🌞 पहला अध्याय
🔴 काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार और इन्द्रिय वासनाएँ मनुष्य के आनन्द में बाधक बनकर उसे दुःखजाल में डाले हुए हैं। पाप और बन्धन की यह मूल हैं। पतन इन्हीं के द्वारा होता है और क्रमशः नीच श्रेणी में इनके द्वारा जीव घसीटा जाता रहता है। विभिन्न अध्यात्म पन्थों की विराट साधनाएँ इन्हीं दुष्ट शत्रुओं को पराजित करने के चक्रव्यूह हैं। अर्जुन रूपी मन को इसी महाभारत में प्रवृत्त करने का भगवान का उपदेश है।
🔴 इस पुस्तक के अगले अध्यायों में आत्म दर्शन के लिए जिन सरल साधनों को बताया गया है, उनकी साधना करने से हम उस स्थान तक ऊँचे उठ सकते हैं, जहाँ सांसारिक प्रवृत्तियों की पहुँच नहीं हो सकती। जब बुराई न रहेगी, तो जो शेष रह जाय, वह भलाई होगी। इस प्रकार आत्मदर्शन का स्वाभाविक फल दैवी सम्पत्ति को प्राप्त करना है। आत्म-स्वरूप का, अहंभाव का आत्यन्तिक विस्तार होते-होते रबड़ के थैले के समान बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा-परमात्मा में जा मिलता है।
🔵 इस भावार्थ को जानकर कई व्यक्ति निराश होंगे और कहेंगे-यह तो संन्यासियों का मार्ग है। जो ईश्वर में लीन होना चाहते हैं या परमार्थ साधना करना चाहते हैं, उनके लिए यह साधन उपयोगी हो सकता है। इसका लाभ केवल पारलौकिक है, किन्तु हमारे जीवन का सारा कार्यक्रम इहलौकिक है। हमारा जो दैनिक कार्यक्रम व्यवसाय, नौकरी, ज्ञान-सम्पादन, द्रव्य-उपार्जन, मनोरंजन आदि का है, उसमें से थोड़ा समय पारलौकिक कार्यों के लिए निकाल सकते हैं, परन्तु अधिकांश जीवनचर्या हमारी सांसारिक कार्यों में निहित है। इसलिए अपने अधिकांश जीवन के कार्यक्रम में हम इसका क्या लाभ उठा सकेंगे?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 काम, क्रोध, लोभ, मोहादि विकार और इन्द्रिय वासनाएँ मनुष्य के आनन्द में बाधक बनकर उसे दुःखजाल में डाले हुए हैं। पाप और बन्धन की यह मूल हैं। पतन इन्हीं के द्वारा होता है और क्रमशः नीच श्रेणी में इनके द्वारा जीव घसीटा जाता रहता है। विभिन्न अध्यात्म पन्थों की विराट साधनाएँ इन्हीं दुष्ट शत्रुओं को पराजित करने के चक्रव्यूह हैं। अर्जुन रूपी मन को इसी महाभारत में प्रवृत्त करने का भगवान का उपदेश है।
🔴 इस पुस्तक के अगले अध्यायों में आत्म दर्शन के लिए जिन सरल साधनों को बताया गया है, उनकी साधना करने से हम उस स्थान तक ऊँचे उठ सकते हैं, जहाँ सांसारिक प्रवृत्तियों की पहुँच नहीं हो सकती। जब बुराई न रहेगी, तो जो शेष रह जाय, वह भलाई होगी। इस प्रकार आत्मदर्शन का स्वाभाविक फल दैवी सम्पत्ति को प्राप्त करना है। आत्म-स्वरूप का, अहंभाव का आत्यन्तिक विस्तार होते-होते रबड़ के थैले के समान बन्धन टूट जाते हैं और आत्मा-परमात्मा में जा मिलता है।
🔵 इस भावार्थ को जानकर कई व्यक्ति निराश होंगे और कहेंगे-यह तो संन्यासियों का मार्ग है। जो ईश्वर में लीन होना चाहते हैं या परमार्थ साधना करना चाहते हैं, उनके लिए यह साधन उपयोगी हो सकता है। इसका लाभ केवल पारलौकिक है, किन्तु हमारे जीवन का सारा कार्यक्रम इहलौकिक है। हमारा जो दैनिक कार्यक्रम व्यवसाय, नौकरी, ज्ञान-सम्पादन, द्रव्य-उपार्जन, मनोरंजन आदि का है, उसमें से थोड़ा समय पारलौकिक कार्यों के लिए निकाल सकते हैं, परन्तु अधिकांश जीवनचर्या हमारी सांसारिक कार्यों में निहित है। इसलिए अपने अधिकांश जीवन के कार्यक्रम में हम इसका क्या लाभ उठा सकेंगे?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य