रविवार, 10 नवंबर 2019

👉 ख़ोज परमात्मा की: -

सुना है कि कोलरेडो में जब सबसे पहली दफा सोने की खदानें मिलीं, तो सारा अमेरिका दौड़ पड़ा कोलरेडो की तरफ। खबरें आईं कि जरा सा खेत खरीद लो और सोना मिल जाए। लोगों ने जमीनें खरीद डालीं।

एक करोड़पति ने अपनी सारी संपत्ति लगाकर एक पूरी पहाड़ी ही खरीद ली।

बड़े यंत्र लगाए। छोटे—छोटे लोग छोटे—छोटे खेतों में सोना खोद रहे थे, तो पहाड़ी खरीदी थी, बड़े यंत्र लाया था, बड़ी खुदाई की, बड़ी खुदाई की। लेकिन सोने का कोई पता न चला।

फिर घबड़ाहट फैलनी शुरू हो गई। सारा दांव पर लगा दिया था। फिर वह बहुत घबड़ा गया। फिर उसने घर के लोगों से कहा कि यह तो हम मर गए, सारी संपत्ति दांव पर लगा दी है और सोने की कोई खबर नहीं है!

फिर उसने इश्तहार निकाला कि मैं पूरी पहाड़ी बेचना चाहता हूं मय यंत्रों के, खुदाई का सारा सामान साथ है।

घर के लोगों ने कहा, कौन खरीदेगा? सबमें खबर हो गई है कि वह पहाड़ बिलकुल खाली है, और उसमें लाखों रुपए खराब हो गए हैं, अब कौन पागल होगा?

लेकिन उस आदमी ने कहा कि कोई न कोई हो भी सकता है।

एक खरीददार मिल गया। बेचनेवाले को बेचते वक्त भी मन में हुआ कि उससे कह दें कि पागलपन मत करो; क्योंकि मैं मर गया हूं। लेकिन हिम्मत भी न जुटा पाया कहने की, क्योंकि अगर वह चूक जाए, न खरीदे, तो फिर क्या होगा? बेच दिया।

बेचने के बाद कहा कि आप भी अजीब पागल मालूम होते हैं; हम बरबाद होकर बेच रहे हैं! पर उस आदमी ने कहा, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं; जहां तक तुमने खोदा है वहां तक सोना न हो, लेकिन आगे हो सकता है। और जहां तुमने नहीं खोदा है, वहां नहीं होगा, यह तो तुम भी नहीं कह सकते। उसने कहा, यह तो मैं भी नहीं कह सकता।

और आश्चर्य—कभी—कभी ऐसे आश्चर्य घटते हैं— पहले दिन ही, सिर्फ एक फीट की गहराई पर सोने की खदान शुरू हो गई। वह आदमी जिसने पहले खरीदी थी पहाड़ी, छाती पीटकर पहले भी रोता रहा और फिर बाद में तो और भी ज्यादा छाती पीटकर रोया, क्योंकि पूरे पहाड़ पर सोना ही सोना था। वह उस आदमी से मिलने भी गया। और उसने कहा, देखो भाग्य!

उस आदमी ने कहा, "भाग्य नहीं, तुमने दांव पूरा न लगाया, तुम पूरा खोदने के पहले ही लौट गए। एक फीट और खोद लेते!"

हमारी जिंदगी में ऐसा रोज होता है। न मालूम कितने लोग हैं जो खोजते हैं परमात्मा को, लेकिन पूरा नहीं खोजते, अधूरा खोजते हैं; ऊपर—ऊपर खोजते हैं और लौटे जाते हैं। कई बार तो इंच भर पहले से लौट जाते हैं, बस इंच भर का फासला रह जाता है और वे वापस लौटने लगते हैं। और कई बार तो  साफ दिखाई पड़ता है कि यह आदमी वापस लौट चला, यह तो अब करीब पहुंचा था, अभी बात घट जाती; यह तो वापस लौट पड़ा।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 10 Nov 2019


👉 मन को स्वच्छ और सन्तुलित रखें (भाग ४)

स्वर्ग में देवता रहते हैं। उनके पास दैत्यों की तुलना में वैभव की कमी होती है। आक्रमण के क्षेत्र में भी पहल उन्हीं की होती है। फिर भी गौरव देवत्व के हिस्से में ही रहा है। वन्दन, अभिनन्दन और अनुकरण भी उन्हीं का होता रहा है। इस क्षेत्र में प्रवेश करने में किसी को कठिनाई नहीं, अड़चन इतनी भर है कि कुसंस्कारिता के चक्रव्यूह से निकलने का प्रयत्न सच्चे मन से किया जाय। इसके लिए आदर्शों की गरिमा समझने की आवश्यकता है। यदि हनुमानों और अर्जुनों का उदाहरण सामने न रहा, कठिनाइयों की कीमत पर गौरव खरीदने का साहस न उभरा तो क्षणिक आवेश की बबूले जैसी दुर्गति होती फिरेगी।

संतुलित मस्तिष्क का प्रधान गुण है दूरदर्शी विवेकशीलता। इसके प्रकट होते ही मनुष्य तत्काल की सीमा को तोड़कर भविष्य पर दृष्टि डालता है। किसान, विद्यार्थी, व्यवसायी की तरह पूँजी लगाकर समयानुसार अधिक लाभ उपार्जन का लाभ दीख सकता है। बीज गलता तो है पर इसमें वह कुछ खोता नहीं। भूमि के साथ आत्मसात् होकर उसे देखते-देखते अंकुरित पल्लवित और फलित होने वाले विशाल वृक्ष का सुयोग मिलता है। दूरदर्शिता इससे कम में सन्तुष्ट नहीं होती। उसका अनादिकाल से एक ही परामर्श रहा है, महान के लिए तुच्छ को त्यागा जाय। कामना का भावना पर उत्सर्ग किया जाय। क्षुद्रता का महानता के पक्ष में विसर्जन किया जाय। भक्त को भगवान की प्राप्ति के लिए यही करना पड़ता है। महानता इससे कम में सधती नहीं।

जीवन का एक रूप है जिसमें ललक लिप्सा के लिए आदर्शों को गँवाना पड़ता है और महानता की ओर से मुँह मोड़ना पड़ता है। इतने पर भी यह निश्चित नहीं कि वाँछित कामनाओं की पूर्ति भी हो सकेगी या नहीं जीवन का दूसरा रूप है महानता का, जिसमें महामानवों ने श्रद्धापूर्वक प्रवेश किया है और देवोपम गौरव और स्वर्ग जैसा सन्तोष सौजन्य का भरपूर रसास्वादन किया है। दोनों में से किसे चयन किया जाय। इसी के निर्धारण में उस सूझ-बूझ का परिचय मिलता है, जिसे मनोजयी, धीर-वीर अपनाते और असंख्यों के लिए अनुगमन की पथ रेखा विनिर्मित करते है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 जीवन का संदेश -वासना नहीं विवेक

वासना या विवेक दो में से एक का चुनाव करना ही पड़ता है। जिन्दगी या तो वासना के पीछे भागती है अथवा फिर विवेक का अनुसरण करती है। वासना तृप्ति का भरोसा दिलाती है, लेकिन अतृप्ति को और अधिक गहरा करती है। इसलिए वासना के पीछे भागने के लिए आँखों का बन्द होना जरूरी है। जो आँखें खोलकर चलने का साहस करते हैं, वे अपने ही आप विवेक को पा जाते हैं और विवेक की आग में सारी अतृप्ति वैसे ही भाप बनकर उड़ जाती है, जैसे सूरज की तपन में ओस कण।
  
प्राणिविज्ञानी लिबमैन ने एक खास तरह के कीड़ों का जिक्र किया है। ये कीड़े हमेशा ही अपने नेता कीड़े के पीछे चलते हैं। लिबमैन ने एक बार इन कीड़ों को एक गोल थाली में रख दिया। उन सबने चलना शुरू किया और फिर चलते गये। इस गोल रास्ते का कोई अन्त तो था नहीं, लेकिन उन्हें भला इसका क्या पता था? वे तो बस चल रहे थे, चलते जा रहे थे। आखिरकार वे उस समय तक चलते रहे, जब तक कि थक कर गिर नहीं गये और गिर कर मर नहीं गये।
  
वासनाओं के पीछे भागते हुए व्यक्तियों की दशा भी कुछ इसी तरह की है। मौत से पहले वे कभी नहीं जान पाते कि जिस मार्ग पर वे हैं, वह मार्ग नहीं, चक्कर है। मार्ग की कोई मञ्जिल होती है। यह कहीं पहुँचाता है। लेकिन चक्कर तो बस गोल-गोल घुमाता है, पहुँचाता कहीं भी नहीं। जो वासनाओं के पीछे दौड़ रहे हैं, वे भी बस चलते जाते हैं। वे यह भी विचार नहीं कर पाते कि जिस राह पर वे हैं, वह कहीं कोल्हू का चक्कर तो नहीं? वासनाओं की राह गोल है। घूम-फिर कर हम वहीं उन्हीं वासनाओं पर अटक जाते हैं।
  
दुष्पूर वासनाओं के पीछे चलकर भला कब, कौन, कहाँ पहुँचा है? इस राह पर न तो तृप्ति है, न तुष्टि और न ही शान्ति। कम ही ऐसे भाग्यशाली होते हैं जो अपनी मौत से पहले इस अज्ञानपूर्ण अन्ध भटकन से उबर कर विवेक का अनुसरण करने लगते हैं। विवेक उन्हें एक साथ सब कुछ दे देता है। महर्षि रमण कहते थे, जो वासनाओं के अन्धकार में जी रहे हैं, उनके लिए मेरे हृदय में आँसू भर आते हैं, क्योंकि उन्हें अतृप्ति, असंतुष्टि और अशान्ति के सिवाय कुछ नहीं मिलेगा। उस आदमी से बढ़कर रास्ते से भटका हुआ कौन है, जो कि वासनाओं के पीछे चलता है। इसलिए जीवन का यही एक संदेश है- वासना नहीं, केवल विवेक।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ ११७

👉 Gayatri Sadhna truth and distortions Q.2

Q.2. Why is Gayatri visualized as a young woman with its peculiar ornaments?

One should not be under the illusion that Gayatri is a living being with one mouth and two arms or five mouths and ten arms. Woman has intrinsic superiority over man and so Gayatri is given mother’s form. Having Kamandal and a book in Gayatri Mata’s hands are symbolic of knowledge and science. There is no living being in the world having five mouths and ten arms. This is just a symbolic representation. Five mouths signify Panch-kosh  as the five, sheaths of  human existence and ten arms represent ten characteristic features of religion.
          
The symbolism of Mother Gayatri sitting on a swan is that the Sadhak should keep discriminative wisdom like a royal swan or Paramhans. It is said about the mythological Rajhans (royal swan) that it has the power to discriminate the good from the bad, to separate milk from water, to pick up only pearls and leave pebbles. It never eats worms and insects. This is an example of the soul status  of a Param-hansa. Ordinarily swans live on insects, neither consume  milk nor dive to the depths of the ocean to find pearls. The representation of God and powers of Divinity as female deities is a unique feature of Indian spirituality.

There are compelling reasons for this insight. Nature has exclusively equipped the female of the species with powers of reproduction and sustenance of the infant. The expression of selfless love of a mother can only be the true representation of love of God for human beings. Hence, Gayatri has been conceived as Mother. Since, Divinity never grows old and is eternally young and beautiful, Mother Gayatri is shown as young attractive maiden. Besides, meditating on a beautiful woman as symbolic of Divinity also helps one develop a platonic - pious attitude towards women in general. The lotus as Her seat means the presence of Divinity in an environment which  is fragrant, pleasant and blossomingly cheerful.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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