शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

👉 पराये धन की तृष्णा सब स्वाहा कर जाती है

एक नाई जंगल में होकर जा रहा था अचानक उसे आवाज सुनाई दी “सात घड़ा धन लोगे?” उसने चारों तरफ देखा किन्तु कुछ भी दिखाई नहीं दिया। उसे लालच हो गया और कहा “लूँगा”। तुरन्त आवाज आई “सातों घड़ा धन तुम्हारे घर पहुँच जायेगा जाकर सम्हाल लो”। नाई ने घर आकर देखा तो सात घड़े धन रखा था। उनमें 6 घड़े तो भरे थे किन्तु सातवाँ थोड़ा खाली था। लोभ, लालच बढ़ा। नाई ने सोचा सातवाँ घड़ा भरने पर मैं सात घड़ा धन का मालिक बन जाऊँगा। यह सोचकर उसने घर का सारा धन जेवर उसमें डाल दिया किन्तु वह भरा नहीं। वह दिन रात मेहनत मजदूरी करने लगा, घर का खर्चा कम करके धन बचाता और उसमें भरता किन्तु घड़ा नहीं भरा। वह राजा की नौकरी करता था तो राजा से कहा “महाराज मेरी तनख्वाह बढ़ाओ खर्च नहीं चलता।” तनख्वाह दूनी कर दी गई फिर भी नाई कंगाल की तरह रहता। भीख माँगकर घर का काम चलाने लगा और धन कमाकर उस घड़े में भरने लगा। एक दिन राजा ने उसे देखकर पूछा “क्यों भाई तू जब कम तनख्वाह पाता था तो मजे में रहता था अब तो तेरी तनख्वाह भी दूनी हो गई, और भी आमदनी होती है फिर भी इस तरह दरिद्री क्यों? क्या तुझे सात घड़ा धन तो नहीं मिला।” नाई ने आश्चर्य से राजा की बात सुनकर उनको सारा हाल कहा। तब राजा ने कहा “वह यक्ष का धन है। उसने एक रात मुझसे भी कहा था किन्तु मैंने इन्कार कर दिया। अब तू उसे लौटा दे।” नाई उसी स्थान पर गया और कहा “अपना सात घड़ा धन ले जाओ।” तो घर से सातों घड़ा धन गायब। नाई का जो कुछ कमाया हुआ था वह भी चला गया।

पराये धन के प्रति लोभ तृष्णा पैदा करना अपनी हानि करना है। पराया धन मिल तो जाता है किन्तु उसके साथ जो लोभ, तृष्णा रूपी सातवाँ घड़ा और आ जाता है तो वह जीवन के लक्ष्य, जीवन के आनन्द शान्ति प्रसन्नता सब को काफूर कर देता है। मनुष्य दरिद्री की तरह जीवन बिताने लगता है और अन्त में वह मुफ्त में आया धन घर के कमाये कजाये धन के साथ यक्ष के सातों घड़ों की तरह कुछ ही दिनों में नष्ट हो जाता है चला जाता है। भूलकर भी पराये धन में तृष्णा, लोभ, पैदा नहीं करना चाहिए। अपने श्रम से जो रूखा−सूखा मिले उसे खाकर प्रसन्न रहते हुए भगवान का स्मरण करते रहना चाहिए।

📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1962

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०४)


ध्यान का अगला चरण है—समर्पण

जीवन को असल अर्थ देने वाली अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग सूक्ष्म हैं। इनकी विधि, क्रिया एवं परिणाम योग साधक की अन्तर्चेतना में घटित होते हैं। इस सम्पूर्ण उपक्रम में स्थूल क्रियाओं की उपयोगिता होती भी है, तो केवल इसलिए ताकि साधक की भाव चेतना इन सूक्ष्म प्रयोगों के लिए तैयार हो सके। एक विशेष तरह की आंतरिक संरचना में ही अन्तर्यात्रा के प्रयोग सम्भव बन पड़ते हैं। बौद्धिक योग्यता, व्यवहार कुशलता अथवा सांसारिक सफलताएँ इसका मानदण्ड नहीं हैं। इन मानकों के आधार पर किसी को साधक अथवा योगी नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए महत्त्वपूर्ण है—चित्त की अवस्था विशेष, जो अब निरुद्ध होने के लिए उन्मुख है। चित्त में साधना के सुसंस्कारों की सम्पदा से मनुष्य में न केवल मनुष्यत्व जन्म लेता है, बल्कि उसमें मुमुक्षा भी जगती है।
    
पवित्रता के प्रति उत्कट लगन ही व्यक्ति को अन्तर्यात्रा के लिए प्रेरित करती है। और इस अन्तर्यात्रा के लिए गतिशील व्यक्ति धीरे-धीरे स्वयं ही पात्रता के उच्चस्तरीय सोपानों पर चढ़ता जाता है। उसे अपने प्रयोगों में सफलता मिलती है। अन्तस् में निर्मलता, पवित्रता का एक विशेष स्तर हो, तभी प्रत्याहार की भावदशा पनपती है। इसके प्रगाढ़ होने पर ही धारणा परिपक्व होती है। और तब प्रारम्भ होता है ध्यान का प्रयोगात्मक सिलसिला। मानसिक एकाग्रता, चित्त के संस्कारों का परिष्कार, अन्तस् की ग्रन्थियों से मुक्ति के एक के बाद एक स्तरों को भेदते हुए अन्तिम ग्रन्थि भेदन की प्रक्रिया पूरी होती है। इसी बीच योग साधक की अन्तर्चेतना में ध्यान के कई चरणों व स्तरों का विकास होता है। सबीज समाधि की कई अवस्थाएँ फलित होती हैं। महर्षि पतंजलि के पिछले सूत्र में भी इसी की एक अवस्था का चिन्तन किया गया था। इस सूत्र में कहा गया था कि सवितर्क और निर्वितर्क समाधि का जो स्पष्टीकरण है, उसी से समाधि की उच्चतर स्थितियाँ भी स्पष्ट होती हैं। लेकिन सविचार एवं निर्विचार समाधि की इन उच्चतर अवस्थाओं में ध्यान के विषय अधिक सूक्ष्म होते जाते हैं। ध्यान की इस सूक्ष्मता के अनुसार ही ध्यान की प्रभा और प्रभाव दोनों ही बढ़ते जाते हैं। इसी के अनुसार साधक की मानसिक एवं परामानसिक शक्तियों का विकास भी होता है। परन्तु आध्यात्मिक प्रसाद अभी भी योग साधक से दूर रहता है। इसके लिए अभी भी अन्तर्चेतना की अन्तिम निर्मलता अनिवार्य बनी रहती है।
    
महर्षि पतंजलि ने अपने इस नए सूत्र में इन्हीं पूर्ववर्ती अवस्थाओं का समावेश करते हुए कहा है-
ता एव सबीजः समाधिः ॥ १/४६॥
शब्दार्थ- ता एव = वे सब की सब ही; सबीजः= सबीज; समाधिः = समाधि हैं।
भावार्थ- ये समाधियाँ जो फलित होती हैं, किसी विषय पर ध्यान करने से वे सबीज समाधियाँ होती हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १७८
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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