🔵 शिष्य संजीवनी के सूत्र शिष्यों को जीने का ढंग सिखाते हैं। जिन्दगी जीने का अपना यही अलग ढंग शिष्य को आम आदमी से अलग करता है, उसे विशेष बनाता है। आम इन्सान अपनी जिन्दगी को आधे- अधूरे ढंग से जीता है। उसके जीवन में एक बेहोशी छायी रहती है। अहंता की अकड़ हर वक्त उसे घेरे रहती है। लेकिन एक सच्चा शिष्य इस घेरे से हमेशा मुक्त रहता है। वह हर पल- हर क्षण सिखना चाहता है। सिखने के लिए वह झुकना जानता है। इस झुकने में उसकी अहंता कभी भी बाधक नहीं बनती। उसके जीवन में ऐसा इसलिए होता है- क्योंकि उसे अपनी अन्तरात्मा का सम्मान करने की कला मालूम है। जबकि औसत आदमी अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में, अहंता को सम्मानित करने में जुटा रहता है। अन्तरात्मा का सच तो उसे पता ही नहीं होता।
🔴 जबकि शिष्यत्व की समूची साधना अन्तरात्मा के बोध एवं इसके सम्मान पर टिकी हुई है। जो इस साधना के शिखर पर पहुँचे हैं, उन सभी का निष्कर्ष यही रहा है- अपनी अन्तरात्मा का पूर्ण रूप से सम्मान करना सीखो। क्योंकि तुम्हारे हृदय के द्वारा ही वह उजाला मिलता है, जो जीवन को आलोकित कर सकता है। और उसे तुम्हारी आँखों के सामने स्पष्ट करता है। ध्यान रहे, हमेशा ही अपने हृदय को समझने में भूल होती है। इसका कारण केवल इतना है कि हम हमेशा बाहर उलझे- फँसे रहते हैं। जब तक बाहरी उलझने कम नहीं होती, जब तक व्यक्तित्व के बन्धन ढीले नहीं होते, तब तक आत्मा का गहन रहस्य खुलना प्रारम्भ नहीं होता।
🔵 जब तक तुम उससे अलग एक ओर खड़े नहीं होते। तब तक वह अपने को तुम पर प्रकट नहीं करेगा। तभी तुम उसे समझ सकोगे और उसका पथ प्रदर्शन कर सकोगे, उससे पहले नहीं। तभी तुम उसकी समस्त शक्तियों का उपयोग कर सकोगे। और उन्हें किसी योग्य सेवा में लगा सकोगे। उससे पहले यह सम्भव नहीं है। जब तक तुम्हें स्वयं कुछ निश्चय नहीं हो जाता, तुम्हारे लिए दूसरों की सहायता करना असम्भव है। जब तुमको पहले कहे गए सभी सूत्रों का ज्ञान हो चुकेगा, और तुम अपनी शक्तियों को विकसित एवं अपनी इन्द्रियों को विषय- भोग की लालसाओं से मुक्त करोगे तभी अन्तरात्मा के परम ज्ञान मन्दिर में प्रवेश मिलेगा। और तभी तुम्हें ज्ञात होगा कि तुम्हारे भीतर एक स्रोत है। जहाँ से वह वाणी मुखरित होती है, जिसमें जीवन के सभी रहस्यार्थ छुपे हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/antar
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