ही मिलता है

यदि हम कुछ प्राप्त करना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है- ‘देने के लिए तैयार होना।’ इस जगत में कोई वस्तु बिना मूल्य नहीं मिलती। हर वस्तु का पूरा-पूरा मूल्य चुकाना पड़ता है। जो देना नहीं चाहता वरन् लेने की योजनाएं ही बनाता रहता है वह सृष्टि के नियमों से अनजान ही कहा जायेगा।

यदि समुद्र बादलों को अपना जल देना न चाहे तो उसे नदियों द्वारा अनन्त जल राशि प्राप्त करते रहने की आशा छोड़ देनी पड़ेगी। कमरे की किवाड़ें और खिड़कियाँ बंद करली जायें तो फिर स्वच्छ वायु का प्रवेश वहाँ कैसे हो सकेगा? जो मलत्याग नहीं करना चाहता उसके पेट में तनाव और दर्द बढ़ेगा, नया, सुस्वादु भोजन पाने का तो उसे अवसर ही न मिलेगा। झाडू न लगाई जाय तो घर में कूड़े के ढेर जमा हो जायेंगे। जिस कुंए का पानी खींचा नहीं जाता उसमें सड़न ही पैदा होती है।

त्याग के बिना प्राप्ति की कोई सम्भावना नहीं। घोर परिश्रम करने के फलस्वरूप ही विद्यार्थी को विद्या, व्यापारी को धन, उपकारी को यज्ञ और साधक को ब्रह्म की प्राप्ति होती है। कर्त्तव्य पालन करने के बदले में अधिकार मिलता है और निःस्वार्थ प्रेम के बदले में दूसरों का हृदय जीता जाता है। जो लोग केवल पाना ही चाहते हैं देने के लिए तैयार नहीं होते उन्हें मिलता कुछ नहीं, खोना पड़ता है।

आनन्द देने में है। जो जितना देता है उससे अनेक गुना पाता है। पाने का एकमात्र उपाय यही है कि हम देने के लिए तैयार हों। जो जितना अधिक दे सकेगा उसे उसके अनेक गुना मिलेगा। इस जगत का यही नियम अनादि काल से बना और चला आ रहा है। जो इसे जान लेते हैं उन्हें परिपूर्ण तृप्ति पाने की साधना सामग्री भी प्राप्त हो जाती है।

~ स्वामी विवेकानन्द
~ अखण्ड ज्योति नवम्बर 1963 पृष्ठ 1

👉 जीवन का स्वरूप और अर्थ

जीवन का अर्थ है आशा, उत्साह और गति। आशा, उत्साह और गति का समन्वय यही जीवन है। जिसमें जीवन का अभाव है उसमें इन तीनों गुणों का न होना निश्चित है। साथ ही जिनमें यह गुण परिलक्षित न हों समझ लेना चाहिए कि उनमें जीवन का तत्व नष्ट हो चुका है।

 केवल श्वास-प्रश्वास का आवागमन अथवा शरीर में कुछ हरकत होते रहना ही जीवन नहीं कहा जा सकता। जीवन की अभिव्यक्ति ऐसे सत्कर्मों में होती है, जिससे अपने तथा दूसरों के सुख में वृद्धि हो!

अपनी वर्तमान परिस्थिति से आगे बढ़ना, आज से बढ़कर कल पर अधिकार करना, अच्छाई को शिर पर और बुराई को पैरों तले दबाकर चलने का नाम जीवन है। कुकर्म करने तथा बुराई को प्रश्रय देने वाला मनुष्य जीवित दीखता हुआ भी मृत ही है। क्योंकि कुकर्म और कुविचार मृत्यु के प्रतिनिधि हैं इनको आश्रय देने वाला मृतक के सिवाय और कौन हो सकता है।

~ सुब्रह्मण्य भारती
~ अखण्ड ज्योति फरवरी 1966 पृष्ठ 1

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...