सोमवार, 19 दिसंबर 2016
👉 सतयुग की वापसी (भाग 15) 20 Dec
🌹 संवेदना का सरोवर सूखने न दें
🔴 करुणा उभरे बिना दूसरों की स्थिति और आवश्यकता का भान ही नहीं होता। इस अभाव की स्थिति में लकड़ी चीरना और किसी निरपराध की बोटी-बोटी नोंच लेना प्राय: एक जैसा ही लगता है। किसी के साथ अन्याय बरतने में, सताने-शोषण करने में कुछ भी अनुचित प्रतीत नहीं होता। भावना के अभाव में मनुष्य का अन्तराल चट्टान की तरह नीरस-निष्ठुर हो जाता है। संवेदना शून्यों को नर-पशु भी तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पशुओं की भी अपनी मर्यादाएँ होती हैं, जो प्राकृतिक अनुशासन के विपरीत एक कदम भी नहीं उठाते, भले ही मनुष्य की तुलना में उन्हें असमर्थ-अविकसित माना जाता रहे।
🔵 लगता है भाव-श्रद्धाविहीनों के लिए नर-पिशाच ब्रह्म राक्षस, मृत्युदूत, दुर्दांत दैत्य जैसे नामों में से ही किसी का चयन करना पड़ेगा, क्योंकि उन्हीं की आपा-धापी उस स्तर तक पहुँचती है, जिनमें दूसरों के विकास-विनाश से, उत्पीड़न एवं अभिवर्धन से कोई वास्ता नहीं रहता। उनके लिए ‘स्व’ ही सब कुछ बनकर रह जाता है। बस चले तो वे हिरण्याक्ष दैत्य की तरह दुनिया की समूची सम्पदा समेटकर ले उड़ें, भले ही उसे समुद्र में छिपाकर निरर्थक बनाना पड़े। जिनके लिए सभी विराने हैं, वे किसी का कुछ भी अनर्थ कर सकते हैं।
🔴 ऐसा ही पिछले दिनों होता भी रहा है। स्वार्थान्धों से इतना भी सोचते न बन पड़ा कि इस सृष्टि में दूसरे भी रहते हैं और उन्हें भी जीवित रहने दिया जाना चाहिए। सब कुछ अपने लिए समेट लेने, हड़प जाने को ही विशिष्टता का फलितार्थ नहीं मान बैठना चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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