मंगलवार, 31 मार्च 2020

👉Prernadayak Prasang प्रेरणादायक प्रसंग 1 April 2020


👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 1 April 2020




👉 उपयोग और सदुपयोग:-

शीमक कठिन शीत ज्वर से पीड़ित है उनके पुत्र पात्रों ने उपचार की अच्छी व्यवस्था की है तो भी वे औषधि नाम मात्र को ही ले रहे है। उनका कथन है कि औषधि का काम विष के प्रभाव को रोकना भर है, रोग को नष्ट करना नहीं, वह काम तो प्रकृति स्वयं ही करती है। तब हम उसमें हस्तक्षेप क्यों करें!

पर उनके इस कथन का भी वही अर्थ लगाया गया जो अब तक लगाया जा रहा था। अर्थात् शीमक बड़ा कृपण है। घर में अथाह धनराशि होते हुये भी वह न तो अच्छा खा सकता है, न पहन सकता है, बाल-बच्चों को देना तो दूर, अब जब उसका अपना ही जीवन संकट में पड़ गया तब भी पैसे का इतना मोह-छिः शीमक की कृपणता- कलंक नहीं तो और क्या है।

बहुत बार तो शीमक को कई ऐसे व्यक्ति भी मिले थे जो उसे मुख पर ही कह गये थे- ”शीमक इतनी कृपणता तो न किया करो, कभी कुछ दान, कभी कुछ पुण्य, तीर्थ यात्रा, ब्राह्मण भोज, नगर भोज कुछ तो ऐसा कर डालो, जिससे यह धन ठिकाने लग जाये! मर गये तब वह धन किसी और के हाथ लग गया तो तुम्हारी इस कमाई का क्या लाभ।”

शीमक हंस पड़ते और 'अच्छा! अच्छा!! कहकर उस प्रसंग को टाल देते।

ऐसे अवसर आते तो दूर दृष्टि डालते हुये शीमक की मुख मुद्रा देखने से प्रतीत होता था मानो वे सुन्दर भविष्य में कुछ खोजना चाहते हैं, वे क्या चाहते हैं, यह आज तक उसके पुत्र परिजन भी नहीं समझ सके थे।

आज जितने चिन्तित शीमक बैठे थे, उससे अधिक विकल आचार्य महीधर दिखाई दे रहे थे। उन्होंने बड़े परिश्रम के साथ वेदों का भाष्य किया था। भाष्य भी ऐसा जो भी विद्वान उसे पढ़ता धन्य हो जाता। किन्तु धन के अभाव के कारण आज स्वयं महीधर इतने निराश हो गये थे कि उन्हें अपना सारा तप ही निरर्थक लगने लगा था। वे चाहते थे कि वेदों का यह भाष्य घर-घर पहुँचे ताकि बौद्धों के प्रभाव को रोका जा सके। उनकी आकांक्षा, आकांक्षा ही रही। कोई उपाय बन नहीं सका।

शीमक ने समाचार सुना तो चुपचाप घर से निकल पडे। कहा गए शीमक की कई दिन तक खोज की गयी। पर कुछ भी पता न चला!

बहुत दिन बाद जब महीधर के वेदभाष्य घर-घर पहुँचने लगे तब लोगों ने इतना भर सुना कि कोई एक देव पुरुष उनके पास आया था और उसने अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें देकर कहा था- “आचार्य प्रवर! सद्इच्छाएं धन के अभाव में रुकती नहीं। यह मेरे जीवन भर की कमाई इसे काम में लेकर मेरा जीवन धन्य करें।“

उसके बाद फिर उस महापुरुष के कभी दर्शन नहीं हुए। कहते हैं, वह वानप्रस्थ ग्रहण कर अंतिम साधना के लिये अन्त:वासी हो गया था।

‘अखण्ड ज्योति, अप्रैल-1970’

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ८)

कुसंग का भयानक अभाव-

कुसंग में रह कर युवक परिवार से छूट जाता है। ये कुसंग बढ़े आकर्षण रूप में उसके सम्मुख आते हैं-मित्रों, सिनेमा, थियेटर, वैश्या, गन्दा साहित्य, गर्हित चित्र, मद्यपान, सिगरेट तथा अन्य उत्तेजित पदार्थ। वे सभी प्रत्यक्ष विष के समान है, जिनके स्पर्श मात्र से मनुष्य पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उनकी कल्पना सर्वथा विनाशकारी है। बड़े सावधान रहें।

इस सम्बन्ध में हम पं. रामचन्द्र शुक्ल की बहुमूल्य वाणी उद्धृत करना चाहते हैं। इसमें गहरी सत्यता है :-

कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जायेंगे, नाच रंग में जायेंगे, सैर-सपाटे में जायेंगे, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे। ऐसे लोगों से हानि होगी तो बड़ी होगी।

सोचो तो, तुम्हारा जीवन कितना नष्ट होगा, यदि ये जान पहिचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकले जिनकी संख्या दुर्भाग्यवश आजकल बहुत बढ़ रही है, यदि उन शोहदों में से निकले जो अमीरों की बुराइयों और मूर्खताओं का अनुकरण किया करते हैं, दिन रात बनाव श्रृंगार में रहा करते हैं, कुलटा स्त्रियों के फोटो मोल लिया करते हैं, महफिलों में अहाँ -हा, वाह किया करते हैं, गलियों में ठट्ठा मारते और सिगरेट का धुआँ उड़ाते चलते हैं। ऐसे नवयुवकों से बढ़कर शून्य, निःसार और शोचनीय जीवन और किसका है ?
वे अच्छी बातों से कोसों दूर हैं। उनके लिए न तो संसार में सुन्दर और पवित्र उक्ति वाले कवि हुए, और न उत्तम चरित्र वाले महात्मा हुए हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 26

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.26

👉 The Illusive Reality

One who knows that he knows not, but claims he knows – is a liar. One who knows little bit but thinks he knows – is ignorant. One who knows not and knows and accepts that he knows not – is sincere. One who knows partially and knows that he knows not – is a learner. But none can know it because it is impossible to know it. This is what, is the maya – the ‘grand illusion’ of our perception of the gigantic creation of God.

One who knows that he knows and also knows that he does not – is wise. He does not say it despite knowing a lot. Because he knows a lot and therefore knows that nothing could be said or discussed about it. One who knows that it is undecipherable infinity and immerses and ‘illusion’ of self-identity into devotion of the Omniscient – is enlightened…

His existence is unified with the devotion and love of god. He has realized the absolute void in the infinity (of maya – the illusive creation) and the infinity (of God) in the void (sublime). What doubts or queries he would have? Nothing! What he would know and about what? Nothing! He says nothing. What he would say and to whom? He knows God and knows that God alone knows his maya.

📖 Akhand Jyoti, Jan. 1941

👉 दरिद्रता

दरिद्रता इच्छाओं की कोख से पैदा होती है। जिसकी इच्छाएँ जितनी अधिक हैं उसे उतना ही दरिद्र होना पड़ेगा। उसे उतना ही याचना और दासता के चक्रव्यूह में फँसना पड़ेगा। इसी के साथ उसका दुःख भी उतना ही बढ़ेगा। इसलिए जिसे दरिद्रता निवारण के लिए कदम आगे बढ़ाने हैं, उसे इच्छाओं की ओर से अपने पाँव उतना ही पीछे हटाने होंगे। क्योंकि जो जितना अपनी इच्छाओं को छोड़ पाता है, वह उतना ही स्वतन्त्र, सुखी और समृद्ध होता है। जिसकी चाहत कुछ भी नहीं है, उसकी निश्चिंतता एवं स्वतंत्रता अनन्त हो जाती है।
  
इस सम्बन्ध में सूफियों में एक कथा कही जाती है। फकीर बालशेम ने एक बार अपने एक शिष्य को कुछ धन देते हुए कहा- इसे किसी दरिद्र व्यक्ति को दान कर देना। शिष्य अपने गुरु के पास से चल कर थोड़ा आगे बढ़ा और सोचने लगा कि उसके गुरु ने गरीब के स्थान पर दरिद्र व्यक्ति को यह धन देने के लिए कहा है। और जैसा कि उसने बालशेम के सत्संग में जाना था कि गरीब व गरीबी परिस्थितियों वश होता है। लेकिन दरिद्र व दरद्रिता मनःस्थिति जन्य है। सो उसने किसी दरिद्र व्यक्ति की तलाश करनी शुरू की।
  
अपनी इस तलाश में वह एक राजमहल के पास जाकर रुक गया। वहाँ कुछ लोग आपस में चर्चा कर रहे थे कि राजा ने अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रजा पर कितने कर लगाए हैं, कितने लोगों को लूटा है। इन बातों को सुनकर उसे लगा कि उसकी तलाश पूरी हुई। बस उसने राजा के दरबार में हाजिर होकर उस राजा को अपने सारे रूपये सौंप दिए। एक फकीर के द्वारा इस तरह अचानक रूपये दिये जाने से वह राजा हैरान हुआ। इस पर बालशेम के शिष्य ने उसे अपने गुरु की बात कह सुनायी। और कहा- राजन्! इच्छाएँ हो तो दरिद्रता व दुःख बने ही रहेंगे। इसलिए जो इन इच्छाओं के सच को जान लेता है वह दुःख से नहीं अपनी चाहतों से मुक्ति खोजता है। क्योंकि जो अपनी इच्छाओं व चाहतों से छुटकारा पा लेता है, उसके जीवन से दरिद्रता, दुःख, याचना व दासता स्वतः ही हट एवं मिट जाते हैं।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २११

रविवार, 29 मार्च 2020

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ७)

पिता के प्रति पुत्र के तीन कर्त्तव्य हैं - 1-स्नेह, 2-सम्मान तथा आज्ञा पालन। जिस युवक ने पिता का, प्रत्येक बुजुर्ग का आदर करना सीखा है, वही आत्मिक शान्ति का अनुभव कर सकता है।

स्मरण रखिये, आप जो कुछ गुप्त रखते हैं, दूसरों के समक्ष कहते हुए शर्माते है, वह निंदय है। जब कोई युवक पिता के कानों में बात डालते हुए हिचके, तो उसे तुरन्त सम्भल जाना चाहिए क्योंकि बुरे मार्ग पर चलने का उपक्रम कर रहा है। उचित अनुचित जानने का उपाय यह है कि आप उसे परिवार के सामने प्रकट कर सकें। जब किसी पदार्थ का रासायनिक विश्लेषण हो जाता है, तब सभी उसके शुभ अशुभ अंशों को जान जाते हैं। परिवार में यह विश्लेषण तब होता है, तब युवक का कार्य परिवार के सदस्यों के सम्मुख आता है।

परिवार से युवक का मन तोड़ने में विशेष हाथ पत्नी का होता है। उसे अपने स्व का बलिदान कर संपूर्ण परिवार की उन्नति का ध्यान रखना चाहिए। समझदार गृहणी समस्त परिवार को सम्भाल लेती है।

आज के युवक प्रेम-विवाह से प्रभावित हैं। जिसे प्रेम-विवाह कहा जाता है, वह क्षणिक वासना का ताँडव, थोथी समझ की मूर्खता, अदूरदर्शिता है। जिसे ये लोग प्रेम समझते हैं, वह वासना के अलावा और कुछ नहीं होता। उसका उफान शान्त होते ही प्रेम-विवाह टूक टूक हो जाता है। चुनावों में भारी भूलें मालूम होती है। समाज में प्रतिष्ठा का नाश हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है।

अनेक पुत्र विचारों में विभिन्नता होने के कारण झगड़ों का कारण बनते हैं। संभव है युवक पिता से अधिक शिक्षक हो। किन्तु पिता का अनुभव अपेक्षाकृत अधिक होता है। पुत्र को उदारतापूर्वक अपने विचार अपने पास रखने चाहिए और व्यर्थ के संपर्क से बचना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 25

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.25

👉 बासन्ती रंग व उमंग

वसन्त में रंग व उमंग है। ये बासन्ती रंग व उमंग सदा ही भारतीय संस्कृति व संस्कारों से सराबोर हैं। बासन्ती बयार में ये घुले-मिले हैं। ये रंग हैं पवित्रता के, उमंग हैं प्रखरता की। इन रंगों में भगवान् का भावभरा स्मरण छलकता है, तो उमंग में सद्गुरु के प्रति समर्पण की झलक झिलमिलाती है। इस बासन्ती रंग में श्रद्धा के सजल आँसुओं के साथ इसकी उमंग में प्रज्ञा का प्रखर तेज है। इन रंगों में निष्ठा की अनूठी चमक के साथ इसकी उमंगों में अटूट नैतिकता सदा छायी रहती है।
  
वसन्त के ये रंग यदि विवेक का प्रकाश अपने में समेटे हैं, तो इसकी उमंगों में वैराग्य की प्रभा है। वसन्त के इन रंगों की अद्भुत छटा में त्याग की पुकार है और इसकी उमंगों में बलिदानी शौर्य की महाऊर्जा है। वसन्त के इन्हीं रंगों व उमंगों ने हमेशा ही भारतीय संस्कृति को संजीवनी व संस्कारों को नवजीवन दिया है। इन बासन्ती रंगों व उमंगों को अपने में धारण करके भारत माता की सुपुत्रियों व सपूतों ने हँसते-हँसते स्वयं को बलिदान करके सद्ज्ञान व सन्मार्ग को प्रकाशित किया है।
  
यदि कभी काल के कुटिल कुचक्र के कारण बासन्ती रंग व उमंग फीके पड़े हैं, तो इसी के साथ भारत की संस्कृति व संस्कारों की छवि भी धूमिल हुई है। जब कभी किसी ने बासन्ती रंग व उमंग को प्रकाशित व ऊर्जावान् करने का सत्प्रयास किए तो उसी के साथ भारत की संस्कृति व संस्कार भी अपने आप समुज्ज्वल हो गए। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी इसी प्रक्रिया को अपनाकर युग परिवर्तन की बासन्ती बयार प्रवाहित की। उनके द्वारा प्रेरित व प्रवाहित परिवर्तन की बयार में बासन्ती रंगों का अनूठा उनका प्यार है, तो साथ हैं बासन्ती उमंगों के तपपुञ्ज अंगार भी। जो उन्हीं के इस जन्मशताब्दी वर्ष में नव वसन्त का सन्देश सुना रहे हैं।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २१०

शनिवार, 28 मार्च 2020

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ६)

जरमी टेलर कहते हैं -”जीवन एक बाजी के समान है। हार-जीत तो हमारे हाथ में नहीं है, पर बाजी का ठीक तरह से खेलना हमारे हाथ में है। यह बाजी हमें बड़ी समझदारी से, छोटी-छोटी भूलों से बचाते हुए निरन्तर आत्म विकास और मनोवेगों का परिष्कार करते हुए करनी चाहिए।”

डॉक्टर आर्नल्ड ने लिखा है - “इस जगत में सबसे बड़ी तारीफ की बात यह है कि जिन लोगों में स्वभाविक शक्ति की न्यूनता रहती है, यदि वे उसके लिए सच्चा साधन और अभ्यास करें, तो परमेश्वर उन पर अनुग्रह करता है।” बक्सटन ने भी निर्देश किया है - “युवा पुरुष बहुत से अंशों में जो होना चाहें, हो सकते हैं।” एटी शेकर ने कहा है- “जीवन में शारीरिक और मानसिक परिश्रम के बिना कोई फल नहीं मिलता। दृढ़ चित्त और महान् उद्देश्य वाला मनुष्य जो चाहे कर सकता है।”

प्रतिभा की वृद्धि कीजिए। आपको नौकरी, रुपया, पैसा, प्रतिष्ठा और आत्म सम्मान प्राप्त होगा। उसके अभाव में आप निखट्टू बने रहेंगे। प्रतिभा आपके दीर्घकालीन अभ्यास, सतत परिश्रम, अव्यवसाय, उत्तम स्वास्थ्य पर निर्भर है। प्रतिभा हम अभ्यास और साधन से प्राप्त करते हैं। मनुष्य की प्रतिभा स्वयं उसी के संचित कर्मों का फल है। अवसर को हाथ से न जाने दें, प्रत्येक अवसर का सुँदर उपयोग करें और दृढ़ता, आशा और धीरता के साथ उन्नति के पथ पर अग्रसर होते जायें। स्व संस्कार का कार्य इसी तरह सम्पन्न होगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 25
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.25

👉 प्रतिभा

प्रतिभा का अर्थ है जीवन के प्रश्नों का उत्तर देने की क्षमता। जीवन सर्वथा मौलिक है। यह बँधी-बँधाई राहों, घिसी-पिटी परम्पराओं के अनुरूप नहीं चलता। इसमें घटने वाली सभी आन्तरिक एवं बाहरी घटनाएँ पूर्णतया मौलिक व अनूठा नयापन लिये होती हैं। इसके हर मोड़ पर आने वाली चुनौतियाँ, उभरने वाले प्रश्न पूरी तरह से अपनी नवीनता का परिचय देते हैं। जो इन प्रश्नों का जितना अधिक सटीक, सकारात्मक, सक्षम व सृजनात्मक उत्तर दे पाता है, समझो वह उतना ही प्रतिभाशाली है।
  
जीवन प्रवाह में प्रतिपल-प्रतिक्षण सजग व सचेष्ट रहने की जरूरत है। तभी यह जान पाना सम्भव हो पाता है कि जीवन हमसे क्या माँग रहा है? परिस्थिति की क्या चुनौती है? प्रतिभावान् व्यक्ति परिस्थिति व प्रश्न के अनुरूप व्यवहार करता है, जबकि मूढ़ व परम्परावादी व्यक्ति घिसे-पिटे उत्तरों को दुहराते रहते हैं। फिर ये पुरानी बातें किसी धार्मिक पुस्तक में लिखी हुई हों अथवा फिर ऐसी किसी अवतार, पैगम्बर द्वारा कही गयी हों। स्व-विवेक का त्याग कर इन्हें अपना लेना प्रकारान्तर से मूढ़ता ही है।
  
विवेकहीन व्यक्ति, शास्त्रों, धर्मग्रन्थों का पुरातन बोझ ढोते रहते हैं। वह अवतार, मसीहा, पैगम्बर पर अपना सारा बोझ डालकर निशिं्चत हो जाना चाहते हैं। क्योंकि उन्हें अपने ऊपर भरोसा करने से भय लगता है। जबकि अन्तदृष्टि सम्पन्न प्रतिभावान् व्यक्ति स्वयं पर भरोसा करता है। वह अवतार, मसीहा व पैगम्बर तथा धर्मग्रन्थों पर श्रद्धा-आस्था रखते हुए इनकी नए युग के अनुरूप नयी व्याख्या करता है। किसी तरह के सामाजिक-धार्मिक कारागृह उसे कैद नहीं कर पाते। क्योंकि अपनी प्रतिभा के बल पर वह इन्हें तोड़ने में सक्षम होता है। इसीलिए तो कहते हैं- प्रतिभा का अर्थ है- अन्तर्दृष्टि सम्पन्न दूरदर्शी विवेकशीलता, जो जीवन की सभी समस्याओं का सार्थक हल ढूँढने में सक्षम है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०९

शुक्रवार, 27 मार्च 2020

👉 यह भी नहीं रहने वाला

एक साधु देश में यात्रा के लिए पैदल निकला हुआ था। एक बार रात हो जाने पर वह एक गाँव में आनंद नाम के व्यक्ति के दरवाजे पर रुका।
आनंद ने साधू  की खूब सेवा की। दूसरे दिन आनंद ने बहुत सारे उपहार देकर साधू को विदा किया।

साधू ने आनंद के लिए प्रार्थना की  - "भगवान करे तू दिनों दिन बढ़ता ही रहे।"

साधू की बात सुनकर आनंद हँस पड़ा और बोला - "अरे, महात्मा जी! जो है यह भी नहीं रहने वाला।" साधू आनंद  की ओर देखता रह गया और वहाँ से चला गया।

दो वर्ष बाद साधू फिर आनंद के घर गया और देखा कि सारा वैभव समाप्त हो गया है। पता चला कि आनंद अब बगल के गाँव में एक जमींदार के यहाँ नौकरी करता है । साधू आनंद से मिलने गया।

आनंद ने अभाव में भी साधू का स्वागत किया। झोंपड़ी में फटी चटाई पर बिठाया। खाने के लिए सूखी रोटी दी। दूसरे दिन जाते समय साधू की आँखों में आँसू थे। साधू कहने लगा - "हे भगवान्! ये तूने क्या किया?"

आनंद पुन: हँस पड़ा और बोला - "महाराज  आप क्यों दु:खी हो रहे है? महापुरुषों ने कहा है कि भगवान्  इन्सान को जिस हाल में रखे, इन्सान को उसका धन्यवाद करके खुश रहना चाहिए। समय सदा बदलता रहता है और सुनो! यह भी नहीं रहने वाला।"

साधू मन ही मन सोचने लगा - "मैं तो केवल भेष से साधू  हूँ। सच्चा साधू तो तू ही है, आनंद।"

कुछ वर्ष बाद साधू फिर यात्रा पर निकला और आनंद से मिला तो देखकर हैरान रह गया कि आनंद  तो अब जमींदारों का जमींदार बन गया है।  मालूम हुआ कि जिस जमींदार के यहाँ आनंद  नौकरी करता था वह सन्तान विहीन था, मरते समय अपनी सारी जायदाद आनंद को दे गया।

साधू ने आनंद  से कहा - "अच्छा हुआ, वो जमाना गुजर गया। भगवान् करे अब तू ऐसा ही बना रहे।"

यह सुनकर आनंद  फिर हँस पड़ा और कहने लगा - "महाराज  ! अभी भी आपकी नादानी बनी हुई है।"

साधू ने पूछा - "क्या यह भी नहीं रहने वाला?"

आनंद उत्तर दिया - "हाँ! या तो यह चला जाएगा या फिर इसको अपना मानने वाला ही चला जाएगा। कुछ भी रहने वाला नहीं है और अगर शाश्वत कुछ है तो वह है परमात्मा और उस परमात्मा की अंश आत्मा।"

आनंद  की बात को साधू ने गौर से सुना और चला गया।

साधू कई साल बाद फिर लौटता है तो देखता है कि आनंद  का महल तो है किन्तू कबूतर उसमें गुटरगूं कर रहे हैं, और आनंद  का देहांत हो गया है। बेटियाँ अपने-अपने घर चली गयीं, बूढ़ी पत्नी कोने में पड़ी है।

कह रहा है आसमां यह समा कुछ भी नहीं।

रो रही हैं शबनमें, नौरंगे जहाँ कुछ भी नहीं।
जिनके महलों में हजारों रंग के जलते थे फानूस।
झाड़ उनके कब्र पर, बाकी निशां कुछ भी नहीं।

साधू कहता है - "अरे इन्सान! तू किस बात का अभिमान करता है? क्यों इतराता है ? यहाँ कुछ भी टिकने वाला नहीं है, दु:ख या सुख कुछ भी सदा नहीं रहता। तू सोचता है पड़ोसी मुसीबत में है और मैं मौज में हूँ। लेकिन सुन, न मौज रहेगी और न ही मुसीबत। सदा तो उसको जानने वाला ही रहेगा। सच्चे इन्सान वे हैं, जो हर हाल में खुश रहते हैं। मिल गया माल तो उस माल में खुश रहते हैं, और हो गये बेहाल तो उस हाल में खुश रहते हैं।"

साधू कहने लगा - "धन्य है आनंद! तेरा सत्संग, और धन्य हैं तुम्हारे सतगुरु! मैं तो झूठा साधू हूँ, असली फकीरी तो तेरी जिन्दगी है। अब मैं तेरी तस्वीर देखना चाहता हूँ, कुछ फूल चढ़ाकर दुआ तो मांग लूं।"

साधू दूसरे कमरे में जाता है तो देखता है कि आनंद  ने अपनी तस्वीर  पर लिखवा रखा है - "आखिर में यह भी नहीं रहेगा।"


108 Gayatri Mantra
Gurudev Pt. Shriram Sharma Acharya's Voice
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https://youtu.be/Fv7Iy3g42QY

👉 दुःख का सुअवसर

दुःख की कल्पना मात्र से कंपकपी होने लगती है। इसके अहसास से मन विकल, विह्वल, बेचैन हो जाता है। ऐसे में दुःख से होने वाले दर्द की कौन कहे? यही वजह है कि दुःख से सभी भागना चाहते हैं। और अपने जीवन से दुःख को भगाना चाहते हैं। दुःख से भागने और दुःख को भगाने की बात आम है। जो सामान्य जनों और सर्वसाधारण के लिए है। लेकिन इसकी एक खास बात भी है। जो सत्यान्वेषियों के लिए, साधकों के लिए और भगवद्भक्तों के लिए है। यह अनुभूति विरले लोग पाते हैं। ऐसे लोग दुःख से भागते नहीं, बल्कि दुःख में जागते हैं।
  
दुःख उनके लिए रोने, कलपने का साधन नहीं बल्कि परमात्मा द्वारा प्रेरित और उन्हीं के द्वारा प्रदत्त जागरण का अवसर बनता है। दुःख के क्षणों में उनकी अन्तर्चेतना में संकल्प, साहस, संवेदना, पुरुषार्थ की प्रखरता और प्रज्ञा की पवित्रता जागती है। उनकी आत्मचेतना में अनुभूतियों के नए गवाक्ष खुलते हैं, उपलब्धियों के नए अवसर आते हैं। इसीलिए तपस्वियों ने दुःख को देवों के हाथ का हथौड़ा कहा है। जो चेतना में उन्नयन के नए सोपान सृष्ट करता है। विकास और परिष्कार के नए द्वार खोलता है।
  
तभी तो सन्तों ने, साधुओं, दरवेशों और फकीरों ने भगवान् से हमेशा दुःख के वरदान मांगे हैं। सुख की चाहत तो बस आलसी, विलासी करते हैं। जो सुखों के बीच पले, बढ़े हैं, उनकी चेतना सदा-सदा से सुषुप्ति की ओर अग्रसर होती है। उनके जीवन में भला परिष्कार व पवित्रता का दुर्लभ सौभाग्य कहाँ? यह तो बस केवल उन्हीं को मिलता है, जो पीड़ाओं में पलते हैं और दुःख के दरिया में प्रसन्नतापूर्वक बहते हैं। जो बदनामी के क्षणों में प्रभु भक्ति में जीना और गुमनामी के अँधेरों में प्रभु चिन्तन करते हुए मरना जानते हैं। उन्हें ही परमात्म मिलन का अनन्त सौभाग्य मिलता है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०८


यज्ञोपचार पद्धति
Yagya Upchar Paddhti
Shraddheya Dr. Pranav Pandya
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https://youtu.be/s9eVfFZ3ZFc

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ५)

परिवार के युवक तथा उनकी समस्याएँ-

प्रायः युवक स्वच्छन्द प्रकृति के होते हैं और परिवार के नियंत्रण में नहीं रहना चाहते। वे उच्छृंखल प्रकृति, पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित, हलके रोमाँस से वशीभूत पारिवारिक संगठन से दूर भागना चाहते हैं। यह बड़े परिताप का विषय है।

युवकों के झगड़ों के कारण ये हैं- 1-अशिक्षा 2-कमाई का अभाव, 3-प्रेम सम्बन्धी अड़चनें घर के सदस्यों का पुरानापन और युवकों की उन्मुक्त प्रकृति, 4-कुसंग, 5-पत्नी का स्वच्छन्द प्रिय होना तथा पृथक घर में रहने की आकाँक्षा, 6- विचार सम्बन्धी पृथकता-पिता का पुरानी धारा के अनुकूल चलाना पुत्र का अपने अधिकारों पर जमे रहना, 7-जायदाद सम्बन्धी बटवारे के झगड़े । इन पर पृथक-पृथक विचार करना चाहिए।

यदि युवक समझदार और कर्त्तव्यशील हैं, तो झगड़ों का प्रसंग ही उपस्थित न होगा। अशिक्षित अपरिपक्व युवक ही आवेश में आकर बहक जाते हैं और झगड़े कर बैठते हैं। एक पूर्ण शिक्षित युवक कभी पारिवारिक विद्वेष या कलह में भाग न लेगा। उसका विकसित मस्तिष्क इन सबसे ऊँचा उठ जाता है। वह जहाँ अपना अपमान देखता है, वहाँ स्वयं ही हाथ नहीं डालता।

कमाई का अभाव झगड़ों का एक बड़ा कारण है। निखट्टू पुत्र परिवार में सबकी आलोचना का शिकार होता है। परिवार के सभी सदस्य उससे यह आशा करते हैं कि वह परिवार की आर्थिक व्यवस्था में हाथ बंटाएगा। जो युवक किसी पेशे या व्यवसाय के लिए प्रारम्भिक तैयारी नहीं करते, वे समाज में फिर नहीं हो पाते। हमें चाहिए कि प्रारंभ से ही घर के युवकों के लिए काम तलाश कर लें जिससे बाद में जीवन-प्रवेश करते समय कोई कठिनाई उपस्थित न हो। संसार कर्मक्षेत्र है। यहाँ हम में से प्रत्येक को अपना कार्य समझना तथा उसे पूर्ण करना है। हममें जो प्रतिया बुद्धि, अज्ञात शक्तियाँ हैं, उन्हें विकसित कर समाज के लिए उपयोगी बनाना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 24

सोमवार, 23 मार्च 2020

👉 स्वयं को पहचाने

एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला "महाराज! मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूं, मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ।"

स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा-सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा ‘‘तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।’’

आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी-खासी सैर कराकर जब वह व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहूँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हांफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा कि  "यह कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ-सुथरे और बिना थके दिख रहे हो|"

तो व्यक्ति ने कहा "मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पर चल रहा था लेकिन यह कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसलिए यह थक गया है।"

स्वामी जी ने मुस्करा कर कहा  "यही तुम्हारे सभी प्रश्रों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है वह ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।"

यही बात लगभग हम सब पर लागू होती है। प्रायः अधिकांश लोग हमेशा दूसरों की गलतीयों की निंदा-चर्चा करने, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या-द्वेष करने, और अपने अल्प ज्ञान को बढ़ाने का प्रयास करने के बजाय अहंकारग्रस्त हो कर दूसरों पर रौब झाड़ने में ही रह जाते हैं।

अंततः इसी सोच की वजह से हम अपना बहुमूल्य समय और क्षमता दोनों खो बैठते हैं, और जीवन एक संघर्ष मात्र बनकर रह जाता है।

दूसरों से होड़ मत कीजिये, और अपनी मंजिल खुद बनाइये।

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ४)

स्वस्थ दृष्टिकोण-

दूसरों के लिए कार्य करना, अपने स्वार्थों को तिलाँजलि देकर दूसरों को आराम पहुँचाना सृष्टि का यही नियम है। कृषक हमारे निमित्त अनाज उत्पन्न करता है, जुलाहा वस्त्र बुनता है। दर्जी कपड़े सींता है, राजा हमारी रक्षा करता है। हम सब अकेले काम नहीं कर सकते। मानव जाति में पुरातन काल से पारस्परिक लेन देन चला आ रहा है। परिवार में प्रत्येक सदस्य को इस त्याग, प्रेम सहानुभूति की नितान्त आवश्यकता है। जितने सदस्य हैं सबको आप प्रेम-सूत्र में आबद्ध कर लीजिए। प्रत्येक का सहयोग प्राप्त कीजिए प्यार से उनका संगठन कीजिए।

इस दृष्टिकोण को अपनाने से छोटे बड़े सभी झगड़े नष्ट होते हैं। अक्सर छोटे बच्चों की लड़ाई बढ़ते-बढ़ते बड़ों को दो हिस्सों में परिवर्तन कर देती है। पड़ौसियों में बच्चों की लड़ाइयों के कारण युद्ध ठन उठता है। स्कूल में बच्चों की लड़ाई घरों में घुसती है। कलह बढ़कर मार-पीट और मुकदमेबाजी की नौबत आती है। उन सबके मूल में संकुचित वृत्ति, स्वार्थ की कालिमा, व्यर्थ वितंड़ावाद, दुरभिसन्धि इत्यादि दुर्गुण सम्मिलित हैं।

हम मन में मैल लिए फिरते हैं और इस मानसिक विष को प्रकट करने के लिए अवसरों की प्रतीक्षा में रहते हैं। झगड़ालू व्यक्ति ज़रा-जरासी बातों में झगड़ों के लिए अवसर ढूंढ़ा करते हैं। परिवार में कोई न कोई ऐसा झगड़ालू व्यक्ति, जिद्दी बच्चा होना साधारण सी बात है। इन सबको भी विस्तृत और सहानुभूति दृष्टिकोण से ही निरखना चाहिए।

तुम्हें एक दूसरे के भावों, दिलचस्पी, रुचि, दृष्टिकोण, स्वभाव, आयु का ध्यान रखना अपेक्षित है। किसी को वृथा सताना या अधिक कार्य लेना बुरा है। उद्धत स्वभाव का परित्याग कर प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। कुटिल व्यवहार के दोषों से जैसा अपना आदमी पराया हो जाता है, अविश्वासी और कठोर बन जाता है, वैसे ही मृदुल व्यवहार में कट्टर शत्रु भी मित्र हो जाता है।

विश्व में साम्यवाद की अवधारणा के लिए परिवार ही से श्रीगणेश करना उचित है। न्याय से मुखिया को समान व्यवहार करना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 24

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.24

👉 Who is Religious?

👉 Who is Religious?

Love, compassion, generosity, kindness, devotion, zeal, honesty, truthfulness, unflinching faith in divine values, etc – are the natural virtues of the soul. Their presence in a person is the sign of his/her spirituality. These alone are the source of spiritual elevation. These are also the perennial means of inner strength. Your endeavors for cultivating these qualities in your character must continue with greater intensity till your personality is fully imbibed with them. One who achieves this, he/she alone is truly spiritual and religious; he/she alone is worthy of meeting God – being beatified by thy grace.

Devotion of God is not confined to a specific religious cult or rituals. It lies in the deepest core of the inner emotions. Those who chant God’s name need not be religious; truly religious are those who follow the divine disciplines, adopt divine values in their conduct. Guiding the path to unification of the soul with God – inculcation of divinity in the human-self, is the foundational purpose of religion. Blessed are those who grasp this noble truth of religion and devotion.

Those who have reached this state of devotion would deserve attaining the eternal light of ultimate knowledge. They can realize God in their pure hearts and experience the absolute bliss forever…

📖 Akhand Jyoti, Jan. 1941

👉 आत्मचिंतन के क्षण 23 March 2020

■ इस दानशील देश में हमें पहले प्रकार के दान के लिए अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान के विस्तार के लिए साहसपूर्वक अग्रसर होना होगा! और यह ज्ञान-विस्तार भारत की सीमा में ही आबद्ध नहीं रहेगा, इसका विस्तार तो सारे संसार में करना होगा! और अभी तक यही होता भी रहा है! जो लोग कहते हैं कि भारत के विचार कभी भारत से बाहर नहीं गये, जो सोचते हैं कि मैं ही पहला सन्यासी हूँ जो भारत के बाहर धर्म-प्रचार करने गया, वे अपने देश के इतिहास को नहीं जानते! यह कई बार घटित हो चुका है! जब कभी भी संसार को इसकी आवश्यकता हुई, उसी समय इस निरन्तर बहनेवाले आध्यात्मिक ज्ञानश्रोत ने संसार को प्लावित कर दिया!

✍🏻 स्वामी विवेकानन्द

□  ईश्वर और धर्म की मान्यताएँ केवल इसलिए हैं कि इन आस्थाओं को हृदयंगम करने वाला व्यक्ति निजी जीवन में सदाचारी और सामाजिक जीवन में परमार्थी बने। यदि यह दोनों प्रयोजन सिद्ध न होते हों, तो यही कहना पड़ेगा कि तथाकथित ईश्वर भक्ति और धर्मात्मापन दम्भ है।

◆ सकाम उपासना से लाभ नहीं होता ऐसी बात नहीं है। जब सभी को मजदूरी मिलती है, तो भगवान् किसी भजन करने वाले की मजदूरी क्यों न देंगे?  जितना हमारा भजन होगा, जिस श्रेणी की हमारी श्रद्धाहोगी एवं जैसा भाव होगा, उसके अनुरूप हिसाब चुकाने में भगवान् के यहाँ अन्याय नहीं होता, पर यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि व्यापार बुद्धि से किया हुआ भजन अपने अनुपात से ही लाभ उत्पन्न कर सकता है।

◇ स्वयं उन्नति करना, सदाचारी होना काफी नहीं, दूसरों को भी ऐसी ही सुविधा मिले, इसके लिए प्रयत्नशील रहना भी आवश्यक है। जो इस ओर से उदासीन हैं, वे वस्तुतः अपराधी न दीखते हुए भी अपराधी हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अहंकार

अहंकार विवेक का हरण कर लेता है। इसके चलते सही सोच-समझ और सम्यक् जीवन दृष्टि समाप्त हो जाती है। इसकी पीड़ा से किसी न किसी तरह हर कोई पीड़ित है। फिर भी इसे विडम्बना ही कहेंगे कि आधुनिक मनोविज्ञान और आधुनिक शिक्षा की पूरी धारणा यह है कि जब तक व्यक्ति के पास मजबूत अहंकार न हो, तब तक वह जीवन में संघर्ष न कर पायेगा। यही वजह है कि समाज की पूरी विधि-व्यवस्था और सारे शिक्षण संस्थान आक्रामक एवं अहंकारी व्यक्तित्व गढ़ने में लगे हैं।
  
बचपन से ही बच्चे को सिखाया जाता है, तुम्हें अपनी कक्षा में प्रथम आना है। जब वह बच्चा किसी तरह से कक्षा में प्रथम आ जाता है तो हर कोई उसकी प्रशंसा करना शुरू कर देता है। फिर वह भले ही जिन्दगी की सही-सोच-समझ से कितना ही वंचित क्यों न हो? बड़े होने के साथ उसमें अहंकार का रोग बढ़ता जाता है और विवेक कम होता जाता है। इस बारे में जिधर भी आँख उठा कर देखा जाता है, स्थिति एक जैसी ही मिलती है।
  
अहंकार के रोग की खास बात यह है कि यदि व्यक्ति सफल होता जाता है तो उसका अहंकार भी उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और वह एक विशाल चट्टान की भाँति जीवन के सुपथ, सत्पथ या आध्यात्मिक पथ को रोक लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति असफल हुआ तो उसका अहंकार एक घाव की भाँति रिसने व दुखने लगता है। धीरे-धीरे मन में हीनता की ग्रन्थि बन जाती है, जो सदा-सर्वदा डराती रहती है।
  
सद्विवेक-सद्ज्ञान ही इस अहंकार के रोग की औषधि व उपचार है। सद्विवेक-उद्देश्य व औचित्य के अनुरूप निरन्तर कार्यरत रहने, संघर्षशील होने की प्रेरणा देता है। कार्य की सफलता या विफलता इसे प्रभावित नहीं करती। इसके पहले शान्ति और पीछे आशीर्वाद उमड़ता रहता है। जहाँ कठिन संघर्षों में भी शांति व आशीर्वाद सघन है, समझो वहाँ अहंकार का नामोनिशान नहीं केवल सद्विवेक है।  

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०७

शनिवार, 21 मार्च 2020

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग ३)

वृद्धों का चिड़चिड़ापन और परिवार के अन्य व्यक्ति

प्रायः देखा गया है कि आयुवृद्धि के साथ-साथ वृद्ध चिड़चिड़े, नाराज होने वाले, सनकी क्रोधी और सठिया जाते हैं। वे तनिक सी असावधानी से नाराज हो जाते हैं और कभी-कभी अपशब्दों का भी उच्चारण कर बैठते हैं। ऐसे वृद्ध क्रोध के नहीं, हमारी दया और सहानुभूति के पात्र हैं। वे अज्ञान में हैं और हमें उनके साथ वही आचरण करना उचित है, जैसा बच्चों के साथ। उनकी विवेकशील योजनाओं तथा अनुभव से लाभ उठाना चाहिए और उनकी मूर्खताओं को उदारतापूर्वक क्षमा करना चाहिए।

वृद्धों को परिवार के अन्य व्यक्तियों के प्रेम और सहयोग की आवश्यकता है। हमें उनसे प्रीति करना, जितना हो सके आज्ञा पालन, प्रतिष्ठा उनके स्वास्थ्य का संरक्षण ही उचित है, खाने के लिए, कपड़ों के लिए तथा थोड़े से आराम के लिए वह परिवार के अन्य व्यक्तियों की सहानुभूति की आकाँक्षा करता है। उसने अपने यौवन काल में परिवार के लिए जो श्रम और बलिदान किए हैं, अब उसी त्याग का बदला हमें अधिक से अधिक देना उचित है।

परिवार के संचालन की कुँजी उत्तम संगठन है। प्रत्येक व्यक्ति यदि सामूहिक उन्नति में सहयोग प्रदान करे, अपने श्रम से अर्थ संग्राम करे, दूसरों की उन्नति में सहयोग प्रदान करे। सब के लिए अपने व्यक्तिगत स्वार्थों का बलिदान करता रहे, तो बहुत कार्य हो सकता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 23
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.23

बुधवार, 18 मार्च 2020

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग २)

ननद भौजाई के झगड़े-

प्रायः देखा जाता है कि जहाँ ननदें अधिक होती हैं, या विधवा होने के कारण मायके यहाँ रहती हैं, वहाँ बहू पर बहुत अत्याचार होते हैं। ननद भाभी के विरुद्ध अपनी माता के कान भरती है और भाई को भड़काती हैं। इसका कारण यह है कि बहिन भाई पर अपना पूर्ण अधिकार समझती है और अपने गर्व, अहं, और व्यक्तव्य को अन्यों से ऊपर रखना चाहती है। भाई, यदि अदूरदर्शी होता है, तो बहिन की बातों में आ जाता है, और बहू अत्याचार का शिकार बनती है।

इन झगड़ों में पति को चाहिए कि पृथक-पृथक अपनी बहिन और पत्नी को समझा दे और दोनों के स्वत्व तथा अहं की पूर्ण रक्षा करे। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दोनों का अध्ययन कर परस्पर मेल करा देना ही उचित है। मेल कराने के अवसरों की ताक में रहना चाहिए। दोनों को परस्पर मिलने, बैठने साथ-साथ टहलने जाने, एक सी दिलचस्पी विकसित करने का अवसर प्रदान करना उचित है। यह नहीं होना चाहिए कि पत्नी ही दोनों समय भोजन बनाती, झूठे बर्तन साफ करती, जिठानी के बच्चों को बहलाती-धुलाती, आटा पीसती, कपड़े धोती, दूध पिलाती या झाड़ू-बुहारी का काम करती रहे। चतुर पति को चाहिए कि काम का बटवारा करदे। पत्नी को कम काम मिलना चाहिए क्योंकि उसके पास बच्चे भी पालने के लिए हैं। यदि कोई बीमार पड़ेगा तो उसे उसका कार्य भी करना होगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 23

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.23

👉 Awakening the Inner Strength

👉 Awakening the Inner Strength

Human life is a turning point in the evolution of consciousness. One who loses this opportunity and does not attempt awakening his inner self, knowing his soul, is the biggest loser. He cannot attain peace – neither in this life, nor in the life beyond. Thus, if we are truly desirous of ascent, beatifying bliss and peace, we must begin to look inwards. Joy is not there in the outer world, not in any achievement or possession of power and enormous resources. It is the soul,  which is the origin and ultimate goal of this intrinsic quest.

Just think! Happiness is a virtue of consciousness, how could then the inanimate things of this world give us joy? It is after all the “individual self”, which aspires for unalloyed joy and enjoys it. Then how could it be so dependent upon others for this natural spirit of the Consciousness Force? How could the world, which is ever changing and perishable, be the source of fulfilling our eternal  quest? the contrary, the sensual pleasures, the worldly joys, which delude us all the time, mostly consume our strength and weaken the life force of our sense organs and our mind.

This fact should be remembered again and again that the quest, the feeling of blissfulness are there because of the soul and it is only the awakened force of the soul, the inner strength that can lead the evolution of the individual self to the highest realms of eternal beatitudeous bliss.

📖 Akhand Jyoti, Oct. 1940

👉 आत्मचिंतन के क्षण 17 March 2020

■ इधर का (ईश्वरीय) आनन्द मिलने से उसको (वैषयिक) आनन्द अच्छा लगता है। ईश्वरी आनन्द लाभ करने से संसार नमक का (शाक जैसा) निःरस भान होता है। शाल मिलने से फिर वनात अच्छा नहीं लगता है। जो संसार के धर्म संसार में रह कर ही धर्मावरण करना ठीक है यह कहते हैं वे यदि एक बार भगवान् का आनन्द पावें तो उनको फिर और कुछ अच्छा नहीं लगता। कर्म के लिए आशक्ति कम होती जाती है। क्रमशः ज्यों-ज्यों आनन्द बढ़ता जाता है त्यों-त्यों फिर कर्म भी कर नहीं सकते हैं केवल उसी आनन्द को ढूंढ़ते फिरते हैं। ईश्वरीय आनन्द के पास फिर विषयानन्द और रमणानन्द तुच्छ हो जाते हैं, एक बार स्वरूपानन्द का स्वाद तुच्छ कर उसी आनन्द के लिए व्याकुल होकर फिरते है, तब संसार गृहस्थी रहे चाहे न रहे ! उसके लिए कोई परवाह नहीं रहती है।

□  संसारी लोग कहते हैं कि-दोनों तरफ रहेंगे! दो आने का शराब पीने से मनुष्य दोनों ओर ठीक रहना चाहते हैं। किन्तु अधिक शराब पीने से क्या फिर दोनों तरफ नजर रखी जा सकती है? ईश्वरीय आनन्द मिलने से फिर कुछ साँसारिक कार्य अच्छा नहीं लगता है। तब काम काँचन की बातें मानो हृदय में चोट सी लगती हैं। बाहरी बातें अच्छी नहीं लगती हैं। तब मनुष्य ईश्वर के लिए पागल होता है। रुपये पैसे कुछ भी अच्छे नहीं लगते हैं।

◆ ईश्वर लाभ के बाद कोई संसार है तो वह होता है-विद्या का संसार। उसमें कामिनी-काँचन का प्रभाव नहीं रहता है, उसमें रहते हैं, केवल भक्ति, भक्त और भगवान्।

✍🏻 रामकृष्ण परमहंस के उपदेश

👉 भय

न जाने क्यों हर कोई भयभीत है, डरा हुआ है। ज्ञात में, अज्ञात में भय में जी रहा है। उठते, बैठते, सोते, जागते भय बना हुआ है। हर कर्म में, भाव में, विचार-व्यवहार में भय है। प्रेम में, घृणा में, पुण्य में, पाप में, सब में एक अनजाने भय ने अपनी पैठ बना ली है। कुछ इस तरह जैसे कि हमारी पूरी चेतना भय से बनी व गढ़ी है। हम सबके विश्वास-धारणाएँ, यहाँ तक कि धर्म और ईश्वर को हमने भय की भ्रान्ति से ढँक रखा है।
  
इस भय का मूल क्या है? इस एक प्रश्न के उत्तर यूँ तो अनेक मिल जाएँगें, लेकिन इसका मौलिक और एक मात्र सटीक उत्तर है - भय का मूल कारण है मृत्यु। हमारे मिट जाने की, न होने की सम्भावना ही सारे भय की जड़ है। भय का मतलब ही है, अपने न होने की, मिट जाने की, समाप्त हो जाने की आशंका। इस आशंका से बचने की कोशिश सारे जीवन चलती है। पर पूरे जीवन दौड़-भाग की भी स्थिति यथावत बनी रहती है। ठीक समय पर मृत्यु का पल आ ही जाता है।
  
दरअसल मृत्यु का भय भी जीवन को खोने का भय है। जो ज्ञात है, उसके खो-जाने का भय है। मेरा शरीर-मेरी सम्पत्ति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा, मेरे सम्बन्ध, मेरे संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार यही मेरे ‘‘मैं’’ के प्राण बन गए हैं। यही मैं हो गया है। मृत्यु इस ‘मैं’ को छीन लेगी, यह भय है। परन्तु यथार्थ में यह भय एक भ्रान्ति के सिवा और कुछ भी नहीं क्योंकि जिसे हम मैं कहते, सुनते और समझते हैं, वही झूठ है।
  
इस झूठ को हटा कर, सत्य को अनुभव करना हो तो सभी झूठे तादात्म्य को तोड़ना होगा। यदि हम उन सभी तथ्यों के प्रति जागरुक हो गए, जिसे अब तक मैं के रूप में समझते रहे हैं, तो तादात्म्य की भ्रान्ति टूटने लगेगी और अनुभव होगा सच्चे मैं का। जिसे कभी कोई मिटा नहीं सकता। इस सच्चे मैं की अनुभूति में ही भय से सम्पूर्ण मुक्ति है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०६

👉 पत्नी का सदैव सम्मान कीजिए

बहुत से व्यक्ति अपने को स्त्री से बड़ा समझकर अथवा लापरवाही से-अपनी पत्नियों के साथ शिष्टता का व्यवहार करना अनावश्यक समझते हैं, पर एक बडी़ भूल है। जो लोग अपने दाम्पत्य जीवन को सफल बनाने के इच्छुक हों उनको सदैव अपनी पत्नी के प्रति सम्मानयुक्त व्यवहार और वार्त्तालाप करना चाहिए। जो पुरुष उससे कठोर व्यवहार करते हैं, अपनी आश्रित समझकर तिरस्कार करते हैं, उनकी बेइज्जती करते रहते हैं, वे अश्लील हैं । गुप्त मन में उनकी स्त्रियाँ उन्हें दुष्ट राक्षसतुल्य समझती हैं। ऐसा प्रसंग ही मत आने दीजिए कि नारी को मारने-पीटने का अवसर आए। उसे अपने आचार, व्यवहार, प्रेम भरे सबोंधन से पूर्ण संतुष्ट रखिए।

पत्नी की भावनाओं की रक्षा, उसके गुणों का आदर, उसके शील, लज्जा, व्यवहार की प्रशंसा मधुर संबंधों का मूल रहस्य है। पत्नी आपकी जीवनसहचरी है। अपने सद्व्यवहार से उसे तृप्त रखिए।

पत्नी, पति की प्राण है, पुरुष की अर्द्धांगिनी है, पत्नी से बढ़कर कोई दूसरा मित्र नहीं पत्नी तीनों फलों- धर्म, अर्थ, काम को प्रदान करने वाली है और पत्नी संसार-सागर को पार करने में सबसे बड़ी सहायिका है। फिर किस मुँह से आप उसका तिरस्कार करते हैं?

उससे मधुर वाणी में बोलिए । आपके मुँह पर मधुर मुस्कान हो, हृदय मे सच्चा निष्कपट प्रेम हो, वचनों में नम्रता, मृदुलता, सरलता और प्यार हो। स्मरण रखिए, स्त्रियों का 'अहं' बडा़ तेज होता है, वे स्वाभिमानी, आत्माभिमानी होती हैं। तनिक सी अशिष्टता या फूहड़पन से क्रुद्ध होकर आपके संबंध में घृणित धारणाएँ बना लेती हैं। उनकी छोटी-मोटी माँगों या फरमाइशों की अवहेलना या अवज्ञा न करें। इसमें बड़े सावधान रहें। जो स्त्री एक छोटे से उपहार से प्रसन्न होकर आपकी दासता और गुलामी करने को प्रस्तुत रहती है, उसके लिए सब कुछ करना चाहिए। अत: पत्नी का आदर करें, उसके संबंध में कभी कोई अपमानसूचक बातें? मुँह से न निकालें और उनकी उपस्थिति में या अनुपस्थिति में या उनकी हँसी न करें।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

सोमवार, 16 मार्च 2020

👉 आत्मबोध

चार महीने बीत चुके थे, बल्कि 10 दिन ऊपर हो गए थे, किंतु बड़े भइया की ओर से अभी तक कोई ख़बर नहीं आई थी कि वह पापा को लेने कब आएंगे. यह कोई पहली बार नहीं था कि बड़े भइया ने ऐसा किया हो. हर बार उनका ऐसा ही रवैया रहता है. जब भी पापा को रखने की उनकी बारी आती है, वह समस्याओं से गुज़रने लगते हैं. कभी भाभी की तबीयत ख़राब हो जाती है, कभी ऑफिस का काम बढ़ जाता है और उनकी छुट्टी कैंसिल हो जाती है. विवश होकर मुझे ही पापा को छोड़ने मुंबई जाना पड़ता है. हमेशा की तरह इस बार भी पापा की जाने की इच्छा नहीं थी, किंतु मैंने इस ओर ध्यान नहीं दिया और उनका व अपना मुंबई का रिज़र्वेशन करवा लिया।

दिल्ली-मुंबई राजधानी एक्सप्रेस अपने टाइम पर थी. सेकंड एसी की निचली बर्थ पर पापा को बैठाकर सामने की बर्थ पर मैं भी बैठ गया. साथवाली सीट पर एक सज्जन पहले से विराजमान थे. बाकी बर्थ खाली थीं. कुछ ही देर में ट्रेन चल पड़ी. अपनी जेब से मोबाइल निकाल मैं देख रहा था, तभी कानों से पापा का स्वर टकराया, “मुन्ना, कुछ दिन तो तू भी रहेगा न मुंबई में. मेरा दिल लगा रहेगा और प्रतीक को भी अच्छा लगेगा.”

पापा के स्वर की आर्द्रता पर तो मेरा ध्यान गया नहीं, मन-ही-मन मैं खीझ उठा. कितनी बार समझाया है पापा को कि मुझे ‘मुन्ना’ न कहा करें. ‘रजत’ पुकारा करें. अब मैं इतनी ऊंची पोस्ट पर आसीन एक प्रशासनिक अधिकारी हूं. समाज में मेरा एक अलग रुतबा है. ऊंचा क़द है, मान-सम्मान है. बगल की सीट पर बैठा व्यक्ति मुन्ना शब्द सुनकर मुझे एक सामान्य-सा व्यक्ति समझ रहा होगा. मैं तनिक ज़ोर से बोला, “पापा, परसों मेरी गर्वनर के साथ मीटिंग है. मैं मुंबई में कैसे रुक सकता हूं?” पापा के चेहरे पर निराशा की बदलियां छा गईं. मैं उनसे कुछ कहता, तभी मेरा मोबाइल बज उठा. रितु का फोन था. भर्राए स्वर में वह कह रही थी, “पापा ठीक से बैठ गए न.”
“हां हां बैठ गए हैं. गाड़ी भी चल पड़ी है.”  “देखो, पापा का ख़्याल रखना. रात में मेडिसिन दे देना. भाभी को भी सब अच्छी तरह समझाकर आना. पापा को वहां कोई तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए.”

“नहीं होगी.” मैंने फोन काट दिया. “रितु का फोन था न. मेरी चिंता कर रही होगी.”
पापा के चेहरे पर वात्सल्य उमड़ आया था. रात में खाना खाकर पापा सो गए. थोड़ी देर में गाड़ी कोटा स्टेशन पर रुकी और यात्रियों के शोरगुल से हड़कंप-सा मच गया. तभी कंपार्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर जो व्यक्ति अंदर आया, उसे देख मुझे बेहद आश्‍चर्य हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि रमाशंकर से इस तरह ट्रेन में मुलाक़ात होगी.

एक समय रमाशंकर मेरा पड़ोसी और सहपाठी था. हम दोनों के बीच मित्रता कम और नंबरों को लेकर प्रतिस्पर्धा अधिक रहती थी. हम दोनों ही मेहनती और बुद्धिमान थे, किंतु न जाने क्या बात थी कि मैं चाहे कितना भी परिश्रम क्यों न कर लूं, बाज़ी सदैव रमाशंकर के हाथ लगती थी. शायद मेरी ही एकाग्रता में कमी थी. कुछ समय पश्‍चात् पापा ने शहर के पॉश एरिया में मकान बनवा लिया. मैंने कॉलेज चेंज कर लिया और इस तरह रमाशंकर और मेरा साथ छूट गया.

दो माह पूर्व एक सुबह मैं अपने ऑफिस पहुंचा. कॉरिडोर में मुझसे मिलने के लिए काफ़ी लोग बैठे हुए थे. बिना उनकी ओर नज़र उठाए मैं अपने केबिन की ओर बढ़ रहा था. यकायक एक व्यक्ति मेरे सम्मुख आया और प्रसन्नता के अतिरेक में मेरे गले लग गया, “रजत यार, तू कितना बड़ा आदमी बन गया. पहचाना मुझे? मैं रमाशंकर.” मैं सकपका गया. फीकी-सी मुस्कुराहट मेरे चेहरे पर आकर विलुप्त हो गई. इतने लोगों के सम्मुख़ उसका अनौपचारिक व्यवहार मुझे ख़ल रहा था. वह भी शायद मेरे मनोभावों को ताड़ गया था, तभी तो एक लंबी प्रतीक्षा के उपरांत जब वह मेरे केबिन में दाख़िल हुआ, तो समझ चुका था कि वह अपने सहपाठी से नहीं, बल्कि एक प्रशासनिक अधिकारी से मिल रहा था. उसका मुझे ‘सर’ कहना मेरे अहं को संतुष्ट कर गया. यह जानकर कि वह बिजली विभाग में महज़ एक क्लर्क है, जो मेरे समक्ष अपना तबादला रुकवाने की गुज़ारिश लेकर आया है, मेरा सीना अभिमान से चौड़ा हो गया. कॉलेज के प्रिंसिपल और टीचर्स तो क्या, मेरे सभी कलीग्स भी यही कहते थे कि एक दिन रमाशंकर बहुत बड़ा आदमी बनेगा. हुंह, आज मैं कहां से कहां पहुंच गया और वह…

पिछली स्मृतियों को पीछे धकेल मैं वर्तमान में पहुंचा तो देखा, रमाशंकर ने अपनी वृद्ध मां को साइड की सीट पर लिटा दिया और स्वयं उनके क़रीब बैठ गया. एक उड़ती सी नज़र उस पर डाल मैंने अख़बार पर आंखें गड़ा दीं. तभी रमाशंकर बोला, “नमस्ते सर, मैंने तो देखा ही नहीं कि आप बैठे हैं.”  मैंने नम्र स्वर में पूछा, “कैसे हो रमाशंकर?”
“ठीक हूं सर.”
“कोटा कैसे आना हुआ?”
“छोटी बुआ की बेटी की शादी में आया था. अब मुंबई जा रहा हूं. शायद आपको याद हो, मेरा एक छोटा भाई था.”
“छोटा भाई, हां याद आया, क्या नाम था उसका?” मैंने स्मृति पर ज़ोर डालने का उपक्रम किया जबकि मुझे अच्छी तरह याद था कि उसका नाम देवेश था.
“सर, आप इतने ऊंचे पद पर हैं. आए दिन हज़ारों लोगों से मिलते हैं. आपको कहां याद होगा? देवेश नाम है उसका सर.”

पता नहीं उसने मुझ पर व्यंग्य किया था या साधारण रूप से कहा था, फिर भी मेरी गर्दन कुछ तन-सी गई.  उस पर एहसान-सा लादते हुए मैं बोला,“देखो रमाशंकर, यह मेरा ऑफिस नहीं है, इसलिए सर कहना बंद करो और मुझे मेरे नाम से पुकारो. हां तो तुम क्या बता रहे थे, देवेश मुंबई में है?”

“हां रजत, उसने वहां मकान ख़रीदा है. दो दिन पश्‍चात् उसका गृह प्रवेश है.
चार-पांच दिन वहां रहकर मैं और अम्मा दिल्ली लौट आएंगे.”
“इस उम्र में इन्हें इतना घुमा रहे हो?”  “अम्मा की आने की बहुत इच्छा थी. इंसान की उम्र भले ही बढ़ जाए, इच्छाएं तो नहीं मरतीं न.”
“हां, यह तो है. पिताजी कैसे हैं?”

“पिताजी का दो वर्ष पूर्व स्वर्गवास हो गया था. अम्मा यह दुख झेल नहीं पाईं और उन्हें हार्टअटैक आ गया था, बस तभी से वह बीमार रहती हैं. अब तो अल्ज़ाइमर भी बढ़ गया है.”

“तब तो उन्हें संभालना मुश्किल होता होगा. क्या करते हो? छह-छह महीने दोनों भाई रखते होंगे.” ऐसा पूछकर मैं शायद अपने मन को तसल्ली दे रहा था. आशा के विपरीत रमाशंकर बोला,  “नहीं-नहीं, मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता. अम्मा शुरू से दिल्ली में रही हैं. उनका कहीं और मन लगना मुश्किल है. मैं नहीं चाहता, इस उम्र में उनकी स्थिति पेंडुलम जैसी हो जाए. कभी इधर, तो कभी उधर. कितनी पीड़ा होगी उन्हें यह देखकर कि पिताजी के जाते ही उनका कोई घर ही नहीं रहा. वह हम पर बोझ हैं.”
मैं मुस्कुराया, “रमाशंकर, इंसान को थोड़ा व्यावहारिक भी होना चाहिए. जीवन में स़िर्फ भावुकता से काम नहीं चलता है. अक्सर इंसान दायित्व उठाते-उठाते थक जाता है और तब ये विचार मन को उद्वेलित करने लगते हैं कि अकेले हम ही क्यों मां-बाप की सेवा करें, दूसरा क्यों न करे.”

“पता नहीं रजत, मैं ज़रा पुराने विचारों का इंसान हूं. मेरा तो यह मानना है कि हर इंसान की करनी उसके साथ है. कोई भी काम मुश्क़िल तभी लगता है, जब उसे बोझ समझकर किया जाए. मां-बाप क्या कभी अपने बच्चों को बोझ समझते हैं? आधे-अधूरे कर्त्तव्यों में कभी आस्था नहीं होती रजत, मात्र औपचारिकता होती है और सबसे बड़ी बात जाने-अनजाने हमारे कर्म ही तो संस्कार बनकर हमारे बच्चों के द्वारा हमारे सम्मुख आते हैं. समय रहते यह छोटी-सी बात इंसान की समझ में आ जाए, तो उसका बुढ़ापा भी संवर जाए.”

मुझे ऐसा लगा, मानो रमाशंकर ने मेरे मुख पर तमाचा जड़ दिया हो. मैं नि:शब्द, मौन सोने का उपक्रम करने लगा, किंतु नींद मेरी आंखों से अब कोसों दूर हो चुकी थी. रमाशंकर की बातें मेरे दिलोदिमाग़ में हथौड़े बरसा रही थीं. इतने वर्षों से संचित किया हुआ अभिमान पलभर में चूर-चूर हो गया था. प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी के लिए इतनी मोटी-मोटी किताबें पढ़ता रहा, किंतु पापा के मन की संवेदनाओं को, उनके हृदय की पीड़ा को नहीं पढ़ सका. क्या इतना बड़ा मुक़ाम मैंने स़िर्फ अपनी मेहनत के बल पर पाया है. नहीं, इसके पीछे पापा-मम्मी की वर्षों की तपस्या निहित है.

आख़िर उन्होंने ही तो मेरी आंखों को सपने देखने सिखाए. जीवन में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा दी. रात्रि में जब मैं देर तक पढ़ता था, तो पापा भी मेरे साथ जागते थे कि कहीं मुझे नींद न आ जाए. मेरे इस लक्ष्य को हासिल करने में पापा हर क़दम पर मेरे साथ रहे और आज जब पापा को मेरे साथ की ज़रूरत है, तो मैं व्यावहारिकता का सहारा ले रहा हूं. दो वर्ष पूर्व की स्मृति मन पर दस्तक दे रही थी. सीवियर हार्टअटैक आने के बाद मम्मी बीमार रहने लगी थीं.

एक शाम ऑफिस से लौटकर मैं पापा-मम्मी के बेडरूम में जा रहा था, तभी अंदर से आती आवाज़ से मेरे पांव ठिठक गए. मम्मी पापा से कह रही थीं, “इस दुनिया में जो आया है, वह जाएगा भी. कोई पहले, तो कोई बाद में. इतने इंटैलेक्चुअल होते हुए भी आप इस सच्चाई से मुंह मोड़ना चाह रहे हैं.”

“मैं क्या करूं पूजा? तुम्हारे बिना अपने अस्तित्व की कल्पना भी मेरे लिए कठिन है. कभी सोचा है तुमने कि तुम्हारे बाद मेरा क्या होगा?” पापा का कंठ अवरुद्ध हो गया था, किंतु मम्मी तनिक भी विचलित नहीं हुईं और शांत स्वर में बोलीं थीं, “आपकी तरफ़ से तो मैं पूरी तरह से निश्‍चिंत हूं. रजत और रितु आपका बहुत ख़्याल रखेंगे, यह एक मां के अंतर्मन की आवाज़ है, उसका विश्‍वास है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता.”

इस घटना के पांच दिन बाद ही मम्मी चली गईं थीं. कितने टूट गए थे पापा. बिल्कुल अकेले पड़ गए थे. उनके अकेलेपन की पीड़ा को मुझसे अधिक मेरी पत्नी रितु ने समझा. यूं भी वह पापा के दोस्त की बेटी थी और बचपन से पापा से दिल से जुड़ी हुई थी. उसने कभी नहीं चाहा, पापा को अपने से दूर करना, किंतु मेरा मानना था कि कोरी भावुकता में लिए गए फैसले अक्सर ग़लत साबित होते हैं. इंसान को प्रैक्टिकल अप्रोच से काम लेना चाहिए. अकेले मैं ही क्यों पापा का दायित्व उठाऊं? दोनों बड़े भाई क्यों न उठाएं? जबकि पापा ने तीनों को बराबर का स्नेह दिया, पढ़ाया, लिखाया, तो दायित्व भी तीनों का बराबर है. छह माह बाद मम्मी की बरसी पर यह जानते हुए भी कि दोनों बड़े भाई पापा को अपने साथ रखना नहीं चाहते, मैंने यह फैसला किया था कि हम तीनों बेटे चार-चार माह पापा को रखेंगे. पापा को जब इस बात का पता चला, तो कितनी बेबसी उभर आई थी उनके चेहरे पर. चेहरे की झुर्रियां और गहरा गई थीं. उम्र मानो 10 वर्ष आगे सरक गई थी. सारी उम्र पापा की दिल्ली में गुज़री थी. सभी दोस्त और रिश्तेदार यहीं पर थे, जिनके सहारे उनका व़क्त कुछ अच्छा बीत सकता था, किंतु… सोचते-सोचते मैंने एक गहरी सांस ली.

आंखों से बह रहे पश्‍चाताप के आंसू पूरी रात मेरा तकिया भिगोते रहे. उफ्… यह क्या कर दिया मैंने. पापा को तो असहनीय पीड़ा पहुंचाई ही, मम्मी के विश्‍वास को भी खंडित कर दिया. आज वह जहां कहीं भी होंगी, पापा की स्थिति पर उनकी आत्मा कलप रही होगी. क्या वह कभी मुझे क्षमा कर पाएंगी? रात में कई बार अम्मा का रमाशंकर को आवाज़ देना और हर बार उसका चेहरे पर बिना शिकन लाए उठना, मुझे आत्मविश्‍लेषण के लिए बाध्य कर रहा था. उसे देख मुझे एहसास हो रहा था कि इंसानियत और बड़प्पन हैसियत की मोहताज नहीं होती. वह तो दिल में होती है. अचानक मुझे एहसास हुआ, मेरे और रमाशंकर के बीच आज भी प्रतिस्पर्धा जारी है. इंसानियत की प्रतिस्पर्धा, जिसमें आज भी वह मुझसे बाज़ी मार ले गया था. पद भले ही मेरा बड़ा था, किंतु रमाशंकर का क़द मुझसे बहुत ऊंचा था.

गाड़ी मुंबई सेंट्रल पर रुकी, तो मैं रमाशंकर के क़रीब पहुंचा. उसके दोनों हाथ थाम मैं भावुक स्वर में बोला, “रमाशंकर मेरे दोस्त, चलता हूं. यह सफ़र सारी ज़िंदगी मुझे याद रहेगा.” कहने के साथ ही मैंने उसे गले लगा लिया.

आश्‍चर्यमिश्रित ख़ुशी से वह मुझे देख रहा था. मैं बोला, “वादा करो, अपनी फैमिली को लेकर मेरे घर अवश्य आओगे.”

“आऊंगा क्यों नहीं, आखिऱ इतने वर्षों बाद मुझे मेरा दोस्त मिला है.” ख़ुशी से उसकी आवाज़ कांप रही थी. अटैची उठाए पापा के साथ मैं नीचे उतर गया. स्टेशन के बाहर मैंने टैक्सी पकड़ी और ड्राइवर से एयरपोर्ट चलने को कहा. पापा हैरत से बोले, “एयरपोर्ट क्यों?” भावुक होकर मैं पापा के गले लग गया और रुंधे कंठ से बोला, “पापा, मुझे माफ़ कर दीजिए. हम वापिस दिल्ली जा रहे हैं. अब आप हमेशा वहीं अपने घर में रहेंगे.” पापा की आंखें नम हो उठीं और चेहरा खुशी से खिल उठा.

“जुग जुग जिओ मेरे बच्चे.” वह बुदबुदाए. कुछ पल के लिए उन्होंन अपनी आंखें बंद कर लीं, फिर चेहरा उठाकर आकाश की ओर देखा. मुझे ऐसा लगा मानो वह मम्मी से कह रहे हों, देर से ही सही, तुम्हारा विश्‍वास सही निकला.

जय श्री राम

👉 आत्मचिंतन के क्षण 16 March 2020

■ भगवान् को लाभ करना हो तो संसार से तीव्र-वैराग्य चाहिये। जो कुछ ईश्वर के मार्ग के विरोधी मालूम हो, उसे तत्क्षण त्यागना चाहिये। पीछे होगा यह सोच कर छोड़ रखना ठीक नहीं है। काम-काँचन ईश्वर-मार्ग के विरोधी हैं। उनसे मन हटा लेना चाहिये। दीर्घसूत्री होने से परमार्थ का लाभ नहीं होगा। कोई एक अंगोछा लेकर स्नान करने को जा रहा था। उसकी औरत ने उससे कहा कि- तुम किसी भी काम के नहीं हो, उम्र बढ़ रही है, अब भी यह सब (व्यवहार) छोड़ नहीं सके। मुझको छोड़कर तुम एक दिन भी नहीं रह सकते। किन्तु देखो, वह रामदेव कैसा त्यागी है। पति ने कहा-क्यों उसने क्या किया? औरत ने कहा- उसकी सोलह औरतें हैं। वह एक-एक करके उनको त्याग रहा है। तुम कभी त्याग कर नहीं सकोगे। जो त्याग करता है वह क्या थोड़ा-थोड़ा करके त्याग करता है? औरत से मुस्कराकर कहा-पगली, तू नहीं समझती है त्याग करना उसका काम नहीं है। अर्थात् उसके कहने से त्याग नहीं होगा, मैं ही त्यागकर सकूँगा। यह देख, मैं चल देता हूँ।’

□  इसी का नाम तीव्र वैराग्य है। उस आदमी को ज्यों वैराग्य आ गया त्यों−ही उसने त्याग किया। अंगोछा कन्धे में ही रहा कि वह चल दिया। वह संसार का कुछ ठीक-ठाक नहीं कर पाया। घर की ओर एक बार पीछे लौट कर देखा भी नहीं। जो त्याग करेगा उसको मनोबल चाहिए। लुटेरों का भाव! लूटने से पहले जैसे डाकू लोग कहते हैं, ऐ मारो! लूटो! काटो! अर्थात् पीछे क्या होगा, इसका ख्याल न कर खूब मनोबल के साथ आगे बढ़ना चाहिये।

◆ तुम और क्या करोगे? उनके (ईश्वर के) प्रति भक्ति और प्रेम लाभ कर दिन बिताना है। श्रीकृष्ण के अदर्शन से यशोदा पगली जैसी बनकर श्रीमती (राधा) के पास गई। श्रीमती ने उनका शोक देखकर आद्या शक्ति के रूप से उनको दर्शन दिया और उनसे कहा-‘माँ’ वर फिर क्या लूँ? तो इतना ही कहा कि-मैं तन, मन, वचन से कृष्ण की ही सेवा कर सकूँ, इन्हीं आँखों से उनके भक्तों का दर्शन हो। जहाँ-जहाँ उनकी लीलाएं हों इन पैरों से वहीं जा सकूँ। इन हाथों से उनके ही प्रेमी भक्तों की सेवा करूं। सब इन्द्रियाँ उन्हीं के दर्शन श्रवणादि में लगें।

✍🏻 रामकृष्ण परमहंस के उपदेश

👉 Renunciation of Karma is Self-Deception

Often people misinterpret the preaching of the holy Gita and Vedanta and regard the state of inaction as that of detachment and soul-realization. But this is mere delusion, idleness and escapism. Making the body inactive or renouncing the family and duties does not serve any purpose of spiritual ascent. What is important is the liberation of the mind from all ego, expectations and selfish attachments. You should perform all your duties, do all your work at your level best but be detached from the end-results.

Don’t expect the results of your actions to be as per your will or imagination. But don’t leave your actions (karmas) thinking that every thing will happen as per your destiny. You can’t live even for a single moment without any karma – be that physical or mental. You are born do transact your duties. This is what is implied in the following hymn:

“NaKaschitksanamapi Jatu Tisthtyakarma-Krat । Karyate Hyavasah Karma Sarvah Prakratijairgunaih ।।”

The system of Nature is such that it triggers every being, every particle, to act as per its natural tendencies. We might prevent the actions of our body or the sense organs for sometime; but what about the flow of thoughts and the impulses of unconscious mind? Those who attempt such superficial renouncement and try to evade from duties, actions suffer more agility and turbulence of desires and intrinsic tendencies in the mind… They are fake and self-cheaters.

📖 Akhand Jyoti, Aug 1940

👉 पारिवारिक कलह और मनमुटाव कारण तथा निवारण (भाग १)

सास बहू के झगड़े -

बहुसंख्यक परिवारों में सास बहू के झगड़े चल रहे हैं। इसके अनेक कारण है। सास बहू को अपने नियंत्रण में रखकर अनुशासन करना चाहती है। अपनी आशानुसार उससे कार्य कराना चाहती है। कभी-कभी वह अपने पुत्र को बहका कर बहू की मरम्मत कराती है। प्रायः देखा गया है कि जहाँ कोई पुरुष स्त्री को कष्ट देता है, तो उसके मध्य में अवश्य किसी स्त्री-सास, ननद या जिठानी रहती है। स्त्रियों में ईर्ष्या भाव अत्यधिक होता है। बहू का व्यक्तित्व प्रायः लुप्त हो जाता है तथा उसे रौरव नर्क की यन्त्रणाएं सहन करनी पड़ती हैं।कहीं पर पति बहू के इंगित पर नृत्य करता है और उसके भड़कायें से वृद्धा सास पर अत्याचार करता है। वृद्धा से कठिन कार्य कराया जाता है वह धुएं में परिवार के निमित्त भोजन व्यवस्था करती है जबकि बहू सिनेमा देखने या टहलने के लिए जाती है।

ये दोनों ही सीमाएं नियं हैं। सास बहू के सम्बन्ध पवित्र हैं। सास स्वयं बहू को देखने के लिए लालायित रहती है। उसके लिए वह दिन बड़े गौरव का होता है जब घर बहू रानी के पदार्पण से पवित्र होता है। उसे उदार, स्नेही, बड़प्पन से परिपूर्ण होना चाहिए। बहू की सहायता तथा पथ प्रदर्शन के लिए कार्य करना चाहिए। छोटी-मोटी भूलों को सहृदयता से माफ कर देना चाहिए इसी प्रकार बहू को सास में अपनी माता के दर्शन करने चाहिए और उसकी वही प्रतिष्ठा करनी चाहिए जो वह अपनी माता की करती रही है। यदि पुरुष माता को माता के स्थान पर पूज्य माने, और पत्नी को पत्नी के स्थान पर जीवन सहचरी, मिष्ठभाषणी प्रियतमा माने तो ऐसे संकुचित झगड़े बहुत कम उत्पन्न होंगे।

ऐसे झगड़ों में पुत्र का कर्त्तव्य बड़ा कठिन है। उसे माता की मान-प्रतिष्ठा का ध्यान रखना और पत्नी के गर्व तथा प्रेम की रक्षा करनी है। अतः उसे पूर्ण शान्ति और सुहृदयता से कर्त्तव्य भावना को ऊपर रखकर ऐसे झगड़ों को शाँत करना उचित है। किसी को भी अनुचित रीति से दबा कर मानहानि न करनी चाहिए। यदि पति कठोर, उग्र, लड़ने वाले स्वभाव का है, तो पारिवारिक शाँति और समृद्धि भंग हो जायेगी। प्रेम और सहानुभूति से दूसरों के दृष्टिकोण को समझकर बुद्धिमत्ता से अग्रसर होना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1951 पृष्ठ 22
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1951/January/v1.22

👉 श्रद्धा

श्रद्धा- भावों का उच्छृंखल आवेग न होकर भावऊर्जा का सकारात्मक एवं समर्थ स्रोत है। एक ऐसा ऊर्जा स्रोत जो जीवन के विविध आयामों को अनूठी चैतन्य ऊर्जा से सदा ऊर्जावान् बनाए रखती है। इतना ही नहीं श्रद्धा से श्रद्धावान् की जिन्दगी के सभी पहलुओं को स्वयं ही समर्थ एवं सक्षम सुरक्षा मिलती रहती है। उसके सद्गुरु, उसके आराध्य जिनके प्रति वह श्रद्धा पूर्ण है, उसके जीवन में हमेशा सक्षम प्रहरी की भाँति डटे रहते हैं।
  
इस सम्बन्ध में बड़ी हृदयस्पर्शी घटना है। कुछ सदी पहले जब नादिरशाह ने हिन्दुस्तान पर हमला किया, उस समय दिल्ली से कुछ दूर ग्रामीण इलाके में सूफी फकीर सलीम दरवेश अपनी आत्मसाधना में लीन थे। निरन्तर तप करते हुए परवरदिगार की सच्चे हृदय से इबादत और गाँव के लोगों में श्रद्धा एवं सद्विचार का संचार यही उनका नित्य का क्रम था। नादिरशाह के हमले की खबर, उसकी क्रूरता के कारनामें इन भोले-भाले ग्रामीण जनों तक पहुँची और उनमें घबराहट फैल गयी।
  
अब क्या होगा? यही सवाल सबके होठों पर था। वे सबके सब मिल-जुलकर फकीर की झोपड़ी पर पहुँचे। इन पहुँचने वालों में एक युवा शायर भी था। उसके मन की बेचैनी औरों से ज्यादा थी। उसने दर्द भरी लरजती आवाज में कहा-
अंधेरी राज तूफाने तलातुम नाखुदा गाफिल
यह आलम है तो फिर किश्ती, सरे मौजरवां कब तक?
  
अँधेरी रात, खतरनाक तूफान और नाखुदा के रूप में हिन्दुस्तान का बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला जो हमेशा शराब में डूबा रहता है, तो फिर हमारी कश्ती का भविष्य क्या? यह सुनकर फकीर कुछ देर चुप रहे फिर बोले-
अच्छा यकीं नहीं है तो उसे कश्ती डुबोने दे,
एक वही नाखुदा नहीं बुजदिल! खुदा भी है।
और इतिहास गवाह है, उस फकीर की श्रद्धा काम आयी। खुदा के इस नेक बन्दे के समझाने पर नादिरशाह कत्लोगारद छोड़कर वापस लौट गया।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०५

रविवार, 15 मार्च 2020

👉 दो स्वर्णिम सूत्र

इस स्थिति पर विजय प्राप्त करने के दो मार्ग हैं - प्रथम वह है जो दाम्पत्य जीवन का सच्चा सार है अर्थात यह दृढ़ प्रतिज्ञा और उसका निर्वाह कि हम दोनों पति-पत्नी एकदूसरे का परित्याग नहीं करेंगे, हम, प्रेम, सहानुभूति, त्याग, शील, आदान-प्रदान, सहायता के टूटे हुए प्रत्येक तार को गाँठ लेंगे । हम विश्वास, आशा, सहिष्णुता, अवलंब, उपयोगिता की गिरी हुई दीवार के प्रत्येक भाग की निरंतर प्रयत्न और भक्ति से मरम्मत करेंगे; हम एकदूसरे से माफी माँगने, सुलह और समझौता करने को सदैव प्रस्तुत रहेंगे ।

दूसरा उपाय है- पति-पत्नी की एकदूसरे के प्रति अनन्य भावना । पति-पत्नी एकदूसरे में लीन हो जाएँ, समा जाएँ, लय हो जाएँ, अधीनता की भावना छोड़ स्वभाव की पूजा करें । विवाह का आध्यात्मिक अभिप्राय दो आत्माओं का शारीरिक, मानसिक और आत्मिक संबंध है । इसमें दो आत्माएँ ऐसी मिल जाती हैं कि इस पार्थिव जीवन तथा उच्च देवलोक में भी मिली रहती हैं । यह दो मस्तिष्कों, दो हृदयों, दो आत्माओं तथा साथ ही साथ दो शरीरों का एकदूसरे में लय हो जाना है । जब तक यह स्वरैक्य नहीं होता विवाह का आनंद प्राप्त नहीं हो सकता । विवाहित जोड़े में परस्पर वह विश्वास और प्रतीति होना आवश्यक है, जो दो हृदयों को जोड़कर एक करता है । जब दो हृदय एकदूसरे के लिए आत्मसमर्पण करते हैं, तो एक या दूसरे को कोई तीसरा व्यक्ति बिगाड़ने नहीं पाता है । केवल इस प्रकार ही वह आध्यात्मिक दाम्पत्य अनुराग संभव हो सकता है, जिसका समझना उन व्यक्तियों के लिए कठिन है, जो अपने अनुभव से इस प्रेम और समझौते के, इस पारस्परिक उत्तरादायित्व तथा सम्मान के आसक्ति और आत्मसंतोष के, मानव तथा दिव्य प्रेरणाओं के विस्मयोत्पादक संयोग को जिसका नाम सच्चा विवाह है, नहीं जानते ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

शनिवार, 14 मार्च 2020

👉 त्याग और प्रेम

एक दिन नारद जी भगवान के लोक को जा रहे थे। रास्ते में एक संतानहीन दुखी मनुष्य मिला। उसने कहा-नाराज मुझे आशीर्वाद दे दो तो मेरे सन्तान हो जाय। नारद जी ने कहा-भगवान के पास जा रहा हूँ। उनकी जैसी इच्छा होगी लौटते हुए बताऊँगा।

नारद ने भगवान से उस संतानहीन व्यक्ति की बात पूछी तो उनने उत्तर दिया कि उसके पूर्व कर्म ऐसे हैं कि अभी सात जन्म उसके सन्तान और भी नहीं होगी। नारद जी चुप हो गये।

इतने में एक दूसरे महात्मा उधर से निकले, उस व्यक्ति ने उनसे भी प्रार्थना की। उनने आशीर्वाद दिया और दसवें महीने उसके पुत्र उत्पन्न हो गया। एक दो साल बाद जब नारद जी उधर से लौटे तो उनने कहा- भगवान ने कहा है-तुम्हारे अभी सात जन्म संतान होने का योग नहीं है।

इस पर वह व्यक्ति हँस पड़ा। उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारद जी के चरणों में डाला और कहा-एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है। नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वे झूठ बोले। मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा कर देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती सो तो किया नहीं, उलटे मुझे झूठा और उस दूसरे महात्मा से भी तुच्छ सिद्ध कराया। नारद कुपित होते हुए विष्णु लोक में पहुँचे और कटु शब्दों में भगवान की भर्त्सना की।

भगवान ने नारद को सान्त्वना दी और इसका उत्तर कुछ दिन में देने का वायदा किया। नारद वहीं ठहर गये। एक दिन भगवान ने कहा-नारद लक्ष्मी बीमार हैं- उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए। तुम जाकर माँग लाओ। नारद कटोरा लिये जगह-जगह घूमते फिरे पर किसी ने न दिया। अन्त में उस महात्मा के पास पहुँचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरन्त अपना कलेजा निकालकर दे किया। नारद ने उसे ले जाकर भगवान के सामने रख दिया।

भगवान ने उत्तर दिया- नारद! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूँ। तुम्हारी अपेक्षा उसे श्रेय देने का भी क्या कारण है सो तुम समझो। जब कलेजे की जरूरत पड़ी तब तुमसे यह न बन पड़ा कि अपना ही कलेजा निकाल कर दे देते। तुम भी तो भक्त थे। तुम दूसरों से माँगते फिरे और उसने बिना आगा पीछे सोचे तुरन्त अपना कलेजा दे दिया। त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूँ और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूँ।” नारद चुपचाप सुनते रहे। उनका क्रोध शान्त हो गया और लज्जा से सिर झुका लिया।

👉 अपने बाल-बच्चे मत बेचिए! (अन्तिम भाग)

तिलक-दहेज में विशेष रुपये-पैसे खर्च करके आज के दिन धनी-मानी कहलाने वाले लोगों की जो दुर्दशा होती है, वह वे बिचारी जानती हैं या भगवान् ही जानता है। यदि वे कन्याएं किसी कन्यार्थी एवं सीधे-सादे श्रमजीवी के घर भी ब्याही गयी होतीं, तो भी, मेरी समझ से, उन्हें उतना कष्ट नहीं होता। तिकल-दहेज ही एक ऐसा प्रतिबन्ध है, जिससे किसी पूँजीपति, जमींदार और धनी कहलाने वाले मनुष्य की कन्या किसी किसान या मजदूर के घर नहीं ब्याही जाती और ऐसा होने से समाज में जो समानता और भ्रातृत्व उत्पन्न होता, वह आज नहीं हो पाता सामाजिक अभिन्नता और मैत्री के ख्याल से भी इस कुप्रथा को समाज से निर्वासित करने की निताँत आवश्यकता है।

लड़का बेचने वालों को अपनी व्यर्थ को मान-प्रतिष्ठ आदि खोजने के लिये नीच-तमाशे आदि में बहुत से रुपये लगाने पड़ते हैं नशीली चीजों का भी व्यवहार करना पड़ता है। इस तरह जिस कुप्रथा के कारण कुकर्म में पानी की तरह रुपये बहाने पड़ते हैं, उसके कायम रहते वर-वधू की सुख और शाँति ही कब नसीब हो सकती है। कितनी ही जगहों में बहुत से लोग तिलक-दहेज के लिए इस तरह गुटबंदी किये रहते हैं कि किसी लड़की वाले के सम्मुख एक दूसरे का गुण गान करते और उसको बहुत ही धनी तथा प्रतिष्ठित बना देते हैं, जिससे कन्या वालों को पूर्ण विश्वास हो जाता है और उस लड़के वाले को तिलक-दहेज में मुँह माँगे रुपये आदि देकर अपनी कन्या का विवाह उस लड़के के साथ कर देते हैं। उस तरह अनेक स्थानों में तिलक-दहेज के नाम पर प्रायः धोखा और विश्वासघात हो रहा है। कितने ही लोग लड़के वाले से इस तरह मिले रहते हैं कि विवाह होने पर दान-दहेज में कमीशन पाते हैं।

इस प्रकार कन्या-विक्रय में दलाली और अनेक धोखेबाजियाँ हुआ करती हैं। वर-विक्रय और कन्या-विक्रय की इस कुप्रथा के कारण बहुत-सी अव्यक्त-वेदना एवं निर्णाक-कुण्ठिता नव-वधुओं के ऊपर जितने अत्याचार हो रहे हैं, उन्हें सुनकर पाषाण हृदय भी कम्पित हो जाता है। जिसका पिता दहेज में अधिक रुपये न दे सके, उस वधू विचारी को तरह-तरह से कोसा जाता है। कहते हैं कि कितने ही घरों में तो बहुएं इसलिए भी जलाकर मार डाली जाती हैं कि नये विवाह में तिलक-दहेज में और भी अधिक रुपये आदि मिलेंगे। वधू कैसे ही गुणवती हो, गृह-कार्य में कैसी ही प्रवीण हो, पर उसकी नितान्त उपेक्षा की जाती है। रुपये पैसे के लिए उसके रूप-लावण्य आदि के गुणों पर पानी फेर दिया जाता है। परिवार के स्त्री-पुरुष सभी उससे घृणा करते हैं। कितनी ही कन्याएं पिता के घर इसलिए छोड़ दी जाती हैं और पति के घर उन्हें नहीं ले जाया जाता, क्योंकि उनके पिता किसी निष्ठुर एवं लोभी लड़के वाले को दहेज में विशेष द्रव्यादि नहीं दे सके। जबकि समाज में कन्याओं का पुनर्विवाह निषिद्ध है तो यह कैसा अन्याय है और हमारे समाज का यह कैसा बड़ा अत्याचार है?

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति दिसम्बर 1950 पृष्ठ 21

👉 On The Karma-Yoga of Gita

Every human being, each one of us, is born in human form to play a specific role, transact some specific duty. This duty and one’s ability to fulfill it depends upon one’s intrinsic character since birth. Honest efforts to do the karmas towards these duties are what could be termed as the gist of Karma Yoga. It was essentially this duty that Arjun was reminded by Lord Krishna in the holy   Bhagvad Gita. Lord Krishna made him aware of the majestic purpose for which Arjun was born on the earth. God has given us the freedom of karma and hence of creating our own future destiny; but we can’t escape transacting the destined duties.

God lives within every living being and triggers the direction of one’s life as per the accumulated effects of one’s past karmas. The molecular or cellular components or the RBCs in our blood are bound to be at the assigned positions and be engaged in specific functions as per their biological nature. They are the parts of our body and hence should be governed by us. But we can’t change their natural properties in any case. Thus, they are independent too… This is how we are also independent in God’s creation.

We have the freedom in choosing our (new) karma despite having to live as per certain destined circumstances, but the results of these would be according to our intentions, aim and nature of our karma as per the absolute law of the Supreme Creator. That is why God says – “Karmanyeva Adhikarste, Ma Phalesu Kadachan”. Those who understand and follow it are karma-yogis. Those who do not, and always expect desired outputs in return of their actions, are, on the contrary, often found complaining their destiny or the world and remain desperate and dismayed most of the time…

📖 Akhand Jyoti, July 1940

👉 संयम

परमात्मा के मार्ग पर चलने के लिए जो उत्सुक होते हैं, वे प्रायः आत्मपीड़न को साधना समझ लेते हैं। उनकी यही भूल उनके जीवन को विषाक्त कर देती है। प्रभु प्राप्ति संसार के निषेध का रूप ले लेती है। इस निषेध के कारण आत्मा की साधना शरीर को नष्ट करने का सरंजाम जुटाने लगती है। इस नकार दृष्टि से उनका जीवन नष्ट होने लगता है। और उन्हें होश भी नहीं आ पाता कि जीवन का विरोध परमात्मा के साक्षात्कार का पर्यायवाची नहीं है।
  
सच्चाई तो यह है कि देह के उत्पीड़क भी देहवादी ही होते हैं। उन्हें आत्मचिन्तन सूझता ही नहीं है। संसार के विरोधी कहीं न कहीं सूक्ष्म रूप से संसार से ही बँधे होते हैं। अनुभव यही कहता है कि संसार के प्रति भोग दृष्टि जितना संसार से बाँधती है, संसार से विरोध दृष्टि भी उससे कुछ कम नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा बाँधती है।
  
साधना-संसार व शरीर का विरोध नहीं, बल्कि इनका अतिक्रमण एवं उत्क्रान्ति है। यह दिशा न तो भोग की है और न दमन की है। यह तो इन दोनों दिशाओं से भिन्न एक तीसरी ही दिशा है। यह दिशा आत्मसंयम की है। दोनों बिन्दुओं के बीच मध्य बिन्दु खोज लेना संयम है। पूरी तरह से जो मध्य में है, वही अतिक्रमण या उपरामता है। इन दोनों के पार चले जाना है।
  
भोग या दमन की अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। भोग हो या दमन दोनों ही जीवन को नष्ट कर देते हैं। अति ही अज्ञान है, यही अन्धकार है, यही विनाश है। जो इस सच को जान जाता है वह भोग और दमन दोनों को ही छोड़ देता है। ऐसा करते ही उसके सब तनाव स्वाभाविक ही विलीन हो जाते हैं। उसे अनायास ही मिल जाता है- स्वाभाविक, सहज एवं स्वस्थ जीवन। संयम को उपलब्ध होते ही जीवन शान्त व निर्भार हो जाता है। उसकी मुस्कराहट कभी मुरझाती नहीं। जिसने स्वयं में संयम की समझ पैदा कर ली वह खुशियों की खिलखिलाहट से भर उठता है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०४

👉 दांपत्य जीवन में कलह से बचिए (अन्तिम भाग)

इस झगड़े का एकमात्र हल यह है कि स्त्री, पुरुष को और पुरुष, स्त्री को अपने मन की अधिकाधिक उदार भावना से बरतें। जैसे किसी व्यक्ति का एक हाथ या एक पैर कुछ कमजोर, रोगी या दोषपूर्ण हो तो वह उसे न तो काटकर फेंक देता है, न कूट डालता है और न उससे घृणा, असंतोष, विद्वेष आदि करता है, अपितु उस विकृत अंग को अपेक्षाकृत अधिक सुविधा देने और उसके सुधारने के लिए स्वस्थ भाग को भी थोड़ी उपेक्षा कर देता है। यही नीति अपने कमजोर साथी के प्रति बरती जाए तो झगड़े का एक भारी कारण दूर हो जाता है।

झगड़ा करने से पहले आपसी विचार-विनिमय के सब प्रयोगों को अनेक बार कर लेना चाहिए। कोई वज्र मूर्ख और घोर दुष्ट प्रकृति के मनुष्य तो ऐसे हो सकते हैं जो दंड के अतिरिक्त और किसी वस्तु से नहीं समझते, पर अधिकांश मनुष्य ऐसे होते हैं, जो प्रेमभावना के साथ, एकांत स्थान में सब ऊँच-नीच समझाने से बहुत कुछ समझ और सुधर जाते हैं। जो थोड़ा-बहुत मतभेद रह जाए उसकी उपेक्षा करके उन बातों को ही विचार क्षेत्र में आने देना चाहिए जिनमें मतैक्य है। संसार में रहने का यही तरीका है कि एकदूसरे के सामने थोड़ा-थोड़ा झुका जाए और समझौते की नीति से काम लिया जाए। महात्मा गांधी, उच्चकोटि के आदर्शवादी और संत थे, पर उनके ऐसे भी अनेकों सच्चे मित्र थे जो उनके विचार और कार्यों से मतभेद् ही नहीं विरोध भी रखते थे। यह मतभेद उनकी मित्रता में बाधक न होते थे। ऐसे ही उदार समझौतावादी नीति के आधार पर आपसी सहयोग-संबंधों को कायम रखा जा सकता है।

इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि साथी में दोष-दुर्गुण हों उनकी उपेक्षा की जाए और उन बुराइयों को अबाध रीति से बढ़ने दिया जाए। ऐसा करना तो एक भारी अनर्थ होगा। जो पक्ष अधिक बुद्धिमान, विचारशील एवं अनुभवी है उसे अपने साथी को सुसंस्कृत, समुन्नत, सद्गुणी बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही अपने आप को भी ऐसा मधुरभाषी, उदार, सहनशील एवं निर्दोष बनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए कि साथी पर अपना समुचित प्रभाव पड़ सके। जो स्वयं अनेक बुराइयों में फँसा हुआ है, वह अपने साथी को सुधारने में सफल कैसे हो सकता है? सती सीता परमसाध्वी उच्चकोटि की पतिव्रता थीं, पर उनके पतिव्रता होने का एक कारण यह भी था कि एकपत्नी व्रतधारी अनेक सद्गुणों से संपन्न राम की धर्मपत्नी थीं। रावण स्वयं दुराचारी था उसकी स्त्री मन्दोदरी सर्वगुणसंपन्न एवं परम बुद्धिमान होते हुए भी पतिव्रता न रह सकी। रावण के मरते ही उसने विभीषण से पुनर्विवाह कर लिया।

जीवन की सफलता, शांति, सुव्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि हमारा दाम्पत्य जीवन सुखी और संतुष्ट हो। इसके लिए आरंभ में ही बहुत सावधानी बरती जानी चाहिए और गुण-कर्म की समानता के आधार पर लड़के-लड़कियों के जोड़े चुने जाने चाहिए। अच्छा चुनाव होने पर भी पूर्ण समता तो हो नहीं सकती, इसलिए हर एक स्त्री-पुरुष के लिए इस नीति को अपनाना आवश्यक है कि अपनी बुराइयों को कम करे साथी के साथ मधुरता, उदारता और सहनशीलता का आत्मीयतामय व्यवहार करे, साथ ही उसकी बुराइयों को कम करने के लिए धैर्य, दृढ़ता और चतुरता के साथ प्रयत्नशील रहे। इस मार्ग परं चलने से असंतुष्ट दाम्पत्य-जीवन में संतोष की मात्रा बढ़ेगी और संतुष्ट दंपती स्वर्गीय जीवन का आनंद उपलब्ध करेंगे।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा

शुक्रवार, 13 मार्च 2020

👉 जीवन का सत्य


जीवन की नश्वरता को जो जान लेते हैं, वे सत्य को समझ लेते हैं। जिन्हें भी सत्य की अनुभूति हुई है, उन सबने यही कहा है कि जीवन झाग का बुलबुला है। जो इस घड़ी है, अगली घड़ी मिट जाएगा। जो इस नश्वर को शाश्वत मान लेते हैं, वे इसी में डूबते और नष्ट हो जाते हैं। लेकिन जो इसके सत्य के प्रति सजग होते हैं, वे एक ऐसे जीवन को पा लेने की शुरुआत करते हैं, जिसका कोई अन्त नहीं है।
  
जीवन के इस सत्य का अनुभव करने वाले एक फकीर को किसी बादशाह ने कैद कर लिया। कैद की वजह यह थी कि उसने बादशाद के सामने सत्य बातें कह दी थीं। बादशाह को फकीर का कहा हुआ सच अप्रिय लगा, सो उसने उसे कैद कर लिया। उस फकीर के एक मित्र ने उससे कहा- आखिर यह बैठे-बिठाये मुसीबत क्यों मोल ले ली। न कहते वे सब बातें, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता। अपने मित्र की बातें सुनकर फकीर हँस पड़ा और बोला- मैं करूँ भी तो क्या? जब से खुदा का दीदार हुआ है, तब से झूठ बेमानी हो गया है। कोशिश करने पर भी झूठ बोला ही नहीं जाता।
  
परमात्मा की सत्ता ही कुछ ऐसी है कि उसे अनुभव करने के बाद असत्य का ख्याल ही नहीं आता। सत्य के अतिरिक्त अब जीवन में कोई विकल्प नहीं है। फिर-इस कैद का क्या? यह कैद तो बस घड़ी भर की है। फकीर की कही हुई यह बात  जेल के किसी सिपाही ने सुन ली और बादशाह को बता भी दी। इसे सुनकर उस बादशाह ने कहा- उस पागल फकीर से कहना कि यह कैद घड़ी भर की नहीं, बल्कि जीवन भर की है। फकीर ने जब बादशाह के इस कथन को सुना तो जोर से हँस पड़ा और बोला- अरे भाई! उस बादशाह से कहना कि उस पागल फकीर ने कहा है कि क्या जिन्दगी घड़ी भर से ज्यादा की है? सचमुच ही जो जीवन का सत्य पाना चाहते हैं उन्हें जीवन की यह सच्चाई जाननी ही पड़ती है। इसे समझकर वे अनुभव कर पाते हैं कि एक स्वप्न से अधिक न तो जीवन की कोई सत्ता है और न ही जीवन का सत्य।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २०३

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...