बुधवार, 19 अप्रैल 2023

👉 क्रोध हमारा आन्तरिक शत्रु है (भाग 6)

विचार प्रायः दो प्रकार के होते हैं (1) शान्त और दृढ़ तथा (2) संशयात्मक और डाँवाडोल। दूसरे प्रकार की स्थिति उद्वेग और शंकाशील है। इसी में क्रोध भी सम्मिलित है। उस उद्विग्न मनः स्थिति में मनुष्य कुछ भी उत्कृष्ट बात नहीं सोच सकता, उन्नति की भावना में संलग्न नहीं हो सकता। उसकी शारीरिक मशीनरी यकायक झंकृत हो उठती है। वह समूचा काँप उठता है।

धर्म नीति और शिष्टाचार-तीनों ही दृष्टिकोणों से क्रोध निकृष्ट है। क्रोधी मनुष्य धर्म कार्य किस प्रकार कर सकता है? उसमें धर्म निष्ठा, पूजन, मनन कीर्तन, अध्ययन, चिंतन, इत्यादि कैसे आ सकते है? जिसका शरीर और मन वश में नहीं वह नीति के अनुसार सत्-असत् का विवेक किस प्रकार कर सकता है? जिसे क्रोध आता है वह दूसरे के मान अपमान का विचार क्या करेगा।

एक विद्वान् का विचार है- “एक का क्रोध दूसरे में भी क्रोध का संचार करता हैं। जिसके प्रति क्रोध प्रदर्शन होता है, वह तत्काल अभाव का अनुभव करता है और इस दुःख पर उसकी त्यौरी चढ़ जाती है। यह विचार करने वाले बहुत थोड़े निकलते हैं कि हम पर जो क्रोध प्रकट किया जा रहा है, वह उचित है या अनुचित। इसी से धर्म और नीति में क्रोध के निरोध का उपदेश पाया जाता है। संत लोग तो खलों के वचन सहते ही हैं, दुनियादार लोग भी न जाने जितनी ऊँची-नीची पचाते रहते हैं। सभ्यता के व्यवहार में भी क्रोध नहीं तो, क्रोध के चिन्ह दिखाये दबाये जाते हैं। इस प्रकार का प्रतिबन्ध समाज की सुख−शांति के लिए बहुत आवश्यक है।

.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 18


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👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 19 April 2023

अंतःकरण में पापकर्म के संकल्प का उदय होते ही आत्मा में एक बेचैनी पैदा होने लगती है। उसका विवेक बार-बार धिक्कारता और भर्त्सना करता है। मनुष्य सुख-चैन की नींद खो देता है। उसकी अंतरात्मा बार-बार पुकार करती है कि तेरा यह संकल्प, यह विचार, यह भावना उचित नहीं, इनकी पूर्ति तेरे लिए अकल्याणकर परिस्थितियाँ पैदा करेंगी, पाप कर्म के लिए मनुष्य का यह आदि अंतर्द्वन्द्व कितना दुःखद, कष्टकर तथा मानसिक क्षय करने वाला होता है, इसको तो कोई भुक्त भोगी ही बतला सकता है।

भलाई के कार्यों में कुछ कमी है तो उतनी कि उसके परिपाक में कुछ समय लगता है। शुभ कर्म का फल समय के गर्भ में जब तक पक नहीं जाता, तब तक उसकी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। कम स्वादिष्ट, कम उपयोगी फलों के वृक्ष एक वर्ष में ही काफी बड़े हो जाते हैं, किन्तु स्वादिष्ट आम धीरे-धीरे बढ़ता है, काफी समय के बाद फूलता और फल देता है। शुभ कर्मों के फल भी विलम्ब से प्राप्त होते हैं, किन्तु उनसे प्राप्त होने वाले आनंद में आम के फल की तरह कोई संदेह नहीं होता।

किसी भी विशिष्ट व्यक्ति, वस्तु अथवा स्थान का देखना अथवा दिव्यता का दर्शन करना तभी सार्थक होता है, जब उसके गुणों अथवा विशेषताओं को सूक्ष्मता से देखें, उनकी महत्ता को समझें, हृदयंगम करें और जीवन विकास के लिए उनसे प्रेरणा एवं शिक्षा ग्रहण करें अन्यथा उथला एवं दृग दर्शन कौतूहल तृप्ति के अतिरिक्त अधिक लाभ न कर सकेगा।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...