बुधवार, 30 नवंबर 2016

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 45)

🌞  चौथा अध्याय

🔴  उपरोक्त अनुभूति आत्मा के उपकरणों और वस्त्रों के विस्तार के लिए काफी है। हमें सोचना चाहिए कि यह सब शरीर मेरे हैं, जिनमें एक ही चेतना ओत-प्रोत हो रही है। जिन भौतिक वस्तुओं तक तुम अपनापन सीमित रख रहे हो, अब उससे बहुत आगे बढ़ना होगा और सोचना होगा कि 'इस विश्व सागर की इतनी बूँदें ही मेरी हैं, यह मानस भ्रम है। मैं इतना बड़ा वस्त्र पहने हुए हूँ, जिसके अंचल में समस्त संसार ढँका हुआ है।' यही आत्म-शरीर का विस्तार है। इसका अनुभव उस श्रेणी पर ले पहुँचेगा, जिस पर पहुँचा हुआ मनुष्य योगी कहलाता है। गीता कहती है :

सर्व भूतस्य चात्मानं सर्व भूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र सम दर्शनः।


🔵  अर्थात्- सर्वव्यापी अनन्त चेतना में एकीभाव से स्थित रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है।

🔴  अपने परिधान का विस्तार करता हुआ सम्पूर्ण जीवों के बाह्य स्वरूपों में आत्मीयता का अनुभव करता है। आत्माओं की आत्माओं में तो आत्मीयता है ही, ये सब आपस में परमात्म सत्ता द्वारा बँधे हुए हैं। अधिकारी आत्माएँ आपस में एक हैं। इस एकता के ईश्वर बिलकुल निकट हैं। यहाँ हम परमात्मा के दरबार में प्रवेश पाने योग्य और उनमें घुल-मिल जाने योग्य होते हैं वह दशा अनिर्वचनीय है। इसी अनिर्वचनीय आनन्द की चेतना में प्रवेश करना समाधि है और उनका निश्चित परिणाम आजादी, स्वतन्त्रता, स्वराज्य, मुक्ति, मोक्ष होगा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part4

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 1 Dec 2016


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 1 Dec 2016


👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 20) 1 Dec

🌹 *दुष्टता से निपटें तो किस तरह?*

🔵  दुष्टता से निपटने के दो तरीके हैं—घृणा एवं विरोध। यों दोनों ही प्रतिकूल परिस्थितियों एवं व्यक्तियों के अवांछनीय आचरणों से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियायें हैं, पर दोनों में मौलिक अन्तर है। विरोध में व्यक्ति या परिस्थिति को सुधारने-बदलने का भाव है। वह जहां संघर्ष की प्रेरणा देता है वहां उपाय भी सुझाता है। स्थिति बदलने में सफलता मिलने पर शान्त भी हो जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि भ्रान्त सूचनाओं अथवा मन की साररहित कुकल्पनाओं से ही अपने को बुरा लगने लगे और उसका समग्र विश्लेषण किए बिना झगड़ पड़ने की स्थिति बन पड़े।

🔴  वह स्थिति ऐसी भयंकर भी हो सकती है जिसके लिए सदा पश्चाताप करना पड़े। इन बातों को ध्यान में रखते हुए विरोध के पीछे विवेक का भी अंश जुड़ा होता है और उसमें सुधार की, समझौते की गुंजाइश रहती है। बड़ा संघर्ष न बन पड़ने पर अन्यमनस्क हो जाने, असहयोग करने से भी विरोध अपना अभिप्राय किसी कदर सिद्ध कर ही लेता है।

🔵  हमें यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि सम्पर्क क्षेत्र के सभी व्यक्तियों का स्वभाव-आचरण हमारे अनुकूल होगा। जैसा हमने चाहा है, वैसा ही करेंगे—ऐसा तो स्वतन्त्र व्यक्तित्व न रहने पर ही हो सकता है। प्राचीनकाल में दास-दासियों को बाधित करके ऐसी अनुकूलता के लिए तैयार किया जाता था, पर वे भी शारीरिक श्रम करने तक ही मालिकों की आज्ञा मानते थे। मानसिक विरोध बना ही रहता है, उसकी झलक मिलने पर स्वामियों द्वारा सेवकों को प्रताड़ना देने का क्रम आये दिन चलता रहता था।

🔴  अब वह स्थिति भी नहीं रही, लोगों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व जगा है और मौलिक अधिकारों का दावा विनम्र या अक्खड़ शब्दों में प्रस्तुत किया जाने लगा है। ऐसी दशा में बाधित करने वाले पुराने तरीके भी अब निरर्थक हो गये हैं। परस्पर तालमेल बिठाकर चलने के अतिरिक्त दूसरा यही मार्ग रह जाता है कि पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद कर लिया जाय। यह मार्ग भी निरापद नहीं है, क्योंकि सामने वाला अपने को अपमानित और उत्पीड़ित अनुभव करता है और जब भी दांव लगता है तभी हानि पहुंचाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गृहस्थ-योग (भाग 20) 1 Dec

🌹  गृहस्थ योग से परम पद

🔵  पुण्य और पाप किसी कार्य के बाह्य रूप से ऊपर नहीं वरन् उस काम को करने वाले की भावना के ऊपर निर्भर है। किसी कार्य का बाहरी रूप कितना ही अच्छा, ऊंचा या उत्तम क्यों न हो परन्तु यदि करने वाले की भीतरी भावनाएं बुरी हैं तो ईश्वर के दरबार में वह कार्य पाप में ही शुमार होगा। लोगों को धोखा दिया जा सकता है, दुनियां को भ्रम या भुलावे में डाला जा सकता है परन्तु परमात्मा को धोखा देना असंभव है। ईश्वर के दरबार में काम के बाहरी रूप को देखकर नहीं वरन् करने वाले की भावनाओं को परख कर धर्म अधर्म की नाप तोल की जाती  है।

🔴  आज हम ऐसे अनेक धूर्तों को अपने आस पास देखते हैं जो करने को तो बड़े बड़े अच्छे काम करते हैं पर उनका भीतरी उद्देश्य बड़ा ही दूषित होता है। अनाथालय, विधवाश्रम, गौशाला आदि पवित्र संस्थानों की आड़ में भी बहुत से बदमाश आदमी अपना उल्लू सीधा करते हैं। योगी, महात्मा साधु, संन्यासी का बाना पहने अनेक चोर डाकू लुच्चे लफंगे घूमते रहते हैं। यज्ञ करने के नाम पर, पैसा बटोर कर कई आदमी अपना घर भर लेते हैं।

🔵  बाहरी दृष्टि से देखने पर अनाथालय, विधवाश्रम, गौशाला चलाना, साधु, संन्यासी, महात्मा उपदेशक बनना, यज्ञ, कुआं, मन्दिर बनवाना आदि अच्छे कार्य हैं, इनके करने वाले की भावनाएं विकृत हैं तो यह अच्छे काम भी उसकी मुख्य सम्पदा में कुछ वृद्धि न कर सकेंगे। वह व्यक्ति अपने पापमय विचारों के कारण पापी ही बनेगा, पाप का नरक मय दंड ही उसे प्राप्त होगा।

🌹  क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 33)

🌹 सभ्य समाज की स्वस्थ रचना

🔵 45. सत्कार्यों का अभिनन्दन— प्रतिष्ठा की भूख स्वाभाविक है। मनुष्य को जिस कार्य में बड़प्पन मिलता है वह उसी ओर झुकने लगता है। आज धन और पद को सम्मान मिलता है तो लोग उस दिशा में आकर्षित हैं। यदि यह मूल्यांकन बदल जाय और ज्ञानी, त्यागी एवं पराक्रमी लोगों को सामाजिक प्रतिष्ठा उपलब्ध होने लगे तो इस ओर भी लोगों का ध्यान जायगा और समाज में सत्कर्म करने की प्रगति बढ़ेगी। हमें चाहिए कि ऐसे लोगों को मान देने के लिए सार्वजनिक अभिनन्दन करने के लिए समय-समय पर आयोजन करते रहें।

🔴 मानपत्र भेंट करना, सार्वजनिक अभिनन्दन, पदक-उपहार, समाचार पत्रों में उन सत्कर्मों की चर्चा, फोटो, चरित्र-पुस्तिका आदि का प्रकाशन हम लोग कर सकते हैं। उन सत्कर्मकर्ताओं को इसकी इच्छा न होना ही उचित है, पर दूसरों को प्रोत्साहन देने और वैसे ही अनुकरण की इच्छा दूसरों में जागृत हो, इस दृष्टि से सत्कर्मों के अभिनन्दन की परम्परा प्रचलित करना ही चाहिए। ऐसे आयोजन हलके कारणों को लेकर या झूठी प्रशंसा में न किए जांय, अन्यथा ईर्ष्या द्वेष की दुर्भावनाएं बढ़ेंगी। सभ्य समाज का निर्माण करने के लिए धन एवं शक्ति को नहीं, आदर्श को ही सम्मान मिलना चाहिए।

🔵  46. सज्जनता का सहयोग— यदि मानवता का स्तर ऊंचा उठाना हो तो सज्जनता के साथ सहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए सज्जनता को यदि सहयोग और प्रोत्साहन न मिले तो वह मुरझा जायगी। इसी प्रकार दुष्टता का विरोध न किया गया तो वह भी दिन-दिन बढ़ती चली जायगी। इसलिए प्रत्येक सभ्य नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपनी नीति ऐसी रखे जिससे प्रत्यक्ष या परोक्ष में सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि होती रहे और अनीति को निरुत्साहित होना पड़े।

🔴  परिस्थितिवश यदि दुष्टता का पूर्ण प्रतिरोध संभव न हो, इसमें अपने लिए खतरा दीखता हो तो कम से कम इतना तो करना ही चाहिए कि उनकी हां में हां मिलाने, सम्पर्क रखने या साथ में रहने से बचा जाय, क्योंकि इससे दूसरे प्रतिरोध करने वाले की हिम्मत टूटती है और अनीति का पक्ष मजबूत होता है। संभव हो तो तीव्र संघर्ष, न हो तो दुष्टता से असहयोग तो हर हालत में करने का साहस रखना ही चाहिए।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*

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