शनिवार, 7 जुलाई 2018

👉 आस्तिकता का स्वरूप

🔷 आस्तिकता का अर्थ है विश्वास। अविश्वासी ही मस्तिष्क कहा जा सकता है। संसार चक्र को नियमबद्ध नियंत्रण में रखकर चलाने वाली परम सत्ता पर विश्वास करना आस्तिकता का चिह्न है। कर्म फल सुनिश्चित है, जो किया है वह भोगना पड़ेगा यह मानना आस्तिकता का ही स्वरूप है। सब प्राणियों का अंततः कल्याण ही होगा, सब एक दिन विकास की मंजिल पूरी करते हुए परम मंगल को प्राप्त करेंगे यह मान्यता भी आस्तिकता के अनुरूप हैं।

🔶 यह विश्व परमात्मा से ही ओत-प्रोत है। यह उसी का एक प्रत्यक्ष रूप है। जो कुछ हमें दिखाई पड़ता है वह उसी प्रभु के एक अंश का दर्शन है। उसकी न तो उपेक्षा की जानी चाहिए और न घृणा। यह घृणा या उपेक्षा वस्तुतः परमात्मा के एक अंश के प्रति व्यक्त की हुई मानी जाएगी।

👉 आज का सद्चिंतन 7 July 2018


👉 संत और अहंकार

🔷 महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर, नामदेव तथा मुक्ताबाई के साथ तीर्थाटन करते हुए प्रसिद्ध संत गोरा के यहां पधारे। संत समागम हुआ, वार्ता चली।

🔶 तपस्विनी मुक्ताबाई ने पास रखे एक डंडे को लक्ष्य कर गोरा कुम्हार से पूछा- 'यह क्या है?'

🔷 गोरा ने उत्तर दिया- “इससे ठोककर अपने घड़ों की परीक्षा करता हूं कि वे पक गए हैं या कच्चे ही रह गए हैं।“

🔶 मुक्ताबाई हंस पड़ीं और बोलीं- “हम भी तो मिट्टी के ही पात्र हैं। क्या इससे हमारी परीक्षा कर सकते हो?”

🔷 “हां, क्यों नहीं” - कहते हुए गोरा उठे और वहां उपस्थित प्रत्येक महात्मा का मस्तक उस डंडे से ठोकने लगे।

🔶 उनमें से कुछ ने इसे विनोद माना, कुछ को रहस्य प्रतीत हुआ। किंतु नामदेव को बुरा लगा कि एक कुम्हार उन जैसे संतों की एक डंडे से परीक्षा कर रहा है। उनके चेहरे पर क्रोध की झलक भी दिखाई दी।

🔷 जब उनकी बारी आई तो गोरा ने उनके मस्तक पर डंडा रखा और बोले- “यह बर्तन कच्चा है।“

🔶 फिर नामदेव से आत्मीय स्वर में बोले- “तपस्वी श्रेष्ठ! आप निश्चय ही संत हैं, किंतु आपके हृदय का अहंकार रूपी सर्प अभी मरा नहीं है, तभी तो मान-अपमान की ओर आपका ध्यान तुरंत चला जाता है। यह सर्प तो तभी मरेगा, जब कोई सद्गुरु आपका मार्गदर्शन करेगा।“

🔷 संत नामदेव को बोध हुआ। स्वयं स्फूर्त ज्ञान में त्रुटि देख उन्होंने संत विठोबा खेचर से दीक्षा ली, जिससे अंत में उनके भीतर का अहंकार मर गया।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 July 2018


👉 ज्योति फिर भी बुझेगी नहीं (भाग 4)

🔷 जहाँ तक हम दोनों की भावी नियति के बारे में भविष्य बोध कराया गया है, वह सन्तोषजनक और उत्साहवर्धक है। कहा गया है कि पिछले पचास वर्ष से हम दोनों “दो शरीर-एक प्राण” बनकर नहीं, वरन एक ही सिक्के के दो पहलू बनकर रहे है। शरीरों का अन्त तो सभी का होता है; पर हम लोग वर्तमान वस्त्रों को उतार देने के उपरान्त भी अपनी सत्ता में यथावत बने रहेंगे और जो कार्य सौंपा गया है, से तब तक पूरा करने में लगे रहेंगे, जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। युग परिवर्तन एक लक्ष्य है जनमानस की परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन उसके दो कार्यक्रम।

🔶 अगली शताब्दी इक्कीसवीं सदी अपने गर्भ में उन महती सम्भावनाओं को संजोये हुए है, जिनके आधार पर मानवी गरिमा को पुनर्जीवित करने की बात सोची जा सकती है। दूसरे शब्दों में इसे वर्तमान विभीषिकाओं का आत्यंतिक समापन कर देने वाला सार्वभौम कायाकल्प भी कह सकते है। इस प्रयोजन के लिए हम दोनों की साधना स्वयंभू मनु और शतरूपा जैसी वशिष्ठ-अरुन्धती स्तर की .... जिसका इन दिनों शुभारम्भ किया गया हैं पौधा लगाने के बाद माली अपने उद्यान को छोड़कर भाग नहीं जाता। फिर हमीं क्यों यात्रा छोड़कर पलायन करने की बात सोचेंगे और क्यों उस के लिए उत्सुकता प्रदर्शित करेंगे?

🔷 इस बीच छोटे से व्यवधान की आशंका रहती है, जो यथार्थ भी है। प्रकृति के नियम नहीं बदले जा सकते। पदार्थों का उद्भव, अभिवर्धन और परिवर्तन होते रहना एक शाश्वत क्रम है। इस नियति चक्र से हम लोगों के शरीर भी नहीं बच सकते। बदन बदलने के समय में अब बहुत देर नहीं है। पर वस्तुतः यह कोई बड़ी घटना नहीं है। अविनाशी चेतना के रूप में आत्मा सदा अजर-अमर है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी पृष्ठ 29
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1988/January/v1.29

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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