रविवार, 27 मार्च 2016


 
भले-बुरे कर्मों का ग्रे मैटर के परमाणुओं पर यह रेखांकन (जिसे प्रकट के शब्दों में अंतःचेतना का संस्कार कहा जा सकता है) पौराणिक चित्रगुप्त की वास्तविकता को सिद्ध कर देता है। चित्रगुप्त शब्द के अर्थों से भी इसी प्रकार की ध्वनि निकलती है। गुप्त चित्र, गुप्त मन, अंतःचेतना, सूक्ष्म मन, पिछला दिमाग, भीतर चित्र इन शब्दों के भावार्थ को ही चित्रगुप्त शब्द प्रकट करता हुआ दीखता है। ‘चित्त’ शब्द को जल्दी में लिख देने से ‘चित्र’ जैसा ही बन जाता है। सम्भव है कि चित्त का बिगाड़ कर चित्र बन गया हो या प्राचीनकाल में चित्र को चित्त और चित्र एक ही अर्थ के बोधक रहे हों। कर्मों की रेखाएँ एक प्रकार के गुप्त चित्र ही हैं, इसलिए उन छोटे अंकनों में गुप्त रूप से, सूक्ष्म रूप से, बड़े-बड़े घटना चित्र छिपे होते हैं, इस क्रिया प्रणाली को चित्रगुप्त मान लेने से प्राचीन शोध का समन्वय हो जाता है।

यह चित्रगुप्त निःसंदेह हर प्राणी के हर कार्य को, हर समय बिना विश्राम किए अपनी बही में लिखता रहता है। सबका अलग-अलग चित्रगुप्त है। जितने प्राणी हैं, उतने ही चित्रगुप्त हैं, इसलिए यह संदेह नहीं रह जाता कि इतना लेखन कार्य किस प्रकार पूरा हो पाता होगा। स्थूल शरीर के कार्यों की सुव्यवस्थित जानकारी सूक्ष्म चेतना में अंकित होती रहे, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ‘पौराणिक चित्र गुप्त एक है और यहाँ अनेक हुए’ यह शंका भी कुछ गहरी नहीं है। घटाकाश, मठाकाश का ऐसा ही भेद है। इंद्र, वरुण, अग्नि, शिव, यम, आदि देवता बोधक सूक्ष्मत्व व्यापक समझे जाते हैं। जैसे बगीचे की वायु गंदे नाले की वायु आदि स्थान भेद से अनेक नाम वाली होते हुए भी मूलतः विश्व व्यापक वायु तत्व एक ही है, वैसे ही अलग-अलग शरीरों में रहकर अलग-अलग काम करने वाला चित्रगुप्त देवता भी एक ही तत्त्व है।

यह हर व्यक्ति के कर्मों लेखाकिस आधार पर कैसा, किस प्रकार, कितना, क्यों लिखता है? यह अगली पंक्तियों में बताया जाएगा एवं चित्रगुप्त द्वारा लिखी हुई कर्म रेखाओं के आधार पर स्वर्ग-नरक का विवरण और उनके प्राप्त होने की व्यवस्था पर प्रकाश डाला जाएगा।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/gah/chir.2
समर्थता का सदुपयोग



बेल पेड़ से लिपट कर ऊँची तो उठ सकती है, पर उसे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए आवश्यक रस भूमि के भीतर से ही प्राप्त करना होगा। पेड़ बेल को सहारा भर दे सकता है, पर उसे जीवित नहीं रख सकता । अमरबेल जैसे अपवाद उदाहरण या नियम नहीं बन सकते।

व्यक्ति का गौरव या वैभव बाहर बिखरा दीखता है । उसका बड़प्पन आँकने के लिए उसके साधन एवं सहायक आधार-भूत कारण प्रतीत होते हैं।

पर वस्तुतः बात ऐसी है नहीं।

मानवी प्रगति के मूलभूत तत्त्व उसके अन्तराल की गहराई में ही सन्निहित रहते हैं।

परिश्रमी, व्यवहारकुशल और मिलनसार प्रकृति के व्यक्ति सम्पत्ति उपार्जन में समर्थ होते हैं। जिनमें इन गुणों का आभाव है, वे पूर्वजों की छोड़ी हुई सम्पदा की रखवाली तक नहीं कर सकते। भीतर का खोखलापन उन्हें बाहर से भी दरिद्र ही बनाये रहता है।

गरिमाशील व्यक्ति किसी देवी देवता के अनुग्रह से महान नहीं बनते। संयमशीलता, उदारता और सज्जनता से मनुष्य सुदृढ़ बनता है, पर आवश्यक यह भी है कि उस दृढ़ता का उपयोग लोक मंगल के लिए किया जाय। पूँजी का उपयोग सत्प्रयोजनों के निमित्त न किया जाय तो वह भारभूत ही होकर रह जांति है। आत्मशोधन की उपयोगिता तभी है, जब वह चंदन की तरह अपने समीपवर्ती वातावरण में सत्प्रवृत्तियों की सुगंध फैला सके ।

- पं श्रीराम शर्मा आचार्य
- अखंड ज्योति अप्रैल 1987 पृष्ठ -1


क्या है सभ्य होने का अर्थ ?


सभ्यता क्या है , उसकी पहचान क्या है, इन बातोँ पर मै अक्सर सोचा करता था। लोगो के मुख से जो सुनता था और नैतिक शिक्षा की किताबो मे जो बाते लिखी होती थी, मै उनसे न जाने क्यो सहमत नही हो पाता था, दरअसल, मुझे Civilized Man सभ्यता स्कूल मे बताया गया कि सभ्यता के लिए इंसान को टिप-टाप दिखना चाहिए। उसके नाखून कटे हो, कपङे बिल्कुल साफ सुथरे हो। लेकिन मै इस पर इत्तेफाक नही कर पाया।

कई बार खेलने के दौरान मेरी शर्ट गंदी हो जाती, तो टीचर कहते कि इतने गंदे कपङे पहने हो, सभ्यता बिल्कुल नही है। एक दिन मैने टीचर से पूछ ही लिया-क्या जीवन के लिए इस तरह की सभ्यता आवश्यक है? अगर कोई गरीब है, उसके कपङे फटे हुए है, तो क्या वह सभ्य नही है? मेरे ये सवाल सुनकर उन्होने मुझे बङे प्रेम से समझाया, देखो, कपङे फटे हो, तो कोई बात नही, कितु वे धुले हुए साफ-सुथरे और प्रेस किए हुए होने चाहिए। अध्यापक की यह बात भी मेरे गले नही नही उतरी। मैँ सोचने लगा, यह कैसी सभ्यता ? जिसके पास खाने को भी पैसे न हो, वह फटे कपङे सिलवाकर, धुलवाकर, और प्रेस करवा कर कैसे पहन सकता है ? अगर वह ऐसा नही कर सकता तो क्या वह असभ्य हो जायेगा ?

अपनी किताबो मे भी मुझे सभ्य होने की यही पहचान लिखी हुई मिली। घर के बङे लोग भी कहते- सभ्य लोग ऐसा नही करते, वैसा करते हैँ। इस तरह की हिदायते सुनने को मिलती, लेकिन एक दिन मेरी जिदगी मे एक घटना घट गई, जब मैने सभ्यता का अर्थ तो जाना ही, जीवन की मेरी दिशा ही बदल गई।

एक दिन जब मै अखबार पढ़ रहा था, तो मेरी नजर एक छोटी सी खबर पर टिक गई। उस खबर मे लिखा था कि किस तरह एक महिला का प्रसव सङक पर हुआ और किसी भी व्यक्ति ने उस महिला की मदद नही की। मै यह खबर पढ़ कर आश्चर्यचकित हो गया कि सभ्यता की चादर ओढ़े ये समाज इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है? मेरे मन मे यह खयाल आया कि उस समय सभ्य लोग कहां थे, जिन्होने धुले हुए प्रेस किए हुए कपङे पहने थे? शायद वे अपने कपङे गंदे होने के डर से मदद नही कर सके होगे। शायद उनकी वह सभ्यता आङे आ गई होगी।उस खबर का मुझ पर इतना ज्यादा प्रभाव पङा कि मुझे यह समझ मे आ गया कि सभ्यता भीतर की चीज है, वह बाहरी आवरण नही। इस घटना के कारण ही मुझमे यह बदलाव आया कि जहां भी किसी की मदद करने का अवसर मिलता, वहां मै तत्परता से पहुंच जाता था। मैने कभी इस बात की चिँता नही की कि मेरे कपङे गंदे हो जाएंगे और मुझ पर असभ्य होने का टैग लग जाएगा। मै अंततःसमझ गया था कि सभ्य होने का अर्थ संवेदनशील होना है।

भान उदय

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