गुरुवार, 24 नवंबर 2016
👉 हमारी युग निर्माण योजना (भाग 27)
🌹 जन-मानस को धर्म-दीक्षित करने की योजना
🔵 32. स्वाध्याय की साधना— जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रेरणा देने वाला सत्साहित्य नित्य नियमपूर्वक पढ़ना ही चाहिये। स्वाध्याय को भी साधना का ही एक अंग माना जाय और कुछ समय इसके लिए नियत रखा जाय। कुविचारों को शमन करने के लिए नित्य सद्विचारों का सत्संग करना आवश्यक है। व्यक्ति का सत्संग तो कठिन पड़ता है पर साहित्य के माध्यम से संसार भर के जीवित या मृत सत्पुरुषों के साथ सत्संग किया जा सकता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण लाभ है, जिससे किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिये। जो पढ़े लिखे नहीं हैं उन्हें दूसरों से सत्साहित्य पढ़ा कर सुनने की व्यवस्था करनी चाहिये।
🔴 33. संस्कारित जीवन— जीवन को समय-समय पर संस्कारित करने के लिये हिन्दू धर्म में षोडश संस्कारों का महत्वपूर्ण विधान है। पारिवारिक समारोह के उत्साहपूर्ण वातावरण में सुव्यवस्थित जीवन की शिक्षा इन अवसरों पर मनीषियों द्वारा दी जाती है और अग्निदेव तथा देवताओं की साक्षी में इन नियमों पर चलने के लिये प्रतिज्ञा कराई जाती है तो उसका ठोस प्रभाव पड़ता है। पुंसवन, सीमन्त, नामकरण, मुण्डन, अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि आदि संस्कारों का कर्मकाण्ड बहुत ही शिक्षा और प्रेरणा से भरा हुआ है। यदि उन्हें ठीक तरह किया जाय तो हर व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़े।
🔵 खेद है कि संस्कारों के कर्मकाण्ड अब केवल चिन्हपूजा मात्र रह गये हैं। उनमें खर्च तो बहुत होता है पर प्रेरणा कुछ नहीं मिलती। हमें संस्कारों का महत्व जानना चाहिए और कराने की विधि तथा शिक्षा को सीखना समझना चाहिए। संस्कारों का पुनः प्रसार किया जाय और उनके कर्मकाण्ड इस प्रकार किये जांय कि कम-से-कम खर्च में अधिक से अधिक प्रेरणा प्राप्त कर सकना सर्वसुलभ हो सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔵 32. स्वाध्याय की साधना— जीवन-निर्माण की आवश्यक प्रेरणा देने वाला सत्साहित्य नित्य नियमपूर्वक पढ़ना ही चाहिये। स्वाध्याय को भी साधना का ही एक अंग माना जाय और कुछ समय इसके लिए नियत रखा जाय। कुविचारों को शमन करने के लिए नित्य सद्विचारों का सत्संग करना आवश्यक है। व्यक्ति का सत्संग तो कठिन पड़ता है पर साहित्य के माध्यम से संसार भर के जीवित या मृत सत्पुरुषों के साथ सत्संग किया जा सकता है। यह जीवन का महत्वपूर्ण लाभ है, जिससे किसी को भी वंचित नहीं रहना चाहिये। जो पढ़े लिखे नहीं हैं उन्हें दूसरों से सत्साहित्य पढ़ा कर सुनने की व्यवस्था करनी चाहिये।
🔴 33. संस्कारित जीवन— जीवन को समय-समय पर संस्कारित करने के लिये हिन्दू धर्म में षोडश संस्कारों का महत्वपूर्ण विधान है। पारिवारिक समारोह के उत्साहपूर्ण वातावरण में सुव्यवस्थित जीवन की शिक्षा इन अवसरों पर मनीषियों द्वारा दी जाती है और अग्निदेव तथा देवताओं की साक्षी में इन नियमों पर चलने के लिये प्रतिज्ञा कराई जाती है तो उसका ठोस प्रभाव पड़ता है। पुंसवन, सीमन्त, नामकरण, मुण्डन, अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ, अन्त्येष्टि आदि संस्कारों का कर्मकाण्ड बहुत ही शिक्षा और प्रेरणा से भरा हुआ है। यदि उन्हें ठीक तरह किया जाय तो हर व्यक्ति पर गहरा प्रभाव पड़े।
🔵 खेद है कि संस्कारों के कर्मकाण्ड अब केवल चिन्हपूजा मात्र रह गये हैं। उनमें खर्च तो बहुत होता है पर प्रेरणा कुछ नहीं मिलती। हमें संस्कारों का महत्व जानना चाहिए और कराने की विधि तथा शिक्षा को सीखना समझना चाहिए। संस्कारों का पुनः प्रसार किया जाय और उनके कर्मकाण्ड इस प्रकार किये जांय कि कम-से-कम खर्च में अधिक से अधिक प्रेरणा प्राप्त कर सकना सर्वसुलभ हो सके।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 *गृहस्थ-योग (भाग 14) 25 Nov*
🌹 *गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है*
🔵 किसी स्रोत में से पानी का प्रवाह जारी हो किन्तु उसके बहाव के मार्ग को रोक दिया जाय तो वह पानी जमा होकर दूसरे मार्ग से फूट निकलेगा। मन से विषय और चिन्तन और बाहर से ब्रह्मचर्य यह भी इसी प्रकार का कार्य है। मन में वासना उत्पन्न होने से जो उत्तेजना पैदा होती है वह फूट निकलने के लिए कोई न कोई मार्ग ढूंढ़ती है। साधारण मार्ग बन्द होता है तो कोई और मार्ग बनाकर वह निकलती है। यह नया मार्ग अपेक्षाकृत बहुत खतरनाक और हानिकारक साबित होता है।
🔴 संसार भर की जनगणना की रिपोर्टों का अवलोकन करने से यह सच्चाई और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती है। विवाहित स्त्री-पुरुषों की प्रतिशत जितनी मृत्यु होती है विधवा या विधुरों की मृत्यु का अनुपात प्रायः उससे ड्यौढ़ा रहता है। मोटी दृष्टि से देखने पर विवाहितों की जीवनी-शक्ति अधिक और अविवाहितों की कम खर्च होती है इससे विवाहितों की अल्पायु और रोगी रहने की सम्भावना प्रतीत होती है परन्तु होता इसका ठीक उलटा है।
🔵 विवाहित लोग सम्भोगजन्य क्षय, बालकों का भरण-पोषण, अधिक चिन्ता तथा जिम्मेदारी आदि के भार को खींचते हुए भी जितनी आयु और निरोगता प्राप्त करते हैं अविवाहित लोग उतने नहीं कर पाते। इसका एक मात्र कारण वासना की अतृप्ति से उत्पन्न हुआ मानसिक उद्वेग है, जो बड़ा घातक होता है, उसकी विषाक्त ज्वाला से सारे जीवन तत्व भीतर ही भीतर जल-भुन जाते हैं। चित्त की अस्थिरता और अशान्ति के कारण कोई कहने लायक महान कार्य भी उनसे सम्पादित नहीं हो पाता कोई बड़ी सफलता भी नहीं मिल पाती। इस प्रकार विवाहितों की अपेक्षा यह अविवाहित अधिक घाटे में रहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🌿🌞 🌿🌞 🌿🌞
🔵 किसी स्रोत में से पानी का प्रवाह जारी हो किन्तु उसके बहाव के मार्ग को रोक दिया जाय तो वह पानी जमा होकर दूसरे मार्ग से फूट निकलेगा। मन से विषय और चिन्तन और बाहर से ब्रह्मचर्य यह भी इसी प्रकार का कार्य है। मन में वासना उत्पन्न होने से जो उत्तेजना पैदा होती है वह फूट निकलने के लिए कोई न कोई मार्ग ढूंढ़ती है। साधारण मार्ग बन्द होता है तो कोई और मार्ग बनाकर वह निकलती है। यह नया मार्ग अपेक्षाकृत बहुत खतरनाक और हानिकारक साबित होता है।
🔴 संसार भर की जनगणना की रिपोर्टों का अवलोकन करने से यह सच्चाई और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाती है। विवाहित स्त्री-पुरुषों की प्रतिशत जितनी मृत्यु होती है विधवा या विधुरों की मृत्यु का अनुपात प्रायः उससे ड्यौढ़ा रहता है। मोटी दृष्टि से देखने पर विवाहितों की जीवनी-शक्ति अधिक और अविवाहितों की कम खर्च होती है इससे विवाहितों की अल्पायु और रोगी रहने की सम्भावना प्रतीत होती है परन्तु होता इसका ठीक उलटा है।
🔵 विवाहित लोग सम्भोगजन्य क्षय, बालकों का भरण-पोषण, अधिक चिन्ता तथा जिम्मेदारी आदि के भार को खींचते हुए भी जितनी आयु और निरोगता प्राप्त करते हैं अविवाहित लोग उतने नहीं कर पाते। इसका एक मात्र कारण वासना की अतृप्ति से उत्पन्न हुआ मानसिक उद्वेग है, जो बड़ा घातक होता है, उसकी विषाक्त ज्वाला से सारे जीवन तत्व भीतर ही भीतर जल-भुन जाते हैं। चित्त की अस्थिरता और अशान्ति के कारण कोई कहने लायक महान कार्य भी उनसे सम्पादित नहीं हो पाता कोई बड़ी सफलता भी नहीं मिल पाती। इस प्रकार विवाहितों की अपेक्षा यह अविवाहित अधिक घाटे में रहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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👉 सफल जीवन के कुछ स्वर्णिम सूत्र (भाग 14) 25 Nov
🌹 विवेक ही हमारा सच्चा मार्गदर्शक
🔵 यह संसार जड़ और चेतन के, सत् और असत् के सम्मिश्रण से बना है। देव और दानव दोनों यहां रहते हैं। देवत्व और असुरता के बीच सदा सत्ता-संघर्ष चलता रहता है। भगवान का प्रतिद्वन्दी शैतान भी अनादिकाल से अपना अस्तित्व बनाये हुए है। परस्पर विरोधी रात और दिन का, अन्धकार और प्रकाश का जोड़ा न जाने कब से जुड़ा चला आ रहा है। कपड़ा ताने और बाने से मिलकर बना है, यद्यपि दोनों की दिशा परस्पर विरोधी है। यहां जलाने वाली गर्मी भी बहुत है। शीतलता देने वाली बर्फ से भी पूरे ध्रुव प्रदेश और पर्वत शिखर लदे पड़े हैं।
🔴 यहां न सन्त-सज्जनों की कमी है और न दुष्ट-दुर्जनों की। पतन के गर्त में गिराने वाले तत्व अपनी पूरी साज-सज्जा बनाये बैठे और अपने आकर्षण जाल में सारे संसार को जकड़ने के प्रयास में संलग्न हैं। दूसरी ओर उत्थान की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्टता भी मर नहीं गई है, उसकी प्रकाश किरणों का आलोक भी सदा ही दीप्तिमान रहता है और असंख्यों को श्रेष्ठता की दिशा में चलने के लिए बलिष्ठ सहयोग प्रदान करता है। परस्पर विरोधी सत्-असत् तत्वों का मिश्रण ही यह संसार है। भाप में जल की शीतलता और अग्नि की ऊष्मा का विचित्र संयोग हुआ है, यह संसार भाप से बने बादलों की तरह अपनी सत्ता बनाये बैठा है।
🔵 इस हाट में से क्या खरीदा जाय, क्या नहीं? यह निर्णय करना हर मनुष्य का अपना काम है। पतन या उत्थान में से किस मार्ग पर चलना है? यह फैसला करना पूरी तरह अपनी इच्छा एवं रुचि पर निर्भर है। ईश्वर ने मनुष्य पर विश्वास किया है और इतनी स्वतन्त्रता दी है कि वह अपनी इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति किसी भी दिशा में किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग करे। इसमें किसी दूसरे का, यहां तक कि परमेश्वर तक का कोई हस्तक्षेप नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
🔵 यह संसार जड़ और चेतन के, सत् और असत् के सम्मिश्रण से बना है। देव और दानव दोनों यहां रहते हैं। देवत्व और असुरता के बीच सदा सत्ता-संघर्ष चलता रहता है। भगवान का प्रतिद्वन्दी शैतान भी अनादिकाल से अपना अस्तित्व बनाये हुए है। परस्पर विरोधी रात और दिन का, अन्धकार और प्रकाश का जोड़ा न जाने कब से जुड़ा चला आ रहा है। कपड़ा ताने और बाने से मिलकर बना है, यद्यपि दोनों की दिशा परस्पर विरोधी है। यहां जलाने वाली गर्मी भी बहुत है। शीतलता देने वाली बर्फ से भी पूरे ध्रुव प्रदेश और पर्वत शिखर लदे पड़े हैं।
🔴 यहां न सन्त-सज्जनों की कमी है और न दुष्ट-दुर्जनों की। पतन के गर्त में गिराने वाले तत्व अपनी पूरी साज-सज्जा बनाये बैठे और अपने आकर्षण जाल में सारे संसार को जकड़ने के प्रयास में संलग्न हैं। दूसरी ओर उत्थान की प्रेरणा देने वाली उत्कृष्टता भी मर नहीं गई है, उसकी प्रकाश किरणों का आलोक भी सदा ही दीप्तिमान रहता है और असंख्यों को श्रेष्ठता की दिशा में चलने के लिए बलिष्ठ सहयोग प्रदान करता है। परस्पर विरोधी सत्-असत् तत्वों का मिश्रण ही यह संसार है। भाप में जल की शीतलता और अग्नि की ऊष्मा का विचित्र संयोग हुआ है, यह संसार भाप से बने बादलों की तरह अपनी सत्ता बनाये बैठा है।
🔵 इस हाट में से क्या खरीदा जाय, क्या नहीं? यह निर्णय करना हर मनुष्य का अपना काम है। पतन या उत्थान में से किस मार्ग पर चलना है? यह फैसला करना पूरी तरह अपनी इच्छा एवं रुचि पर निर्भर है। ईश्वर ने मनुष्य पर विश्वास किया है और इतनी स्वतन्त्रता दी है कि वह अपनी इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति किसी भी दिशा में किसी भी प्रयोजन के लिए उपयोग करे। इसमें किसी दूसरे का, यहां तक कि परमेश्वर तक का कोई हस्तक्षेप नहीं है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
👉 मैं क्या हूँ? What Am I? (भाग 38)
🌞 तीसरा अध्याय
🔴 इस महान तत्त्व की व्याख्या में हमारे यह विचार और शब्दावली हीन, शिथिल और सस्ते प्रतीत होते होंगे। यह विषय अनिर्वचनीय है। वाणी की गति वहाँ तक नहीं है। गुड़ का मिठास जबानी जमा खर्च द्वारा नहीं समझाया जा सकता। हमारा प्रयत्न केवल इतना ही है कि तुम ध्यान और दिलचस्पी की तरफ झुक पड़ो और इन कुछ मानसिक कसरतों को करने के अभ्यास में लग जाओ। ऐसा करने से मन वास्तविकता का प्रमाण पाता जायेगा और आत्म-स्वरूप में दृढ़ता होती जायेगी। जब तक स्वयं अनुभव न हो जाए, तब तक ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एक बार जब तुम्हें उस सत्य के दर्शन हो जायेंगे तो वह फिर दृष्टि से ओझल नहीं हो सकेगा और कोई वाद-विवाद उस पर अविश्वास नहीं करा सकेगा।
🔵 अब तुम्हें अपने को दास नहीं, स्वामी मानना पड़ेगा। तुम शासक हो और मन आज्ञा-पालक। मन द्वारा जो अत्याचार अब तक तुम्हारे ऊपर हो रहे थे, उन सबको फड़फड़ाकर फेंक दो और अपने को उनसे मुक्त हुआ समझो। तुम्हें आज राज्य सिंहासन सौंपा जा रहा है, अपने को राजा अनुभव करो। दृढ़तापूर्वक आज्ञा दो कि स्वभाव, विचार, संकल्प, बुद्धि, कामनाएँ समस्त कर्मचारी शासन को स्वीकर करें और नये सन्धि-पत्र पर दस्तखत करें कि हम वफादार नौकर की तरह अपने राजा की आज्ञा मानेंगे और राज्य-प्रबन्ध को सर्वोच्च एवं सुन्दरतम बनाने में रत्ती भर भी प्रमाद न करेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.4
🔴 इस महान तत्त्व की व्याख्या में हमारे यह विचार और शब्दावली हीन, शिथिल और सस्ते प्रतीत होते होंगे। यह विषय अनिर्वचनीय है। वाणी की गति वहाँ तक नहीं है। गुड़ का मिठास जबानी जमा खर्च द्वारा नहीं समझाया जा सकता। हमारा प्रयत्न केवल इतना ही है कि तुम ध्यान और दिलचस्पी की तरफ झुक पड़ो और इन कुछ मानसिक कसरतों को करने के अभ्यास में लग जाओ। ऐसा करने से मन वास्तविकता का प्रमाण पाता जायेगा और आत्म-स्वरूप में दृढ़ता होती जायेगी। जब तक स्वयं अनुभव न हो जाए, तब तक ज्ञान, ज्ञान नहीं है। एक बार जब तुम्हें उस सत्य के दर्शन हो जायेंगे तो वह फिर दृष्टि से ओझल नहीं हो सकेगा और कोई वाद-विवाद उस पर अविश्वास नहीं करा सकेगा।
🔵 अब तुम्हें अपने को दास नहीं, स्वामी मानना पड़ेगा। तुम शासक हो और मन आज्ञा-पालक। मन द्वारा जो अत्याचार अब तक तुम्हारे ऊपर हो रहे थे, उन सबको फड़फड़ाकर फेंक दो और अपने को उनसे मुक्त हुआ समझो। तुम्हें आज राज्य सिंहासन सौंपा जा रहा है, अपने को राजा अनुभव करो। दृढ़तापूर्वक आज्ञा दो कि स्वभाव, विचार, संकल्प, बुद्धि, कामनाएँ समस्त कर्मचारी शासन को स्वीकर करें और नये सन्धि-पत्र पर दस्तखत करें कि हम वफादार नौकर की तरह अपने राजा की आज्ञा मानेंगे और राज्य-प्रबन्ध को सर्वोच्च एवं सुन्दरतम बनाने में रत्ती भर भी प्रमाद न करेंगे।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/mai_kya_hun/part3.4
👉 गृहस्थ-योग (भाग 13) 24 Nov
🌹 गृहस्थ धर्म तुच्छ नहीं है
🔵 ब्रह्मचर्य व्रत का पालन बहुत ही उत्तम, उपयोगी एवं लाभदायक साधना है। यह शारीरिक और मानसिक दोनों की दृष्टियों से हितकर है। जो जितने अधिक समय तक ब्रह्मचारी रह सके उसके लिए उतना ही अच्छा है। साधारणतः लड़कों को कम से कम 20 वर्ष तक और लड़कियों को 16 वर्ष तक तो ब्रह्मचारी अवश्य ही रहना चाहिए। जो अपने मन को वश में रख सकें वे अधिक समय तक रहें।
🔴 ब्रह्मचर्य में मानसिक संयम प्रधान है। यदि मन वासनाओं में भटकता रहे और शरीर को हठ पूर्वक संयम में रखा जाय तो उससे लाभ की जगह पर हानि ही है। शारीरिक काम सेवन से जितनी हानि है उससे कई गुनी हानि मानसिक असंयम से है। वीर्यपात की क्षति आसानी से पूरी हो जाती है परन्तु मानसिक विषय चिन्तन से जो उत्तेजना पैदा होती है वह यदि तृप्त न हो तो कुचले हुए सर्प की तरह क्रुद्ध होकर अपने छेड़ने वालों के ऊपर आक्रमण करती है।
🔵 मनोविज्ञान शास्त्र के यशस्वी आचार्य डॉक्टर फ्राइड, डॉक्टर ब्राईन, डॉक्टर बने प्रभृति विद्वानों का मत है कि वासनाएं कुचली जाने पर सुप्त मन से किसी कोने में एक बड़ा घाव लेकर पड़ी रहती हैं और जब अवसर पाती हैं तभी भयानक, शारीरिक या मानसिक रोगों को उत्पन्न करती हैं। उनका कहना है कि पागलपन, मूर्छा, मृगी, उन्माद, नाड़ी संस्थान का विक्षेप, अनिद्रा, कायरता आदि अनेक रोग वासनाओं के अनुचित रीति से कुचले जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य की पहली शर्त ‘मन की स्थिरता’ मानी गई है। जिनका मन किन्हीं उत्तम विचारों में निमग्न रहता है, विषय वृत्तियों की ओर जिनका ध्यान ही नहीं जाता या जाता है तो तुरन्त ही अरुचि और घृणापूर्वक वहां से हट जाता है वे ही ब्रह्मचारी हैं। जिनका मन वासना में भटकता है, चित्त पर जो काबू रख नहीं पाते, उनके शारीरिक ब्रह्मचर्य को विडम्बना ही कहा जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 *पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
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🔵 ब्रह्मचर्य व्रत का पालन बहुत ही उत्तम, उपयोगी एवं लाभदायक साधना है। यह शारीरिक और मानसिक दोनों की दृष्टियों से हितकर है। जो जितने अधिक समय तक ब्रह्मचारी रह सके उसके लिए उतना ही अच्छा है। साधारणतः लड़कों को कम से कम 20 वर्ष तक और लड़कियों को 16 वर्ष तक तो ब्रह्मचारी अवश्य ही रहना चाहिए। जो अपने मन को वश में रख सकें वे अधिक समय तक रहें।
🔴 ब्रह्मचर्य में मानसिक संयम प्रधान है। यदि मन वासनाओं में भटकता रहे और शरीर को हठ पूर्वक संयम में रखा जाय तो उससे लाभ की जगह पर हानि ही है। शारीरिक काम सेवन से जितनी हानि है उससे कई गुनी हानि मानसिक असंयम से है। वीर्यपात की क्षति आसानी से पूरी हो जाती है परन्तु मानसिक विषय चिन्तन से जो उत्तेजना पैदा होती है वह यदि तृप्त न हो तो कुचले हुए सर्प की तरह क्रुद्ध होकर अपने छेड़ने वालों के ऊपर आक्रमण करती है।
🔵 मनोविज्ञान शास्त्र के यशस्वी आचार्य डॉक्टर फ्राइड, डॉक्टर ब्राईन, डॉक्टर बने प्रभृति विद्वानों का मत है कि वासनाएं कुचली जाने पर सुप्त मन से किसी कोने में एक बड़ा घाव लेकर पड़ी रहती हैं और जब अवसर पाती हैं तभी भयानक, शारीरिक या मानसिक रोगों को उत्पन्न करती हैं। उनका कहना है कि पागलपन, मूर्छा, मृगी, उन्माद, नाड़ी संस्थान का विक्षेप, अनिद्रा, कायरता आदि अनेक रोग वासनाओं के अनुचित रीति से कुचले जाने के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य की पहली शर्त ‘मन की स्थिरता’ मानी गई है। जिनका मन किन्हीं उत्तम विचारों में निमग्न रहता है, विषय वृत्तियों की ओर जिनका ध्यान ही नहीं जाता या जाता है तो तुरन्त ही अरुचि और घृणापूर्वक वहां से हट जाता है वे ही ब्रह्मचारी हैं। जिनका मन वासना में भटकता है, चित्त पर जो काबू रख नहीं पाते, उनके शारीरिक ब्रह्मचर्य को विडम्बना ही कहा जा सकता है।
🌹 क्रमशः जारी
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