विचार से भी परे
परब्रह्म एक ऐसी चेतना है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर एक नियम व्यवस्था के रूप में ओत-प्रोत हो रही है। उसके सारे क्रिया-कलाप एक सुनियोजित विधि-विधान के अनुसार गतिशील हो रहे हैं। उन नियमों का पालन करने वाले अपनी बुद्धिमत्ता अथवा ईश्वर की अनुकम्पा का लाभ उठाते हैं। भगवान की बिजली से उपमा दी जा सकती है। बिजली का ठीक उपयोग करने पर उससे अनेक प्रकार के यन्त्र चलाये और लाभ उठाये जा सकते हैं। पर निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया जाय तो बिजली उन्हीं भक्त सेवकों की जान ले लेती है, जिनने उसे घर बुलाने में ढेरों पैसा, मनोयोग एवं समय लगाया था। उपासना ईश्वर को रिझाने के लिए नहीं, आत्मपरिष्कार के लिए की जाती है। छोटी मोटर में कम पावर रहती है और थोड़ा काम होता है। बड़ी मोटर लगा देने से अधिक पावर मिलने लगती है और ज्यादा लाभ मिलता है। बिजली घर में तो प्रचण्ड विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। उससे गिड़गिड़ा कर अधिक शक्ति देने की प्रार्थना तब तक निरर्थक ही जाती रहेगी जब तक घर का फिटिंग मीटर, मोटर आदि का स्तर ऊंचा न उठाया जाय। प्रार्थना के सत्परिणामों की बहुत चर्चा होती रहती है। भगवत् कृपा के अनेक चमत्कारों का वर्णन सुनने को मिलता रहता है। उस सत्य के पीछे यह तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा कि भक्त ने पूजा उपासना के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न की और उस श्रद्धा ने उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व को देवोपम बना दिया। जहां यह शर्त पूरी की गई हैं वहीं निश्चित रूप से ईश्वरीय अनुकम्पा की वर्षा भी हुई है, पर जहां फुसलाने की धूर्तता को भक्ति का नाम दिया गया है वहां निराशा ही हाथ लगी है।
ईश्वर का सृष्टि विस्तार अकल्पनीय है। उसमें निवास करने वाले प्राणियों की संख्या का निर्धारण भी असम्भव है। पृथ्वी पर रहने वाले जलचर, थलचर, नभचर, दृश्य, अदृश्य प्राणियों की संख्या कुल मिलाकर इतनी बड़ी है कि उनके अंक लिखते-लिखते इस धरती को कागज बना लेने से भी काम न चलेगा। इतने प्राणियों के जीवन-क्रम में व्यक्तिगत हस्तक्षेप करते रहना—अलग-अलग नीति निर्धारित करना और फिर उसे प्रार्थना उपेक्षा के कारण बदलते रहना ईश्वर के लिये भी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा करने से तो उस पर व्यक्तिवादी द्वेष का आक्षेप लगेगा और सृष्टि संतुलन का कोई आधार ही न रहेगा। ईश्वर ने नियम मर्यादा के बन्धनों में क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में अपनी सारी व्यवस्था बना दी है और उसी चक्र में भ्रमण करते हुये, जीवधारी अपने पुरुषार्थ प्रमाद का भरा बुरा परिणाम भुगतते रहते हैं। ईश्वर दृष्टा और साथी की तरह यह सब देखता रहता है। उसकी जैसी महान् सत्ता के लिये यही उचित है और यही शोभनीय। पूजा करने वालों के प्रति राग और न करने वालों के प्रति उपेक्षा अथवा द्वेष की नीति यदि उसने अपनाई होती तो निश्चय ही इस संसार में भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था का कोई अन्त ही न रहता। जो लोग इस दृष्टि से पूजा उपासना करते हैं कि उसके फलस्वरूप ईश्वर को फुसलाकर उससे मनोवांछाएं पूरी करालीं जायगी, वे भारी भूल करते हैं। पूजा को कर्म व्यवस्था का प्रतिद्वंदी नहीं बनाया जा सकता। भगवान् के अनुकूल हम बनें यह समझ में आने वाली बात है, पर उलटा उसी को कठपुतली बना कर मर्जी मुताबिक नचाने की बात सोचना बचकानी ढिठाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हमें ईश्वर से व्यक्तिगत रागद्वेष की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये वरन् उसकी विधि व्यवस्था के अनुरूप बनकर अधिकाधिक लाभान्वित होने के राजमार्ग पर चलना चाहिये।
भगवान को इष्टदेव बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है लक्ष्य। हम भगवान के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता व्यापकता, व्यवस्था, उत्कृष्टता तत्परता अपनायें, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिये। इस दिशा में जितना मनोयोग पूर्वक आगे बढ़ा जायेगा उसी अनुपात से ईश्वरीय सम्पर्क का आनन्द और अनुग्रह का लाभ मिलेगा। वस्तुतः अध्यात्म साधना का एकमात्र उद्देश्य आत्मसत्ता को क्रमशः अधिकाधिक पवित्र और परिष्कृत बनाते जाना है। यही सुनिश्चित ईश्वर की प्राप्ति और साथ ही उस मार्ग पर चलने वालों को जो विभूतियां मिलती रही हैं, उन्हें उपलब्ध करने का राजमार्ग है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी