🌞 दूसरा अध्याय
🔴 हमसे भी जिन परमाणुओं का काम पड़ेगा वह स्वभावतः हमारी परिक्रमा करेंगे क्योंकि हम चेतना के केन्द्र हैं। इस बिल्कुल स्वाभाविक चेतना को भलीभाँति हृदयंगम कर लेने से तुम्हें अपने अन्दर एक विचित्र परिवर्तन मालूम पड़ेगा। ऐसा अनुभव होता हुआ प्रतीत होगा कि मैं चेतना का केन्द्र हूँ और मेरा संसार, मुझसे सम्बन्धित समस्त भौतिक पदार्थ मेरे इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। मकान, कपड़े, जेवर-धन, दौलत आदि मुझसे सम्बन्धित हैं, पर वह मुझमें व्याप्त नहीं, बिल्कुल अलग है। अपने को चेतना का केन्द्र समझने वाला, अपने को माया से सम्बन्धित मानता है, पर पानी में पड़े हुए कमल के पत्ते की तरह कुछ ऊँचा उठा रहता है, उसमें डूब नहीं जाता।
🔵 जब वह अपने को तुच्छ, अशक्त और बँधे हुए जीव की अपेक्षा चेतन-सत्ता और प्रकाश-केन्द्र स्वीकार करता है, तो उसे उसी के अनुसार परिधान भी मिलते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो उसके छोटे कपड़े उतार दिये जाते हैं। अपने को हीन, नीच और शरीराभिमानी तुच्छ जीव जब तक समझोगे, तब तक उसी के लायक कपड़े मिलेंगे। लालच, भोगेच्छा, कामेच्छा, चाटुकारिता, स्वार्थपरता आदि गुण तुम्हें पहनने पड़ेंगे, पर जब अपने स्वरूप को महानतम अनुभव करोगे, तब यह कपड़े निरर्थक हो जायेंगे। छोटा बच्चा कपड़े पर टट्टी कर कर देने में कुछ बुराई नहीं समझता, किन्तु बड़ा होने पर वह ऐसा करने से घृणा करता है।
🔴 कदाचित बीमारी की दशा में वह ऐसा कर भी बैठे, तो अपने को बड़ा धिक्कारता है और शर्मिन्दा होता है। नीच विचार, हीन भावनाएँ, पाशविक इच्छाएँ और क्षुद्र स्वार्थपरता ऐसे ही गुण हैं, जिन्हें देखकर आत्म-चेतना में विकसित हुआ मनुष्य घृणा करता है। उसे अपने आप वह गुण मिल गये होते हैं, जो उसके इस शरीर के लिए उपयुक्त हैं। उदारता, विशाल हृदयता, दया, सहानूभूति, सच्चाई प्रभृति गुण ही तब उसके लायक ठीक वस्त्र होते हैं। बड़ा होते ही मेढक की लम्बी पूँछ जैसे स्वयमेव झड़ पड़ती है, वैसे ही दुर्गुण उससे विदा होने लगते हैं और वयोवृद्घ हाथी के दाँत की तरह सद्गुण क्रमशः बढ़ते रहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/Main_Kya_Hun/v4.2
🔴 हमसे भी जिन परमाणुओं का काम पड़ेगा वह स्वभावतः हमारी परिक्रमा करेंगे क्योंकि हम चेतना के केन्द्र हैं। इस बिल्कुल स्वाभाविक चेतना को भलीभाँति हृदयंगम कर लेने से तुम्हें अपने अन्दर एक विचित्र परिवर्तन मालूम पड़ेगा। ऐसा अनुभव होता हुआ प्रतीत होगा कि मैं चेतना का केन्द्र हूँ और मेरा संसार, मुझसे सम्बन्धित समस्त भौतिक पदार्थ मेरे इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। मकान, कपड़े, जेवर-धन, दौलत आदि मुझसे सम्बन्धित हैं, पर वह मुझमें व्याप्त नहीं, बिल्कुल अलग है। अपने को चेतना का केन्द्र समझने वाला, अपने को माया से सम्बन्धित मानता है, पर पानी में पड़े हुए कमल के पत्ते की तरह कुछ ऊँचा उठा रहता है, उसमें डूब नहीं जाता।
🔵 जब वह अपने को तुच्छ, अशक्त और बँधे हुए जीव की अपेक्षा चेतन-सत्ता और प्रकाश-केन्द्र स्वीकार करता है, तो उसे उसी के अनुसार परिधान भी मिलते हैं। बच्चा जब बड़ा हो जाता है तो उसके छोटे कपड़े उतार दिये जाते हैं। अपने को हीन, नीच और शरीराभिमानी तुच्छ जीव जब तक समझोगे, तब तक उसी के लायक कपड़े मिलेंगे। लालच, भोगेच्छा, कामेच्छा, चाटुकारिता, स्वार्थपरता आदि गुण तुम्हें पहनने पड़ेंगे, पर जब अपने स्वरूप को महानतम अनुभव करोगे, तब यह कपड़े निरर्थक हो जायेंगे। छोटा बच्चा कपड़े पर टट्टी कर कर देने में कुछ बुराई नहीं समझता, किन्तु बड़ा होने पर वह ऐसा करने से घृणा करता है।
🔴 कदाचित बीमारी की दशा में वह ऐसा कर भी बैठे, तो अपने को बड़ा धिक्कारता है और शर्मिन्दा होता है। नीच विचार, हीन भावनाएँ, पाशविक इच्छाएँ और क्षुद्र स्वार्थपरता ऐसे ही गुण हैं, जिन्हें देखकर आत्म-चेतना में विकसित हुआ मनुष्य घृणा करता है। उसे अपने आप वह गुण मिल गये होते हैं, जो उसके इस शरीर के लिए उपयुक्त हैं। उदारता, विशाल हृदयता, दया, सहानूभूति, सच्चाई प्रभृति गुण ही तब उसके लायक ठीक वस्त्र होते हैं। बड़ा होते ही मेढक की लम्बी पूँछ जैसे स्वयमेव झड़ पड़ती है, वैसे ही दुर्गुण उससे विदा होने लगते हैं और वयोवृद्घ हाथी के दाँत की तरह सद्गुण क्रमशः बढ़ते रहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/Main_Kya_Hun/v4.2