शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

👉 लक्ष्य विहीन-जीवन।

हम हर समय चिन्ताशील व क्रियाशील नजर आते हैं। फिर भी हमारा लक्ष्य क्या है? इसका हमें पता तक नहीं, वही आश्चर्य का विषय है। सभी लोग धन बटोरते हैं पर उसका हेतु क्या है? उसका उत्तर विरले ही ठीक से दे सकेंगे। सभी करते हैं तो हम भी करें, सभी खाते हैं तो हम भी खाएं, सभी कमाते हैं तो हम भी कमाएं, इस प्रकार अन्धानुकरण वृत्ति ही हमारे विचारों और क्रियाओं की आधार शिला प्रतीत होती है। अन्यथा जिनके पास खाने को नहीं वे खाद्य-सामग्री संग्रह करें तो बुद्धिगम्य बात है पर जिनके घर लाखों रुपये पड़े हैं वे भी बिना पैसे-वाले जरूरतमंद व्यक्ति की भाँति पैसा पैदा करने में ही व्यस्त नजर आते हैं।

आखिर कमाई-संग्रह क्यों और कहाँ तक? इसका भी तो विचार होना चाहिये। पर हम चैतन्य शून्य लक्ष्य-विहीन एवं यन्त्रवत जड़ से हो रहे हैं। क्रिया कर रहे हैं पर हमें विचार का अवकाश कहाँ? जिस प्रकार कहाँ जाना है यह जाने बिना कोई चलता ही रहे तो इस चलते रहने का क्या अर्थ होगा? लक्ष्य का निर्णय किये बिना हमारी क्रिया निरर्थक होगी, जहाँ पहुँचना चाहिए वहाँ पहुंचने पर भी हमारी गति समाप्त नहीं होगी। कहीं के कही पहुँच जायेंगे परिश्रम पूरा करने पर भी फल तदनुरूप नहीं मिल सकेगा।

खाना, पीना, चलना, सोना यही तो जीवन का लक्ष्य नहीं है पर इनसे अतिरिक्त जो जीवन की गुत्थियाँ हैं उसको सुलझाने वाले बुद्धिशील व्यक्ति कितने मिलेंगे? जन्म लेते हैं, इधर उधर थोड़ी हलचल मचाते हैं और चले जाते हैं। यही क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है। पर आखिर यह जन्म धारण क्यों? और यह मृत्यु भी क्यों? क्या इनसे मुक्त होने का भी कोई उपाय है?

है तो कौन सा? और उसकी साधना कैसे की जाय? विचार करना परमावश्यक है। यह तो निश्चित है कि मरना अवश्यंभावी है, पर वह मृत्यु होगी कब? यह अनिश्चित है, इसीलिए लक्ष्य को निर्धारित कर उसी तक पहुँचने के लिये प्रगतिशील बना जाए, समय को व्यर्थ न खोकर प्राप्त साधनों को लाभ के अनुकूल बनाया जाए और लक्ष्य पर पहुँचकर ही विश्राम लिया जाय। यही हमारा परम कर्त्तव्य है।

📖 अखण्ड ज्योति 1948 नवम्बर पृष्ठ 15
 
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/November/v1.15
 
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बुधवार, 28 सितंबर 2022

👉 आमदनी खर्च करने का उद्देश्य क्या हो?

आप यह उद्देश्य सामने रखिये कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवनरक्षक पदार्थ और निपुणता दायक वस्तुएँ पर्याप्त परिणाम में प्राप्त होती रहें। जब तक ये चीजें न आ जावें, तब तक किसी प्रकार की आराम या विलासिता की वस्तुओं से बचे रहिये। यदि किसी का स्वास्थ्य खराब है, तो पहले उसकी चिकित्सा होनी चाहिए। यदि किसी विद्यार्थी का अध्ययन चल रहा है, तो उसके लिए सभी को थोड़ा बहुत त्याग करना चाहिए। कृत्रिम आवश्यकताओं को दूर करने का सब को प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षा, त्याग और पारस्परिक सद्भाव से सभी सामूहिक परिवार के लिए प्रयत्नशील हो।

प्रत्येक व्यक्ति की अपने खर्च पर गंभीरता से विचार कर कृत्रिम आवश्यकताओं, व्यसनों, फैशन, मिथ्या प्रदर्शन, फिजूल खर्ची कम करनी चाहिए। आदतों को सुधारना ही श्रेष्ठ और स्थायी है। ऐश आराम और विलासिता के खर्चो को कम करके बचे हुए रुपये को जीवन रक्षक अथवा निपुणता दायक या किसी टिकाऊ खर्च पर व्यय करना चाहिए। बचत का रुपया बैंक में भविष्य के आकस्मिक खर्चों, विवाह शादियों, मकान, या बीमारियों के लिए रखना चाहिए। प्रत्येक पैसा समझदारी से जागरुक रह कर भविष्य पर विश्वास न करते हुए खर्च करने से प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम संतोष और सुख होगा।

कमाई और आमदनी से नहीं, आपकी आर्थिक स्थिति आपके खर्च से नापी जाती है। यदि खर्च आमदनी से अधिक हुआ तो बड़ी आय से क्या लाभ?

हम एक प्रिंसिपल महोदय को जानते हैं जिन्हें 800 रु. मासिक आमदनी होती थी। किन्तु वे 200 रु. माह बार घर से और खर्चे के लिए मंगवाते थे। सदैव हाथ तंग रखते और वेतन के कम होने का रोना रोया करते थे।

दूरदर्शी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और खर्चों का पहले से ही बजट तैयार करता है। उसकी आय वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति में ही व्यय नहीं होती प्रत्युत वह भविष्य के लिए, बच्चों की शिक्षा, विवाह, बुढ़ापे के लिए धन एकत्रित रखता है। अपनी परिस्थिति के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य बचाता है।



किसी कवि ने कहा है-
कौडी कौडी जोड़ि कै, निधन होत धनवान।
अक्षर अक्षर के पढ़े, मूरख होत सुजान॥


आप बचत कर सकते हैं?

📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1950 पृष्ठ 12

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👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 1

🌞 गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

मित्रो! कर्म के आधार पर प्रत्येक अध्यात्मवादी को क्षत्रिय होना चाहिए, क्योंकि "सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्" अर्थात इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही लड़ते हैं। बेटे, अध्यात्म एक प्रकार की लड़ाई है। स्वामी नित्यानन्द जी की बंगला की किताब है 'साधना समर'। 'साधना समर' को हमने पढा, बड़े गजब की किताब है। मेरे ख्याल से हिंदी में इसका अनुवाद शायद नहीं हुआ है। उन्होंने इसमें दुर्गा का, चंडी का और गीता का मुकाबला किया है। दुर्गा सप्तशती में सात सौ श्लोक हैं और गीता में भी सात सौ श्लोक हैं। दुर्गा सप्तशती में अठारह अध्याय हैं, गीता के भी अठारह अध्याय हैं। उन्होंने ज्यों का त्यों सारे के सारे दुर्गा पाठ को गीता से मिला दिया है और कहा है कि साधना वास्तव में समर है। समर मतलब लड़ाई, महाभारत। यह महाभारत है, यह लंकाकाण्ड है। इसमें क्या करना पड़ता है? अपने आप से लड़ाई करनी पड़ती है, अपने आप की पिटाई करनी पड़ती है, अपने आप की धुलाई करनी पड़ती है और अपने आप की सफाई करनी पड़ती हैं। अपने आप से सख्ती से पेश आना पड़ता है।

हम बाहर वालों के साथ जितनी भी नरमी कर सकते हैं वह करें। दूसरों की सहायता कर सकते हैं, उन्हें क्षमा कर सकते हैं, दान दे सकते हैं, उदार हो सकते हैं, दूसरों को सुखी बनाने के लिए जितना भी, जो कुछ भी कर सकते हो, करें। लेकिन अपने साथ, अपने साथ हमको हर तरह से कड़क रहना चाहिए, अपनी शारीरिक वृत्तियों और मानसिक वृत्तियों के विरुद्ध हम जल्लाद के तरीके से, कसाई के तरीके से इस तरह से खड़े हो जाएँ कि हम तुमको पीटकर रहेंगे, तुमको मसलकर रहेंगे, तुमको कुचलकर रहेंगे। अपनी इंद्रियों के प्रति हमारी बगावत इस तरह की होनी चाहिए और अपनी मनःस्थिति के विरुद्ध बगावत इस स्तर की होनी चाहिए।

हम अपनी मानसिक कमजोरियों को समझें, न केवल समझें, न केवल क्षमा माँगे, वरन उनको उखाड़ फेंके। गुरुजी, क्षमा कर दीजिए। बेटे, क्षमा का यहाँ कोई लाभ नहीं, अँग्रेजों के जमाने में जब कांग्रेस वह आंदोलन शुरू हुआ था, तब यह प्रचलन था कि माफी माँगिए, फिर छुट्टी पाइए। जब अँग्रेजों ने देखा कि ये तो माफी माँगकर छुट्टी ले जाते हैं, फिर दोबारा आ जाते हैं। उन्होंने कहा ऐसा ठीक नहीं है, जमानत लाइए पाँच हजार रुपए की। जो जमानत लाएगा, उसी को हम छोड़ेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ेंगे। माफी ऐसे नहीं मिल सकती। फिर पाँच- पाँच हजार की जमानतें शुरू हुईं। जिनको जरूरी काम थे, उन्हें इस तरह की जमानत पर छोड़ देते थे। फिर पाँच हजार की इन्क्वायरी शुरू हुई। उन्हें सी०आई०डी० ने रिपोर्ट दी कि साहब, ये जमानत पर चले जाते हैं और पाँच हजार से ज्यादा का आपका नुकसान कर देते है। फिर उन्होंने जमानतें भी बंद कर दी।

अपने साथ कड़ाई करिए

मित्रो! भगवान ने भी ऐसा किया है कि माफी देने का रोड रास्ता बंद कर दिया है। किसी को माफी दीजिए गुरुजी! माफी कहाँ है यहाँ, दंड भोग। इसलिए क्या करना पड़ेगा? अपने साथ में कड़ाई करने की जिस दिन आप कसम खाते हैं, जिस दिन आप प्रतिज्ञा करते है कि हम अपनी कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। अपनी शारीरिक कमजोरियों के प्रति और अपनी मानसिक कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। बेटे, दोनों क्षेत्रों में इतनी कमजोरियों भरी पड़ी हैं कि इन्होंने हमारा भविष्य चौपट कर डाला, व्यक्तित्व का सत्यानाश कर दिया। अध्यात्म यहाँ से शुरू होता है। यहाँ से ही भगवान को मानने वाली बात शुरू होती है, भगवान का दर्शन शुरू होता है। अंगार के ऊपर चढ़ी हुई परत को जिस तरह हम साफ कर देते हैं और वह चमकने लगता है, उसी तरह हमारी आत्मा पर मलीनताओं की जो परत चढ़ी हुई हैं। मलीनताओं की इन परतों को हम धोते हुए चले जाएँ तो भीतर बैठे हुए भगवान का, आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।

मंत्र नहीं, मर्म से जानें

क्यों साहब लक्स साबुन से हम कपड़ा धोए कि हमाम से धोएँ या सके से धोएँ। बेटे, मेरा दिमाग मत खा। तू चाहे तो सर्फ से धो सकता है, लक्स से- सम्राट से धो सकता है, हमाम से धो सकता है, नमक से, रीठा से धो सकता है। महाराज जी! क्या गायत्री मंत्र से मेरा उद्धार हो जाएगा? चंडी के मंत्र से उद्धार हो जाएगा या हनुमान जी के मंत्र से उद्धार होगा? बेटे, इसमें बस इतना फर्क है जितना कि सर्फ और सनलाइट में फर्क होता है और कोई खास बात नहीं है। हनुमान जी के मंत्र से भी साफ हो सकता है। तू हिंदू है या मुसलमान है तो भी साफ हो सकता है। बस तू ठीक तरीके से इस्तेमाल कर। गुरुजी! गायत्री मंत्र से मुक्ति मिल जाती है या 'राम रामाय नमः '' से। बेटे, अब मैं इससे कहीं आगे चला गया हूँ। अब मैं यह बहस नहीं करता कि गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपकी मुक्ति होगी और हनुमान जी का जप करेंगे, तो मुक्ति नहीं होगी। बेटे, सब भगवान के नाम हैं। साबुन में केवल लेबल का फर्क है, असल में उनका उद्देश्य एक है।

मित्रो! साधना का उद्देश्य एक है कि हमारी भीतर वाली मनःस्थिति की सफाई होनी चाहिए, जो हमारी शरीर को विकृतियों और मानसिक विकृतियों के लिए जिम्मेदार है। हमारी मानसिक और शारीरिक विकृतियों ही हैं, जिन्होंने हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी की है। अगर हम इस दीवार को नहीं हटा सकते, तो हमारे पड़ोस में बैठा हुआ भगवान हमें साक्षात्कार नहीं दे सकता। बेटे, भगवान में और हम में दीवार का फर्क है, जिससे भगवान हमसे कितनी दूरी पर है? गुरुजी! भगवान तो लाखों- करोड़ों कि०मी० दूर रहता है? नहीं बेटे, करोड़ों कि०मी० दूर नहीं रहता। वह हमारे हृदय की धड़कन में रहता है, लपडप के रूप में हमारी साँसों में प्रवेश करता है। हमारी नसों में गंगा- जमुना की तरह से उसी का जीवन प्रवाहित होता है। हमारा प्राण भगवान है और हमारे रोम- रोम में समाया हुआ है। तो दूर कैसे हुआ? दूर ऐसे हो गया कि हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी हो गई। उस दीवार को गिराने के लिए जिस छेनी- हथौड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, उसका नाम है पूजा और पाठ।

क्रमशः जारी
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य 

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👉 कर्म ही सर्वोपरि

नमस्याओ देवान्नतु हतविधेस्तेऽपि वशगाः, विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियत कर्मैकफलदः।
फलं कर्मायतं किममरणैं किं च विधिना नमस्तत्कर्मेभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवित॥

(भतृहरिकृत नीति शतक 75 वाँ श्लोक)
 
हम सब जिन देव शक्तियों को अर्चना-आराधना के उपायों और विधानों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, वे देव-सत्ताएँ भी विधि-व्यवस्था से ही बँधी दीखती है । दैवी विधानों की अवहेलना वे भी नहीं करतीं । तो क्या उस सृष्टि-संचालक विधान की और उसके विधाता की ही वन्दना की जाय ? पर हमारे भाग्य का निर्धारण तो वह विधि-व्यवस्था हमारे ही कर्मो के अनुसार करती है । यही उसका सुनिश्चित नियम है । हमारे अपने ही कर्मो का फल प्रदान करने की प्रक्रिया वह चलाता रहता है ।

इस प्रकार हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं । तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है । वही वन्दनीय है-अभिनन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है । दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता । कर्म ही सर्वोपरि है । परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निर्माता है । उसी की साधना से अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव है ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1980 पृष्ठ 1


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सोमवार, 26 सितंबर 2022

👉 हमारी अपनी जिम्मेदारी

दुनियाँ को चलाने और सुधारने की हमारी जिम्मेदारी नहीं है। पर अपने लिए जो कर्तव्य सामने आते हैं उन्हें पूरा करने में सच्चे मन से लगना और उन्हें बढ़िया ढंग से करके दिखाना निश्चय ही हमारी जिम्मेदारी है। अपने आपको व्यवस्थित करके हम दुनियाँ के संचालन और सुधार में सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण योग दे सकते है। 
 
अधूरे और भद्दे काम करना अपने आप को कलंकित करना है। परमात्मा ने हमारी रचना अपूर्ण नहीं सर्वांग और उच्चकोटि की सामग्री से की है। उसने हमें सजाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। फिर हमीं अपने गौरव को मलीन क्यों न होने दें। हमें जैसा अच्छा बनाया गया है उसी के अनुरूप हमारे काम भी गौरवपूर्ण होने चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आत्म विश्वास का शास्त्र

जीवन संग्राम का सबसे बड़ा शस्त्र आत्मविश्वास है। जिसे अपने ऊपर-अपने संकल्प बल और पुरुषार्थ के ऊपर भरोसा है वही सफलता के लिये अन्य साधनों को जुटा सकता है। आत्म संयम भी उसी के लिये सम्भव है जिसे अपने ऊपर भरोसा है। जिसने अपने गौरव को भुला दिया, जिसे अपने में कोई शक्ति दिखाई नहीं पड़ती जिसे अपने में केवल दीनता, अयोग्यता, एवं दुर्बलता ही दिखाई पड़ती है। ह किस बलबूते पर आगे बढ़ सकेगा? और कैसे इस संघर्ष भरी दुनियाँ में अपना अस्तित्व यम रख सकेगा। बहती धार में जिसके पैर उखड़ गया, उसे पानी बहा ले जाता है पर जो अपना हर कदम मजबूती से रखता है वह धीरे-धीरे तेज धार को भी पार कर लेता है।

हमें परमात्मा ने उतनी ही शक्ति दी है जितना कि किसी अन्य मनुष्य को। जिस मंजिल को दूसरे पार कर चुके हैं उसे हम क्यों पार नहीं कर सकते? फौज के प्रत्येक सैनिक को एक सी बन्दूक दी जाती है। निशाना लगाना हर सिपाही की अपनी सूझबूझ और योग्यता का काम है। सभी व्यक्ति अनन्त सामर्थ्य लेकर इस भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं। प्रश्न केवल पहचानने, भरोसा करने और उसके सदुपयोग का है। जिन्हें अपने ऊपर भरोसा है वे अपनी उपलब्ध सामर्थ्य का सदुपयोग करके कठिन से कठिन मंजिल को पार कर सकते हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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शनिवार, 24 सितंबर 2022

👉 बुद्धिमत्ता और मूर्खता की कसौटी

बुद्धिमत्ता की निशानी यह मानी जाती रही है कि उपार्जन बढ़ाया जाय—अपव्यय रोक जाय और संग्रहित बचत के वैभव से अपने वर्चस्व और आनन्द को बढ़ाया जाय। संसार के हर क्षेत्र में इसी कसौटी पर किसी को बुद्धिमान ठहराया जाता है।

मानव-जीवन की सफलता का लेखा-जोखा लेते हुए भी इसी कसौटी को अपनाया जाना चाहिए। जीवन-व्यवसाय में सद्भावनाओं की—सत्प्रवृत्तियों की पूँजी कितनी मात्रा में संचित की गई? सद्विचारों का, सद्गुणों का, सत्कर्मों का वैभव कितना कमाया गया? इस दृष्टि से अपनी उपलब्धियों को परखा, नापा जाना चाहिए। लगता हो कि व्यक्तित्व को समृद्ध बनाने वाली इन विभूतियों की संपन्नता बढ़ी है तो निश्चय ही बुद्धिमत्ता की एक परीक्षा में अपने को उत्तीर्ण हुआ समझा जाना चाहिए।

समय, श्रम, धन, वर्चस्व, चिन्तन मानव-जीवन की बहुमूल्य सम्पदाऐं हैं। इन्हें साहस और पुरुषार्थ पूर्वक सत्प्रयोजन में लगाने की तत्परता बुद्धिमत्ता की दूसरी कसौटी है। जिनने इन ईश्वर-प्रदत्त बहुमूल्य अनुदानों को पेट-प्रजनन में-विलास और अहंकार में खर्च कर डाला, समझना चाहिए वे बहुमूल्य रत्नों के बदले काँच-पत्थर खरीदने वाले उपहासास्पद मनःस्थिति के बाल-बुद्धि लोग हैं। वस्तु का सही मूल्यांकन न कर सकने वाले और उपलब्धियों के सदुपयोग में प्रमाद बरतने वाले मूर्ख ही कहे जायेंगे।

जीवन-क्षेत्र में हमारी सफलता-असफलता का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते समय यह देखना चाहिए कि कहीं दूरदर्शिता के अभाव से हम सौभाग्य को दुर्भाग्य में तो नहीं बदल रहे हैं? जीवन बहुमूल्य सम्पदा है। यह अनुपम और अद्भुत सौभाग्य है। इस सुअवसर का समुचित लाभ उठाने के सम्बन्ध में हम दूरदर्शिता का परिचय दे, इसी में हमारी सच्ची बुद्धिमत्ता मानी जा सकती हैं।

चिदानंद परिव्राजक
अखण्ड ज्योति- फरवरी 1974 पृष्ठ 3

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👉 सच्चे और ईमानदार रहिए

बेईमानी मत करो। ईमानदारी सहित अपनी शुद्धि करो। सच्चे हिन्दू बनो, सच्चे मुसलमान बनो जो बनो सच्चे बनो। आज हमारा सब से अधिक नुकसान झूँठ से हो रहा है। धार्मिक कहानियाँ भी ऐसी प्रचलित हैं जो बेईमानी सिखाती हैं। कैसे हमने इन कथाओं को सुना, सुनवाया और प्रचलित होने दिया? सब धर्मों दीनों में ऐसी बातें भरी पड़ी हैं कि अमुक देवता ने झूँठ से काम निकाला अथवा धोखा दिया। श्रीकृष्ण तक की ऐसी कहानियाँ हैं कि उन्होंने अपनी माँ से झूँठ बोला, चोरी की या चालाकी में अपने किसी चेले को सिखाया कि इस प्रकार शत्रु को मार डालो, चीर कर दो कर दो।

मनुष्य जो दिन प्रति दिन सुनता है उसका उस पर बहुत असर पड़ता है। हम वह ही बनते हैं जो हमको गढ़ कर बनाया जाता है। हमारी शिक्षा त्रुटिपूर्ण है। और इसी कारण जन साधारण में बेईमानी अधिक है। देश क्यों गिरा? क्योंकि बेईमानी थी। देश क्यों शीघ्र उन्नति नहीं करता? क्योंकि बेईमानी है! यदि हमारे देशवासी ईमानदारी को ही धर्म समझें तो धर्म और समाज की उन्नति हो।

समाज की फिर से सुरचना करनी है। समाज को इस प्रकार रचना होगा कि झूँठ अथवा बेईमानी की आवश्यकता न रहे। मनुष्य बहुधा झूँठ बोलता है, अनुचित लाभ उठाने के लिये। मनुष्य सदा ही लाभ उठाना चाहता है क्योंकि उसे कल पर भरोसा नहीं। प्रत्येक व्यक्ति को भय रहता है कल का, काल का! समय न जाने कल क्या दिखलावे? नौकरी रहती है या नहीं? व्यापार में हानि न हो जाए? कोई लड़ाई न छिड़ जाए? चोरी का भय? डाके का डर? मनुष्य पर विश्वास नहीं है। और इसलिये मनुष्य झूँठ बोल कर, छल कपट से रुपये कमाना चाहता है।

हमको ऐसा समाज बनाना चाहिए कि उसमें प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से मरण तक खाना पीना, पहनना, मकान और समस्त जीवन की आवश्यक वस्तुयें अवश्य ही मिल सकें, सन्देह न रहे, फिक्र न रहे। ऐसे समाज में मनुष्य, बिना बात, क्यों झूँठ बोलेगा।

सुसंगठित कुटुम्ब में, जहाँ माँ-बाप पुत्रादि से प्रेम करते हैं, जहाँ भाई बहन आपस में प्रेम रखते हैं, जहाँ छोटे बड़ों का आदर करते हैं और सेवा करते हैं, झूँठ नहीं बोला जाता। यदि ऐसे कुटुम्ब में कभी कोई झूँठ बोलता है तो हँसी के लिये। हम को ऐसे ही कुटुम्ब ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में स्थापित करने हैं। मत कहिये कि यह असम्भव है। मेरा भाई यदि बीमार पड़ा है तो मैं तो उसका इलाज करूंगा ही, मैं यह नहीं सुनना चाहूँगा कि वह स्वस्थ नहीं होगा। समाज रोगी है। देश रोगी है। समाज को स्वस्थ बनाना है। आप सन्देह की बातें मत कहिये। सन्देह एक बड़ा शत्रु है।

मत कहिये कि ऐसा कभी नहीं हुआ। मत कहिये कि जो पहले कभी नहीं हुआ आज भी नहीं हो सकता। हम समस्त मनुष्य जाति का एक कुटुम्ब बनायेंगे। आज यह सम्भव है। आज हवाई जहाजों ने और रेडियो ने समस्त पृथ्वी को मानो एक छोटा सा देश बना दिया है। हमारी मनुष्य जाति अभी तो युवा अवस्था को पहुँची है। कम से कम यह सभ्यता जब से उत्पन्न हुई है आज ही इस दशा को प्राप्त कर सकी है जब कि मनुष्य आकाश में उड़ता है। आज यह भी सम्भव है कि हम मनुष्य जाति का एक कुटुम्ब बनावें। वह पागलपन ही तो था। हिन्दू, सिख और मुसलमान नामों पर हमारे देशवासी पागल हुए। बिना बात रक्तपात किया। बहु काल की उलटी शिक्षा का यह कुफल था। लोगों ने सिखाया था कि धर्म के हेतु बेईमानी करो और झूँठ बोलो , झूठ बोला और बेईमानी की। भाई का भाई से विश्वास उठ गया। फिर यह ही हुआ जो होना था!

इसलिए मैं कहता हूँ बेईमानी मत करो। मत करो किसी भी नाम पर, किसी भी विचार से। यह बुद्धिमानी नहीं कि आप धोखा देवें। कुछ मन हो, कुछ कहें, कुछ दूसरों को जतावें। यह बेईमानी है। मैं फिर कहता हूँ कि देखो, भला चाहते हो तो बेईमानी मत करो।

अखण्ड ज्योति- अगस्त 1950 पृष्ठ 9

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1950/August/v1.9

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गुरुवार, 22 सितंबर 2022

👉 लक्ष्य की दिशा में अग्रसर

मनुष्य उज्ज्वल भविष्य की मनोरम कल्पनाएँ किया करता है। सुखमय जीवन का स्वप्न देखता है। उन्नति की योजनाएँ बनाता है। सफलता के सूत्र ढूँढ़ता है। लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए हर तरह की कोशिशें करता है। पर जब वह पीछे मुड़कर उपलब्धियों का मूल्याँकन करना चाहता है तो पता चलता है कि उसकी मनचाही योजनाएँ या तो मन में धरी रही गईं अथवा उनका क्रियान्वयन आधा-अधूरा हो पाया। इससे इसे अपने पुरुषार्थ पर खीज भी आती है व आक्रोश भी कारण ढूँढ़ पाने में वह सफल नहीं हो पाता।

असफलताजन्य खीज की प्रतिक्रियाएँ प्रायः दो अतिवादी स्वरूपों में अभिव्यक्ति होती हैं। एक व्यक्ति अपने को नितान्त अयोग्य मानकर घोर निराशा में निमग्न हो जाता है। एवं सारा दोष, भाग्य, भगवान अथवा परिस्थितियों के मत्थे मढ़कर निश्चित हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के जीवन में सफलता की सम्भावनाएँ क्रमशः धूमिल होती जाती हैं।

दूसरा वर्ग सफल व्यक्तियों का है। असफलता के कारणों की छान-बीन करते समय इनका दृष्टिकोण सन्तुलित रहता है। अपनी गतिविधियों का पर्यवेक्षण निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह करने पर पता चलता है कि स्वयं के भीतर पल रही अवाँछनीय और अनुपयुक्त विचार ही असफलताओं का मूल कारण है।

*( अपने ऊपर विश्वास कीजिये | Apne Upar Vishwas Keejiye | Pt Shriram Sharma Acharya, https://youtu.be/7fLJThFZM-w )*

आदतें क्रियात्मक नहीं मूलतः विचारात्मक होती हैं। अतः सुधार की प्रक्रिया बहिरंग के साथ अन्तरंग में भी चलनी चाहिए। चिन्तन और व्यवहार का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। इसलिए सुधार-परिवर्तन के लिए दोनों मोर्चों पर समान रूप से तैनाती की आवश्यकता रहती है। इस उभय पक्षीय प्रयोजन की पूर्ति का सरल उपाय यह है कि विचारों को विचारों से ही काटा जाय। लब्ध प्रतिष्ठ मनोचिकित्सक सर नार्मन विंसेंट पील के प्रयोग इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 जीवन लक्षः-

👉 जीवन लक्षः-

एक नौजवान को सड़क पर चलते समय एक रुपए का सिक्का गिरा हुआ मिला। चूंकि उसे पता नहीं था कि वो सिक्का किसका है, इसलिए उसने उसे रख लिया।  सिक्का मिलने से लड़का इतना खुश हुआ कि जब भी वो सड़क पर चलता, नीचे देखता जाता कि शायद कोई सिक्का पड़ा हुआ मिल जाए।

उसकी आयु धीरे-धीरे बढ़ती चली गई, लेकिन नीचे सड़क पर देखते हुए चलने की उसकी आदत नहीं छूटी। वृद्धावस्था आने पर एक दिन उसने वो सारे सिक्के निकाले जो उसे जीवन भर सड़कों पर पड़े हुए मिले थे। पूरी राशि पचास रुपए के लगभग थी। जब उसने यह बात अपने बच्चों को बताई तो उसकी बेटी ने कहा:-

"आपने अपना पूरा जीवन नीचे देखने में बिता दिया और केवल पचास रुपए ही कमाए। लेकिन इस दौरान आपने हजारों खूबसूरत सूर्योदय और सूर्यास्त, सैकड़ों आकर्षक इंद्रधनुष, मनमोहक पेड़-पौधे, सुंदर नीला आकाश और पास से गुजरते लोगों की मुस्कानें गंवा दीं। आपने वाकई जीवन को उसकी संपूर्ण सुंदरता में अनुभव नहीं किया।

हममें से कितने लोग ऐसी ही स्थिति में हैं। हो सकता है कि हम सड़क पर पड़े हुए पैसे न ढूंढते फिरते हों, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि हम धन कमाने और संपत्ति एकत्रित करने में इतने व्यस्त हो गए हैं कि जीवन के अन्य पहलुओं की उपेक्षा कर रहे हैं? इससे न केवल हम प्रकृति की सुंदरता और दूसरों के साथ अपने रिश्तों की मिठास से वंचित रह जाते हैं, बल्कि स्वयं को उपलब्ध सबसे बड़े खजाने-अपनी आध्यात्मिक संपत्ति को भी खो बैठते हैं।

आजीविका कमाने में कुछ गलत नहीं है। लेकिन जब पैसा कमाना हमारे लिए इतना अधिक महत्वपूर्ण हो जाए कि हमारे स्वास्थ्य, हमारे परिवार और हमारी आध्यात्मिक तरक्की की उपेक्षा होने लगे, तो हमारा जीवन असंतुलित हो जाता है। हमें अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के साथ-साथ अपनी आध्यात्मिक प्रगति की ओर भी ध्यान देना चाहिए। हमें शायद लगता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने का मतलब है सारा समय ध्यानाभ्यास करते रहना, लेकिन सच तो यह है कि हमें उस क्षेत्र में भी असंतुलित नहीं हो जाना चाहिए।

*( व्यक्तित्व परिष्कार कैसे करें | Vayaktitva Parishkaar Kaise Karen | Dr Chinmay Pandya, https://youtu.be/4nYA3YXwxrY )*

अपनी प्राथमिकताएं तय करते समय हमें रोजाना कुछ समय आध्यात्मिक क्रिया को, कुछ समय निष्काम सेवा को, कुछ समय अपने परिवार को और कुछ समय अपनी नौकरी या व्यवसाय को देना चाहिए। ऐसा करने से हम देखेंगे कि हम इन सभी क्षेत्रों में उत्तम प्रदर्शन करेंगे और एक संतुष्टिपूर्ण जीवन जीते हुए अपने सभी लक्ष्यों को प्राप्त कर लेंगे। समय-समय पर यह देखना चाहिए कि हम अपना लक्ष्य प्राप्त करने में सफल हो भी रहे हैं अथवा नहीं। हो सकता है कि हमें पता चले कि हम अपने करियर या अपने जीवन के आर्थिक पहलुओं की ओर इतना ज्यादा ध्यान दे रहे हैं कि परिवार, व्यक्तिगत विकास और आध्यात्मिक प्रगति की उपेक्षा हो रही है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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मंगलवार, 20 सितंबर 2022

👉 पुरुषार्थ कीजिए!

मनुष्य संसार में सबसे अधिक गुण, समृद्धियाँ, शक्तियाँ लेकर अवतरित हुआ है। शारीरिक दृष्टि से हीन होने पर भी परमेश्वर ने उसके मस्तिष्क में ऐसी-2 गुप्त आश्चर्यजनक शक्तियाँ प्रदान की हैं, जिनके बल से वह हिंस्र पशुओं पर भी राज्य करता है, दुष्कर कृत्यों से भयभीत नहीं होता आपदा और कठिनाई में भी वेग से आगे बढ़ता है। मनुष्य का पुरुषार्थ उसके प्रत्येक अंग में कूट कूट कर भरा गया है। मनुष्य की सामर्थ्य ऐसी है कि वह अकेला समय के प्रवाह और गति को मोड़ सकता है। धन, दौलत, मान, ऐश्वर्य, सब पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त हो सकते हैं।

अपने गुप्त मन से पुरुषार्थ का गुप्त सामर्थ्य निकालिए। वह आपके मस्तिष्क में है। जब तक आप विचारपूर्वक इस अन्तःस्थित वृत्ति को बाहर नहीं निकालते तब तक आप भेड़ बकरी बने रहेंगे। जब आप इस शक्ति को अपने कर्मों से बाहर निकालेंगे, तब प्रभावशाली बन सकेंगे। संसार के चमत्कार कहाँ से प्रकट हुए? संसार के बाहर से नहीं आये, और ब्रह्म शक्ति आकर उन्हें प्रस्तुत नहीं कर गई है। उनका जन्म मनुष्य के भीतर से हुआ था। संसार की सभी शक्तियाँ, सभी गुण, सभी तत्व, सभी चमत्कार मनुष्य के मस्तिष्क में से निकले हैं। उद्गम स्थान हमारा अन्तःकरण ही है।

संसार में छोटे-मोटे लोगों के तुम क्यों गुलाम बनते हो ? क्यों मिमियाते, झींकते या बड़बड़ाते हो, दुःख, चिन्ता और क्लेशों से क्यों विचलित हो उठते हो। नहीं, मनुष्य के लिए इन सबसे घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह तो अचल, दृढ़, शक्तिशाली और महाप्रतापी है। इसी क्षण से अपना दृष्टिकोण बदल दीजिये। अपने आप को महाप्रतापी, पुरुषार्थी पुरुष मानना शुरू कर दीजिए। तत्पर हो जाइये। सावधानी से अपनी कमजोरी और कायरता छोड़ दीजिये। बल और शक्ति के विचारों से आपका सुषुप्त अंश जाग्रत हो उठेगा।

सामर्थ्य और शक्ति आपके अन्दर है। बल का केन्द्र आपका मस्तिष्क है, वह नित्य, स्थायी और निर्विकार है फिर किस वस्तु के अभाव को महसूस करते हो? किस शक्ति को बाहर ढूंढ़ते फिरते हो? किस का सहारा ताकते हो ? अपनी ही शक्ति से आपको उठना और उन्नति करनी है। उसी से प्रभावशाली व्यक्तित्व बनाना है। आपको किसी भी बाहरी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। आपके पास पुरुषार्थ का गुप्त खजाना है उसे खोलकर काम में लाइये।

मनुष्य को संसार में महत्ता प्रदान करने वाला पुरुषार्थ ही है। उसी की मात्रा से एक साधारण तथा महान व्यक्ति में अन्तर है। पुरुषार्थ की बुद्धि पर ही मनुष्य की उन्नति निर्भर है। सामर्थ्य सम्पन्न मनुष्य ही सुख, सम्पत्ति, यश, कीर्ति एवं शान्ति प्राप्त कर सकता है।

पुरुषार्थ का निर्माण कई मानसिक तत्वों के सम्मिश्रण से होता है। (1) साहस- इन सबमें मुख्य है। दैनिक जीवन, नये कार्यों, तथा कठिनाई के समय हमें कोई भी वाह्य शक्ति आश्रय प्रदान नहीं कर सकती। साहसी वह कार्य कर दिखाता है जिसे बलवान भी नहीं कर पाते। साहस का सम्बन्ध मनुष्य के अन्तः स्थित निर्भयता की भावना से है। उसी से साहस की वृद्धि होती है। (2) दृढ़ता- दूसरा तत्व है जो पुरुषार्थ प्रदान करता है। दृढ़ व्यक्ति अपने कार्यों में खरा और पूरा होता है। वह एकाग्र होकर अपने कर्तव्य पर डटा रहता है। (3) महानता की महत्वाकाँक्षा- पुरुषार्थी को नवीन उत्तरदायित्व-जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने का निमंत्रण देती है और मुसीबत में धैर्य एवं आश्वासन प्रदान करती है।

स्वेटमार्डन साहब के अनुसार बड़प्पन की भावना रखने से हमारी आत्मा की सर्वोत्कृष्ट शक्तियों का विकास होता है, वे जागृत हो जाती हैं। इस गुण के बल पर पुरुषार्थी जिस दिशा में बढ़ता है, उसी में ख्याति प्राप्त करता चलता है वह अपने महत्व को समझता है, और अपने सभी शक्तियों के द्वारा सदा आत्म महत्व के बढ़ाता रहता है।

अखण्ड ज्योति सितम्बर 1948

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1948/September/v2.17

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शुक्रवार, 16 सितंबर 2022

👉 शक्ति संचय कीजिए

जीवन एक प्रकार का संग्राम है। इसमें घड़ी-घड़ी मे विपरीत परिस्थितियों से, कठिनाइयों से, लड़ना पड़ता है। मनुष्य को अपरिमित विरोधी-तत्त्वों को पार करते हुए अपनी यात्रा जारी रखनी होती है। दृष्टि उठाकर जिधर भी देखिए, उधर ही शत्रुओं से जीवन घिरा हुआ प्रतीत होगा। ‘दुर्बल, सबलों का आहार है’ यह एक ऐसा कड़वा सत्य है, जिसे लाचार होकर स्वीकार करना ही पड़ता है। छोटी मछली को बड़ी मछली खाती है। बड़े वृक्ष अपना पेट भरने के लिए आस-पास के असंख्य छोटे-छोटे पौधों की खुराक झपट लेते हैं। 

छोटे कीड़ों को चिड़ियाँ खा जाती हैं और उन चिड़ियों को बाज आदि बड़ी चिड़ियाँ कार कर खाती हैं। गरीब लोग अमीरों द्वारा, दुर्बल बलवानों द्वारा सताए जाते हैं। इन सब बातों पर विचार करते हुए हमें इस निर्णय पर पहुँचना होता है कि यदि सबलों का शिकार बनने से, उनके द्वारा नष्ट किए जाने से, अपने को बचाना है तो अपनी दुर्बलता को हटाकर इतनी शक्ति तो कम से कम अवश्य ही संचय करती चाहिए कि चाहे जो कोई यों ही चट न कर जाए।

सांसारिक जीवन में प्रवेश करते हुए यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिए और समझ कर गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि केवल जागरूक और बलवान व्यक्ति ही इस दुनिया में आनंदमय जीवन के अधिकारी हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति-अग. 1945 पृष्ठ 3

http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1945/August.3

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गुरुवार, 15 सितंबर 2022

👉 समर्थ के अवलम्बन से ही आत्मिक प्रगति

भारतीय संस्कृति में अनेकानेक विशषताएँ हैं, किन्तु एक सबसे बड़ी विशेषता है जो हम उसमें पाते हैं वह है-गुरु-शिष्य परम्परा। गुरु माँ की तरह अपनी प्राण-ऊर्जा से शिष्य के अन्तःकरण को ओत-प्रोत कर उसमें नई शक्ति का संचार करता है, उसे नया जीवन देता है। शिष्य का समर्पण और गुरु द्वारा अपना सर्वस्व उसको अर्पण, इसकी मिसाल और कहीं भी देखने को नहीं मिलती। गुरु का सहयोग लिये बिना शिष्य की आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं। अज्ञान के अन्धकार में फँसे मानव को बहार निकालने के लिए गुरु अपनी विशिष्ट ज्ञान की शलाका से उसकी आँखों में वो अंजन लगाता है कि उसे जीवन का वास्तविक उद्देश्य और अपनी भावी भूमिका स्पष्ट नजर आने लगती है। जिस किसी के जीवन में गुरु का पदार्पण हुआ है, उसे मानकर चलना चाहिए कि उसके उच्चस्तरीय आत्मोत्थान का पथ प्रशस्त हो गया।

आज के आधुनिक युग में जब आदमी को आदमी पर विश्वास नहीं है तब शिष्य कैसे विश्वास करे-कौन सा गुरु उसके लिए सच्चा है? शास्त्रों का मार्गदर्शन है-धूर्तों-के मायाजाल से बचने के लिए लोभ-लालच में फँसाकर अपना उल्लू साधने वाले तथाकथित बाबाजियों के चंगुल में आने से बचने के लिए शिष्य को अपने अन्दर के नेत्र खुले रखने चाहिए। यह एक समयसाध्य प्रक्रिया है, परन्तु क्रमशः समझ में आने लगता है-कौन सही है? और कौन गलत?

*( अमृतवाणी:- भावी महाभारत पं श्रीराम शर्मा आचार्य Amritvanni:- Bhavi Mahabharat Pt Shriram Sharma Acharya, https://youtu.be/aLv4rXh8cmU )*

*( शांतिकुंज की गतिविधियों से जुड़ने के लिए Shantikunj WhatsApp 8439014110 )*

आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधक आज के इस मायाजाल से घिरे संसार में निश्छल स्वभाव वाले, संवेदना से अभिपूरित, तार्किक नहीं, बल्कि वास्तविक ज्ञान से भरेपूरे गुरु को पहचानने में देर नहीं करते। गुरु की पहचान के पश्चात् अपनी आत्मसत्ता का परिपूर्ण समर्पण, अहंकार का निगलन और अपनी इच्छाओं का गुरु की इच्छाओं में विलय-बस इतना ही शेष रह जाता है। समर्पण, यदि सर्वोच्च स्तर का हुआ, तो बदलें में उतना ही मिलता हुआ चला जाता है।

बंशी स्वयं को पोला कर लेती है और मुँह से लगने के पश्चात् वही स्वर बजने देती है जो बजाने वाला चाहता है। शिष्य भी यदि स्वयं को खाली कर दे और अपनी इच्छाएँ गुरु को दे दे, तो गुरुदीक्षा सम्पूर्ण हो जाती है। गुरुसत्ता अपनी प्राण ऊर्जा की कलम शिष्य के व्यक्तित्व में आरोपित कर उसे विशिष्टता से सम्पन्न बना देती है। समर्थ गुरु का अवलम्बन एक सौभाग्य है। जिसे यह मिल गया, मानो उसकी मुक्ति का द्वार खुल गया।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 31

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...