शनिवार, 12 नवंबर 2016

👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 27)

🌞 दूसरा अध्याय

🔴 जीव के अमर होने के सिद्घान्त को अधिकांश लोग विश्वास के आधार पर स्वीकार कर लेते हैं। उन्हें यह जानना चाहिए कि यह बात कपोल कल्पित नहीं है वरन् स्वयं जीव द्वारा अनुभव में आकर सिद्घ हो सकती है। तुम ध्यानावास्थित होकर ऐसी कल्पना करो कि 'हम' मर गये। कहने-सुनने में यह बात साधारण सी मालूम देती है। जो साधक पिछले पृष्ठों में दी हुई लम्बी-चौड़ी भावनाओं का अभ्यास करते हैं, उनके लिए यह छोटी कल्पना कुछ कठिन प्रतीत न होनी चाहिए, पर जब तुम इसे करने बैठोगे, तो यही कहोगे कि यह नहीं हो सकती। ऐसी कल्पना करना असम्भव है। तुम शरीर के मर जाने की कल्पना कर सकते हो, पर साथ ही यह पता रहेगा कि तुम्हारा 'मैं' नहीं मरा है वरन् वह दूर खड़ा हुआ मृत शरीर को देख रहा है।

🔵 इस प्रकार पता चलेगा कि किसी भी प्रकार अपने 'मैं' के मर जाने की कल्पना नहीं कर सकते। विचार बुद्घि हठ करती है कि आत्मा मर नहीं सकती। उसे जीव के अमरत्व पर पूर्ण विश्वास है और चाहे जितना प्रयत्न किया जाए, वह अपने अनुभव के त्याग के लिए उद्यत नहीं होगी। कोई आघात लगकर या क्लोरोफार्म सूँघ कर बेहोश हो जाने पर भी 'मैं' जागता रहता है। यदि ऐसा न होता तो उसे जागने पर यह ज्ञान कैसे होता कि मैं इतनी देर बेहोश पड़ा रहा हूँ, बेहोशी और निद्रा की कल्पना हो सकती है पर जब 'मैं' की मृत्यु का प्रश्न आता है, तो चारों ओर अस्वीकृत की ही प्रतिध्वनि गूँजती है। कितने हर्ष की बात है कि जीव अपने अमर और अखण्ड होने का प्रमाण अपने ही अन्दर दृढ़तापूर्वक धारण किए हुए है।

🔴 अपने को अमर, अखण्ड, अविनाशी और भौतिक संवेदनाओं से परे समझना, आत्म-स्वरूप दर्शन का आवश्यक अंग है। इसकी अनुभूति हुए बिना सच्चा आत्म-विश्वास नहीं होता और जीव बराबर अपनी चिरसेवित तुच्छता की भूमिका में फिसल पड़ता है, जिससे अभ्यास का सारा प्रयत्न गुड़-गोबर हो जाता है। इसलिए एकाग्रता पूर्वक अच्छी तरह अनुभव करो कि मैं अविनाशी हूँ। अच्छी तरह इसे अनुभव में लाये बिना आगे मत बढ़ो। जब आगे बढ़ने लगो, तब भी कभी-कभी लौटकर अपने इस स्वरूप का फिर निरीक्षण कर लो। यह भावना आत्म-स्वरूप के साक्षात्कार में बड़ी सहायता देगी। आगे वह परीक्षण बताये जाते हैं, जिनके द्वारा अपने ''अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयम ल्केद्योऽशोष्य एवच। नित्यः सर्वगतस्याणुचलोऽयं सनातनः॥'' -(गीता २.२४) को अनुभव कर सको।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part2.5

👉 गृहस्थ-योग (भाग 1)

🌹 निवेदन

🔵 स्त्री पुरुष का सहचरत्व एक स्वाभाविक आवश्यक एवं उपयोगी काम है। यह प्रचलन सृष्टि के प्रारम्भ काल से ही चला आया है और अन्त तक चलता रहेगा। यह सहचरत्व आमतौर से प्रायः हर एक वयस्क स्त्री पुरुष को स्वीकार करना पड़ता है। परन्तु इस गृहस्थ धर्म में अनेक प्रकार की ऐसी विकृतियां पैदा हो गई हैं जिसके कारण देखा जाता है कि स्त्री पुरुष आपस में उतने संतुष्ट नहीं रह पाते जिससे सहचरत्व का सच्चा सुख प्राप्त किया जा सके।

🔴 पिछले दिनों तो यह विकृतियां इतनी अधिक हो गईं थी कि लोग उससे ऊबने लगे, उसमें दोष देखने लगे और उससे पृथक रहने की बात सोचने लगे। धर्म मंच तक यह प्रश्न पहुंचा और जहां तहां ऐसी विचारधारा प्रगट की जाने लगी जिससे गृहस्थ बनना एक प्रकार की निर्बलता, गिरावट समझी जाने लगी। गृहस्थ बनना नरक का मार्ग है और घबराकर छोड़ बाबाजी बन जाना स्वर्ग का रास्ता है यह विचारधारा हमारे देश में पिछले दिनों अधिक पनपी। फलस्वरूप चौरासी लाख साधु हमें इधर उधर फिरते नजर आते हैं।

🔵 हमें मालूम है कि उपरोक्त विचारधारा गलत है, हम जानते हैं कि गृहस्थ और संन्यास दोनों अवस्थाओं में समान रूप से आत्मोन्नति की जा सकती है। गृहस्थ धर्म का उचित रीति से पालन करने से भी मनुष्य योग फल को प्राप्त कर सकता है और स्वर्ग एवं मुक्ति अधिकारी बन सकता है। इस तथ्य के ऊपर इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है। हमें आशा है कि यह पुस्तक पाठकों को पारिवारिक जीवन का सुख तथा आत्मिक आनन्द उपलब्ध करने में सहायक होगी।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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