सोमवार, 2 अक्तूबर 2017

👉 कर्मकाण्ड ही सब कुछ नहीं है

🔴 एक धनी व्यक्ति ने सुन रखा था कि भागवत पुराण सुनने से मुक्ति हो जाती है। राजा परीक्षित को इसी से मुक्ति हुई थी। उसने एक पंडित जी को भगवान की कथा सुनाने को कहा। कथा पूरी हो गई पर उस व्यक्ति के मुक्ति के कोई लक्षण नजर न आये। उसने पंडित जी से इसका कारण पूछा- पंडित जी ने लालच वश उत्तर दिया। यह कलियुग है इसमें चौथाई पुण्य होता है। चार बार कथा सुनो तो एक कथा की बराबर पुण्य होगा। धनी ने तीन कथा की दक्षिणा पेशगी दे दी और कथाऐं आरम्भ करने को कहा। वे तीनों भी पूरी हो गई पर मुक्ति का कोई लक्षण तो भी प्रतीत न हुआ। इस पर कथा कहने और सुनने वाले में कहासुनी होने लगी।

🔵 विवाद एक उच्च कोटि के महात्मा के पास पहुँचा। उसने दोनों को समझाया कि केवल बाह्य क्रिया से नहीं आन्तरिक स्थिति के आधार पर पुण्य फल मिलता है। राजा परीक्षित मृत्यु को निश्चित जान संसार से वैराग्य लेकर आत्म कल्याण में मन लगाकर कथा सुन रहा था। वीतराग शुकदेव जी भी पूर्ण निर्लोभ होकर परमार्थ की दृष्टि से कथा सुना रहे थे। दोनों की अन्तःस्थिति ऊँची थी इसलिए उन्हें वैसा ही फल मिला। तुम दोनों लोभ मोह में डूबे हो। जैसे कथा कहने वाले वैसे सुनने वाले, इसलिए तुम लोगों को पुण्य तो मिलेगा पर वह थोड़ा ही होगा। परीक्षित जैसी स्थिति न होने के कारण वैसे फल की भी तुम्हें आशा नहीं करनी चाहिए।

🔴 आत्म कल्याण के लिए बाह्य कर्मकाण्ड से ही काम नहीं चलता। उसके लिए उच्च भावनायें होना भी आवश्यक है।

🌹 अखण्ड ज्योति जून 1961

👉 आत्मचिंतन के क्षण 2 Oct 2017

🔵 यदि हम अपने आपसे सच्चे और सज्जन हों तो हमें सदा दूसरों की भलाइयाँ और अच्छाइयाँ दृष्टिगोचर होंगी। जिस प्रकार हम किसी के सुन्दर चेहरे को ही बार-बार देखते हैं उसी से प्रभावित होते हैं और प्रशंसा करते हैं। यद्यपि उसी मनुष्य के शरीर से मलमूत्र के दुर्गन्धपूर्ण कुरूप और कुरुचिपूर्ण स्थान भी हैं पर उनकी ओर न तो ध्यान देते हैं और न चर्चा करते हैं। इसी प्रकार सुरुचिपूर्ण मनो-भावना के व्यक्ति आमतौर से दूसरों के सद्गुणों को ही निरखते-परखते रहते हैं। उसके द्वारा जो अच्छे काम बन पड़े हैं उन्हीं की चर्चा करते हैं। उसके प्रशंसक और मित्र बनकर रहते हैं। आलोचकों और निन्दकों की अपेक्षा आत्मीयता, सद्भाव रखने वाला व्यक्ति किसी की बुराई को अधिक जल्दी और अधिक सरलता पूर्वक दूर कर सकता है।

🔴 कोई व्यक्ति जो अपने को सज्जन और समझदार मानता है उस पर यह जिम्मेदारी अधिक मात्रा में आती है कि वह सामान्य लोगों की अपेक्षा अपने में कुछ असामान्य गुण सिद्ध करे। सामने वाले से मतभेद होने पर उसे बुरा भला कहना निन्दा या अपमान भरे शब्द कहना, लड़-झगड़ पड़ना इतना तो निम्नकोटि के लोग भी करते रहते हैं। कुँजड़े और कंजड़ भी इस नीति से परिचित हैं? यदि इसी नीति को वे लोग भी अपनावें जो अपने को समझदार कहते हैं तो वे उनका यह दवा करना निस्सार है कि हम उस मानसिक स्तर के हैं। कुँजड़े-कंजड़ जैसे फूहड़ शब्द इस्तेमाल करते हैं इसे भले ही उनने न किए हों, शिक्षित होने के कारण वे साहित्यिक शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं पर नीति तो वही रही, भावना तो वही रही, क्रिया तो वही रही। वे अपने आपको शिक्षित कुँजड़ा या कंजड़ कह सकते हैं, इतनी ही उनकी विशेषता मानी जा सकती है।

🔵 हर समझदार आदमी पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह जिनकी निन्दा करना चाहता है उनकी अपेक्षा अपने आपको अधिक ऊंचा, अधिक सभ्य और अधिक सुसंस्कृत सिद्ध करे। यह भी तभी हो सकता है जब वह अपने में अधिक सहिष्णुता, अधिक प्यार, अधिक आत्मीयता, अधिक सज्जनता, अधिक उदारता और अधिक क्षमाशीलता धारण किये होना प्रमाणित करे। इन्हीं गुणों के आधार उसके बड़प्पन की तौल की जायेगी। यदि कभी भी दो व्यक्तियों में से एक को चुनना पड़े, एक को महत्व देना पड़े तो बाहर के विवेकशील आदमी इसी आधार पर महत्व देंगे कि किसने अधिक उदारता और सज्जनता का परिचय दिया। जिसमें यह अधिकता पाई जायेगी उसी की ओर लोगों की सहज सहानुभूति आकर्षित होगी। पर यदि ऐसा नहीं है तो दोनों एक ही स्तर पर रखे जायेंगे। दोनों की निन्दा की जायेगी और लोग उनके बीच में पड़ने की अपेक्षा उनसे दूर रहना ही पसंद करेंगे।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...