जातक कथाओं में एक बड़ी रोचक तथा ज्ञानवर्धक कथा आती है। पुरातन काल में एक बार भगवान का जन्म बटेर की योनि में हुआ। उनकी काया बहुत परिपुष्ट थी। आकार में छोटे होते हुए और तिनके खाते हुए भी बड़े प्रसन्न लगते थे और उस उपवन के पेड़ों पर क्रीड़ा कल्लोल करते रहते थे।
उनके पड़ौस में कौआ रहता था। श्मशान भूमि में जो काक बलि दी जाती थी उसके खीर समेत माल पुए उसे खाने को मिलते थे। फिर इधर-उधर चक्कर काटकर मरे हाथियों, ऊंटों और बैलों का माँस तलाश करता रहता था, सो उसे आसानी से मिल जाता। पेट उसका कभी खाली रहता ही न था। इस पर भी उसका मन चिन्तातुर रहता था। जब देखो तभी भयभीत दिखाई पड़ता था। रक्त की कमी से उसका स्वाभाविक काला रंग, हलका सिलहटी जैसा हो गया था। क्षण भर चैन न ले पाता, इधर उधर ताकता रहता और जब भी खटका दिखता तभी वह क्षण भर रुके बिना सिर पर पैर रखकर भागता।
एक दिन बरसाती बूंदें पड़ने लगी। पक्षियों के लिए घोंसले से बाहर जाने के लिए अवसर न रहा। बटेर से बात करने के लिए कौए का मन इच्छुक तो बहुत दिनों से था, पर आज अनायास ही अवसर मिल गया। सो वह बहुत प्रसन्न हुआ। घोंसले से चोंच बाहर निकालकर कौए ने बटेर का अभिवादन किया और अपनी एक जिज्ञासा का समाधान करने के लिए अनुरोध किया।
बटेर ने सिर झुकाकर कहा- आप बड़े हैं, हर दृष्टि से सौभाग्यशाली भी। आप जैसे अच्छे पड़ोसी के साथ रहते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता रहती है। कोई बात पूछनी हो तो निःशंक होकर पूछें।
कौए ने कहा- ‘‘आपकी काया छोटी है। घास-फूँस भर खाते हैं। इतने पर भी कितने प्रसन्न परिपुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। एक मैं हूँ जो दुबला हुआ जा रहा हूँ। चिन्ता के बिना एक क्षण भी नहीं बीतता। इसका कारण समझाकर कहिए।”
बटेर ने कहा- ‘‘जो मिल जाता है उससे सन्तुष्ट रहता हूँ। तिनकों को रसायन मानकर सेवन करता भगवान की कृपा को सराहता रहता है। मेरी पुष्टाई का कारण बस इतना ही है। आप अब अपनी दुर्बलता का कारण बतायें।”
कौए ने कहा- ‘‘श्मशान घाट पर जो श्राद्ध बलि मिलती है, उसका बड़ा भाग पाने की चेष्टा करता हूँ तो, साथियों में से सभी प्रतिद्वन्द्विता करते हैं। न ले जाने के लिए आक्रमण करते हैं और मेरे पंख उखाड़ लेते हैं। मरे हाथी-ऊँट आदि का माँस देखता हूँ तो श्रृंगाल, कुत्ते और गिद्ध पहले से ही पहुंचे मिलते हैं। मुझे भाग नहीं लेने देते और झपट्टा मारकर भगा देते हैं। सो मल भक्षण ही हाथ लगता है। जिनसे प्रतिद्वन्द्विता चलती है सो शत्रुता पालते हैं।
किसी का आक्रमण न हो जाय सो चिन्तित रहकर समय काटना पड़ता है। आत्म रक्षा के लिए चारों और झाँकता हूँ। चिड़ियों के अण्डे चुरा लेता हूँ सो भय रहता है कि समूह बनाकर वे बदला लेने के लिए टूट न पड़ें। यही कारण है कि खाया अंग नहीं लगता। चेन से सो नहीं पाता और दिन-दिन कृश हुआ जाता हूं।’’
बटेर वेशधारी बोधिसत्व बोले- हे बड़भागी! अपने बड़प्पन की ओर देखो। इस उपवन में हम सब की रखवाली किया करो और अपना प्रेम तथा विश्वास दिया करो।
फिर जो कुछ भी आहार मिले उसे पहले दूसरों को खिलाकर पीछे आप भी खा लिया करो। इस प्रकार रसायन आहार से आप का मन प्रसन्न रहा करेगा और असमय वृद्धता वार्धक्य ने जो आक्रमण किया है, सो छूट जायेगा।
कौए ने कहा- ‘‘आपके अमृत वचन ज्ञान और प्रेम से भरे हैं। पर क्या करूं। जन्म भर संग्रह हुए कुसंस्कार बदलने में कठिनाई दिखती है।”
बटेर ने कहा- हिम्मत न हारिए, प्रयत्न कीजिए। स्वभाव जितना भी बदल सकेंगे, उतने ही आप प्रसन्न रहेंगे, परिपुष्ट होंगे और सम्मान के भाजन बनेंगे।
अपनी कोंतरों में बैठे अन्य पक्षियों ने भी सुना और उस पर आचरण करने का व्रत लिया।
उनके पड़ौस में कौआ रहता था। श्मशान भूमि में जो काक बलि दी जाती थी उसके खीर समेत माल पुए उसे खाने को मिलते थे। फिर इधर-उधर चक्कर काटकर मरे हाथियों, ऊंटों और बैलों का माँस तलाश करता रहता था, सो उसे आसानी से मिल जाता। पेट उसका कभी खाली रहता ही न था। इस पर भी उसका मन चिन्तातुर रहता था। जब देखो तभी भयभीत दिखाई पड़ता था। रक्त की कमी से उसका स्वाभाविक काला रंग, हलका सिलहटी जैसा हो गया था। क्षण भर चैन न ले पाता, इधर उधर ताकता रहता और जब भी खटका दिखता तभी वह क्षण भर रुके बिना सिर पर पैर रखकर भागता।
एक दिन बरसाती बूंदें पड़ने लगी। पक्षियों के लिए घोंसले से बाहर जाने के लिए अवसर न रहा। बटेर से बात करने के लिए कौए का मन इच्छुक तो बहुत दिनों से था, पर आज अनायास ही अवसर मिल गया। सो वह बहुत प्रसन्न हुआ। घोंसले से चोंच बाहर निकालकर कौए ने बटेर का अभिवादन किया और अपनी एक जिज्ञासा का समाधान करने के लिए अनुरोध किया।
बटेर ने सिर झुकाकर कहा- आप बड़े हैं, हर दृष्टि से सौभाग्यशाली भी। आप जैसे अच्छे पड़ोसी के साथ रहते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता रहती है। कोई बात पूछनी हो तो निःशंक होकर पूछें।
कौए ने कहा- ‘‘आपकी काया छोटी है। घास-फूँस भर खाते हैं। इतने पर भी कितने प्रसन्न परिपुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। एक मैं हूँ जो दुबला हुआ जा रहा हूँ। चिन्ता के बिना एक क्षण भी नहीं बीतता। इसका कारण समझाकर कहिए।”
बटेर ने कहा- ‘‘जो मिल जाता है उससे सन्तुष्ट रहता हूँ। तिनकों को रसायन मानकर सेवन करता भगवान की कृपा को सराहता रहता है। मेरी पुष्टाई का कारण बस इतना ही है। आप अब अपनी दुर्बलता का कारण बतायें।”
कौए ने कहा- ‘‘श्मशान घाट पर जो श्राद्ध बलि मिलती है, उसका बड़ा भाग पाने की चेष्टा करता हूँ तो, साथियों में से सभी प्रतिद्वन्द्विता करते हैं। न ले जाने के लिए आक्रमण करते हैं और मेरे पंख उखाड़ लेते हैं। मरे हाथी-ऊँट आदि का माँस देखता हूँ तो श्रृंगाल, कुत्ते और गिद्ध पहले से ही पहुंचे मिलते हैं। मुझे भाग नहीं लेने देते और झपट्टा मारकर भगा देते हैं। सो मल भक्षण ही हाथ लगता है। जिनसे प्रतिद्वन्द्विता चलती है सो शत्रुता पालते हैं।
किसी का आक्रमण न हो जाय सो चिन्तित रहकर समय काटना पड़ता है। आत्म रक्षा के लिए चारों और झाँकता हूँ। चिड़ियों के अण्डे चुरा लेता हूँ सो भय रहता है कि समूह बनाकर वे बदला लेने के लिए टूट न पड़ें। यही कारण है कि खाया अंग नहीं लगता। चेन से सो नहीं पाता और दिन-दिन कृश हुआ जाता हूं।’’
बटेर वेशधारी बोधिसत्व बोले- हे बड़भागी! अपने बड़प्पन की ओर देखो। इस उपवन में हम सब की रखवाली किया करो और अपना प्रेम तथा विश्वास दिया करो।
फिर जो कुछ भी आहार मिले उसे पहले दूसरों को खिलाकर पीछे आप भी खा लिया करो। इस प्रकार रसायन आहार से आप का मन प्रसन्न रहा करेगा और असमय वृद्धता वार्धक्य ने जो आक्रमण किया है, सो छूट जायेगा।
कौए ने कहा- ‘‘आपके अमृत वचन ज्ञान और प्रेम से भरे हैं। पर क्या करूं। जन्म भर संग्रह हुए कुसंस्कार बदलने में कठिनाई दिखती है।”
बटेर ने कहा- हिम्मत न हारिए, प्रयत्न कीजिए। स्वभाव जितना भी बदल सकेंगे, उतने ही आप प्रसन्न रहेंगे, परिपुष्ट होंगे और सम्मान के भाजन बनेंगे।
अपनी कोंतरों में बैठे अन्य पक्षियों ने भी सुना और उस पर आचरण करने का व्रत लिया।