मंगलवार, 4 अप्रैल 2017
👉 न्याय सबके लिए एक जैसा
🔵 राज-कर्मचारियों को विशेष अधिकर मिलते है, वह पद का कर्तव्य सुविधापूर्वक निभा सकने के लिये होते हैं। व्यक्ति की प्रतिष्ठा से उन अधिकारों का कोई संबध नहीं रहता। इस तथ्य को सिद्धांत रूप में मानने वाले अधिकारीगण ही अपने कर्तव्यों का पालन नेकी और ईमानदारी से कर सकते हैं। अधिकारों से अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता या प्रतिष्ठा को ऊंचा दिखाने की स्वार्थपूर्ण भावना के कारण ही भ्रष्टाचार बढ़ता है और जन-साधारण में बुराइयों के प्रसार का साहस बढ़ता है।
🔴 लोकतंत्र मे कर्तव्य के पालन की अवहेलना की जाती है, तभी वह जनता के लिए घातक बनता है। इसलिए उसकी सफलता का सारा भार उन अधिकारियों पर आता है, जो कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किए जाते हैं। इनमे जितनी अधिक ईमानदारी और इंसाफ पसंदगी होगी लोकतंत्र उतना ही खुशहाल होगा, उतना ही अधिक जनता को सुविधाएं मिलेंगी। राष्टीय जीवन में व्यापक तौर पर नैतिकता का प्रसार भी बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि अधिकारी वर्ग अपने उत्तरदायित्वों का पालन किस निष्ठा के साथ करते हैं?
🔵 ऐसे उदाहरणों में एक उदाहरण कोंडागिल (मद्रास) के सत्र न्यायाधीश श्री के० एम० सजीवैया का भी है, जिन्होंने कर्तव्य पालन में सर्वोत्कृष्ट ईमानदारी का परिचय दिया। कसौटी का समय तय आया, जब उनकी अदालत में एक ऐसा अभियुक्त पेश किया गया जो उन्हीं का पुत्र था और एक मित्र के फर्म में चोरी करने के आरोप में पकडा गया था। अभियुक्त की पैरवी उसके चाचा कर रहे थे। पुलिस केस था, इसलिये मामले का सारा उत्तरदायित्व भी सरकार पर ही था।
🔴 सरकारी वकील ने मुकदमा प्रारंभ होने पर आपत्ति कि चूँकि अभियुक्त का सबंध सीधे जज महोदय से है इसलिये उसे दूसरी अदालत में बदल दिया जाना चाहिए। माननीय जज के लिये यह परीक्षा का समय था। उन्होंने विचार किया कि यदि अपने प्रभाव का उपयोग करना हो तो वह दूसरी अदालत में भी संभव है, पर यदि ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य पालन की परीक्षा ही होती है तो अभियुक्त के रूप मे भले ही उनका पुत्र प्रस्तुत हो, उन्हें मुकदमा करना चाहिए और उसमें उतनी ही कठोरता बरती जानी चाहिए जितनी अन्य अभियुक्तों के साथ होती है।
🔵 विद्वान जज ने दलील दी कि मामला दूसरी अदालत में तभी जा सकता है, जब यहाँ का फैसला असंतोषजनक हो, अपने कार्य को दूसरे पर टालने की अनावश्यकता का उन्होंने विरोध किया, जिससे मामले की सुनवाई उसी अदालत में हुई। प्रत्येक तारीख के बाद जब जज साहब घर लौटते तो उनकी धर्मपत्नी आग्रह करती- ''आपका ही पुत्र है, इसे बचाने की जिम्मेदारी भी तो आप पर ही है।'' अपने उत्तर में जज साहब हलकी-सी मुस्कान के साथ आश्वासन देते, वे इसके लिए प्रयत्नशील रहेंगे।
🔴 आखिर वह दिन आया जब फैसले की तिथि आ पडी। कचहरी में जज साहब की पत्नी के अतिरिक्त उनके बहुत-से संबंधी भी एकत्रित थे। फैसला करने से पहले उन पर दबाव भी डाला गया, पर जब उन्होंने अपराधी बेटे को २ वर्ष सख्त कैद की सजा सुनाई तो सारे कोर्ट मे सन्नाटा छा गया। न्यायालय की कार्यवाही पर सरकारी कर्मचारियों ने जहाँ संतोष व्यक्त किया और जज साहब की न्यायप्रियता की प्रशंसा हुई, वही उनकी धर्मपत्नी और संबंधियो ने उन पर तीखे आक्षेप भी किए। जज साहब ने अपने कुटुंबियों से कहा-अभियुक्त का पिता होने के कारण मेरी उसके साथ सहानुभूति थी, किंतु न्यायालय में मेरा उसका सबंध अपराधी और न्यायाधीश का होता था। वह स्थान मुझे न्याय के लिए मिला है, उसमे अपने-पराये का प्रश्न नही उठता।। सब चुप हो गये। सभी ने जज साहब के कर्तव्य पालन पर संतोष ही अनुभव किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 119, 120
🔴 लोकतंत्र मे कर्तव्य के पालन की अवहेलना की जाती है, तभी वह जनता के लिए घातक बनता है। इसलिए उसकी सफलता का सारा भार उन अधिकारियों पर आता है, जो कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण रखने के लिए नियुक्त किए जाते हैं। इनमे जितनी अधिक ईमानदारी और इंसाफ पसंदगी होगी लोकतंत्र उतना ही खुशहाल होगा, उतना ही अधिक जनता को सुविधाएं मिलेंगी। राष्टीय जीवन में व्यापक तौर पर नैतिकता का प्रसार भी बहुत कुछ इस बात पर निर्भर है कि अधिकारी वर्ग अपने उत्तरदायित्वों का पालन किस निष्ठा के साथ करते हैं?
🔵 ऐसे उदाहरणों में एक उदाहरण कोंडागिल (मद्रास) के सत्र न्यायाधीश श्री के० एम० सजीवैया का भी है, जिन्होंने कर्तव्य पालन में सर्वोत्कृष्ट ईमानदारी का परिचय दिया। कसौटी का समय तय आया, जब उनकी अदालत में एक ऐसा अभियुक्त पेश किया गया जो उन्हीं का पुत्र था और एक मित्र के फर्म में चोरी करने के आरोप में पकडा गया था। अभियुक्त की पैरवी उसके चाचा कर रहे थे। पुलिस केस था, इसलिये मामले का सारा उत्तरदायित्व भी सरकार पर ही था।
🔴 सरकारी वकील ने मुकदमा प्रारंभ होने पर आपत्ति कि चूँकि अभियुक्त का सबंध सीधे जज महोदय से है इसलिये उसे दूसरी अदालत में बदल दिया जाना चाहिए। माननीय जज के लिये यह परीक्षा का समय था। उन्होंने विचार किया कि यदि अपने प्रभाव का उपयोग करना हो तो वह दूसरी अदालत में भी संभव है, पर यदि ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य पालन की परीक्षा ही होती है तो अभियुक्त के रूप मे भले ही उनका पुत्र प्रस्तुत हो, उन्हें मुकदमा करना चाहिए और उसमें उतनी ही कठोरता बरती जानी चाहिए जितनी अन्य अभियुक्तों के साथ होती है।
🔵 विद्वान जज ने दलील दी कि मामला दूसरी अदालत में तभी जा सकता है, जब यहाँ का फैसला असंतोषजनक हो, अपने कार्य को दूसरे पर टालने की अनावश्यकता का उन्होंने विरोध किया, जिससे मामले की सुनवाई उसी अदालत में हुई। प्रत्येक तारीख के बाद जब जज साहब घर लौटते तो उनकी धर्मपत्नी आग्रह करती- ''आपका ही पुत्र है, इसे बचाने की जिम्मेदारी भी तो आप पर ही है।'' अपने उत्तर में जज साहब हलकी-सी मुस्कान के साथ आश्वासन देते, वे इसके लिए प्रयत्नशील रहेंगे।
🔴 आखिर वह दिन आया जब फैसले की तिथि आ पडी। कचहरी में जज साहब की पत्नी के अतिरिक्त उनके बहुत-से संबंधी भी एकत्रित थे। फैसला करने से पहले उन पर दबाव भी डाला गया, पर जब उन्होंने अपराधी बेटे को २ वर्ष सख्त कैद की सजा सुनाई तो सारे कोर्ट मे सन्नाटा छा गया। न्यायालय की कार्यवाही पर सरकारी कर्मचारियों ने जहाँ संतोष व्यक्त किया और जज साहब की न्यायप्रियता की प्रशंसा हुई, वही उनकी धर्मपत्नी और संबंधियो ने उन पर तीखे आक्षेप भी किए। जज साहब ने अपने कुटुंबियों से कहा-अभियुक्त का पिता होने के कारण मेरी उसके साथ सहानुभूति थी, किंतु न्यायालय में मेरा उसका सबंध अपराधी और न्यायाधीश का होता था। वह स्थान मुझे न्याय के लिए मिला है, उसमे अपने-पराये का प्रश्न नही उठता।। सब चुप हो गये। सभी ने जज साहब के कर्तव्य पालन पर संतोष ही अनुभव किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 119, 120
👉 सन्त, सुधारक और शहीद
🔵 अवतार केवल उन्हीं को नहीं कहते जिनके बारे में जन प्रचलित मान्यताएँ हैं, मिथक या शास्त्र जिनका वर्णन करते आए हैं। परब्रह्म की अवतार चेतना मानवी सत्ता से भी यह कार्य करा लेती है, विशेषतः उनसे जिनमें दैवी तत्त्वों का चिरसंचित बाहुल्य पाया जाता है। ऐसे अवतार तीन रूपों में दृष्टिगोचर होते हैं- संत, सुधारक और शहीद। ये तीन अवतार चेतना के ऐसे स्वरूप हैं, जिन्हें देखकर उनकी सृजन प्रयोजनों में नियोजित तत्परता के माध्यम से मानवी काया में परमात्मा की चेतना का दिग्दर्शन किया जा सकता है।
🔴 ‘सन्त’ उन्हें कहते हैं जो अपने उपदेशों से नहीं, अपने चरित्र एवं व्यक्तित्त्व के आधार पर सुसंस्कृत जीवन का शिक्षण देते हैं। जो अपनी निज की वासना पर नियन्त्रण कर अपने आपको सुधार कर मानव जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करने का शिक्षण दे, वह सन्त की परिभाषा में आता है। सन्त ही मनःस्थिति को नियन्त्रित रखने-विचारों की अनगढ़ता को ठीक कर आदर्शवादी उत्कृष्टता को जीवन में उतारे जाने की प्रयोगशाला स्वयं को बनाकर अपना उदाहरण सबके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे जन-मानस को यह साहस प्रदान करते हैं कि मनःस्थिति ऊँची रहने पर विषम परिस्थितियों में भी मानवी गरिमा अक्षुण्ण रखी जा सकती है।
🔵 अवतार का दूसरा स्तर ‘सुधारक’ का है, जो न केवल वासना पर अपितु तृष्णा पर भी नियन्त्रण कर आत्म निर्माण के साथ दूसरों को बदलने योग्य पराक्रम करने की सामर्थ्य रखते हैं। आत्म-सुधार अपने हाथ की बात है, इसलिए सन्त का कार्य-क्षेत्र सीमित और सरल है। किन्तु सुधारक को अन्यों को बदलना पड़ता है। सन्त का ‘ब्राह्मण’ होना पर्याप्त है; किन्तु सुधारक को ‘साधु’ भी बनना होता है जो एक हाथ में शास्त्र और दूसरें में शस्त्र रखता है।
🔴 अधिक प्राणशक्ति के लिए तृष्णा-लिप्सा, और अधिक पाने की महत्वाकांक्षा पर नियन्त्रण आवश्यक है। चरित्र अधिक ऊँचा, साहस अधिक प्रखर और पुरुषार्थ अधिक प्रबल हो, तभी दूसरों को अभ्यस्त अनाचार से विरत रहने और सदाशयता अपनाने के लिए सहमत एवं विवश करना सम्भव है। सुधारक दो मोर्चों को सम्भाल कर व्यापक परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने वाली अवतारी सत्ता के अन्तर्गत आते हैं।
🔵 अवतार का तीसरा स्तर ‘शहीद’ का है। शहीद का अर्थ है जो वासना, तृष्णा से तो मुक्त है ही अहंता से भी मुक्ति पा चुका है। ‘स्व’ का ‘‘पर’’ के लिए समग्र समर्पण। समर्पण, शरणागति, परमसत्ता के विराट् उद्यान को सुन्दर बनाने के लिए अपने आपको विसर्जित कर देना-यह सच्ची शहादत है। संकीर्ण स्वार्थपरता का अन्त करके परमार्थ को ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का केन्द्र बना लेना, उसी में रस लेना, उसी चिन्तन में सतत तन्मय रहना ही शहीद की वास्तविक परिभाषा है। जिसने अहं को अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं को गला दिया, वही सच्चा शहीद है। जिन्हें अवतार के प्रत्यक्ष दर्शन करने हों, वे ऊपर बताए तीन वर्गों का विस्तार एवं स्तर उभरता देखकर युगपरिवर्तन की प्रक्रिया का अनुमान लगा सकते हैं।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप
🔴 ‘सन्त’ उन्हें कहते हैं जो अपने उपदेशों से नहीं, अपने चरित्र एवं व्यक्तित्त्व के आधार पर सुसंस्कृत जीवन का शिक्षण देते हैं। जो अपनी निज की वासना पर नियन्त्रण कर अपने आपको सुधार कर मानव जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग करने का शिक्षण दे, वह सन्त की परिभाषा में आता है। सन्त ही मनःस्थिति को नियन्त्रित रखने-विचारों की अनगढ़ता को ठीक कर आदर्शवादी उत्कृष्टता को जीवन में उतारे जाने की प्रयोगशाला स्वयं को बनाकर अपना उदाहरण सबके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। वे जन-मानस को यह साहस प्रदान करते हैं कि मनःस्थिति ऊँची रहने पर विषम परिस्थितियों में भी मानवी गरिमा अक्षुण्ण रखी जा सकती है।
🔵 अवतार का दूसरा स्तर ‘सुधारक’ का है, जो न केवल वासना पर अपितु तृष्णा पर भी नियन्त्रण कर आत्म निर्माण के साथ दूसरों को बदलने योग्य पराक्रम करने की सामर्थ्य रखते हैं। आत्म-सुधार अपने हाथ की बात है, इसलिए सन्त का कार्य-क्षेत्र सीमित और सरल है। किन्तु सुधारक को अन्यों को बदलना पड़ता है। सन्त का ‘ब्राह्मण’ होना पर्याप्त है; किन्तु सुधारक को ‘साधु’ भी बनना होता है जो एक हाथ में शास्त्र और दूसरें में शस्त्र रखता है।
🔴 अधिक प्राणशक्ति के लिए तृष्णा-लिप्सा, और अधिक पाने की महत्वाकांक्षा पर नियन्त्रण आवश्यक है। चरित्र अधिक ऊँचा, साहस अधिक प्रखर और पुरुषार्थ अधिक प्रबल हो, तभी दूसरों को अभ्यस्त अनाचार से विरत रहने और सदाशयता अपनाने के लिए सहमत एवं विवश करना सम्भव है। सुधारक दो मोर्चों को सम्भाल कर व्यापक परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने वाली अवतारी सत्ता के अन्तर्गत आते हैं।
🔵 अवतार का तीसरा स्तर ‘शहीद’ का है। शहीद का अर्थ है जो वासना, तृष्णा से तो मुक्त है ही अहंता से भी मुक्ति पा चुका है। ‘स्व’ का ‘‘पर’’ के लिए समग्र समर्पण। समर्पण, शरणागति, परमसत्ता के विराट् उद्यान को सुन्दर बनाने के लिए अपने आपको विसर्जित कर देना-यह सच्ची शहादत है। संकीर्ण स्वार्थपरता का अन्त करके परमार्थ को ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का केन्द्र बना लेना, उसी में रस लेना, उसी चिन्तन में सतत तन्मय रहना ही शहीद की वास्तविक परिभाषा है। जिसने अहं को अपनी क्षुद्र महत्त्वाकांक्षाओं को गला दिया, वही सच्चा शहीद है। जिन्हें अवतार के प्रत्यक्ष दर्शन करने हों, वे ऊपर बताए तीन वर्गों का विस्तार एवं स्तर उभरता देखकर युगपरिवर्तन की प्रक्रिया का अनुमान लगा सकते हैं।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप
👉 उपासना के तत्व दर्शन को भली भान्ति हृदयंगम किया जाय (भाग 3)
🔵 आत्मा−परमात्मा के निकट पहुँचने पर भौतिकी का ऊर्जा स्थानान्तरण वाला सिद्धान्त ही सार्थक होता है। गरम लोहे को ठण्डे के साथ बाँध देने पर गर्मी एक से दूसरे में जाती है और थोड़ी देर में तापमान एक सरीखा हो जाता है। दो तालाबों को यदि परस्पर सम्बद्ध कर दिया जाय तो अधिक पानी वाले तालाब का जल दूसरे कम पानी वाले तालाब में पहुँचकर दोनों का स्तर समान कर देता है। उपासना के माध्यम से आत्मा को परमात्मा से सम्बन्धित करने का प्रयास किया जाता है।
🔴 यों तो वह हर समय, हर एक के पास, हर स्थिति में कोई भी काम करते समय बना रहता है। किन्तु सामान्य व्यक्ति उसके सान्निध्य की अनुभूति नहीं कर पाते। यदि मनुष्य अपने हर काम को परमात्मा को सौंप दे, हर काम उसी को जान समझ कर करे और हर क्रिया को उपासना जैसी श्रद्धा व आस्था से करे तो मनुष्य के साधारण नित्य नैमित्तिक कार्य भी ईश्वरोपासना के रूप में बदल जाये व वैसी ही शाँति–सन्तोष–आनन्द के पुण्यफल देने लगे।
🔵 ऋषियों और सन्त भक्तों के जीवन इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उन्होंने अपार आत्म−शान्ति पाई, अपने आशीर्वाद और वरदान से असंख्यों के भौतिक कष्ट मिटाये, अन्धकार में भटकतों को प्रकाश दिया और उन दिव्य विभूतियों के अधिपति बने जिन्हें ऋद्धि एवं सिद्धि कहा जाता है। नाम गिनाये जायें तो रैदास, दादू, नानक, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम ऐसे अनेकों हैं जिन्होंने गृही और विरक्त सन्त का जीवन जिया। इनके जीवन–चरित्रों को कसौटी पर कसा जा सकता है और देखा जा सकता है कि कोल्हू के बैल की तरह ढर्रे का नीरस जीवन बिताने की अपेक्षा यदि उनने ईश्वर का आश्रय लेने का निर्णय लिया तो वे घाटे में नहीं रहे।
🔴 कम लाभ की अपेक्षा अधिक लाभ का व्यापार करना बुद्धिमत्ता ही कहा जायेगा। फिर उपासना का अवलम्बन लेना क्यों अदूरदर्शिता माना जाय? निस्सन्देह यही सही जीवन की रीति−नीति है कि शरीरगत स्वार्थों का ध्यान रखने के अतिरिक्त आत्म−कल्याण की भी आवश्यकता समझी जाय और उपासना का आश्रय इसके लिये लिया जाय। इसे नियमित दिनचर्या का अंग बनायें तो हर व्यक्ति अनुपम लाभ प्राप्त कर सकता है।
🌹 -क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति – मार्च 1982 पृष्ठ 3
🔴 यों तो वह हर समय, हर एक के पास, हर स्थिति में कोई भी काम करते समय बना रहता है। किन्तु सामान्य व्यक्ति उसके सान्निध्य की अनुभूति नहीं कर पाते। यदि मनुष्य अपने हर काम को परमात्मा को सौंप दे, हर काम उसी को जान समझ कर करे और हर क्रिया को उपासना जैसी श्रद्धा व आस्था से करे तो मनुष्य के साधारण नित्य नैमित्तिक कार्य भी ईश्वरोपासना के रूप में बदल जाये व वैसी ही शाँति–सन्तोष–आनन्द के पुण्यफल देने लगे।
🔵 ऋषियों और सन्त भक्तों के जीवन इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। उन्होंने अपार आत्म−शान्ति पाई, अपने आशीर्वाद और वरदान से असंख्यों के भौतिक कष्ट मिटाये, अन्धकार में भटकतों को प्रकाश दिया और उन दिव्य विभूतियों के अधिपति बने जिन्हें ऋद्धि एवं सिद्धि कहा जाता है। नाम गिनाये जायें तो रैदास, दादू, नानक, ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम ऐसे अनेकों हैं जिन्होंने गृही और विरक्त सन्त का जीवन जिया। इनके जीवन–चरित्रों को कसौटी पर कसा जा सकता है और देखा जा सकता है कि कोल्हू के बैल की तरह ढर्रे का नीरस जीवन बिताने की अपेक्षा यदि उनने ईश्वर का आश्रय लेने का निर्णय लिया तो वे घाटे में नहीं रहे।
🔴 कम लाभ की अपेक्षा अधिक लाभ का व्यापार करना बुद्धिमत्ता ही कहा जायेगा। फिर उपासना का अवलम्बन लेना क्यों अदूरदर्शिता माना जाय? निस्सन्देह यही सही जीवन की रीति−नीति है कि शरीरगत स्वार्थों का ध्यान रखने के अतिरिक्त आत्म−कल्याण की भी आवश्यकता समझी जाय और उपासना का आश्रय इसके लिये लिया जाय। इसे नियमित दिनचर्या का अंग बनायें तो हर व्यक्ति अनुपम लाभ प्राप्त कर सकता है।
🌹 -क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 -अखण्ड ज्योति – मार्च 1982 पृष्ठ 3
👉 आत्मचिंतन के क्षण 5 April
🔴 जीवन का अर्थ है- एक ऐसी तत्परता जो निरन्तर यह खोजती रहे कि कहाँ पर कुछ भलाई की जा सकती है। प्रतिक्षण और अधिक उद्दात्त व्यक्ति बनने और अपनी आत्मा की पवित्रता विकसित करने के लिये यदि प्रयत्नशील हैं, तब यह कहा जा सकता है कि आपके जीवन की दिशा सही है। अपने परमात्मा को केवल हृदय से ही प्रेम नहीं करना वरन् सारी आत्मा, सारी बुद्धि और हाथों से भी करनी चाहिये, तभी जीवन को परिपूर्ण बना सकते हैं।
🔵 श्रेष्ठ साधक अपनी साधना में अपने मार्गदर्शक को प्रधानता देकर चलते हैं। मार्ग-दर्शक सन्तोष को ही अपनी प्रगति का चिन्ह मानते हैं। एक बार लक्ष्य निर्धारण करके फिर कितनी सीढ़ियाँ किस प्रकार चढ़ना है, यह मार्ग-दर्शक के ऊपर छोड़कर साधक लग जाते हैं, अपनी पूरी शक्ति के साथ निर्देश पूरा करने में। इस स्थिति में हर कदम पर उन्हें निर्देशक के सन्तोष का ही ध्यान रहता है। मानो वही मूल लक्ष्य हो।
🔴 संसार के समस्त अग्रणी लोग आत्म-विश्वासी वर्ग के होते हैं। वे अपनी आत्मा में, अपनी शक्तियों में आस्थावान रहकर कोई भी कार्य कर सकने का साहस रखते हैं और जब भी जो काम अपने लिए चुनते हैं, पूरे संकल्प और पूरी लगन से उसे पूरा करके छोड़ते हैं। वे मार्ग में आने वाली किसी भी बाधा अथवा अवरोध से विचलित नहीं होते हैं। आशा, साहस और उद्योग उनके स्थायी साथी होते हैं। किसी भी परिस्थिति में वे इनको अपने पास से जाने नहीं देते।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 श्रेष्ठ साधक अपनी साधना में अपने मार्गदर्शक को प्रधानता देकर चलते हैं। मार्ग-दर्शक सन्तोष को ही अपनी प्रगति का चिन्ह मानते हैं। एक बार लक्ष्य निर्धारण करके फिर कितनी सीढ़ियाँ किस प्रकार चढ़ना है, यह मार्ग-दर्शक के ऊपर छोड़कर साधक लग जाते हैं, अपनी पूरी शक्ति के साथ निर्देश पूरा करने में। इस स्थिति में हर कदम पर उन्हें निर्देशक के सन्तोष का ही ध्यान रहता है। मानो वही मूल लक्ष्य हो।
🔴 संसार के समस्त अग्रणी लोग आत्म-विश्वासी वर्ग के होते हैं। वे अपनी आत्मा में, अपनी शक्तियों में आस्थावान रहकर कोई भी कार्य कर सकने का साहस रखते हैं और जब भी जो काम अपने लिए चुनते हैं, पूरे संकल्प और पूरी लगन से उसे पूरा करके छोड़ते हैं। वे मार्ग में आने वाली किसी भी बाधा अथवा अवरोध से विचलित नहीं होते हैं। आशा, साहस और उद्योग उनके स्थायी साथी होते हैं। किसी भी परिस्थिति में वे इनको अपने पास से जाने नहीं देते।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 नवरात्रि साधना का तत्वदर्शन (भाग 6)
🔴 मित्रों! हम ये कह रहे थे कि आप गलत सोचने का तरीका अपना बदल लें जो साधन सामग्री आप के पास है, रुपया पैसा चाँदी जमीन है, अक्ल है, इनका सदुपयोग आप करना सीख लें। आपके कमाने का क्या तरीका है? मुझे नहीं मालूम । पर आप एक बात का जवाब दीजिए कि आप इन्हें खर्च कैसे करते हैं? किस आदमी ने कैसे कमाया ये हिसाब मैं नहीं करता। मैं तो अध्यात्म की दृष्टि से विचार करता हूँ कि किस आदमी ने कैसे खर्च किया? जो कमाया वह खर्च कहाँ हुआ? मुझे खर्च का ब्यौरा दीजिए।
🔵 बस! अगर आप खर्च अपव्यय में करते हैं गलत कामों में करते हैं, फिजूल खर्ची करते हैं तो मैं आध्यात्मिक दृष्टि से आपको बेईमान कहूँगा। आप कहेंगे, यह हमारी कमाई है। हाँ आपकी ही कमाई है, पर आप खर्च कहाँ करते हैं यह बताइए आपका धन, आपकी अकल, आपके साधन, श्रम किन कामों में खर्च होते हैं, इनका ब्यौरा लाइए, उसकी फाइल पेश कीजिए हमारे सामने।
🔴 आपने बेटे को खैरात में बाँट अय्याशी में उड़ा दिया, जेवर बनवाने में खर्च कर दिया तो हम आपको आध्यात्मवादी कैसे कहें? खर्च के बारे में भगवान का बड़ा सख्त नियंत्रण है। आदमी को हम अध्यात्म का अंकुश लगाते हुए ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसा जीवन जीने को कहते हैं। आपको 500 रुपये तनख्वाह मिलती होगी, मिले। लेकिन आप उसे औसत नागरिक के नाते खर्च कीजिए। विद्यासागर की तरह 50 रुपयों में अपनी गृहस्थी का गुजारा करें व 450 रुपयों में अन्यों के लिए समाज के लिए दुखी-अभावग्रस्तों के लिए सुरक्षित करिए।
🔵 उनके साढ़े चार सौ रुपयों से हजारों विद्यार्थी निहाल हो गए। जो फीस नहीं दे सकते थे, जो कापी नहीं खरीद सकते थे, जिनके पास मिट्टी का तेल नहीं था उनके लिए सारी व्यवस्था विद्यासागर ने अपने यहाँ कर रखी थी। इसे क्या कहते हैं- यह अध्यात्म है। अध्यात्मवादी आप कब होंगे, मैं यह नहीं जानता किन्तु जिस दिन अध्यात्मवादी बनने का सिलसिला शुरू हो जाएगा, तब फिर मैं आपको भगवान की शपथ देकर अपने अनुभव की साक्षी देकर विश्वास दिलाऊँगा कि अध्यात्म के बराबर नगद फल देने वाली चमत्कारी विद्या कोई नहीं हो सकती। लाटरी लगाने, जेब काटने से भी ज्यादा फायदेमंद दूरदर्शिता भरा रास्ता है अध्यात्म का। यह आप समझ गए तो आपका मानसिक कायाकल्प आध्यात्मिक भावकल्प हो जाएगा व नवरात्रि साधना सफल मानी जाएगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.57
🔵 बस! अगर आप खर्च अपव्यय में करते हैं गलत कामों में करते हैं, फिजूल खर्ची करते हैं तो मैं आध्यात्मिक दृष्टि से आपको बेईमान कहूँगा। आप कहेंगे, यह हमारी कमाई है। हाँ आपकी ही कमाई है, पर आप खर्च कहाँ करते हैं यह बताइए आपका धन, आपकी अकल, आपके साधन, श्रम किन कामों में खर्च होते हैं, इनका ब्यौरा लाइए, उसकी फाइल पेश कीजिए हमारे सामने।
🔴 आपने बेटे को खैरात में बाँट अय्याशी में उड़ा दिया, जेवर बनवाने में खर्च कर दिया तो हम आपको आध्यात्मवादी कैसे कहें? खर्च के बारे में भगवान का बड़ा सख्त नियंत्रण है। आदमी को हम अध्यात्म का अंकुश लगाते हुए ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसा जीवन जीने को कहते हैं। आपको 500 रुपये तनख्वाह मिलती होगी, मिले। लेकिन आप उसे औसत नागरिक के नाते खर्च कीजिए। विद्यासागर की तरह 50 रुपयों में अपनी गृहस्थी का गुजारा करें व 450 रुपयों में अन्यों के लिए समाज के लिए दुखी-अभावग्रस्तों के लिए सुरक्षित करिए।
🔵 उनके साढ़े चार सौ रुपयों से हजारों विद्यार्थी निहाल हो गए। जो फीस नहीं दे सकते थे, जो कापी नहीं खरीद सकते थे, जिनके पास मिट्टी का तेल नहीं था उनके लिए सारी व्यवस्था विद्यासागर ने अपने यहाँ कर रखी थी। इसे क्या कहते हैं- यह अध्यात्म है। अध्यात्मवादी आप कब होंगे, मैं यह नहीं जानता किन्तु जिस दिन अध्यात्मवादी बनने का सिलसिला शुरू हो जाएगा, तब फिर मैं आपको भगवान की शपथ देकर अपने अनुभव की साक्षी देकर विश्वास दिलाऊँगा कि अध्यात्म के बराबर नगद फल देने वाली चमत्कारी विद्या कोई नहीं हो सकती। लाटरी लगाने, जेब काटने से भी ज्यादा फायदेमंद दूरदर्शिता भरा रास्ता है अध्यात्म का। यह आप समझ गए तो आपका मानसिक कायाकल्प आध्यात्मिक भावकल्प हो जाएगा व नवरात्रि साधना सफल मानी जाएगी।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1992/April/v1.57
👉 योगक्षेमं वहाम्यहम्
🔵 सन् १९८१ की बात है। हम पतरातु में रह रहे थे। उन दिनों विचार क्रांति अभियान हेतु पदयात्रा व साइकिल यात्रा का दौर चल रहा था। पिताजी ने तय किया हिमालय की ओर साइकिल यात्रा पर जाएँगे। तीन सदस्यों की टोली तैयार हुई। योजना बनी कि पहले हरिद्वार जाकर गुरुजी से आशीर्वाद प्राप्त किया जाए। फिर हिमालय की ओर बढ़ा जाए। यहाँ साइकिल यात्रा के लिए सरकारी अनुमति आवश्यक होती है। तीनों ने एक साथ आवेदन किया, मगर अनुमति मिलने के बाद टोली के अन्य दो सदस्यों ने किन्हीं निजी कारणों से यात्रा स्थगित कर दी। पिताजी की उम्र एवं स्वास्थ्य का विचार कर हमने उनसे आग्रह किया कि वे भी अपनी यात्रा की योजना त्याग दें, पर वे नहीं माने। हमने उन्हें यात्रा स्थगित करने; ट्रेन / कार द्वारा हरिद्वार तक चले जाने आदि अनेक प्रकार के विकल्प सुझाए; पर पिताजी जिद्दी स्वभाव के थे। वे संकल्प कर चुके थे इसलिए रुके नहीं, अकेले ही रवाना हो गए।
🔴 यात्रा के आरम्भिक दिनों में वे हर दिन एक पत्र लिखा करते थे जिससे यात्रा का विवरण मिलता रहता था। कहाँ तक पहुँचे इसकी जानकारी रहती थी। कानपुर पहुँचने तक का समाचार मिलता रहा। इसके बाद पत्र आने बंद हो गए। आगे का रास्ता खतरों से भरा हुआ है इसका हमें पता था। पत्र न आने से दुश्चिंता बढ़ने लगी। एक- एक कर ८ दिन बीत गए। रविवार के दिन हम बैठकर बातें कर रहे थे। पत्नी से इसी विषय पर चर्चा हो रही थी। मैंने कहा- जाकर देखना चाहिए। कानपुर से आगे सड़क मार्ग में जाकर आस- पास के लोगों से पूछा जाए, इस तरह के कोई व्यक्ति साइकिल यात्रा करते हुए आए थे क्या विचार क्रांति अभियान के तहत? अगर उधर से गुजरे होंगे तो वहाँ के लोगों को अवश्य ही पता होगा।
🔵 इस विषय पर पत्नी से बातचीत चल रही थी कि अचानक मेरी आँखें बंद हो गईं। कोई ४५ सेकेण्ड का समय रहा होगा, जिसमें मैं ध्यान की उस गहराई में पहुँच गया; जहाँ घर, आस- पास की वस्तुएँ, सारे लोग एकबारगी अनुभव की सीमा से परे चले गए। देखा- सामने गुरुदेव खड़े हैं। वे कह रहे हैं- बेटा, श्रीकांत (पिताजी का नाम) हरिद्वार पहुँच गया है वह सुरक्षित है। चिन्ता मत करो। वह यहाँ ८ दिन एकान्त में रहेगा, फिर हिमालय की ओर रवाना होगा। आँखें खुलीं तो फिर से पहले का परिवेश सामने था, मगर पहले की वह दुश्चिंता जाती रही।
🔴 अगले दिन पिताजी का पत्र मिला। पत्र में वही बातें लिखी थीं- ‘गुरुजी ने कहा है कि ८ दिन हरिद्वार में रहकर फिर आगे की यात्रा पर निकलना’। मेरे ध्यान में आकर दुश्चिंतामुक्त करना गुरुदेव ने क्यों आवश्यक समझा होगा- सोचने लगा तो समझ में आया, भावावेश में आकर यदि मैं पिताजी को ढूँढ़ने के लिए निकल पड़ा होता तो स्वयं के लिए ही खतरे मोल लेता।
🌹 ए.पी. सिंह, विकास पुरी (दिल्ली)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/yoga
🔴 यात्रा के आरम्भिक दिनों में वे हर दिन एक पत्र लिखा करते थे जिससे यात्रा का विवरण मिलता रहता था। कहाँ तक पहुँचे इसकी जानकारी रहती थी। कानपुर पहुँचने तक का समाचार मिलता रहा। इसके बाद पत्र आने बंद हो गए। आगे का रास्ता खतरों से भरा हुआ है इसका हमें पता था। पत्र न आने से दुश्चिंता बढ़ने लगी। एक- एक कर ८ दिन बीत गए। रविवार के दिन हम बैठकर बातें कर रहे थे। पत्नी से इसी विषय पर चर्चा हो रही थी। मैंने कहा- जाकर देखना चाहिए। कानपुर से आगे सड़क मार्ग में जाकर आस- पास के लोगों से पूछा जाए, इस तरह के कोई व्यक्ति साइकिल यात्रा करते हुए आए थे क्या विचार क्रांति अभियान के तहत? अगर उधर से गुजरे होंगे तो वहाँ के लोगों को अवश्य ही पता होगा।
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🔴 अगले दिन पिताजी का पत्र मिला। पत्र में वही बातें लिखी थीं- ‘गुरुजी ने कहा है कि ८ दिन हरिद्वार में रहकर फिर आगे की यात्रा पर निकलना’। मेरे ध्यान में आकर दुश्चिंतामुक्त करना गुरुदेव ने क्यों आवश्यक समझा होगा- सोचने लगा तो समझ में आया, भावावेश में आकर यदि मैं पिताजी को ढूँढ़ने के लिए निकल पड़ा होता तो स्वयं के लिए ही खतरे मोल लेता।
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