शनिवार, 25 फ़रवरी 2023

👉 छात्र जीवन निर्माण करें

सबसे पहले मानव जीवन प्राप्त करने वाला प्राणी अपने पूर्व जन्म के कर्मानुसार अपनी माँ के गर्भ से संसार में आता है। प्रारम्भ से प्राप्त माँ बाप के सहयोग से बाल्यावस्था का प्रथम चरण व्यतीत करके द्वितीय चरण में शिक्षकों के सहयोग में भेजा जाता है और वहीं से उसका जीवन निर्माण शुरू होता है। शिक्षा के साथ साथ वह वहाँ शासन में रहना तथा शासन करना भी सीखता है और शिक्षकों के अनुकूल आचरणों का समावेश भी उसमें पूर्ण रूप से हो जाता है। यही कारण है कि आज का भारत उत्थान की तरफ न जाकर पतनोन्मुख हो रहा है। क्योंकि प्रायः आज का शिक्षकवर्ग भारतीय संस्कृति के विपरीत है। कुम्भकार अवा में पकाने से पहले घड़े जैसी मीनाकारी करता है वही अन्त तक रहती है। इसी तरह बाल्यावस्था में जैसी शिक्षा दीक्षा में बालक रहता है वैसा ही जीवन का निर्माण होता है।

इसलिये बालकों के अभिभावकों को विशेष तौर से सोचना चाहिये कि आधुनिक शिक्षकों के ऊपर ही सारा भार बालकों को सौंपकर निश्चिन्त न हो जावें—अपितु उनके अलावा रहन सहन सदाचार आदि के विषय में—पूर्ण रूप से सतर्क रहें क्योंकि महापुरुषों की यथार्थ उक्ति है कि जिसका प्रातः नष्ट हो गया, उसका सम्पूर्ण दिन खत्म हो गया और जिसकी बाल्यावस्था बिगड़ गई उसका जीवन समाप्त हो गया। जिसका आचरण चला गया उसका सर्वस्व नष्ट हो गया। यह प्रायः देखा गया है कि जिन लोगों के पूर्व संस्कार कमजोर हैं, उन्हीं पर सहवास और संगति का प्रबल प्रभाव पड़ता है। हमारे प्रातः स्मरणीय स्वामी विवेकानन्द और स्वामी रामतीर्थ ने पाश्चात्य संस्कृति से संतप्त शिक्षणालयों में शिक्षा प्राप्त करके भी अपने वास्तविक अध्यात्म प्रकाश से सारे जगत को प्रकाशित किया।

इस प्रकार अच्छे अभिभावक तथा शिक्षकों के सहवास में रहकर संसार संग्राम में विजयी होने के अनुकूल गुणों को ग्रहण करके गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने अथवा नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर सन्त विनोबा की भाँति लोक सेवा में संलग्न हो जावें। समय की प्रति मिनट को अमूल्य समझकर स्वास्थ्य के नियमों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए और ईश्वर की उपासना के बल पर विघ्नों को पराजित कर वर्तमान को सुधारते हुए भूत−भविष्यत् का पूरा ध्यान रखते हुए—सच्ची जनसेवा में जुट जावें, अपने संकट कालीन तथा सफल जनक अनुभव संसार को बताते हुए आगे बढ़ें और शास्त्र की मर्यादानुकूल गृहस्थ जीवन में प्रविष्ट होने वाले लोग तो सबसे पहले सात्विक गुरु की खोज करें।

इस समय में वास्तविक सन्तों का अभाव सा है किन्तु सच्ची लगन वालों को अवश्य निधि मिलती है। प्रयत्न करने पर भी यदि सफलता न मिले तो सच्छात्रों के वचनानुसार अपने जीवन को बनावें। ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ लोकोपकार के लिये जीवन निर्मित करे। फैशनपरस्ती की मूर्खता से दूर रहकर वास्तविक सौंदर्य की कुञ्जी ब्रह्मचर्य तथा सदाचार का पालन करे। अपने जीवन से लोगों को शिक्षा देता हुआ, समय के सच्चे रहस्य को समझकर चलना शुरू करे। नवयुवक विद्यार्थी अपना निर्माण इस तरह करके लोगों को सत्प्रेरणा देना शुरू करें तो थोड़े ही समय में भारत का भाग्य चमकने लगे।

📖 अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 24


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👉 आप में कितना आत्म विश्वास है?

‘अखंड ज्योति’ के पाठक अच्छी तरह जानते होंगे कि जीवन में सब प्रकार की सफलताएं आत्म विश्वास पर निर्भर हैं। जिसमें आत्म विश्वास जितना कम होगा वह सफलता से उतना ही पिछड़ा होगा। इसलिए अपने आत्म विश्वास के संबंध में जानकारी रखना आवश्यक है।

नीचे एक सरल गणित दिया जाता है जिससे पाठक यह जान सकें कि हम में कितना आत्म विश्वास हैं। जो 20 प्रश्न नीचे दिये गये हैं उनमें से हर एक को क्रमश अपने सामने रखिए हर प्रश्न के संबंध में अपनी स्थिति को अच्छी तरह सोचिये और उसका उत्तर ‘हाँ’ या ‘नहीं’ में एक कागज पर लिख लीजिए।

जितने प्रश्नों का उत्तर ‘हाँ’ आया हो उनकी संख्या को 5 से गुणा कर दीजिए। यही संख्या आपके आत्म विश्वास के नम्बर हैं। पूरा आत्म विश्वास 100 नंबर का होता है। यदि आपको 50 नंबर भी मिल जायं तो समझिये कि पास हो गये। आप में काम चलाने लायक आत्म विश्वास है।

यदि अधिक नंबर मिले तो उतनी ही अधिक योग्यता समझिये। यदि 50 से भी कम नंबर मिलें तो समझिये कि आपका आत्म विश्वास अभी बहुत कम है। उसे बढ़ाये बिना जीवन संग्राम में विजय प्राप्त नहीं की जा सकती।

🔷 प्रश्न
(1) क्या आप किसी संस्था, दल या जनसमूह के मुखिया या पदाधिकारी रहते हैं?
(2) क्या आपके मालिक, सहयोगी बड़े-बूढ़े आपके काम से संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं।
(3) क्या आपने किन्हीं प्रतियोगिताओं में इनाम पाया है।
(4) क्या आप गलतियों को स्वीकार कर लेते हैं? और उन्हें आइंदा न करने का निश्चय एवं पश्चाताप करते हैं?
(5) जो बात आपको पसंद नहीं उसे निर्भयता पूर्वक लोगों के सामने रख देते हैं?
(6) क्या आप लोगों से अपना अधिक परिचय बढ़ाने का प्रयत्न करते रहते हैं?
(7) आपको शरीर और वस्त्र बिल्कुल स्वच्छ रखने की आदत है?
(8) क्या आप बड़े आदमियों से बिना झिझके मिलते हैं? और उन से आवश्यक विषयों पर बिना संकोच के पूरी बात चीत करते हैं?
(9) दूसरों को गलत मार्ग पर जाते हुए देख कर क्या आप उनको समझाते हैं? और अनुचित कार्यवाही को रोकने का प्रयत्न करते हैं?
(10) सवालों का जवाब देना आपको रुचिकर लगता है?
(11) क्या आपको दूसरों से प्रश्न पूछने में आनंद आता है?
(12) क्या आप अपने स्वभाव और कामों के ऊपर गर्व और आत्म संतोष रखते हैं?
(13) क्या आप सुन्दर भविष्य की कल्पना रखते हुए हैं? और अपने को भाग्यशाली समझते हैं?
(14) आपको किन्हीं विषयों में विशेष रुचि हैं?
(15) पढ़ना और खेलना आपके प्रिय विषय हैं?
(16) क्या शत्रुओं की उपेक्षा आपके मित्र अधिक हैं?
(17) उत्सवों, प्रीतिभोजों, सम्मेलनों में आपको अधिकतर निमंत्रित किया जाता है?
(18) कठिनाई पड़ने पर आप घबरा तो नहीं जाते ? साहसपूर्वक उनका मुकाबला कर लेते हैं न?
(19) विरोधी विचार वालों के साथ शाँतिपूर्वक विवाद करते रहते हैं?
(20) आपने अपने जीवन का कोई लक्ष नियत कर लिया है? और उस पर निश्चित भाव से आगे बढ़ते रहते हैं।

📖 अखण्ड ज्योति 1940 जुलाई पृष्ठ 16

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👉 बुरे विचारों से दूर रहिए (अन्तिम भाग)

🔶 बुरे विचारों के निरोध का उपाय सबसे प्रथम उनको पहचानना ही है। जिनके विचारों को। हम बुरे विचार मानते ही नहीं, उन्हें हम अपने मनोमन्दिर में प्रवेश करने से क्योंकर रोक सकेंगे? यदि दूसरों के धनापहरण के विचार को हम उत्तम विचार मानते हैं तो उसे अपने मन में आने से रोकने की जगह भली प्रकार से उसका स्वागत करेंगे। जो विचार बुरे होते हैं। वे उनके प्रथम स्वरूप में ही बुरे नहीं लगेंगे, उनके परिणाम बुरे होते हैं। विचारवान व्यक्ति ही इस बात को जान सकता है कि अमुक विचार अन्त में दुखदायी होगा।
संसार के अत्याधिक मनुष्यों को यह समझाना ही कठिन है कि उनके विचार ही उनके सुख-दुख के कारण हैं।

🔷 मनुष्यमात्र में अपने आप पर विवेचना करने की शक्ति का अभाव होता है। हम सभी बहिर्मुखी हैं। हम अपने कष्टों का कारण दूसरों को मानने में सन्तोष पाते हैं। अपने दोषों को दूसरे में देखते हैं। जिस अवाँछनीय घटना की जड़ हमारे विचारों में ही है उसे हम दूसरे व्यक्तियों में देखते हैं। इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति को दोषारोपण की प्रवृत्ति कहते हैं अथवा प्रोजेक्शन कहते है। वही मनुष्य बुरे विचारों के निरोध में समर्थ होता है, जो अपने आपके विषय में सदा चिन्तन करता है और जो परोक्ष रूप से भी यह जानता है कि मनुष्य का मन ही दुख और दुखों का कारण है। ऐसे ही मनुष्य में भले ओर बुरे विचारों के पहचानने की शक्ति उत्पन्न होती है।

🔶 किसी भी ऐसे विचार को बुरा विचार कहना चाहिये जो आत्मा को दुःख देता हो, उसको भ्रम में डालता हो। बीमारी के विचारों और असफलता के विचारों को सभी बुरा कहेंगे यह प्रत्यक्ष ही है कि इन विचारों से मन को दुख होता है और अनहोनी घटना होके रहती है। किन्तु इस बात को मानने के लिये कम लोग तैयार होंगे कि शत्रुता के विचार, दूसरों को क्षति पहुंचाने के विचार भी बुरे विचार है। ये विचार भी उसी प्रकार हमारी आत्मा का बल कम कर देते हैं जिस प्रकार कि असफलता और बीमारी के विचार आत्मा का बल कम कर देते हैं।

.... समाप्त
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14

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👉 बुरे विचारों से दूर रहिए (भाग 2)

🔷 हमें यहाँ ध्यान रखना चाहिये कि कोई भी भावना व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित नहीं रहती। हम किसी समय एक विशेष व्यक्ति से डर रहे हों, संभव है वह व्यक्ति हमारा कुछ बुरा न कर सके वह किसी कारण से हमसे दूर हो जाये। किन्तु इस प्रकार व्यक्ति विशेष से दूर हो जाने पर हम अपनी दुर्भावना से मुक्त नहीं होते। यह भावना अपना एक दूसरा विषय खोज लेगी।

🔶 हमारे जीवन का सुख और दुःख हमारे विचारों पर ही निर्भर रहता है। आधुनिक मनोविज्ञान की खोजों से पता चलता है कि मनुष्य का न सिर्फ आन्तरिक जीवन वरन् उसके समस्त जीवन के व्यवहार तथा शारीरिक स्वास्थ्य भी मन की कृष्ट तथा अकृष्ट गतियों का परिणाम मात्र है। अशुभ विचारों का लाना ही अपने जीवन को दुखी बनाना है, तथा शुभ विचारों का लाना सुखी बनाना है।

🔷 अब प्रश्न यह आता है कि हम अशुभ विचारों को आने से कैसे रोकें जिससे कि उनसे पैदा किये दुखों से हम बच सकें? यह प्रश्न बड़े महत्व का है और संसार के समस्त मनस्वी लोगों ने इस प्रश्न पर गम्भीर विचार किया है। किन्तु इस विषय पर जितना ही विचार किया जाय श्रेयस्कर है। प्रत्येक मनुष्य को इस विषय पर विचार करना चाहिये। दूसरों के विचारों से हमें लाभ अवश्य होता है किन्तु जब तक हम दूसरों के विचारों का मनन नहीं करते, उनसे भली प्रकार लाभ नहीं उठा सकते। लेखक पहले इस विषय पर अपने विचारों का उल्लेख करेगा इस लेख का तात्पर्य यहाँ है कि प्रत्येक पाठक को इस विषय पर विचार करने को प्रस्तुत किया जाय, ताकि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण समस्या को अपने आप सुलभ कर सकें।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 14

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👉 बुरे विचारों से दूर रहिए (भाग 1)

🔷 हमारा मन अभ्यास का दास है। जिस प्रकार का अभ्यास मन को कराया जाता है उसी प्रकार उसका अभ्यास सदा के लिए बन जाता है। जिस मनुष्य को पढ़ने-लिखने का अभ्यास रहता है, उसका मन रुचि के साथ ऐसे काम को करने लगता है। ऐसे व्यक्ति से बिना पढ़े-लिखे रहा ही नहीं जाता। जिस मनुष्य को दूसरों की निन्दा करने का अभ्यास है, जो दूसरों के अहित का सदा चिन्तन किया करता है, वह भी उन कर्मों को किये बिना रह नहीं सकता ऐसे कार्य उसकी एक प्रकार की नशा जैसे व्यसन हो जाते हैं, वह व्यक्ति अनायास ही दूसरों की निंदा और अकल्याण सोचने में लग जाता है। दूसरों की स्तुति सुनकर उसे बुखार जैसा आ जाता है।

🔶 जिस व्यक्ति का इस प्रकार का अभ्यास हो जाता है वह जब अपने आपके विष में अशुभ विचार लाता है तो उन विचारों का भी विरोध नहीं कर सकता। जिनको दूसरों की बुराई का चिन्तन भला लगता है, वह अपनी बुराई का भी चिन्तन करने लगता है फिर इस प्रकार के विचार उसके मन को नहीं छोड़ते। अब यदि वह चाहे कि अमुक अशुभ विचार को हम छोड़ दें तो भी अब वह उसे छोड़ने में असमर्थ होता है। वहीं मनुष्य अपने विचारों पर नियन्त्रण कर सकता है जिसकी आत्मा बलवान और विवेकी है। जिस साँप को हम दूसरों के काटने के लिये पाले हैं, वहीं साँप किसी असावधानी की अवस्था में अपने आपको काट सकता है। दूसरों को दुःख देने के विचार साँप के सदृश है। अतएव सबका सदा कल्याण सोचना, किसी का भी अहित न सोचना, बुरे विचारों के निराकरण का पहला उपाय है।

🔷 जिस व्यक्ति के प्रति हम बुरे विचार लाते हैं उससे हम घृणा करने लगते हैं। घृणा की वृत्ति उलट कर भय की वृत्ति बन जाती है। जो दूसरों की मानहानि का इच्छुक है उसके मन में अपने आप ही अपनी मान हानि का भय उत्पन्न हो जाता है। जो दूसरों की शारीरिक क्षति चाहता है, उसे अपने शरीर के विषय में अनेक रोगों की कल्पना अपने आप उठने लगती है। जो दूसरों की असफलता चाहता है वह अपनी सफलता के विषय में सन्देहात्मक हो जाता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 13

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (अन्तिम भाग)

किसी में गुण की कल्पना न कर सकने के कारण दोषदर्शी अविश्वासी भी होता है। वह किसी की सद्भावना एवं सहानुभूति में भी कान खड़े करने लगता है। प्रेम एवं प्रशंसा में भी स्वार्थपूर्ण चाटुकारिता का दोष देखता है। इसलिये संपर्क में आने और स्नेहपूर्ण बरताव करने वाले हर व्यक्ति से भयाकुल और शंकाकुल रहा करता है। उसे विश्वास ही नहीं होता कि संसार में कोई निःस्वार्थ और निर्दोष-भाव से मिल कर हितकारी सिद्ध हो सकता है। विश्वास, आस्था, श्रद्धा, सराहना से रहित व्यक्ति का खिन्न असंतुष्ट और व्यग्र रहना स्वाभाविक ही है, जैसा कि दोष-दर्शी रहता भी है।

यदि आपको अपने अन्दर इस प्रकार की दुर्बलता दिखी हो तो तुरन्त ही उसे निकालने के लिए और उसके स्थान पर गुण-ग्राहकता का गुण विकसित कीजिये। इस दशा में आपको हर व्यक्ति, वस्तु और वातावरण में आनंद, प्रशंसा अथवा विनोद की कुछ-न-कुछ सामग्री मिल ही जायेगी। दूसरों के गुण-दोषों में से उस हंस की तरह केवल गुण ही ग्रहण कर सकेंगे, जोकि पानी मिले हुए दूध में से केवल दूध-दूध ही ग्रहण कर लेता है और पानी छोड़ देता है।

दूसरों की अच्छाइयों को खोजने, उनको देख-देख प्रसन्न होने और उनकी सराहना करने का स्वभाव यदि अपने अन्दर विकसित कर लिया जाये तो आज दोष-दर्शन के कारण जो संसार, जो वस्तु और जो व्यक्ति हमें काँटे की तरह चुभते हैं, वे फूल की तरह प्यारे लगने लगें। जिस दिन यह दुनिया हमें प्यारी लगने लगेगी, इसमें दोष, दुर्गुण कम दिखाई देंगे, उस दिन हमारे हृदय से द्वेष एवं घृणा का भाव निकल जायेगा और हमें हर दिशा और हर वातावरण में प्रसन्नता ही आने लगेगी। दुःख, क्लेश और क्षोभ, रोष का कोई कारण ही शेष न रह जायेगा।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 24 


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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 5)

वस्तुतः बात यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु गुण-दोषमय ही है। कोई भी वस्तु एवं व्यक्ति ऐसा नहीं हो सकता कि जिसमें या तो गुण-ही-गुण भरे हों अथवा दोष-ही-दोष। अपनी दृष्टि के अनुसार हर व्यक्ति उसमें गुण या दोष देख कर प्रसन्न अथवा खिन्न हुआ करता है।

बुद्धिमान व्यक्ति अपने लाभ और हित के लिये हर बात के अच्छे-बुरे दो पहलूओं में से केवल गुण पक्ष पर ही दृष्टि डालता है। क्योंकि वह जानता है, कि विपक्ष पर ध्यान देने, उसको ही देखते रहने से मन को अशाँति के अतिरिक्त और कुछ हाथ न लगेगा, दोष-दृष्टि रखने और दोषान्वेषक करने से घृणा तथा द्वेष का ही प्रादुर्भाव होता है, जिसका परिणाम कलह-क्लेश अथवा अशाँति असन्तोष के सिवाय और कुछ नहीं होता। इससे वस्तु अथवा व्यक्ति की तो कुछ हानि होती नहीं अपना हृदय कलुषित और कलंकित होकर रह जाता है।

अपने दृष्टि-दोष के कारण प्रायः अच्छी चीजें भी बुरी और गुण भी अवगुण होकर हानिकारक बन जाते हैं। जैसे स्वाँति-जल का ही उदाहरण ले लीजिये। स्वाँति की बूँद जब सीप के मुख में पड़ जाती है, तब मोती बन कर फलीभूत होती है और यदि वही बूँद साँप के मुख में पड़ जाती है तो विष का रूप धारण कर लेती हैं। वस्तु एक ही है किन्तु वह उपयोग और संपर्क के गुण दोष के कारण सर्वथा विपरीत परिणाम में फलीभूत हुई।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 23

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1968/May/v1.24

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 4)

किसी मित्र सम्बन्धी अथवा आत्मीयजन ने मानिये जन्म-दिन अथवा किसी अन्य शुभ अवसर पर अपनी योग्यता एवं समाज के अनुसार कोई उपहार दिया अथवा भेजा। कोई भी व्यक्ति इस सम्मान और स्नेह से पुलकित हो उठता और आभार भरा धन्यवाद देते-देते न अघाता। किन्तु दोषदर्शी तो अपने रोग से मजबूर ही रहता है। यद्यपि वह आभार एवं धन्यवाद न प्रकट करने की असभ्यता नहीं करता तथापि और कुछ नहीं उसमें इतना ही शामिल कर देता कि आपने बेकार यह चीज भेजी। यह तो मेरे पास पहले से ही थी और मुझे ऐसा रंग यह डिजाइन पसन्द नहीं है। यह रंग और प्रकार उपहार के रूप में बहुत आम और सस्ते हो गये हैं। इससे अच्छा यह होता कि आप सद्भावना और बधाई के ही दो शब्द दे देते। बात भले ही सही रही हो। किन्तु इस भावना ने, इस दोष-दृष्टि ने उसको स्वयं तो प्रसन्न नहीं ही होने दिया साथ ही अपने मित्र और स्वजन की प्रसन्नता भी छीन ली।

यही बात नहीं कि दोष-दृष्टा केवल दूसरों में ही बुराई और कमियाँ देखता हो। स्वयं अपने प्रति भी उसका यही अत्याचार रहा करता है। उदाहरण के लिये वह बाजार से अपने लिये कोई वस्तु खरीदने जाती है। पहले तो वह कितनी ही प्रकार की चीजें क्यों न दिखलाई जायें, उसे पसन्द ही नहीं आती, सबमें कोई-न-कोई दोष दिखलाई देता है। वस्तु के निर्दोष होने पर भी वह अपनी और से किसी दोष का आरोपण कर ही लेगा। अपनी इस प्रक्रिया से थक जाने के बाद जब चीज लेकर घर आता है। तब भी उसका पेट अप्रशंसा से भरा नहीं होता। चीज डाली और कहना आरम्भ कर दिया- ‘‘खरीदने को खरीद तो अवश्य लाया लेकिन कुछ पसन्द नहीं आई। यदि पत्नी इस बात को नहीं मानती और चुनाव की प्रशंसा करती है, तो झूठी प्रशंसा का करने का आरोप पाती है। जब तक वह अपनी पसन्द, बाजारदारी, चीज की पहचान के विषय में आलोचना नहीं कर लेता, बुराई नहीं निकाल लेता, अपनी अकल और अनुभव को कोस नहीं लेता चैन नहीं पड़ता। इस प्रकार वह इस प्रसन्नता के छोटे अवसर को भी खिन्नता से कडुआ बना ही लेता है।

तात्पर्य यह है कि दोष-दर्शी कितने ही सुन्दर स्थान, वस्तु और व्यक्ति के संपर्क में क्यों न आये अपने अवगुण के प्रभाव से उससे मिलने वाले आनन्द से वंचित ही रहता है। निदान इस लम्बे-चौड़े संसार में उसे न तो कहीं आनन्द दीखता है और न किसी वस्तु में सामंजस्य का सुख प्राप्त होता है। उसे हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण अपनी रुचि के साथ असमंजस उत्पन्न करती ही दीखती है। जबकि गुण-ग्राहक हर व्यक्ति, हर वस्तु और हर वातावरण में सामंजस्य और सुन्दरता ही खोज निकालता है। यही कारण है कि गुण-ग्राहक सदैव प्रसन्न और दोषान्वेषक सदा खिन्न बना रहता है।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 23  

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 3)

अब दोष-दृष्टा को ले लीजिये। उसकी स्थिति बिल्कुल विपरीत होती है। जहाँ अन्य लोग उक्त महात्मा में गुण ही देख सके वहाँ उसे केवल दोष ही दिखाई दिये। उसका हृदय महात्मा के प्रशंसकों के बीच, उनकी कुछ खामियों के रखने के लिये बेचैन हो जाता। जब अवकाश अथवा अवसर न मिलता तो प्रशंसा में सम्मिलित होकर उनके बीच बोलने का अवसर निकाल कर कहना प्रारम्भ कर देता- ‘‘हाँ, महात्मा जी का व्याख्यान था तो अच्छा- लेकिन उतना प्रभावोत्पादक नहीं था, जितना कि लोग प्रभावित हुए अथवा प्रशंसा कर रहे हैं। कोई मौलिकता तो थी नहीं। यही सब बातें अमुक नेता ने अपनी प्रचार-स्पीच में शामिल करके देशकाल के अनुसार उसमें धार्मिकता का पुट दे दिया था। अजी साहब क्या नेता, क्या महन्त सबके-सब अपने रास्ते जनता पर नेतृत्व करने के सिवाय और कोई उद्देश्य नहीं रखते। यह सब पूजा, प्रतिष्ठा व पेट का धन्धा है।”

यदि लोग सच्चाई से विमुख होकर उससे सहमत न हुए तब तो वह वाद-विवाद के लिये मैदान पकड़ लेता है और अन्त में अपना दोषदर्शी चित्र दिखा कर लोगों की हीन दृष्टि का आखेट बन कर प्रसन्नता खो कर और विषण्ण होकर लौट आता है। जहाँ गुण ग्राहकों ने उस दिन महीनों काम आने वाली प्रसन्नता प्राप्त की, वहाँ दोष-दृष्टा ने जो कुछ टूटी-फूटी प्रसन्नता उस समय पास में थी वह भी गवाँ दी।

दोष-दर्शन की प्रक्रिया जोर पकड़ ही चुकी थी, उसकी सखी-सहेली झल्लाहट, खीझ, कुढ़न, कुण्ठा, अरुचि आदि सब साथ ही लगी हुई थीं। निदान घर आकर भोजन अच्छा न लगा पत्नी निहायत बेसऊर दिखाई देने लगी। बच्चे यदि सोते मिले तो नालायक हैं। शाम से ही सो जाते हैं। और यदि जगते मिले तो लापरवाह और तन्दुरुस्ती का ध्यान न रखने वाले बन गये। तात्पर्य यह कि उस दिन जहाँ अन्य सब लोग अधिक-से-अधिक प्रसन्नता के अधिकारी बने वहाँ दोषदर्शी के लिये हर बात खेदजनक और दुःखदायी बन गई।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 23  

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 2)

देखिये और जरा ध्यान से देखिये कि आपके अन्दर ‘दोष-दर्शन’ करने की दुर्बलता, तो नहीं घर पर बैठी है। क्योंकि ‘दोष-दर्शन’ का दृष्टिकोण भी जीवन को कुछ-कुछ ऐसा ही बना देता है। दोष-दर्शन और संतोष, दोष-दर्शन और प्रसन्नता, दोष-दर्शन तथा सामंजस्य का नैसर्गिक विरोध है। दोष-दृष्टि मनुष्य के हृदय पर उसके मानस पर एक ऐसा आवरण है, जो न हो बाहर की प्रसन्न- किरणों को भीतर प्रतिबिम्बित होने देता है और न भीतर का उल्लास बाहर ही प्रकट होने देता है। इसे मनुष्य एवं आनन्द के बीच एक लौह दीवार ही समझना चाहिये। लीजिये दोषदर्शी व्यक्तियों की दशा से अपना मिलान कर लीजिये और यदि अपने में दोष पायें तो तुरन्त सुधार कर डालिये, जिससे, अगले दिनों में आप भी उस प्रकार प्रसन्न रह सकें, जिस प्रकार लोग रहते हैं और उन्हें रहना ही चाहिये।

दोष-दर्शन से दूषित व्यक्ति जब किसी व्यक्ति के संपर्क में आता है, तब अपने मनोभाव के अनुसार उसके अन्दर बुराइयाँ ढूँढ़ने लगता है और हठात् कोई न कोई बुराई निकाल ही लेता है। फिर चाहे वह व्यक्ति कितना ही अच्छा क्यों न हो। उदाहरण के लिये किसी विद्वान महात्मा को ही ले लीजिये। लोग उसे बुलाते, आदर सत्कार करते और उसके व्याख्यान से लाभ उठाते हैं। महात्मा जी का व्याख्यान सुन कर सारे लोग पुलकित, प्रसन्न व लाभान्वित होते हैं।

उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते और अपने उतने समय को बड़ा सार्थक मानते। अनेक दिनों, सप्ताहों तथा मासों तक उस सुखद घटना का स्मरण करते और ऐसे संयोग की पुनरावृत्ति चाहने लगते। अधिकाँश लोग उस व्याख्यान का लाभ उठा कर अपना ज्ञान बढ़ाते, कोई गुण ग्रहण करते और किसी दुर्गुण से मुक्ति पाते हैं। वह उनके लिए एक ऐसा सुखद संयोग होता है जो गहराई तक अपनी छाप छोड़ जाता है, ऐसे ही सुव्यक्ति गुणाग्राही कहे जाते हैं।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 22

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👉 दोष-दृष्टि को सुधारना ही चाहिए (भाग 1)

क्या कभी अपने यह सोचा कि आप पग-पग पर खिन्न, असंतुष्ट, उद्विग्न अथवा उत्तेजित क्यों रहते हैं? क्यों आपको समाज, संसार मनुष्यों, मित्रों, वस्तुओं, परिस्थितियों यहाँ तक अपने से भी शिकायत रहती है? आप सब कुछ करते, बरतते और भोगते हुए भी वह मजा, आनन्द और प्रसन्नता नहीं पाते, जो मिलनी चाहिये और संसार के अन्य असंख्यों लोग पा रहे हैं। आप विचारक, आलोचक, शिक्षित, और सभ्य भी हैं, किन्तु आपकी यह विशेषता भी आपको प्रसन्न नहीं कर पाती। स्त्री-बच्चे, घर, मकान सब कुछ आपको उपलब्ध है। फिर भी आप अपने अन्दर एक अभाव और एक असंतोष अनुभव ही करते रहते हैं। घर, बाहर, मेले-ठेले, सफर, यात्रा, सभा-समितियों, भाषणों, वक्तव्यों- किसी में भी कुछ मजा ही नहीं आता। हर समय एक नाराजी, नापसन्दी एवं नकारात्मक ध्वनि परेशान ही रखती है। संसार की किसी भी बात, वस्तु और व्यक्ति से आपका तादात्म्य ही स्थापित हो पाता है।

साथ ही आप पूर्ण स्वस्थ हैं। मस्तिष्क का कोई विकार आपमें नहीं है। आपका अन्तःकरण भी सामान्य दशा में है और आस-पास में ऐसी कोई घटना भी नहीं घटी है, जिससे आपकी अभिरुचिता एवं प्रसादत्व विक्षत हो गया हो। ऐसा भी नहीं हुआ कि विगत दिनों में ही किसी ऐसे अप्रिय संयोग से सामंजस्य स्थापित करना है, जिसकी अनुभूति आज भी आपको विषाण बनाये हुए हैं।

वास्तव में बात बड़ी ही विचित्र और अबूझ-सी मालूम होती है। जब प्रत्यक्ष में इस स्थायी अप्रियता का कोई कारण नहीं दिख पड़ा, फिर ऐसा कौन-सा चोर, कौन-सा ठग आपके पीछे अप्रत्यक्ष रूप से लगा हुआ है, जो हर बात के आनन्द से आपको वंचित किए हुये आपके जन्म-सिद्ध अधिकार प्रसन्नता का अपहरण कर लिया करता है। इसको खोजिये, गिरफ्तार करिये और अपने पास से मार भगाइये। जीवन में सदा दुःखी और खिन्नावस्था में रहने का पाप न केवल वर्तमान ही बल्कि आगामी शत-शत जीवनों तक को प्रभावित कर डालता है।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति मई 1968 पृष्ठ 22  


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👉 कर्मफल व्यवस्था का एक सुनिश्चित स्वचालित तंत्र (अन्तिम भाग)

किसी के पास यदि पैसा कम है, पद छोटा है अथवा शरीर मोटा नहीं है तो उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि वे भाग्यहीन हैं। सच तो यह है कि यह जंजाल जितने कम होंगे आदमी उतनी ही तेजी से श्रेय पथ पर बढ़ सकेगा और वह लाभ प्राप्त कर सकेगा। जिसके कारण आत्मा की प्रसन्नता और परमात्मा की अनुकम्पा अजस्र मात्रा में बरसने लगे। ऋषियों में से प्रत्येक के पास साधन सामग्री स्वल्प थी। विवेकवानों को औसत भारतीय स्तर का निर्वाह स्वीकार करना पड़ता है और इससे अधिक यदि वे किसी प्रकार उपलब्ध कर सकें तो दूसरे हाथ से उसे सत् प्रयोजनों के लिए अविलम्ब लगा भी देते हैं। तपस्वी शक्ति संग्रह करते हैं। यह प्रक्रिया अपने साथ कठोरता बरतने और सर्वतोमुखी संयम अपनाने से ही बन पड़ती है। इस मार्ग को अपनाने वालो में से किसी को अपने दुर्भाग्य की शिकायत करते नहीं सुना गया। वरन् उनकी गरीबी की गरिमा को समझते हुए, हरिश्चन्द्र, हर्ष-वर्धन, अशोक आदि ने अपनी अमीरी को स्वेच्छापूर्वक निछावर कर दिया था।

ऊँचा उठने वालों को हलका बनाना पड़ता है, यदि किसी को कम वैभव से काम चलाने की परिस्थिति में रहना पड़ रहा है। अथवा अनीति के विरुद्ध संघर्ष करने में कष्ट सहना पड़ रहा है तो उसे आन्तरिक दृष्टि से प्रसन्नता अनुभव करते ही पाया जायेगा। इसके विपरीत जिनने अनीतिपूर्वक वैभव जमा कर लिया है। अथवा उच्छृंखल विलास दम्भ पूर्ण प्रदर्शन का साधन जुटा लिया है तो उसे भीतर और बाहर से लानत ही बरसती अनुभव होगी। इस सन्तोष पर कुबेर के खजाने को निछावर किया जा सकता है।

कर्मफल सुनिश्चित है। उसके लिए किसी अन्य न्यायाधीश की या अन्य लोक में जाने की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। अपने भीतर ही ऐसा स्वसंचालित तंत्र विराजमान है, जो कृतियों का प्रतिफल उपस्थित करता रहता है, इसमें थोड़ा विलम्ब लगते देखकर किसी को तनिक भी अधीर नहीं होना चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1985 पृष्ठ 34


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👉 कर्मफल व्यवस्था का एक सुनिश्चित स्वचालित तंत्र (भाग 5)

यह नारकीय स्थिति है। भीतर से आत्म प्रताड़ना और बाहर से भर्त्सना जिस पर बरसती है उसे साक्षात् नरकवासी कहा जा सकता है। शारीरिक और मानसिक रोगों से उद्विग्न रहने वाले नरक ही भोगते हैं। लोक-लोकांतरों में नरक है या नहीं। कुम्भीपाक, वैतरणी आदि का अस्तित्व है या नहीं। इस विवाद में पड़े बिना इतने से भी काम चल सकता है कि जो अपनी शांति और प्रतिष्ठा गँवा बैठा उसके लिए मानव जीवन की सरसता कोसों पीछे रह गयी।

सरकार को चकमा देकर राज दण्ड से बचा जा सकता है। समाज की आंखों में भी धूल झोंकी जा सकती है। पर आत्मा की अदालत ऐसी है जिसने सब कुछ देखा सुना है उसके दण्ड से छुटकारा पा सकना किसी के लिए भी सम्भव नहीं है। यहाँ देर तो है पर अन्धेर नहीं है। मनुष्य के लिए थोड़े से दिन का विलम्ब ही उसकी आस्था डगमगा देता है, पर तत्वज्ञानियों की दृष्टि से यह जीवन असीम और अनन्त है।

एक जन्म का समय बीतना उसके लिए एक रात की निद्रा लेकर नये प्रभात पर फिर उठने के समान है। आज का लिया कर्ज परसों चुकाने की शर्त पर मिल गया है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह सदा के लिए मुफ्त में मिल गया और फिर कभी वह देना न पड़ेगा। बहुत से लोग जन्म से ही अन्धे, अपंग उत्पन्न होते हैं। कइयों की प्रतिभा जन्म से ही ऐसी अद्भुत होती है कि दांतों तले उँगली दबानी पड़ती है। इसे पूर्व संचित संस्कारों का प्रतिफल कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1985 पृष्ठ 34

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1985/January/v1.34

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👉 कर्मफल व्यवस्था का एक सुनिश्चित स्वचालित तंत्र (भाग 4)

कुकर्मों की आदत डालते ही अपने भीतर एक असुर उत्पन्न होता है। स्वाभाविक प्रकृति दैवी है। जगह एक के रहने लायक ही है पर मनःक्षेत्र में दो व्यक्तित्व परस्पर विरोधी प्रकृति के घुसते हैं तब निरन्तर संघर्ष करते हैं। देवासुर संग्राम की स्थिति बना देते हैं। एक आगे धकेलता है दूसरा पीछे घसीटता है। दो साँड जिस खेत में लड़ते हैं उसकी हरी-भरी फसल को रौंद कर रख देते हैं। कोई उपयोगी सामान उधर रखा हो वह भी बिखर जाता है। एक म्यान में दो तलवारें ठूंसने पर म्यान फटता है और तलवारों को भी खरोंच आती है। दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्व गढ़ लेने पर उनका द्वन्द्व युद्ध देखते ही बनता है। आत्म हनन इसी स्थिति को कहते हैं।

संसार में पागलपन तेजी से बढ़ रहा है। आँकड़े बताते हैं कि शारीरिक रोगियों की तुलना में मानसिक रोगियों की संख्या कई गुनी है। सनकी एवं अर्ध विक्षिप्तों की संख्या गिनी जाय और उनके द्वारा हानियों का लेखा जोखा लगाया जायेगा तो प्रतीत होगा कि मानव समाज की सबसे बड़ी समस्या यही है। गरीबी से भी बड़ी। गरीब की समझदारी तो कायम रहती है पर अधपगले तो आये दिन ऐसा सोचते और करते रहते हैं जिससे उन्हें स्वयं भी नहीं, मित्र-शत्रुओं, परिचितों तक को पग-पग पर त्रास सहने पड़ें।

मनोविज्ञान शास्त्र में मस्तिष्क की श्रेष्ठता को खा जाने वाला दो व्यक्तित्वों का उपजना, परस्पर अन्तर्द्वन्द्व करना ही प्रधान कारण है। यह दूसरा असुर अपने ही अचिन्त्य चिन्तन और कुकर्म करने से उत्पन्न होता है। ऐसे व्यक्ति स्वयं तो सदा बेचैन रहते ही हैं, जिनके भी संपर्क में आते हैं उन्हें भी सताते रहते हैं। कुकर्मी, दुर्व्यसनी भी होते हैं। उन्हें नशेबाजी, व्यभिचार, चोरी, छल, ठगी, शेखीखोरी जैसी कितनी ही कुटेवें पीछे लग लेती हैं। और उनकी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं पारिवारिक स्थिति दयनीय बना देती हैं। ऐसे लोगों पर से दूसरों का विश्वास उठ जाता है। अविश्वासी के साथ कोई आदान-प्रदान नहीं करता। सहयोग देना तो दूर। साथियों का अविश्वास पात्र बना हुआ व्यक्ति मरघट के भूत की तरह एकाकी रह जाता है। समय पर काम आने वाला उसका एक भी मित्र नहीं रहता। चाटुकार ही स्वार्थ सिद्धि के लिए पीछे लगे रहते हैं और जब उन्हें उसमें कमी दिखती है तो छिटक कर अलग हो जाते हैं। यह हानि साधारण नहीं समझी जानी चाहिए, व्यक्तित्व गँवा बैठने के उपरान्त फिर आदमी के पास बचता ही क्या है। वह जीवित रहते हुए भी मृतकों में गिना जा सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1985 पृष्ठ 33

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