निर्मल मन को प्राप्त होती है—ऋतम्भरा प्रज्ञा
यहाँ पहुँचते ही जीवन चेतना शिकायतों-सन्देहों, उलझनों, भ्रमों से मुक्त हो जाती है। सब कुछ समझ में आने लगता है, एकदम साफ-साफ और सुस्पष्ट। प्रत्येक तत्त्व की स्थिति ही नहीं, उसका औचित्य भी स्पष्ट हो जाता है। और तब पता चलता है कि यथार्थ में परेशान होने का कोई कारण ही नहीं है। यही विशेषता है—इस भावदशा का।
ऋतम्भरा में सर्वत्र सम्पूर्णता ही है। और इस सम्पूर्ण में सभी कुछ इतनी समस्वरता एवं संगीत लिए है कि बस माधुर्य के अलावा कुछ बचता ही नहीं। यहाँ केवल जीवन ही नहीं, मृत्यु का भी अपूर्व सौन्दर्य है। हर वस्तु नए प्रकाश में आलोकित होता है। पीड़ा भी, दुःख भी एक नए गुणवत्ता के साथ स्वयं को प्रकट करते हैं। यहाँ असुन्दर भी सुन्दर हो जाता है, क्योंकि तब पहली बार समझ में आता है कि विपरीतता, विषमता क्यों आवश्यक है। और तब ये सब और इनमें से कुछ भी असुविधाजनक नहीं रहता। सब का सब एक दूसरे के सम्पूरक हो जाता है। यह बड़ा ही स्पष्ट अनुभव होता है-ये सभी तत्त्व एक दूसरे की मदद के लिए हैं।
सामान्य बोलचाल में- जिसे हम सब कहते-सुनते हैं, भगवान् का प्रत्येक विधान मंगलमय है। उसकी सही समझ चेतना की इसी अवस्था में समझ आती है। प्रज्ञा के ऋतम्भरा होने पर ही भगवान् के मंगलमय विधान का बोध होता है। अभी वर्तमान में एक कोरा कथन है- जिसमें शब्द तो बोले जाते हैं, परन्तु उनमें कोई अर्थ नहीं होता। बस एक ध्वनि बनकर कानों में गूँज जाती है। इसमें अस्तित्व के प्राण नहीं बसते। परन्तु प्रज्ञा के ऋतम्भरा होने पर इस मंगलमयता की प्रतिपल प्रतिक्षण अनुभूति होती रहती है। और योगी बन जाता है—मीरा की तरह, सुकरात की भाँति। उसे प्राप्त होती है महात्मा ईसा की अवस्था, जिसमें विष का प्याला, सूली की चुभन भी मंगलमय नजर आती है; क्योंकि तब इसकी बहुमूल्यता अनुभूत होने लगती है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १८७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या