सोमवार, 17 जुलाई 2017

👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: १७

🌹  बोलिए कम, करिए अधिक

🔵  ‘हमारी कोई सुनता नहीं, कहते कहते थक गए पर सुनने वाले कोई सुनते नहीं अर्थात् उन पर कुछ असर ही नहीं होता’- मेरी राय में इसमें सुनने वाले से अधिक दोष कहने वाले का है। कहने वाले करना नहीं चाहते। वे अपनी ओर देखें। आत्म निरीक्षण कार्य की शून्यता की साक्षी दे देगा। वचन की सफलता का सारा दारोमदार कर्मशीलता में है।

🔴 आप चाहे बोले नहीं, थोड़ा ही बोलें पर कार्य में जुट जाइये। आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि लोग बिना कहे आपकी ओर खिंचे आ रहे हैं। अत: कहिए कम,, करिए अधिक। क्योंकि बोलने का प्रभाव तो क्षणिक होगा और कार्य का प्रभाव स्थाई होता है।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 Lose Not Your Heart Day 17

🌹  Speak Less, Do More
🔵 Many people complain that no one listens to them. They say that their comments go unheeded and their thoughts unappreciated, and that they are tired of being ignored. The fault here lies in the speaker and not the listener. This is a demonstration of ignorance. Such people should first find their own faults by introspection. This will make their terrible lack of knowledge clear.

When you know how to carry out your work and lead by example, your instructions will be followed. Speak little, if at all, but above all involve yourself in your work, and your work will speak for you and call others to follow your example. Therefore speak less, do more: the effect pf speech is fleeting, whereas the effect of your work will be long-lasting.

🌹 ~Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 आत्मचिंतन के क्षण 17 July

🔴 आकांक्षाओं के अनुरूप परिस्थितियाँ उपलब्ध कर लेना हर किसी के लिए संभव नहीं, ऐसे सुयोग तो किसी विरलों को ही मिलते हैं। आकाँक्षाओं पर कोई प्रतिबंध नहीं, एक गरीब आदमी बे रोक टोक राजा बनने के सपने देख सकता है। पर इसके लिए जिस योग्यता, परिस्थिति, एवं साधना सामग्री की जरूरत है उसे जुटा लेना कठिन है, हमारी आकाँक्षाएं बहुधा ऐसी होती हैं जिनका वर्तमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाता इसलिए उनका पूरा होना प्रायः बहुत कठिन होता है। ऐसे बुद्धिमान लोग विरले ही होते हैं जो अपनी वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप आकाँक्षाएं करते हैं और उनके पूर्ण होने पर सफलता एवं प्रसन्नता का सुख अनुभव करते हैं।

🔵 दुख और क्लेशों की आग में जलने से बचने की जिन्हें इच्छा है उन्हें पहला काम यह करना चाहिए कि अपनी आकाँक्षाओं को सीमित रखें। अपनी वर्तमान परिस्थिति में प्रसन्न और संतुष्ट रहने की आदत डालें। गीता के अनासक्त कर्मयोग का तात्पर्य वही है कि महत्वाकांक्षायें वस्तुओं की न करके केवल कर्तव्य पालन की करें। यदि मनुष्य किसी वस्तु की आकाँक्षा करता है और उसे प्राप्त भी कर लेता है तो उस प्राप्ति के समय उसे बड़ी प्रसन्नता होती है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति सर्वांगीण आत्मोन्नति के प्रयत्न कर कर्तव्य पालन करने की आकाँक्षा करे तो उसे सफलता मिलते समय मिलने वाले आनन्द की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती, वरन् जिस क्षण में कर्तव्य पालन आरम्भ करता है उसी समय से आकाँक्षा की पूर्ति आरम्भ हो जाती है और साथ ही सफलता का आनन्द भी मिलता चलता है।

🔴 वही दुःखी है जिसकी तृष्णा विशाल है, जो नित्य नई-नई चीजों, विलास सामग्रियों की कामना किया करता है रुपये की प्राप्ति की दुर्दमनीय इच्छा की पूर्ति के लिए दिन रात कोल्हू के बैल की तरह जुता रहता है। तृष्णा दुःख का मूल है। गरीब वह नहीं है, जिसके पास कम है, बल्कि वह जो अधिक चाहता है। धनवान होते हुए भी जिसकी धनेच्छा दूर नहीं हुई, वह सबसे अधिक अभागा है। वह भी एक प्रकार के नर्क में निवास करता है। जिसने अपनी कामनाओं और वासनाओं का दमन करके मन को जीत लिया है, उसने स्वर्ग पाया है।
                                        
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 लज्जा ही नारी का सच्चा आभूषण है

मगध की सौंदर्य साम्राज्ञी वासवदत्ता उपवन विहार के लिये निकली। आज का साज-शृंगार उस राज-वधू की तरह था जो पहली बार ससुराल जाती हैं।

एकाएक दृष्टि उपवन-ताल के किनारे स्फटिक शिला पर बैठे तरुण संन्यासी उपगुप्त पर गई। दीवारी ने बाह्य सौन्दर्य को अनिर्दिष्ट कर लिया था और उस आनन्द में कुछ ऐसा निमग्न हो गया कि उसे बाह्य जगत् की कोई सुध न रही थी।

हवा में पायल की स्वर झंकृति और सुगन्ध की लहरें पैदा करती वासवदत्ता समीप जा खड़ी हुई। भिक्षु के नेत्र खोले। वासवदत्ता ने चपल-भाव से पूछा-महामहिम बतायेंगे नारी का सर्वश्रेष्ठ आभूषण क्या है?”

“जो उसके सौंदर्य को सहज रूप से बड़ा दे-तपस्वी ने उत्तर दिया।

सहज का क्या अर्थ है? चंचल नेत्रों को उपगुप्त पर डालती वासवदत्ता ने फिर प्रश्न दोहराया।

उपगुप्त ने सौम्य मुस्कान के साथ कहा-देवि आत्मा जिन गुणों को बिना किसी बाह्य इच्छा, आकर्षण, भय, या छल के अभिव्यक्त करे, उसे ही सहज भाव कहते हैं, सौंदर्य को जो बिना किसी कृत्रिम साधन के बढ़ाता हो, नारी का वह भाव ही सच्चा आभूषण है।”

किन्तु वह भी वासवदत्ता समझ न सकी। उसने कहा-मैं स्पष्ट जानना चाहती हूँ, यों पहेलियों में आप मुझे न उलझायें।”

उपगुप्त अब कुछ गम्भीर हो गये और बोले-भद्रे यदि आप और स्पष्ट जानना चाहती हैं तो इन कृत्रिम सौंदर्य परिधान और आभूषणों को उतार फैकिये।”

पैरों की थिरकन के साथ वासव ने एक-एक आभूषण उतार दिये। संन्यासी निर्निमेष वह क्रीड़ा देख रहा था, निश्छल, मौन, विचार-मग्न वासवदत्ता ने अब परिधान उतारने भी प्रारम्भ कर दिये। साड़ी, चुनरी, लहंगा और कंचुकी सब उत्तर गये। शुभ्र निर्वसन देह के अतिरिक्त शरीर पर कोई पट-परिधान शेष नहीं रहा। तपस्वी ने कहा-देवि किंचित् मेरी ओर तो देखिये।” किन्तु इस बार वासवदत्ता लज्जा से आविर्भूत ऊपर को सिर न उठा सकी। तपस्वी ने कहा-देवि यही, लज्जा ही नारी का सच्चा आभूषण है।” और जब तक उसने वस्त्राभूषण पुनः धारण किये, उपगुप्त वहाँ से जा चुके थे।

अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1969 पृष्ठ 7

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👉 भगवान शिव और उनका तत्त्वदर्शन (भाग 3)

🔵 भगवान शंकर का अंतरंग रूप क्या है? उसकी फिलॉसफी क्या है? भगवान शंकर का रूप गोल बना हुआ है। गोल क्या है—ग्लोब। यह सारा विश्व ही तो भगवान् है। अगर विश्व को इस रूप में मानें तो हम उस अध्यात्म के मूल में चले जाएँगे जो भगवान राम और कृष्ण ने अपने भक्तों को दिखाया था। गीता के अनुसार जब अर्जुन मोह में डुबा हुआ था, तब भगवान ने अपना विराट् रूप दिखाया और कहा—यह सारा विश्व-ब्रह्माण्ड जो कुछ भी है, मेरा ही रूप है। एक दिन यशोदा कृष्ण को धमका रही थी कि तैने मिट्टी खाई है। वे बोले—नहीं, मैंने मिट्टी नहीं खाई और उन्होंने मुँह खोलकर सारा विश्व-ब्रह्माण्ड दिखाया और कहा—यह मेरा असली रूप है।

🔴 भगवान राम ने भी यही कहा था। रामायण में वर्णन आता है कि माता-कौशल्या और काकभुशुण्डि जी को उन्होंने अपना विराट् रूप दिखाया था। इसका मतलब यह है कि हमें सारे विश्व को भगवान की विभूति, भगवान का स्वरूप मानकर चलना चाहिए। शंकर की गोल पिंडी उसी का छोटा-सा स्वरूप है जो बताता है कि यह विश्व-ब्रह्माण्ड गोल है, एटम गोल है, धरती माता-विश्वमाता गोल है। इसको हम भगवान का स्वरूप मानें और विश्व के साथ वह व्यवहार करें जो हम अपने लिए चाहते हैं दूसरों से, तो मजा आ जाए। फिर हमारी शक्ति, हमारा ज्ञान, हमारी क्षमता वह हो जाए जो शंकर भक्तों की होनी चाहिए।

🔵 भगवान शंकर के स्वरूप का कैसा-कैसा सुन्दर चित्रण मिलता है? शिवजी की जटाओं में से गंगा प्रवाहित हो रही है। गंगा का मतलब है—ज्ञान की गंगा। पानी बालों में से प्रवाहित नहीं होता, यदि होगा तो आदमी डूब जाएगा, पैदल नहीं चल सकेगा। इसका मतलब यह है कि शंकर-भक्त के मस्तिष्क में से ज्ञान की गंगा प्रवाहित होनी चाहिए, उसकी विचारधारा उच्चकोटि की और उच्चस्तरीय होनी चाहिए। घटिया किस्म के आदमी जिस तरीके से विचार करते हैं, जिनकी जिंदगी का मकसद केवल एक ही है कि किसी तरीके से पेट भरना चाहिए और औलाद पैदा करनी चाहिए, शंकर जी के भक्त को उस तरह के विचार करने वाला नहीं होना चाहिए।

🔴 जो कोई ऊँची बात सोच नहीं सकते, देश की, समाज की, धर्म की, लोक-परलोक की बात, कर्तव्य-फर्ज की बात जिनकी समझ में नहीं आती, उनको इनसान नहीं हैवान कहेंगे और ज्ञान की गंगा जिन लोगों के मस्तिष्क में से प्रवाहित होती है, उनका नाम शंकर का भक्त होता है। हमारे और आपके मस्तिष्क में से भी ज्ञान की गंगा बहनी चाहिए, जो हमारी आत्मा को शांति और शीतलता दे सकती है और पड़ोस के लोगों को, समीपवर्ती लोगों को उसमें स्नान कराकर पवित्र बना सकती है। यदि हमारा मस्तिष्क ऐसा व्यवहार करता हो तो जानना चाहिए कि शंकर जी की छवि आपने घरों में टाँग रखी है, उसके मतलब को, उसकी फिलॉसफी को जान लिया और समझ लिया है।  

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 30)

🌹  समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे।

🔴 सुसंस्कारिता के लिए चार आधारों को प्रमुख माना गया है— (1) समझदारी, (२) ईमानदारी, (३) जिम्मेदारी, (४) बहादुरी। इन्हें आध्यात्मिक- आंतरिक वरिष्ठता की दृष्टि में उतना ही महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए जितना कि शरीर के लिए अन्न, जल, वस्त्र और निवास को अनिवार्य समझा जाता है।

🔵 समझदारी का तात्पर्य है- दूरदर्शी विवेकशीलता का अपनाया जाना। आमतौर से लोग तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मानते हैं और उसके लिए अनाचार भी अपना लेते हैं। इससे भविष्य अंधकारमय बनता है और व्यक्तित्व का स्तर एक प्रकार से हेय ही बन जाता है। अदूरदर्शिता तुर्त- फुर्त अधिक सुविधा सम्पादन के लिए लालायित रहती है और इस उतावली में ऐसे काम करने में भी नहीं झिझकती, जिनकी भावी परिणति बुरे किस्म की हो सकती है। मूर्ख चिड़ियाँ और मछलियाँ इसी दुर्बुद्धि के कारण तनिक से प्रलोभन में अपनी जिंदगी देती देखी गई हैं।

🔴 चटोरे व्यक्ति इसी ललक में अपनी स्वास्थ्य संपदा को तहस- नहस कर लेते हैं। यौनाचार में अतिवाद बरतने वाले लोग, जवानी में ही बूढ़े खोखले होकर अकाल मृत्यु के मुँह में चले जाते हैं। अपराधी तत्त्वों में से अधिकांश लोग इसी मनोवृत्ति के होते हैं। पढ़ने का समय आवारागर्दी में गुजार देने वाले व्यक्ति जवानी में ही दर- दर की ठोकरें खाते हैं। नशेबाजी भी इसी मूर्खता को अपना कर धीमी आत्म हत्या करने में बेधड़क लगे रहते हैं। ऐसी नासमझी के रहते आज का, अभी का लाभ ही सब कुछ दीख पड़ता है और भविष्य की संभावनाओं की संदर्भ में सोचने तक की फुर्सत नहीं मिलती।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 125)

🌹  चौथा और अंतिम निर्देशन

🔵 चौथी बार गत वर्ष पुनः हमें एक सप्ताह के लिए हिमालय बुलाया गया। सन्देश पूर्ववत् सन्देश रूप में आया। आज्ञा के परिपालन में विलम्ब कहाँ होना था। हमारा शरीर सौंपे हुए कार्यक्रमों में खटता रहा है, किन्तु मन सदैव दुर्गम हिमालय में अपने गुरु के पास रहा है। कहने में संकोच होता है, पर प्रतीत ऐसा ही होता है कि गुरुदेव का शरीर हिमालय में रहता है और मन हमारे इर्द-गिर्द मँडराता रहता है। उनकी वाणी अन्तराल में प्रेरणा बनकर गूँजती रहती है। उसी चाबी के कसे जाने पर हृदय और मस्तिष्क का पेण्डुलम धड़कता और उछलता रहता है।

🔴 यात्रा पहली तीनों बार की ही तरह कठिन रही। इस बार साधक की परिपक्वता के कारण सूक्ष्म शरीर को आने का निर्देश मिला था। उसी काया को एक साथ तीन परीक्षाओं को पुनः देना था। साधना क्षेत्र में एक बार उत्तीर्ण हो जाने पर पिसे को पीसना भर रह जाता है। मार्ग देखा भाला था। दिनचर्या बनी बनाई थी। गोमुख से साथ मिल जाना और तपोवन तक सहज जा पहुँचना यही क्रम पुनः चला। उनका सूक्ष्म शरीर कहाँ रहता है, क्या करता है यह हमने कभी नहीं पूछा। हमें तो भेंट का स्थान मालूम है, मखमली गलीचा। ब्रह्मकमल की पहचान हो गई थी। उसी को ढूँढ़ लेते और उसी को प्रथम मिलन पर गुरुदेव के चरणों पर चढ़ा देते।

🔵 अभिवन्दन-आशीर्वाद के शिष्टाचार में तनिक भी देर न लगती और काम की बात तुरन्त आरम्भ हो जाती। यही प्रकरण इस बार भी दुहराया गया। रास्ते में मन सोचता आया कि जब भी जितनी बार भी बुलाया गया है तभी पुराना स्थान छोड़कर अन्यत्र छोड़कर अन्यत्र जाना पड़ा है। इस बार भी सम्भवतः वैसा ही होगा। शान्तिकुञ्ज छोड़ने के उपरान्त सम्भवतः अब इसी ऋषि प्रदेश में आने का आदेश मिलेगा और इस बार कोई काम पिछले अन्य कामों की तुलना में बड़े कदम के रूप में उठाना होगा। रास्ते के संकल्प विकल्प थे। अब तो प्रत्यक्ष भेंट हो रही थी।
  
🔴 अब तक के कार्यों पर उनने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। हमने इतना ही कहा-‘‘काम आप करते हैं और श्रेय मुझ वानर जैसे को देते हैं। समग्र समर्पण कर देने के उपरान्त यह शरीर और मन दीखने भर के लिए ही अलग हैं, वस्तुतः यह सब कुछ आपकी ही सम्पदा है। जब जैसा चाहते हैं, तब वैसा तोड़-मोड़कर आप ही उपयोग कर लेते हैं।’’

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/My_Life_Its_Legacy_and_Message/v4.19

👉 भगवान प्रेम स्वरूप हैं। (भाग 1)

🔵 कुछ लोगों की धारणा है कि भगवान ही दंड दिया करते हैं परन्तु वास्तव में भगवान किसी को दंड नहीं देते। मनुष्य स्वयं ही कर्मवश अपने आपको दंड देता है। जब कभी यह कोई बुरा कार्य अपनी इन्द्रियों के वशीभूत होकर बिना विचारे किया करता है तब उसे उसका फल मिला करता है। यदि कार्य बुरा होता है तो फल भी दंड रूप में मिलता है और यदि कर्म अच्छा होता है तो फल यश रूप में प्राप्त होता है।

🔴 भगवान प्रेम स्वरूप है। सारा संसार उन प्रभु की रचित माया ही है। जब भगवान प्रेम स्वरूप हैं तब दंड कैसे दे सकते हैं? भगवान कदापि दंड नहीं देते। विश्व-कल्याण के लिए विश्व का शासन कुछ सनातन नियमों द्वारा होता है जिन्हें हम धर्म का रूप देते हैं तथा धर्म के नाम से पुकारते हैं। धर्म किसे कहते हैं?-”जो धारण करे” यानी जिसके धारण करने से किसी वस्तु का अस्तित्व बना रहे वही धर्म है।

🔵 अग्नि का धर्म प्रकाश व उष्णता देना है। परन्तु यदि वह प्रकाश व उष्णता नहीं दे तो वह तो राख अथवा कोयले का ढेर मात्र ही रह सकता है क्योंकि वह अपने को छोड़ चुकी है। ठीक यही दशा मानव की है। वह भी धर्म रजु द्वारा बंधा रहता है। जब कभी वह अपना धर्म त्यागता है उसे अवश्य ही हानि उठानी पड़ती है और वह दंड विधान बन कर उसे आगाह करती है। मनुष्य मार्ग की मानवता का आधार धर्म ही है। जब जानबूझकर अथवा असावधानी वश सनातन नियमों का उल्लंघन किया जाता है। तब अवश्य ही दंड का भागी बनना पड़ता है। भगवान को व्यर्थ ही दोषी ठहराना अनुचित है।

🔴 भगवान कल्याणमय हैं तथा उनके नियम भी कल्याणमय हैं। जब उन नियमों का उचित प्रकार पालन नहीं किया जाता तब ही दंड चेतावनी के रूप में मिला करते हैं परन्तु मूर्खता व अज्ञानवश मनुष्य इतने पर भी नहीं संभलता और एक के बाद दूसरा नियम भी खंडित करता जाता है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...