शनिवार, 2 सितंबर 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 2 Sep 2023

🔷 जब तक नारी वस्त्रों में, बनाव, शृंगार में, फैशन में, जेवर-आभूषणों में अपना व्यक्तित्व देखती रहेगी, पुरुषों के लिए कामिनी बनकर उनकी वासनाओं की तृप्ति के लिए ही अपना जीवन समझती रहेगी या खा-पीकर घर की चहारदीवारी में पड़े रहना ही अपना आदर्श समझेंगी, तब तक कोई भी शक्ति, नियम, कानून उसका उद्धार नहीं कर सकेंगे।

🔶 स्त्रियों में सभ्यता के नाम पर बढ़ता हुआ फैशन, बनाव, शृंगार, चमकीले, भड़कीले वस्त्र आदि गृहस्थ जीवन की स्थिति और मर्यादाओं पर बहुत बुरा प्रभाव डाल रहे हैं और इसके प्रभाव से समाज में अनेकों बुराइयाँ फैलती जा रही हंै। हालांकि सौन्दर्य, स्वास्थ्य, स्वच्छता, व्यवस्थित रहन-सहन के आवश्यक अंग हैं, किन्तु कृत्रिमता, बाह्य साधनों के प्रयोग से नित-नूतन मेकअप बनाना अस्वाभाविक और गलत रास्ता है। समाज में बढ़ते अनाचार, दुराचार के प्रोत्साहन में नारी के ये बनाव-शृंगार भी कम जिम्मेदार नहीं है।

🔷 परिवार बसा लेना आसान है, लोग आये दिन बसाते ही रहते हैं, उसका पालन भी कोई विशेष कठिन नहीं। सभी उसका पालन करते हैं, किन्तु परिवार को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उसका निर्माण करना एक श्रम साध्य कर्त्तव्य है। अधिकतर लोग परिजनों के लिए अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ देने, उनके लिए अच्छा भोजन, वस्त्र तथा आराम की चीजें जुटाना ही पारिवारिक जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। वे यह कभी नहीं सोच पाते कि भोजन, वस्त्र तथा शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ परिवार की एक सर्वोपरि आवश्यकता भी है और वह है उसे सद्गुणी बनाना।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ (भाग 2)

वस्तुतः जीवन इतना तुच्छ, जटिल और घिनौना है नहीं। उसकी यथार्थता का मूल्यांकन करने के लिए थोड़ा गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा। समुद्र की ऊपरी सतह पर तो कूड़ा-करकट, झागफेन, काई शैवाल लहरों की उठक-पटक के अतिरिक्त और कुछ नहीं पाया जा सकता। रत्न राशि तो समुद्र तल में पड़ी होती है। उसे पाने के लिए गहराई में उतरने वाले गोताखोरों जैसा कौशल और साहस सँजोना पड़ता है।

चेतना का स्थूल क्षेत्र पदार्थ- परिस्थिति और आतुरता भरी हलचलों में देखा जा सकता है। यह पशु जीवन है और प्रत्येक प्राणी को समान रूप से उपलब्ध है। जिसे जिस स्तर की काया मिली है वह उतने में ही अपने ढंग से रोता-गाता, गुजर कर लेता है। मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं है। क्रिया में दौड़-धूप की उत्तेजना भर है, नशे में भी उत्तेजना होती है और कई लोग उसे भी आनन्द और सन्तोष का माध्यम बना लेते हैं। समझना एक बात है और यथार्थता दूसरी। कुछ को कुछ भी समझा जा सकता है, पर उस भ्रान्ति से बनता तो कुछ नहीं। स्थिति तो स्थिति ही रहती है। आनन्द सूक्ष्म में है। क्रिया से नहीं विचारणा से हमारा समाधान होता है और भावना की गहराई में उतरने से आनन्द का निर्झर फूट पड़ता है। यदि समाधान- तृप्ति एवं सन्तोष अभीष्ट हो तो क्रियाशील रहते हुए भी हमें ज्ञानवान बनना पड़ेगा। ज्ञान का आश्रय लिए बिना, दिग्भ्रान्त स्थिति में आशंका और उद्विग्नता ही छाई रहेगी। शान्ति तो समाधान में है; वह समाधान सद्ज्ञान का आश्रय लिए बिना अन्य किसी आधार पर हो नहीं सकता।

🔷 क्रिया स्थूल है और ज्ञान सूक्ष्म। क्रिया तक सीमित न रहकर, तत्व चिन्तन की गहराई में उतरने के प्रयत्न में, हमें चैन और सन्तोष मिलता है। एक परत इससे भी गहरी है- जिसे अन्तरात्मा कहते हैं। यहाँ आस्थाएँ रहती हैं। अपने सम्बन्ध में, प्रिय और अप्रिय के, उचित और अनुचित के, आदतों और प्रचलनों के, पक्ष और सिद्धान्तों के सम्बन्ध में अनेकानेक मान्यताएँ; इसी केन्द्र में गहराई तक जड़ें जमाये बैठी रहती हैं। व्यक्तित्व का समूचा ढाँचा, यहीं विनिर्मित होता है। मस्तिष्क और शरीर को तो व्यर्थ ही दोष या श्रेय दिया जाता है। वे दोनों ही वफादार सेवक की तरह हर आत्मा की ड्यूटी ठीक तरह बजाते रहते हैं। उनमें अवज्ञा करने की कोई शक्ति नहीं। आस्थाएँ ही प्रेरणा देती हैं और उसी पैट्रोल से धकेले जाने पर जीवन स्कूटर के दोनों पहिये- चिन्तन और कर्तृत्व सरपट दौड़ने लगते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 3

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.3

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...