🔶 दूसरे को बदनीयत मान बैठना, उसके हर कार्य में द्वेष-दुर्भाव की गंध सूँघना अपनी तुच्छता का प्रतीक है। सद्भावना से भी कोई व्यक्ति अपने से असहमत हो सकता है और अपनी आशाओं के प्रतिकूल उत्तर दे सकता है। इतने मात्र से हमें कु्रद्ध क्यों होना चाहिए। एक दूसरे के प्रति जो गलतफहमी की गाँठें मन में बन जाती हैं, उनके निवारण का उपाय एक ही है कि उससे एकान्त में जी खोलकर बात की जाय और वास्तविकता तथा गलतफहमी का सही रूप से निरूपण कर लिया जाय। इससे द्वेष का सबसे जबरदस्त किला सहज ही ढह सकता है।
🔷 सारे संसार को अपनी इच्छानुकूल बना लेना कठिन है, क्योंकि यह परमात्मा का बनाया हुआ है और अपनी इस कृति को वही बदल सकता है, पर अपनी निज की दुनिया को अपने अनुकूल बदल सकना हममें से हर एक के लिए संभव है। जिस प्रकार ईश्वर का बनाया हुआ एक संसार है, उसी प्रकार हर मनुष्य की बनायी हुई भी उसकी अपनी एक निजी दुनिया होती है, जिसे वह अपने दृष्टिकोण के अनुसार बनाता है। उसी में संतुष्ट-असंतुष्ट, खिन्न-प्रसन्न बना रहता है। यदि कोई चाहे तो अपनी दुनिया को बदल भी सकता है।
🔶 दुनिया किसी को तब बड़ा मानती है, जब वह औसत दर्जे के आदमी से अधिक ऊँचा सिद्ध होता है। जिसका सोचने का तरीका उच्च आदर्शों पर अवलम्बित है, जो किसी मार्ग पर पैर बढ़ाने से पहले सौ बार यह सोचता है कि एक श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए यह उचित है या नहीं, वस्तुतः वही बड़प्पन का अधिकारी है।
🔷 सारे संसार को अपनी इच्छानुकूल बना लेना कठिन है, क्योंकि यह परमात्मा का बनाया हुआ है और अपनी इस कृति को वही बदल सकता है, पर अपनी निज की दुनिया को अपने अनुकूल बदल सकना हममें से हर एक के लिए संभव है। जिस प्रकार ईश्वर का बनाया हुआ एक संसार है, उसी प्रकार हर मनुष्य की बनायी हुई भी उसकी अपनी एक निजी दुनिया होती है, जिसे वह अपने दृष्टिकोण के अनुसार बनाता है। उसी में संतुष्ट-असंतुष्ट, खिन्न-प्रसन्न बना रहता है। यदि कोई चाहे तो अपनी दुनिया को बदल भी सकता है।
🔶 दुनिया किसी को तब बड़ा मानती है, जब वह औसत दर्जे के आदमी से अधिक ऊँचा सिद्ध होता है। जिसका सोचने का तरीका उच्च आदर्शों पर अवलम्बित है, जो किसी मार्ग पर पैर बढ़ाने से पहले सौ बार यह सोचता है कि एक श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए यह उचित है या नहीं, वस्तुतः वही बड़प्पन का अधिकारी है।
🔷 यदि आप जीवन में आई विरोधी परिस्थितियों से हार बैठे हैं, अपनी भावनाओं के प्रतिकूल घटनाओं से ठोकर खा चुके हैं और फिर जीवन की उज्ज्वल संभावनाओं से निराश हो बैठे हैं तो उद्धार का एक ही मार्ग है- उठिए और जीवनपथ की कठोरताओं को स्वीकार कर आगे बढ़िए। तब कहीं आप उच्च मंजिल तक पहुँच सकते हैं। जीना है तो यथार्थ को अपनाना ही पड़ेगा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है जो बिना इसके मंजिल तक पहुँचा दे।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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