शुक्रवार, 7 मई 2021

👉 बीतेगा ये बुरा वक्त


अवसादों  के  अब  तमस हटेंगे, आशाओं के दीप जलेंगे।
बीतेगा  ये  बुरा  वक्त  फिर, खुशियों  के  संगीत  बजेंगे।।

अंधियारी मिट जाएगी फिर, विश्वासों  का  सूर्य उगेगा।
उमंगों की बगिया में फिर से, हर्ष-हर्ष का फूल खिलेगा।।
नया  सूर्य गगन  में  होगा, अमन  चैन  के  दिन  फिरेंगे।
बीतेगा  ये बुरा   वक्त फिर,  खुशियों  के  संगीत  बजेंगे।।

जीतेंगे ये  जारी  जंग  को, दुःख:  निराशा पास न  होगा।
फिर से सबकुछ अच्छा होगा, अब कोई निराश न होगा।।
कोई  नहीं  अब कष्ट  सहेगा, सभी सुखी  निरोग  रहेंगे।
बीतेगा  ये  बुरा वक्त  फिर,  खुशियों  के  संगीत  बजेंगे।।

मिट जाएगी महामारी अब, परजीवी  का कोप न  होगा।
बहुत सहे  हैं  परेशानी अब, शांति का  साम्राज्य बढेगा।।
कामयाब मिलकर हम होंगे, सबके सुख सौभाग्य बढ़ेंगे।
बीतेगा  ये   बुरा  वक्त  फिर, खुशियों  के संगीत बजेंगे।।

                                                                   उमेश यादव

👉 भक्तिगाथा (भाग १४)

प्याली में सागर समाने जैसा है भक्ति का भाव

महर्षि के होठों का मन्द हास्य भक्ति-किरणों की तरह सभी की अंतर्भावना में व्याप्त हो गया। सबकी रोमावलि पुलकित हो आयी। दीर्घजीवी महर्षि लोमश का सान्निध्य था ही कुछ ऐसा अनूठा। अपनी भक्ति के प्रभाव से वह भगवन्मय हो गये थे। उनसे कुछ और सुनने की चाहत सभी को थी। सम्भवतः हिमशिखर भी इसी आशा में मौन साधे नीरव खड़े थे। हिमप्रपातों की गूँज मद्धम हो गयी थी। आकाश भी भक्त के अंतःकरण की भाँति निरभ्र और शान्त था। सभी को प्रतीक्षा थी तो बस महर्षि के वचनों की।
    
अंतर्यामी ऋषि कहने लगे- ‘‘महनीय जनों! जीवन की दीर्घता नहीं, लोकसेवापरायणता ही वरेण्य है। कौन कितनी आयु जिया, इसकी गणना करने के बजाय यह महत्त्वपूर्ण है कि कौन उसे किस तरह जिया। भगवान की चेतना का विस्तार ही यह संसार है। जो इस अनुभव को जीता है, वही भक्त है। भावों की शुद्धि, भावों की भगवान में विलीनता, भगवन्मय जीवन यही भक्त के लक्षण हैं। इन्हीं की व्याख्या देवर्षि ने अपने सूत्रों में की है। मेरा आग्रह है कि देवर्षि अपनी भक्ति गाथा का विस्तार करें।’’
    
महर्षि लोमश के इन वचनों के साथ ही सभी के नेत्र देवर्षि के मुख पर जा टिके। देवर्षि के चेहरे पर सात्विक सौम्यता विद्यमान थी। उनके होठों से मन्दगति से नारायण नाम का जप चल रहा था। उनके हृदय की भावनाएँ इस नामजप के साथ प्रभु को अर्पित हो रही थीं। महर्षि लोमश के वचनों को सुनकर उन्होंने एक सूत्र का उच्चारण किया-
‘यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति॥ ६॥’
भक्ति के तत्त्व को जानने वाला उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है और आत्मा में रमण करने वाला हो जाता है।
    
देवर्षि के इस सूत्र में उपस्थित जनों के चिंतन सूत्र गुँथने लगे। उनकी भाव चेतना में कुछ अनोखा स्पन्दित हुआ। वहाँ की सूक्ष्मता में कई लहरें उठीं और भक्ति प्रवाह में विलीन हो गयीं। जिज्ञासाएँ भी सघन हुईं, मस्ती, स्तब्धता और आत्मरमण की यह सघनता कैसी है? यह जहाँ अपने पूर्ण रूप में है, वहाँ कैसी है भक्ति की ज्योत्सना? कैसी है छवि और छटा? ऋषियों एवं देवों के चिंतन की इस लय में प्रकृति ने कुछ घोला, मौन हिमालय के अंतर में भी आह्वान के मूक स्वर उठे और तभी सभी की आँखें उस ज्योतिपुञ्ज की ओर उठीं जो इन्हीं क्षणों में साकार हुआ था। यह दैवी उपस्थिति मुग्ध करने वाली थी। इस उपस्थिति मात्र से ही कुछ भाव घटाएँ घिरीं और अंतस् में बरस गयीं।
    
इस भाववृष्टि के बीच सभी ने उस ओर निहारा जिधर ज्योतिपुञ्ज प्रकट हुआ था। अब उस स्थान पर भगवान दत्तात्रेय खड़े थे, साथ में थे उनके पार्षद। दत्तात्रेय और उनके पार्षदों की ज्योतिर्मयी उपस्थिति ने देवात्मा हिमालय के इस आँगन में नयी पावनता एवं चेतनता का संचार कर दिया। दत्तात्रेय ने अपनी उपस्थिति के साथ ही सप्तर्षियों को प्रणाम किया। विशेषतया महर्षि अत्रि को जो उनके पिता भी थे। इसके बाद उन्होंने सभी ऋषियों का अभिवादन किया। महर्षि लोमश जैसे परमर्षियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और अपने पास आसीन किया।

देवर्षि तो दत्तात्रेय के आगमन से गद्गद् हो गये, क्योंकि उन्हें इस सत्य पर पूर्ण आस्था थी कि उनके आराध्य भगवान नारायण ही अपने एक अंश से दत्तात्रेय के रूप में प्रकट हुए हैं। भक्ति की परम पूर्णता सहज ही उनमें वास करती है। जो दत्तात्रेय की विशेषताओं से परिचित हैं, उन्हें मालूम है कि ये अवधूत शिरोमणि साधकों को मार्गदर्शन करने के लिए इस धराधाम में विचरण करते हैं। जूनागढ़ में गिरनार पर्वत इनका स्वाभाविक वास स्थान है। तंत्र, भक्ति एवं योग की अनगिनत साधनाएँ इनसे प्रकट हुई हैं। रसेश्वर तंत्र इन्हीं की देन है। ये परम योगी, महातंत्रेश्वर एवं श्रेष्ठतम भक्त हैं। अपने साधना जीवन में इनकी एक झलक भर मिलना साधकों का विरल सौभाग्य होता है। वाणी जहाँ रुकती है, शब्द जहाँ थकते हैं, मन जहाँ मौन होता है, वहाँ से परम भक्त अवधूत शिरोमणि दत्तात्रेय का चरित्र प्रारम्भ होता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ३३

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग १४)

👉 कोई रंग नहीं दुनिया में

अंधेरे में झाड़ी भूत जैसी लगती है—रस्सी का टुकड़ा सांप प्रतीत होता है, मरीचिकाएं थल में जल का और जल में थल का भान कराती हैं। यथार्थता से सर्वथा भिन्न अनुभूतियों का होना कोई अनहोनी बात नहीं है। आकाश में बहुत ऊंचे उड़ने वाले वायुयान छोटे पक्षी जैसे लगते हैं। पृथ्वी की अपेक्षा लाखों गुने बड़े और अपने सूर्य से हजारों गुने अधिक चमकदार तारागण नन्हे से दीपक की तरह टिमटिमाते दीखते हैं। क्या यह सारे दृश्य यथार्थ में वैसे ही हैं जैसे कि आंखें हमें अनुभव कराती हैं? आंखों की तरह ही अन्य इन्द्रियों की बात है। वे एक सीमा तक ही वस्तुस्थिति का ज्ञान कराती हैं और जो बताती जताती हैं उसमें से भी अधिकांश भ्रान्त होता है। बुखार आने पर गर्मी की ऋतु में शीत का और शीत में गर्मी का अनुभव होता है। मुंह का जायका खराब होने पर हर चीज कड़वी लगती है। जुकाम हो जाने पर चारों ओर बदबू का अनुभव होता है। पीलिया रोग होने पर आंखें पीली हो जाती हैं और हर चीज पीले रंग की दिखाई पड़ती है। क्या यह अनुभूतियां सही होती हैं?

जिस वस्तु का जैसा स्वाद प्रतीत होता है वह वास्तविक नहीं है। यदि ऐसा होता तो मनुष्य को जो नीम के पत्ते कडुए लगते हैं, वे ऊंट को भी वैसे ही क्यों न लगते, वह उन्हें रुचि पूर्वक स्वादिष्ट पदार्थों की तरह क्यों खाता? खाद्य पदार्थों का स्वाद हर प्राणी की जिह्वा से निकलते रहने वाला अलग अलग स्तर के रसों तथा मुख के ज्ञान तन्तुओं की बनावट पर निर्भर है। भोजन मुंह में गया—वहां के रसों का सम्मिश्रण हुआ और उस मिलाप की जैसी कुछ प्रतिक्रिया मस्तिष्क पर हुई उसी का नाम स्वाद की अनुभूति है। खाद्य पदार्थ की वास्तविक रासायनिक स्थिति इस स्वाद अनुभूति से सर्वथा भिन्न है। जो कुछ चखने पर अनुभव होता है वह यथार्थता नहीं है।

शरीर विज्ञानी जानते हैं कि काया का निर्माण अरबों खरबों कोशिकाओं के सम्मिलन से हुआ है। उनमें से प्रतिक्षण लाखों मरती हैं और नई उपजती हैं। यह क्रम बराबर चलता रहता है और थोड़े ही दिनों में, कुछ समय पूर्व वाली समस्त कोशिकाएं मर जाती हैं और उनका स्थान नई ग्रहण कर लेती हैं। इस तरह एक प्रकार से शरीर का बार-बार काया कल्प होता रहता है। पुरानी वस्तु एक भी नहीं रहती उनका स्थान नये जीव कोष ग्रहण कर लेते हैं। देह के भीतर एक प्रकार श्मशान जलता रहता है और प्रसूति ग्रह में प्रजनन की धूम मची रहती है। इतनी बड़ी हलचल का हमें तनिक भी बोध नहीं होता और लगता है देह जैसी की तैसी रहती है। जिन इन्द्रियों के सहारे हम अपना काम चलाते हैं उनमें इतना भी दम नहीं होता कि बाहरी वस्तुस्थिति बनाना तो दूर अपने भीतर की इतनी महत्वपूर्ण हलचलों का तो आभास दे सकें। ऐसी इन्द्रियों के आधार पर यथार्थ जानकारी का दावा कैसे किया जाय? जिस मस्तिष्क को अपने कार्यक्षेत्र-शरीर के भीतर होने वाले रोगों में क्या स्थिति बनी हुई है, इतना तक ज्ञान नहीं है और घर की बात को बाहर वालों से पूछना पड़ता है वैद्य डाक्टरों का दरवाजा खट-खटाना पड़ता है, उस मस्तिष्क पर यह भरोसा कैसे किया जाय कि वह इस ज्ञान का वस्तुस्थिति में हमें सही रूप में अवगत करा देगा।

ज्ञान जीवन का प्राण है। पर वह होना यथार्थ स्तर का चाहिए। यदि कुछ का कुछ समझा जाय, उलटा देखा और जाना जाय, भ्रम विपर्यय हमारी जानकारियों का आधार बन जाय तो समझना चाहिए यह ज्ञान प्रतीत होने वाली चेतना वस्तुतः अज्ञान ही है। उसमें जकड़े रहने पर हमें विविध विधि त्रास ही उठाने पड़ेंगे, पग-पग पर ठोकरें खानी पड़ेंगी।* इसी स्थिति को माया कहते हैं। माया कोई बाहरी संकट नहीं, मात्र भीतरी भ्रान्ति भरी मनःस्थिति ही है, यदि उसे सुधार लिया जाय, तो समझना चाहिए माया के बन्धनों से मुक्ति मिल गई वह मुक्ति वस्तुतः हर किसी को मिलना गलत है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ २०
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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