निर्मल मन को प्राप्त होती है—ऋतम्भरा प्रज्ञा
अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग- विशेष तौर पर ध्यान की प्रणालियाँ, बुद्धि के इस कल्मष को दूर करती है। इस कल्मष के दूर होने से इसमें सहज निर्मलता आती है। इसके विकार दूर होने से इसमें न केवल सत्य का आकलन करने की योग्यता विकसित होती है, बल्कि इसमें ऋत् दर्शन की दृष्टि भी पनपती है। युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव अपनी आध्यात्मिक चर्चाओं में सत्य के दो रूपों की चर्चा किया करते थे। एक वह जो सामान्य इन्द्रियों एवं साधारण बौद्धिक समझ से देखा व जाना जाता है। जिसके रूप काल एवं परिस्थिति के हिसाब से बदलते रहते हैं। उदाहरण के लिए टेबिल में पुस्तक रखी है। यह सत्य है, किन्तु यह सत्य एक सीमित स्थान एवं सीमित समय के लिए है। समय एवं स्थान के परिवर्तन के साथ ही यह सत्य- सत्य नहीं रह जाएगा।
सत्य के इस सामान्य रूप के अलावा एक अन्य रूप है, जो सर्वकालिकम एवं सार्वभौमिक है। यह अपरिवर्तनीय है। क्योंकि यह किसी एक स्थान से नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व से जुड़ा है। यह सत्य अस्तित्व के नियमों का है। भौतिक ही नहीं, अभौतिक या पराभौतिक प्रकृति इस दायरे में आते हैं। यह न बदलता है और न मिटता है। इसे जानने वाला सृष्टि एवं स्रष्टा के नियमों से परिचित हो जाता है। इसकी प्राप्ति किसी तार्किक अवधारणा या फिर किसी विवेचन, विश्लेषण से नहीं होती। बल्कि इसके लिए सम्पूर्ण अस्तित्व से एक रस होना पड़ता है। और ऐसा तभी होता है, जब योग साधक के चित्त को निर्विकार की भावदशा प्राप्त हो।
ऋत् में सत्य की शाश्वतता के साथ परमात्मा की सरसता है। रसौ वैः सः की दिव्य अनुभूति इसमें जुड़ी है। यथार्थ में ऋत् है अन्तरतम अस्तित्व, जो हमारा अन्तरतम होने के साथ सभी का अन्तरतम है। जब योगी को निर्विचार समाधि की अवस्था प्राप्त होती है, तो उसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा से आलोकित-आपूरित हो जाती है। उसमें ब्रह्माण्ड की समस्वरता स्पन्दित होने लगती है। यहाँ न कोई द्वन्द्व है और न किसी अव्यवस्था की उलझन। जहाँ कहीं जो भी न कारात्मक है, जो भी विषैला है, वह सबका सब विलीन, विसर्जित हो जाता है। ध्यान रहे कि यहाँ किसी को निकाल फेंकने की जरूरत नहीं रहती, क्योंकि सम्पूर्णता में सबको जीवन के सभी तत्त्वों को उनका अपना स्थान मिल जाता है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १८६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या