बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

👉 आत्मा, महात्मा और परमात्मा का विकास

महात्मा वह है, जिसके सामान्य शरीर में असामान्य आत्मा निवास करती है। काया की वेशभूषा और चित्र-विचित्र आवरणों का धारण महात्मा होने का न तो आधार है और न लक्षण। सामान्य वेष और सामान्य रहन-सहन के बीच महात्मा के स्तर तक पहुँचा जाना सम्भव है और पहुँचाया जाता भी रहा है।
  
मर्यादाओं से आबद्ध रह कर नागरिक कर्तव्यों का पालन करते रहना उद्धत आचरणों से बचना, शील और सौजन्य को निबाहना यह मनुष्यता का आवश्यक उत्तरदायित्व है। जिन्होंने अपने भीतर आत्मा को समझा है और उसकी गौरव-गरिमा को ध्यान में रखा है। उसे संयम, सदाचार और कर्तव्यनिष्ठïा से जुड़ा हुआ शालीन जीवन जीना ही पड़ेगा।
  
महात्मा की गरिमा इससे अगली मंजिल है। महान का अर्थ है- विशाल व्यापक। जो आत्मा अपने शारीरिक, मानसिक और पारिवारिक कर्तव्यों से आगे बढक़र विश्व मानव के उत्तरदायित्वों को वहन करने के लिए अग्रसर होती है, मानवीय कर्तव्यों से आगे के देव कर्तव्यों को वहन करने के लिए तत्पर होती है वह महात्मा है। महात्मा अपने लिए नहीं सोचता, विराट्ï के लिए सोचता है, अपने लिए नहीं करता, विराट्ï के लिए करता है, अपने लिए जीवित नहीं रहता, विराट्ï के लिए जीता है।
  
अपना शरीर हर छिद्र से मलीनता निष्कासित करता है, पर इसलिए कौन उसे घृणास्पद और त्याज्य ठहरता हैं कि इनमें गन्दगी विद्यमान है। घृणा की आवश्यकता नहीं समझी जाती और शरीर को स्वच्छ करने पर ही ध्यान रहता है। अपनी ही तरह दूसरों की विविध मलीनताओं के रहते जो हेय, घृणास्पद, पतित और त्याज्य नहीं ठहराता वरन्ï अपनी सहज ममता से प्रेरित होकर उसे निर्मल बनाने का श्रम करता है, वह महात्मा है। अपना छोटा बच्चा दिनभर गलती करता रहता है, उसका बहिष्कार नहीं करते और देख-भाल, डाँट-डपट, तोड़-फोड़ के अवसरों की रोकथाम करके जितना सम्भव होता है उस क्षति का बचाव करते हैं। इस पर भी जो हानि होती रहती है उसे सहन करते हैं। छोटे बालकों और अभिभावकों के बीच यह चिर अतीत से चला आ रहा है। दिग्भ्रान्त जन समाज के अनाचरणों के प्रति आक्रोश उत्पन्न किये बिना जो धैर्य और शान्तिपूर्वक विग्रह की रोकथाम पर ध्यान देता है उस उदारमना व्यक्ति को महात्मा कहना चाहिए।
  
हम अपने और अपने प्रियजनों के दु:खों से दु:खी होते हैं। इस क्षेत्र में सुख संवर्धन का प्रयत्न करते हैं। हमें अपना सुख, यश, वैभव, उत्कर्ष प्रिय लगता है और जिन्हें अपना समझते हैं उन्हें भी इसी सुखद स्थिति में रखने के लिए प्रयत्न करते हैं, यह परिधि जब बड़ी हो जाती है और प्यार-दुलार का, ममता-आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ जाता है तो वैसी ही अनुभूति हर किसी के साथ जुड़ जाती है। दूसरों का कष्ट अपना कष्टï लगता है; अपने को सुखी बनाने के लिए जिस प्रकार अपना स्वभाव और चिन्तन सक्रिय रहता है वैसी ही सक्रियता यदि जन साधारण के लिए विकसित हो चले तो समझना चाहिए कि आत्मा ने महात्मा का रूप धारण कर लिया। परायों में जब अपनापन प्रतिभासित होने लगे तो समझना चाहिए कि दिव्य नेत्र खुल गए। जिसका अहन्ता ग्रीष्म की हिम बनकर पिघल जाय, जो पवन जैसा सक्रिय और आकाश जैसा शान्त दिखाई पड़े समझना चाहिए यह महात्मा का ही विग्रह है।
  
जब तक स्व, पर ऊहा-पोह चलता रहता है तब तक आत्मा और महात्मा का प्रेम-प्रसंग, आदान-प्रदान, परिहास, मनुहार चल रहा समझा जाना चाहिए। जब द्वैत की समाप्ति हो जाय और केवल एक ही शेष रहे स्व, पर का अन्तर सोचने की गुंजाइश ही न रहे तब समझना चाहिए उसी काय कलेवर में परमात्मा का अवतार हो गया।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अभ्यास से क्षमताओं का विकास

सतत अभ्यास द्वारा शरीर एवं मन को इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है तथा उन्हें असामान्य कार्यों के कर सकने के लिए भी सहमत किया जा सकता है। प्रतिभा-योग्यता के विकास में बुद्धि आवश्यक तो है, सर्वसमर्थ नहीं। बुद्धिमान होते हुए भी विद्यार्थी यदि पाठ याद न करे, पहलवान व्यायाम को छोड़ दे, संगीतज्ञ, क्रिकेटर अभ्यास करना छोड़ दें, चित्रकार तूलिका का प्रयोग न करे, कवि भाव संवेदनाओं को सँजोना छोड़ बैठे, तो उसे प्राप्त क्षमता भी क्रमश: क्षीण होती जायेगी और अंतत: लुप्त हो जायेगी, जबकि बुद्धि की दृष्टिï से कम पर सतत अभ्यास में मनोयोगपूर्वक लगे, व्यक्ति अपने अन्दर असामान्य क्षमताएँ विकसित कर लेते हैं। निश्चित समय एवं निर्धारित क्रम में किया गया प्रयास मनुष्य को किसी भी प्रतिभा का स्वामी बना सकता है। जबकि अभ्यास के अभाव में प्रतिभाएँ कुंठित हो जाती हैं, उनसे व्यक्ति अथवा समाज को कोई लाभ नहीं मिल पाता।
  
मानव शरीर अनगढ़ है और वृत्तियाँ असंयमित। इन्हें सुगढ़ एवं सुसंयमित करना ही अभ्यास का लक्ष्य है। अनगढ़ काया एवं मन अनभ्यस्त होने के कारण सामान्यतया किसी भी नए कार्य को करने के लिए तैयार नहीं होते। उलटे अवरोध खड़ा करते हैं। उन्हें व्यवस्थित करने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है। अभ्यास से ही आदतें बनती हैं और अंतत: संस्कार का रूप लेती हैं। परोक्ष रूप से अभ्यास की यह प्रक्रिया ही व्यक्तित्व का निर्माण  करती है।
  
कितने ही व्यक्ति किसी भी कार्य को करने में अपने को असमर्थ मानते हैं। उन्हें असंभव जानकर प्रयास नहीं करते हैं। फलस्वरूप कुछ विशेष कार्य नहीं कर पाते, अपनी मान्यताओं के अनुरूप हेय एवं असमर्थ ही बने रहते हैं। जबकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प कर लेने एवं आत्मविश्वास जुटा लेने वाले व्यक्ति उसमें अवश्य सफल होते हैं। आत्म विश्वास की कमी एवं प्रयास का अभाव ही मनुष्य को आगे बढऩे से रोकता तथा महत्त्वपूर्ण सफलताओं को पाने से वंचित रहता है।
  
मानवीय काया परमात्मा की विलक्षण संरचना है। सर्वसमर्थता के बीज उसके अन्दर विद्यमान है।  उसे जैसा चाहे ढलाया, बनाया जा सकता है। सामान्यतया लोग कुछ दिनों तक तो बड़े उत्साह के साथ किसी भी कार्य को करने का प्रयास करते हैं, पर अभीष्टï सफलता तुरन्त न मिलने पर प्रयत्न छोड़ देते हैं। फलस्वरूप अपने प्रयत्नों से असफल सिद्ध होते हैं। जबकि धैर्य एवं मनोयोगपूर्वक सतत अभ्यास में लगे व्यक्ति असामान्य क्षमताएँ तक विकसित कर लेते हैं। अभ्यास आदतों का रूप लेने पर चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करते हैं। अभ्यास की प्रक्रिया द्वारा शारीरिक- मानसिक क्षमताओं का विकास ही नहीं, रोगों का निवारण भी किया जा सकता है।  शरीर एवं मनोभावों की प्रतिक्रियाओं के आधार पर स्वयं को उपयोगी अभ्यासों के लिए सहमत करता है।
  
मानवीय काया एवं मन में शक्ति भण्डार छिपे पड़े हैं। विकास की असीम सम्भावनाएँ हैं। निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रयास चल पड़े और उसमें धैर्य एवं क्रमबद्धता का समावेश हो जाय, तो असंभव समझे जाने वाले कार्य भी सम्भव हो सकते हैं। पहलवान, विचारवान, कवि, लेखक, वक्ता, चित्रकार, वैज्ञानिक, अध्यापक कोई अकस्मात नहीं बन जाते, वरन्ï उन्हें उसके लिए सतत प्रयास करना पड़ता है। शरीर एवं मन को निर्धारित लक्ष्य के लिए अभ्यस्त करना होता है। प्रयत्न करने पर कोई भी व्यक्ति अपने अनगढ़ शरीर एवं मन को प्रशिक्षित कर सकता है।  अनगढ़ शरीर एवं मन को सुगढ़ एवं व्यवस्थित करने के लिए पूरे धैर्य के साथ सतत अभ्यास की आवश्यकता होती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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