मंगलवार, 24 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ५३)

विचार से भी परे

परब्रह्म एक ऐसी चेतना है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर एक नियम व्यवस्था के रूप में ओत-प्रोत हो रही है। उसके सारे क्रिया-कलाप एक सुनियोजित विधि-विधान के अनुसार गतिशील हो रहे हैं। उन नियमों का पालन करने वाले अपनी बुद्धिमत्ता अथवा ईश्वर की अनुकम्पा का लाभ उठाते हैं। भगवान की बिजली से उपमा दी जा सकती है। बिजली का ठीक उपयोग करने पर उससे अनेक प्रकार के यन्त्र चलाये और लाभ उठाये जा सकते हैं। पर निर्धारित नियमों का उल्लंघन किया जाय तो बिजली उन्हीं भक्त सेवकों की जान ले लेती है, जिनने उसे घर बुलाने में ढेरों पैसा, मनोयोग एवं समय लगाया था। उपासना ईश्वर को रिझाने के लिए नहीं, आत्मपरिष्कार के लिए की जाती है। छोटी मोटर में कम पावर रहती है और थोड़ा काम होता है। बड़ी मोटर लगा देने से अधिक पावर मिलने लगती है और ज्यादा लाभ मिलता है। बिजली घर में तो प्रचण्ड विद्युत भण्डार भरा पड़ा है। उससे गिड़गिड़ा कर अधिक शक्ति देने की प्रार्थना तब तक निरर्थक ही जाती रहेगी जब तक घर का फिटिंग मीटर, मोटर आदि का स्तर ऊंचा न उठाया जाय। प्रार्थना के सत्परिणामों की बहुत चर्चा होती रहती है। भगवत् कृपा के अनेक चमत्कारों का वर्णन सुनने को मिलता रहता है। उस सत्य के पीछे यह तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ मिलेगा कि भक्त ने पूजा उपासना के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न की और उस श्रद्धा ने उसके चिन्तन एवं कर्तृत्व को देवोपम बना दिया। जहां यह शर्त पूरी की गई हैं वहीं निश्चित रूप से ईश्वरीय अनुकम्पा की वर्षा भी हुई है, पर जहां फुसलाने की धूर्तता को भक्ति का नाम दिया गया है वहां निराशा ही हाथ लगी है।

ईश्वर का सृष्टि विस्तार अकल्पनीय है। उसमें निवास करने वाले प्राणियों की संख्या का निर्धारण भी असम्भव है। पृथ्वी पर रहने वाले जलचर, थलचर, नभचर, दृश्य, अदृश्य प्राणियों की संख्या कुल मिलाकर इतनी बड़ी है कि उनके अंक लिखते-लिखते इस धरती को कागज बना लेने से भी काम न चलेगा। इतने प्राणियों के जीवन-क्रम में व्यक्तिगत हस्तक्षेप करते रहना—अलग-अलग नीति निर्धारित करना और फिर उसे प्रार्थना उपेक्षा के कारण बदलते रहना ईश्वर के लिये भी सम्भव नहीं हो सकता। ऐसा करने से तो उस पर व्यक्तिवादी द्वेष का आक्षेप लगेगा और सृष्टि संतुलन का कोई आधार ही न रहेगा। ईश्वर ने नियम मर्यादा के बन्धनों में क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में अपनी सारी व्यवस्था बना दी है और उसी चक्र में भ्रमण करते हुये, जीवधारी अपने पुरुषार्थ प्रमाद का भरा बुरा परिणाम भुगतते रहते हैं। ईश्वर दृष्टा और साथी की तरह यह सब देखता रहता है। उसकी जैसी महान् सत्ता के लिये यही उचित है और यही शोभनीय। पूजा करने वालों के प्रति राग और न करने वालों के प्रति उपेक्षा अथवा द्वेष की नीति यदि उसने अपनाई होती तो निश्चय ही इस संसार में भ्रष्टाचार एवं अव्यवस्था का कोई अन्त ही न रहता। जो लोग इस दृष्टि से पूजा उपासना करते हैं कि उसके फलस्वरूप ईश्वर को फुसलाकर उससे मनोवांछाएं पूरी करालीं जायगी, वे भारी भूल करते हैं। पूजा को कर्म व्यवस्था का प्रतिद्वंदी नहीं बनाया जा सकता। भगवान् के अनुकूल हम बनें यह समझ में आने वाली बात है, पर उलटा उसी को कठपुतली बना कर मर्जी मुताबिक नचाने की बात सोचना बचकानी ढिठाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हमें ईश्वर से व्यक्तिगत रागद्वेष की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये वरन् उसकी विधि व्यवस्था के अनुरूप बनकर अधिकाधिक लाभान्वित होने के राजमार्ग पर चलना चाहिये।

भगवान को इष्टदेव बनाकर उसे प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इष्ट का अर्थ है लक्ष्य। हम भगवान के समतुल्य बनें। उसी की जैसी उदारता व्यापकता, व्यवस्था, उत्कृष्टता तत्परता अपनायें, यही हमारी रीति-नीति होनी चाहिये। इस दिशा में जितना मनोयोग पूर्वक आगे बढ़ा जायेगा उसी अनुपात से ईश्वरीय सम्पर्क का आनन्द और अनुग्रह का लाभ मिलेगा। वस्तुतः अध्यात्म साधना का एकमात्र उद्देश्य आत्मसत्ता को क्रमशः अधिकाधिक पवित्र और परिष्कृत बनाते जाना है। यही सुनिश्चित ईश्वर की प्राप्ति और साथ ही उस मार्ग पर चलने वालों को जो विभूतियां मिलती रही हैं, उन्हें उपलब्ध करने का राजमार्ग है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ८४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ५३)

गोपियों के कृष्ण प्रेम का मर्म

उत्सुकता के तीव्र किन्तु मौन स्पन्दन मुखर हो नीरवता को बेधते रहे। अन्तस में एक कशमकश थी। ऐसे कई प्रश्न कंटक थे, जो कई मनों में एक साथ चुभ रहे थे। कहीं नैतिकता एवं आध्यात्मिक भावना में एक द्वन्द भी था। श्रीकृष्ण का गोपीप्रेम अथवा गोपियों की कृष्णभक्ति सामाजिक एवं नैतिक मानदण्डों पर कतनी सार्थक है? श्रीकृष्ण के पूर्ण ब्रह्मतत्त्व से अनभिज्ञ लोग इससे क्या सीखेगें और क्या पाएगें? ये और ऐसे ही अनेक प्रश्न उन ऋषियों-महर्षियों के थे जिन्होंने अपने युग में स्मृतियाँ लिखी थीं-संहिताएँ रचीं थीं। महर्षि आपस्तम्ब इन्हीं में से एक थे। इन्होंने कहा तो कुछ भी नहीं, लेकिन उनके अन्तर्मन में उमड़ रही बेचैनी मुखमण्डल पर सघनता से छा गयी। माथे  पर एक के बाद एक कई लकीरें बनीं और मिटीं।
    
अन्तर्ज्ञान सर्वज्ञता से सम्पन्न सप्तऋषियों का समूह श्रीकृष्ण तत्त्व से सुपरिचित होने के बावजूद देवर्षि की ओर देख रहा था। उन्हें आशा थी कि देवर्षि अपने नए सूत्र में इन प्रश्नों का अवश्य समाधान करेंगे परन्तु देवर्षि अभी तक मौन थे। उनके इस मौन में समाधान की समाधिमयता थी। पर्याप्त देर तक इसी तरह की नीरवता बनी रही। तब कहीं जाकर देवर्षि ने आंखें खोलीं, उनके आँखें खोलते ही हिमवान के इस दिव्य आंगन में भक्ति की उजास छा गयी। उन्होंने अपने आस-पास के वातावरण के स्पन्दनों को अनुभव किया, फिर कहने लगे- ‘‘श्रीकृष्ण परात्पर ब्रह्म हैं, उनसे प्रेम की सघनता न तो सामाजिकता की विरोधक रही है और न ही इससे नैतिक तटबन्ध टूटते हैं।
    
श्रीकृष्ण के मन में गोपियों के प्रति जो प्रेम जगा था, वह परमात्मा का जीवात्माओं के प्रति सहज प्रेम था। गोपियाँ श्रीकृष्ण के सत्य स्वरूप को जानती थीं, उनकी भक्ति में परमात्मा को जीवात्मा द्वारा किए जाने वाले समर्पण का भाव था। इस भक्ति प्रकरण का एक सच यह भी है कि सामाजिकता और नैतिकता की सीमाएँ केवल स्थूल शरीर तक ही सीमित हैं जबकि गोपियों एवं श्रीकृष्ण की भक्ति-प्रेमकथा, कारण शरीर के व्यापक विस्तार में घटित हुई थी। इस तथ्य में साधना का यह सच भी सम्मिलित है कि यदि कोई अपनी वासनाओं को भी भगवान को अर्पित कर देता है तो वे भी रूपान्तरित होकर भक्तिपूर्ण भावनाओं का स्वरूप पा जाती हैं। आज गोपियाँ उसी साधना सच के रूप में साकार थीं।
    
वासना, तृष्णा, अहंता का भगवद्चेतना में समर्पण, विसर्जन एवं विलय मोक्ष के द्वार खोलता है। जबकि गोपिकाएँ तो जन्म-जन्मान्तर से श्रीकृष्ण की भक्त थीं। उन्हें सम्पूर्णतया मालूम था कि गोपनन्द के नन्दन श्रीकृष्ण परमात्मा का साकार विग्रह हैं।’’ अपने इस वाक्य को पूरा करते हुए देवर्षि हंस पड़े। फिर उन्होंने मधुर ध्वनि में अपने नए सूत्र का उच्चारण किया-
‘तद्विहीनं जाराणभिव’॥२३॥
उसके बिना, श्रीकृष्ण के परमात्मस्वरूप को जाने बिना, किया जाने वाला प्रेम व्यभिचारियों के प्रेम के समान होता।

इस सूत्र को पूर्ण करके देवर्षि ने महर्षि आपस्तम्ब की ओर देखा और कहा- ‘‘नीतिकार, स्मृति एवं संहिताओं के रचयिता महर्षियों के अनुभव में यह सच भी होना चाहिए कि महान् उद्देश्यों से जुड़ कर सामान्य संसारी क्रियाएँ एवं भावनाएँ भी महान हो जाती हैं। जबकि छोटे, बौने एवं ओछे उद्देश्यों के लिए किया गया महानता का प्रदर्शन भी घटिया एवं ओछा ही बना रहता है।’’
    
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ९७

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