सबसे पहले शिष्य अपनी महत्त्वाकांक्षा छोड़े
इसीलिए प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्य को पहला निर्देश यही देता है कि महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। छोड़ दो यह ख्याल कि तुम्हें किसी के जैसा होना है। सद्गुरु कहते हैं कि तुम्हें तो सिर्फ एक ही ख्याल होना चाहिए कि तुम्हें परमात्मा ने क्या बनाया है, उसे जानना है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का सनातन अंश है- इस सत्य को अनुभव करना है। इसके लिए किसी और की फोटो कापी बनने की कोई जरूरत नहीं है। आत्मतत्त्व तो सदा ही अपने अन्दर मौजूद है। इसको बस जान लेना है।
आत्मतत्त्व की अनुभूति के लिए अपने आप को स्वयं के सच्चे स्वरूप को अनुभव करने के लिए कुछ जोड़ना नहीं है। सिर्फ कुछ घटाना है। जो कुसंस्कारों का, दुष्प्रवृत्तियों का कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसे गलना भर है। हीरा मौजूद है, कचरे के ढेर में, बस कचरा हटाकर हीरा पहचान लेना है। इसके लिए न तो किसी की नकल करने की जरूरत है और नहीं किसी महत्वाकांक्षा की जरूरत है।
महत्त्वाकांक्षा से सिर्फ तुलना दुःख, ईर्ष्या और हिंसा ही जन्म लेते हैं। जितनी ज्यादा महत्त्वाकांक्षाजिसमें है, वह उतना ही दुःखी और अशान्त रहता है। जर्मन दार्शनिक स्लेगल ने यहाँ तक कह डाला है कि महत्त्वाकांक्षा भयावह बीमारी है। मनुष्य जाति और मानवीय सभ्यता का जितना ज्यादा नुकसान इस बीमारी के कारण हुआ है, उतना किसी और कारण नहीं हुआ। स्लेगल के अनुसार मानव इस बीमारी से जितना जल्दी दूर जाय उतना ही श्रेयस्कर है। सत्य- साधना जिनके जीवन की साध्य है, उन्हें इस अभिशाप को किसी भी तरह अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए।
जिनका जीवन महत्त्वाकांक्षा से कलंकित है, वे कभी भी शिष्य नहीं हो सकते। जिनकी जिन्दगीमहत्त्वाकांक्षा से अभिशप्त है, उन्हें कभी भी सद्गुरु की शरण नहीं मिल सकती। इसलिए शिष्यत्व की साधना करने वालों के लिए महान् गुरु भक्तों का यही निर्देश है कि छोड़े महत्त्वाकांक्षा। छोड़े तुलना की प्रवृत्ति। बस एक ही बात की फिक्र करें कि अपने आपको किस विधि से सम्पूर्णतया सद्गुरु को सौपें? यदि हमारा जीवन महत्त्वाकांक्षा से रहित है तो कृपालु सद्गुरु इसमें से भगवत् सत्ता को प्रकट कर देंगे। आत्मतत्त्व दिव्यता से जीवन अपने आप ही महक उठेगा। स्वयं ही समस्त दिव्यताएँ अस्तित्व में साकार हो सकेंगी। बस आवश्यकता शिष्य संजीवनी के प्रथम सूत्र को आत्मसात् करने की है। इस प्रथम सूत्र पर मनन ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ होगा, त्यों- त्यों हमारी चेतना द्वितीय सूत्र के लिए तैयार हो जायेगी।
क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/all
इसीलिए प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्य को पहला निर्देश यही देता है कि महात्त्वाकांक्षा को दूर करो। छोड़ दो यह ख्याल कि तुम्हें किसी के जैसा होना है। सद्गुरु कहते हैं कि तुम्हें तो सिर्फ एक ही ख्याल होना चाहिए कि तुम्हें परमात्मा ने क्या बनाया है, उसे जानना है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का सनातन अंश है- इस सत्य को अनुभव करना है। इसके लिए किसी और की फोटो कापी बनने की कोई जरूरत नहीं है। आत्मतत्त्व तो सदा ही अपने अन्दर मौजूद है। इसको बस जान लेना है।
आत्मतत्त्व की अनुभूति के लिए अपने आप को स्वयं के सच्चे स्वरूप को अनुभव करने के लिए कुछ जोड़ना नहीं है। सिर्फ कुछ घटाना है। जो कुसंस्कारों का, दुष्प्रवृत्तियों का कचरा इकट्ठा कर लिया है, उसे गलना भर है। हीरा मौजूद है, कचरे के ढेर में, बस कचरा हटाकर हीरा पहचान लेना है। इसके लिए न तो किसी की नकल करने की जरूरत है और नहीं किसी महत्वाकांक्षा की जरूरत है।
महत्त्वाकांक्षा से सिर्फ तुलना दुःख, ईर्ष्या और हिंसा ही जन्म लेते हैं। जितनी ज्यादा महत्त्वाकांक्षाजिसमें है, वह उतना ही दुःखी और अशान्त रहता है। जर्मन दार्शनिक स्लेगल ने यहाँ तक कह डाला है कि महत्त्वाकांक्षा भयावह बीमारी है। मनुष्य जाति और मानवीय सभ्यता का जितना ज्यादा नुकसान इस बीमारी के कारण हुआ है, उतना किसी और कारण नहीं हुआ। स्लेगल के अनुसार मानव इस बीमारी से जितना जल्दी दूर जाय उतना ही श्रेयस्कर है। सत्य- साधना जिनके जीवन की साध्य है, उन्हें इस अभिशाप को किसी भी तरह अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए।
जिनका जीवन महत्त्वाकांक्षा से कलंकित है, वे कभी भी शिष्य नहीं हो सकते। जिनकी जिन्दगीमहत्त्वाकांक्षा से अभिशप्त है, उन्हें कभी भी सद्गुरु की शरण नहीं मिल सकती। इसलिए शिष्यत्व की साधना करने वालों के लिए महान् गुरु भक्तों का यही निर्देश है कि छोड़े महत्त्वाकांक्षा। छोड़े तुलना की प्रवृत्ति। बस एक ही बात की फिक्र करें कि अपने आपको किस विधि से सम्पूर्णतया सद्गुरु को सौपें? यदि हमारा जीवन महत्त्वाकांक्षा से रहित है तो कृपालु सद्गुरु इसमें से भगवत् सत्ता को प्रकट कर देंगे। आत्मतत्त्व दिव्यता से जीवन अपने आप ही महक उठेगा। स्वयं ही समस्त दिव्यताएँ अस्तित्व में साकार हो सकेंगी। बस आवश्यकता शिष्य संजीवनी के प्रथम सूत्र को आत्मसात् करने की है। इस प्रथम सूत्र पर मनन ज्यों- ज्यों प्रगाढ़ होगा, त्यों- त्यों हमारी चेतना द्वितीय सूत्र के लिए तैयार हो जायेगी।
क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
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