रविवार, 8 जनवरी 2017

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 Jan 2017


👉 आज का सद्चिंतन 9 Jan 2017


👉 जीवन देवता की साधना-आराधना (भाग 2) 9 Jan

🌹 अध्यात्म तत्त्वज्ञान का मर्म जीवन साधना

🔴 अति निकट और अति दूर की उपेक्षा करना मानव का सहज स्वभाव है। यह उक्ति जीवन सम्पदा के हर क्षेत्र में लागू होती है। जीवन हम हर घड़ी जीते हैं, पर न तो उसकी गरिमा समझते और न यह सोच पाते हैं कि इसके सदुपयोग से क्या-क्या सिद्धियाँ उपलब्ध हो सकती हैं। प्राणी जन्म लेता और पेट प्रजनन की, प्राकृतिक उत्तेजनाओं से विक्षुब्ध होकर, निर्वाह की जरूरतें पूरी करते हुए दम तोड़ देता है। ऐसे क्षण कदाचित ही कभी आते हैं, जब यह सोचा जाता हो कि स्रष्टा की तिजोरी का सर्वोपरि उपहार मनुष्य जीवन है। जिसे अनुग्रहपूर्वक यह जीवन दिया गया है, उससे यह आशा की गई है कि वह उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग करेगा।          

🔵 अपनी अपूर्णता पूरी करके तुच्छ से महान बनेगा, साथ ही विश्व उद्यान को कुशल माली की तरह सींचते-सँजोते यह सिद्ध करेगा कि उसे स्वार्थ और परमार्थ के सही रूप का ज्ञान है। स्वार्थ इसमें है कि पशु प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से पीछा छुड़ायें और सत्प्रवृत्तियों की आवश्यक मात्रा में अवधारणा करते हुए उस परीक्षा में उत्तीर्ण हों, जो धरोहर का सदुपयोग कर सकने के रूप में सामने प्रस्तुत हुई है। जो उसमें उत्तीर्ण होता है, वह देवमानव की कक्षा में प्रवेश करता है। अपना ही भला नहीं करता, असंख्यों को अपनी नाव में बिठाकर पार करता है। ऐसों को ही अभिनन्दनीय, अनुकरणीय महामानव कहा जाता है। तृप्ति, तुष्टि, शान्ति के त्रिविध आनन्द ऐसों को ही मिलते हैं।  

🔴 मनुष्य जीवन दिव्य सत्ता की एक बहुमूल्य धरोहर है, जिसे सौंपते समय उसकी सत्पात्रता पर विश्वास किया जाता है। मनुष्य के साथ यह पक्षपात नहीं है, वरन् ऊँचे अनुदान देने के लिये यह प्रयोग-परीक्षण है। अन्य जीवधारी शरीर भर की बात सोचते और क्रिया करते हैं, किन्तु मनुष्य को स्रष्टा का उत्तराधिकारी युवराज होने के नाते अनेकानेक कर्तव्य और उत्तरदायित्व निभाने पड़ते हैं। उसी में उसकी गरिमा और सार्थकता है। यदि पेट प्रजनन तक, लोभ-मोह तक उसकी गतिविधियाँ सीमित रहें तो उसे नरपशु के अतिरिक्त और क्या कहा जायेगा?

🔵 लोभ-मोह के साथ अहंकार और जुड़ जाने पर तो बात और भी अधिक बिगड़ती है। महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये उभरी अहंमन्यता अनेक प्रकार के कुचक्र रचती और पतन-पराभव के गर्त में गिरती है। अहन्ता से प्रेरित व्यक्ति अनाचारी बनता है और आक्रामक भी। ऐसी दशा में उसका स्वरूप और भी भयंकर हो जाता है। दुष्ट दुरात्मा एवं नर-पिशाच स्तर की आसुरी गतिविधियाँ अपनाता है। इस प्रकार मनुष्य जीवन जहाँ श्रेष्ठ सौभाग्य का प्रतीक था, वहाँ वह दुर्भाग्य और दुर्गति का कारण ही बनता है। इसी को कहते हैं-वरदान को अभिशाप बना लेना। दोनों ही दिशायें हर किसी के लिये खुली हैं। जो इनमें से जिसे चाहता है, उसे चुन लेता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप जो है।  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 गायत्री विषयक शंका समाधान (भाग 18) 9 Jan

🌹 गायत्री मंत्र कीलित है?

🔴 गायत्री उपासना के दो मार्ग हैं एक देव-मार्ग, दूसरा दैत्य-मार्ग। एक को वैदिक, दूसरे को तांत्रिक कहते हैं। तंत्र-शास्त्र का हर मंत्र कीलित है—अर्थात् प्रतिबंधित है। इस प्रतिबन्ध को हटाये बिना वे मंत्र काम नहीं करते। बन्दूक का घोड़ा जाम कर दिया जाता है, तो उसे दबाने पर भी कारतूस नहीं चलता। मोटर की खिड़की ‘लौक’ कर देने पर वह तब तक नहीं खुलती जब तक उसका ‘लौक’ न हटा दिया जाय। तांत्रिक मंत्रों में विद्यातक शक्ति भी होती है। उसका दुरुपयोग करने पर प्रयोक्ता को तथा अन्यान्यों को हानि उठानी पड़ सकती है। अनधिकारी कुपात्र व्यक्तियों के हाथ में यदि महत्वपूर्ण क्षमता आ जाय तो वे आग के साथ खेलने वाले बालकों की तरह उसे नाश का निमित्त बना सकते हैं।

🔵 इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भगवान शंकर ने समस्त तांत्रिक मंत्रों को कीलित कर दिया है। उत्कीलन होने पर ही वे अपना प्रभाव दिखा सकते हैं। तांत्रिक सिद्धि-साधनाओं में उत्कीलन आवश्यक है। यह कृत्य अनुभवी गुरु द्वारा सम्पन्न होता है। किसी रोगी को—क्या औषधि—किस मात्रा में देनी चाहिए उसका निर्धारण कुशल चिकित्सक रोगी की स्थिति का सूक्ष्म अध्ययन करने के उपरान्त ही करते हैं। यही बात मंत्र-साधना के सम्बन्ध में भी है। किस साधक को—किस मंत्र का उपयोग—किस कार्य के लिए—किस प्रकार करना चाहिए, इसका निर्धारण ही उत्कीलन है।

🔴 यों प्रत्येक तंत्र-विधान का एक उत्कीलन प्रयोग भी है। ‘दुर्गा सप्तशती’ का पाठ आरम्भ करने से पूर्व कवच, कीलन, अर्गल अध्यायों का अतिरिक्त पाठ करना होता है। साधना के समय होने वाले आक्रमणों से सुरक्षा के लिए कवच, मंत्र सुषुप्त शक्ति को प्रखर करने के लिए कीलक एवं सिद्धि के द्वार पर चढ़ी हुई अर्गला—सांकल—को खोलने के लिए ‘अर्गल’ की प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है। ‘दुर्गा सप्तशती’ पाठ की तरह अन्यान्य तंत्र-प्रयोगों में भी अपने-अपने ढंग से कवच, कीलक, अर्गल करने होते हैं। इनमें से कीलक का विशेष महत्व है। वही प्रख्यात भी है। इसलिए उत्कीलन उपचार के लिए अनुभवी मार्गदर्शक की सहायता प्राप्त करने के उपरान्त ही अपने पथ पर अग्रसर होते हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 66)

🌹 बौद्धिक क्रान्ति की तैयारी

🔴 मनुष्य शरीर में विचार ही प्रधान हैं। भावनाओं के अनुरूप ही मनुष्य का व्यक्तित्व उठता-गिरता है। वैयक्तिक जीवन की समस्त असुविधाओं और कुण्ठाओं का प्रधान कारण विचारणा का दोषयुक्त होना ही होता है। सामाजिक समस्याएं और कठिनाइयां भी जन-मानस के नीचे-ऊंचे होने पर ही उलझती-सुलझती हैं। नव-निर्माण का आधार भी विचार स्तर को ऊंचा उठाया जाना ही हो सकता है। ज्ञान से ही मुक्ति मिलती है। विवेक से ही कल्याण होता है। भावना से ही यह जड़, जगत, चेतन, ब्रह्म का मंगलमय स्वरूप परिलक्षित होने लगता है।

🔵 धरती पर स्वर्ग का अवतरण— नव-युग का आगमन बौद्धिक क्रान्ति के द्वारा ही सम्भव होगा। जन-समाज की विचारधारा को आकांक्षाओं और आदर्शों को बदल देने से युग परिवर्तन स्वयमेव उपस्थित हो जाता है। भौतिकवाद से मुंह मोड़कर यदि हम आध्यात्मिक आदर्शों को अपनालें तो मनुष्य की स्थिति देवताओं जैसी दिव्य बन सकती है और वह हर घड़ी स्वर्गीय सुख का आनंद लेता रह सकता है।

🔴 बौद्धिक क्रान्ति के लिए (1) लेखनी (2) वाणी और (3) प्रक्रिया के तीन ही माध्यम होते हैं। युग-निर्माण योजना अपने साधनों के अनुरूप इन तीनों ही माध्यमों को कार्यान्वित कर रही है। ‘‘अखण्ड-ज्योति’’ मासिक पत्रिका विचार क्रान्ति के सारे ढांचे प्रस्तुत करती रहती है और ‘‘युग-निर्माण योजना’’ पाक्षिक के द्वारा उन विचारों को कार्यान्वित किये जाने का व्यवहारिक मार्ग दर्शन होता रहता है। सिद्धान्त और कार्यक्रम—थ्योरी और प्रेक्टिस—का प्रयोजन यह दोनों पत्रिकाएं जिस सुन्दर ढंग से पूर्ण कर रही हैं उससे लाखों व्यक्ति चमत्कृत, प्रभावित, उत्साहित और कर्मरत हुए हैं।

🔵 इन्हें नियमित रूप से पढ़ने वाले ही योजना के सदस्य होते हैं। इन दो उपकरणों के माध्यम से उनका व्यक्तित्व एवं मानसिक स्तर इतना ऊंचा उठा है कि उसे देखते हुए हमें प्रस्तुत योजना बना डालने और उसे उसकी सफलता पर पूर्ण विश्वास करने का साहस हो सकता है। नव-निर्माण की दिशा में यह दो माध्यम ऐतिहासिक भूमिका उपस्थित कर रहे हैं। एक शब्द में यों भी कहा जा सकता है कि योजना शरीर के अन्तर्गत श्वास प्रश्वास की क्रिया इन्हीं दो नासारंध्रों से होती है। इन्हें ही उसका जीवन प्राण एवं मेरुदण्ड कहना चाहिये। इन्हीं से पाठकों का यह परिवार बना है। उन्हीं को सदस्य मानकर शाखा संगठनों के आगे बढ़ाया जा रहा है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 पराक्रम और पुरुषार्थ (भाग 12) 9 Jan

🌹 कठिनाइयों से डरिये मत, जूझिये

🔵 प्रतिकूलताओं के इस अन्धकार से निकलने के बाद जीवन का जो अनुभव होता है, उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए किसी शायर ने लिखा है—
 ‘‘गर्दिशे अय्याम तेरा शुक्रिया,हमने हर पहलू से दुनिया देख ली।’’

🔴 जीवन में एक रास्ता न आये, अनेक अनुभव प्राप्त हों इसके लिए परिस्थितियों का अदलना-बदलना आवश्यक है। यदि सदा अनुकूलता ही बनी रहे तो फिर ढर्रे का जीवन जीने वाले लोग गुणों की दृष्टि से पिछड़े ही पड़े रहेंगे और उन्हें विकास की, परिश्रम पुरुषार्थ की आवश्यकता ही अनुभव नहीं होगी। इस प्रकार के अगणित तथ्यों को ध्यान में रखते हुए सृष्टा ने इस दुनिया में अनुकूलता और प्रतिकूलता उत्पन्न की है। अनुकूल स्थिति से लाभ उठाकर हम अपने सुविधा साधनों को बढ़ायें और प्रतिकूलता के पत्थर से घिसकर अपनी प्रतिभा पैनी करें, यही उचित है और उपयुक्त भी।

🔵 कई व्यक्ति प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना सन्तुलन खो बैठते हैं और वे बेहिसाब दुखी रहने लगते हैं। एक बार प्रयत्न करने पर भी कष्ट दूर नहीं हुआ या सफलता नहीं मिली तो वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई व्यक्ति इससे भी आगे बढ़े-चढ़े होते हैं और बैठे-ठाले भविष्य में विपत्ति आने की शंका करते रहते हैं। यही नहीं होता कि प्रस्तुत असुविधा या प्रतिकूलताओं के समाधान का पुरुषार्थ करें या उपाय सोचें। उल्टे इसके विपरीत वे चिन्ता, भय, निराशा, आशंका और उद्विग्नता जैसी उलझनें खड़ी करके अपने को उसमें फंसा लेते हैं और खुद ही नई विपत्ति गढ़कर खड़ी कर लेते हैं। इस वैभव के अवसाद प्रभावों और हानियों को समय रहते समझ लेना चाहिए ताकि इस दलदल में फंसने की विपत्ति से बचा जा सके।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 18)


🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय
🔴 उस दिन मैंने एक और नई बात समझी कि सिद्ध पुरुषों की अनुकम्पा मात्र लोक-हित के लिए, सत्प्रवृत्ति-संवर्धन के निमित्त होती है। उनका न कोई सगा सम्बन्धी होता है न उदासीन विरोधी। किसी को ख्याति, सम्पदा या कीर्ति दिलाने के लिए उनकी कृपा नहीं बरसती। विराट ब्रह्म-विश्व मानव ही उनका आराध्य होता है। उसी के निमित्त अपने स्वजनों को वे लगाते हैं, अपनी इस नवोदित मान्यता के पीछे रामकृष्ण-विवेकानन्द का, समर्थ रामदास-शिवाजी का, चाणक्य-चंद्रगुप्त का, गाँधी-बिनोवा का, बुद्ध-अशोक का गुरु-शिष्य सम्बन्ध स्मरण हो आया।

🔵 जिनकी आत्मीयता में ऐसा कुछ न हो, सिद्धि-चमत्कार, कौतुक-कौतूहल, दिखाने या सिखाने का क्रिया-कलाप चलता रहा हो, समझना चाहिए कि वहाँ गुरु और शिष्य की क्षुद्र प्रवृत्ति है और जादूगर-बाजीगर जैसा कोई खेल-खिलवाड़ चल रहा है। गंध-बाबा चाहे जिसे सुगंधित फूल सुँघा देते थे। बाघ बाबा-अपनी कुटी में बाघ को बुलाकर बिठा लेते थे। समाधि बाबा कई दिन तक जमीन में गड़े रहते थे। सिद्ध बाबा-आगंतुकों की मनोकामना पूरी करते थे। ऐसी-ऐसी जनश्रुतियाँ भी दिमाग में घूम गईं और समझ में आया कि यदि इन घटनाओं के पीछे मेस्मेरिज्म स्तर की जादूगरी थी, तो महान् कैसे हो सकते हैं? ठण्डे प्रदेश में गुफा में रहना जैसी घटनाएँ भी कौतूहल वर्धक ही है।  स्वयं सेवक की तरह काम करते रहने के लिए कहा।

🔴 जो काम साधारण आदमी न कर सके, उसे कोई एक करामात की तरह कर दिखाए तो इसमें कहने भर की सिद्धाई है। मौन रहना, हाथ पर रखकर भोजन करना, एक हाथ ऊपर रखना, झूले पर पड़े-पड़े समय गुजारना जैसे असाधारण करतब दिखाने वाले बाजीगर सिद्ध हो सकते हैं, पर यदि कोई वास्तविक सिद्ध या शिष्य होगा, तो उसे पुरातन काल के, लोक मंगल के लिए जीवन उत्सर्ग करने वाले ऋषियों के राजमार्ग पर चलना पड़ा होगा। आधुनिक काल में भी विवेकानन्द, दयानन्द, कबीर, चैतन्य, समर्थ की तरह उस मार्ग पर चलना पड़ा होगा। भगवान् अपना नाम जपने मात्र से प्रसन्न नहीं होते, न उन्हें पूजा-प्रसाद आदि की आवश्यकता है।

🔵 जो उनके इस विश्व उद्यान को सुरम्य, सुविकसित करने में लगते हैं, उन्हीं का नाम-जप सार्थक है। यह विचार मेरे मन में उसी वसंत पर्व के दिन, दिन-भर उठते रहे, क्योंकि उनने स्पष्ट कहा था कि ‘‘पात्रता में जो कमी है, उसे पूरा करने के साथ-साथ लोकमंगल का कार्य भी साथ-साथ करना है। एक के बाद दूसरा नहीं दोनों साथ-साथ।’’ चौबीस वर्ष पालन करने योग्य नियम बताए, साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में एक सच्चे स्वयं सेवक की तरह काम करते रहने के लिए कहा।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 18)

🌞  हिमालय में प्रवेश

ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते

🔵 जो पर्वत अपनी शीतलता को अक्षुण्य बनाए रहना चाहते हैं उन्हें इस प्रकार की गन्धक जैसी विषैली पर्तो को बाहर निकाल फेंकना चाहिए। एक दूसरा कारण इन तप्त कुण्डों का और भी हो सकता है कि शीतल पर्वत अपने भीतर के इस विकार को निकाल- निकाल कर बाहर फेंक रहा हो और अपनी दुर्बलता को छिपाने की अपेक्षा सबके सामने प्रकट कर रहा हो- जिससे उसे कपटी और ढोंगी न कहा जा सके। दुर्गुणों का होना बुरी बात है, पर उन्हें छिपाना उससे भी बुरा हैं- इस तथ्य को यह पर्वत जानते हैं यदि मनुष्य भी इसे जान लेता तो कितना अच्छा होता।

🔴 यह समझ में आता है वि हमारे जैसे ठंडे स्नान से खिन्न व्यक्तियों की गरम जल से स्नान कराने की सुविधा और आवश्यकता का ध्यान रखते हुए पर्वत ने अपने भीतर बची थोड़ी गर्मी को बाहर निकालकर रख दिया हो। बाहर से तो वह भी ठण्डा हो चला, फिर भीतर कुछ गर्मी बच गई होगी। पर्वत सोचता होगा जब सारा ही ठण्डा हो चला तो इस थोडी- सी गमीं को बचाकर ही क्या करूँगा, इसे भी क्यों न जरूरतमन्दों को दे डालूँ। उस आत्मदानी पर्वत की तरह कोई व्यक्ति भी ऐसे हो सकतें हैं जो स्वयं अभावग्रस्त, कष्टसाध्य जीवन व्यतीत करते हों और इतने पर भी जो शक्ति बची हो उसे भी जनहित में लगाकर इन तप्त कुण्डों का आदर्श उपस्थित करें।

🔵 इस शीतप्रदेश का वह तप्त कुण्ड भुलाये नहीं भूलेगा। मेरे जैसे हजारों यात्री उसका गुणगान करते रहेंगे, उसमे त्याग भी तो असाधारण है। स्वयं ठण्डे रहकर दूसरों के लिए गर्मी प्रदान करना भूखे रहकर दूसरों की रोटी जुटाने के समान है। सोचता हूँ बुद्धिहीन जड़- पर्वत जब इतना कर सकता है तो क्या बुद्धिमान् बनने वाले मनुष्य को केवल स्वाथीं ही रहना चाहिए?    

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 17)

🌞  हिमालय में प्रवेश

ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते

🔵 कई दिन से शरीर को सुन्न कर देने वाले बर्फीले ठण्डे पानी से स्नान करते आ रहे थे। किसी प्रकार हिम्मत बाँधकर एक- दो डुबकी तो लगा लेते थे, पर जाड़े के मारे शरीर को ठीक तरह रगड़ना और उस तरह स्नान करना नहीं बन पड़ रहा था जैसा देह की सफाई की दृष्टि से आवश्यक हैं। आगे जगननी चट्टी पर पहुँचे, तो पहाड़ के ऊपर वाले तीन तप्त कुण्डों का पता चला जहाँ से गरम पानी निकलता है। ऐसा सुयोग पाकर मल- मलकर स्नान करने की इच्छा प्रबल हो गई। गंगा का पुल पार कर ऊँची चढ़ाई की टेकरी को कई जगह बैठ- बैठकर हाँफते- हाँफते पार किया और तप्त कुण्डों पर जा पहुँचे।

🔴 बराबर- बराबर तीन कुण्ड थे, एक का पानी इतना गरम था कि उसमें नहाना तो दूर, हाथ दे सकना भी कठिन था। बताया गया कि यदि चावल दाल की पोटली बाँधकर इस कुण्ड में डाल दी जाय तो वह खिचड़ी कुछ देर में पक जाती है। यह प्रयोग तो हम न कर सके पर पास वालें दूसरे कुण्ड में जिसका पानी सदा गरम रहता है, खूब मल- मलकर स्नान किया और हफ्तों की अधूरी आकांक्षा पूरी की, कपड़े भी गरम पानी से खूब धुले, अच्छे साफ हुए।    

🔵 सोचता हूँ कि पहाडो़ं पर बर्फ गिरती रहती है और छाती में से झरने वाले झरने सदा बर्फ सा ठण्डा जल प्रवाहित ही करते हैं उनमें कही- कहीं ऐसे उष्ण सोते क्यों फूट पड़ते हैं? मालूम होता है कि पर्वत के भीतर कोई गन्धक की परत है वही अपने समीप से गजरने वाली जलधारा को असह्य उष्णता दे देती है। इसी तरह किसी सज्जन में अनेक शीतल शांतिदायक गुण होने से उसका व्यवहार ठण्डे सोतों की तरह शीतल हो सकता है, पर यदि दुर्बुद्धि की एक भी परत छिपी हो, तो उसकी गर्मी गरम स्रोतों की तरह बाहर फूट पड़ती है और वह छिपती नही।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 17)

🌞 जीवन के सौभाग्य का सूर्योदय

🔴 तुम्हारा विवाह हो गया सो ठीक हुआ। यह समय ऐसा है, जिसमें एकाकी रहने से लाभ कम और जोखिम अधिक है। प्राचीन काल में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, गणेश, इन्द्र आदि सभी सपत्नीक थे। सातों ऋषियों की पत्नियाँ थीं, कारण कि गुरुकुल आरण्यक स्तर के आश्रम चलाने में माता की भी आवश्यकता पड़ती है और पिता की भी। भोजन, निवास, वस्त्र, दुलार आदि के लिए भी माता चाहिए और अनुशासन, अध्यापन, अनुदान पिता की ओर से ही मिलता है। गुरु ही पिता है और गुरु की पत्नी ही माता है, उसी ऋषि परम्परा के निर्वाह के लिए यह उचित भी है, आवश्यक भी।

🔵 आजकल भजन के नाम पर जिस प्रकार आलसी लोग संत का बाना पहनते और भ्रम जंजाल फैलाते हैं, तुम्हारे विवाहित होने से मैं प्रसन्न हूँ। इसमें बीच में व्यवधान तो आ सकता है, पर पुनः तुम्हें पूर्व जन्म में तुम्हारे साथ रही सहयोगिनी पत्नी के रूप में मिलेगी, जो आजीवन तुम्हारे साथ रहकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहेगी। पिछले दो जन्मों में तुम्हें सपत्नीक रहना पड़ा है। यह न सोचना कि इससे कार्य में बाधा पड़ेगी। वस्तुतः इससे आज, परिस्थितियों में सुविधा ही रहेगी एवं युगपरिवर्तन के प्रयोजन में भी सहायता मिलेगी।’’

🔴 वह पावन दिन वसंत पर्व का दिन था। प्रातः ब्रह्म मुहूर्त था। नित्य की तरह संध्या वंदन का नियम निर्वाह चल रहा था। प्रकाश पुंज के रूप में देवात्मा का दिव्य-दर्शन, उसी कौतूहल से मन में उठी जिज्ञासा और उसके समाधान का यह उपक्रम चल रहा था। नया भाव जगा उस प्रकाश पुंज से घनिष्ठ आत्मीयता का। उनकी महानता, अनुकम्पा और साथ ही अपनी कृतज्ञता का। इस स्थिति ने मन का कायाकल्प कर दिया था। कल तक जो परिवार अपना लगता था, वह पराया होने लगा और जो प्रकाश पुंज अभी-अभी सामने आया था, वह प्रतीत होने लगा कि मानों यही हमारी आत्मा है।

🔵 इसी के साथ हमारा भूतकाल बँधा हुआ था और अब जितने दिन जीना है, वह अधिक अवधि भी इसी के साथ जुड़ी रहेगी। अपनी ओर से कुछ कहना नहीं। कुछ चाहना नहीं, किंतु दूसरे का जो आदेश हो उसे प्राण-प्रण से पालन करना। इसी का नाम समर्पण है। समर्पण मैंने उसी दिन प्रकाश पुँज देवात्मा को किया और उन्हीं को न केवल मार्गदर्शक वरन् भगवान् के समतुल्य माना। उस सम्बन्ध निर्वाह को प्रायः साठ वर्ष से अधिक होने को आते हैं। बिना कोई तर्क बुद्धि लड़ाए, बिना कुछ नननुच किए, उनके इशारे पर एक ही मार्ग पर गतिशीलता होती रही है। सम्भव है या नहीं अपने बूते यह हो सकेगा या नहीं, इसके परिणाम क्या होंगे? इन प्रश्नों में से एक भी प्रश्न आज तक मन में उठा नहीं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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