रविवार, 13 अक्टूबर 2019

👉 आभास

एक बार एक व्यक्ति की उसके बचपन के टीचर से मुलाकात होती है, वह उनके चरण स्पर्श कर अपना परिचय देता है।

वे बड़े प्यार से पुछती है, 'अरे वाह, आप मेरे विद्यार्थी रहे है, अभी क्या करते हो, क्या बन गए हो?'

'मैं भी एक टीचर बन गया हूं ' वह व्यक्ति बोला,' और इसकी प्रेरणा मुझे आपसे ही मिली थी जब में 7 वर्ष का था।'

उस टीचर को बड़ा आश्चर्य हुआ, और वे बोली कि,' मुझे तो आपकी शक्ल भी याद नही आ रही है, उस उम्र में मुझसे कैसी प्रेरणा मिली थी??'

वो व्यक्ति कहने लगा कि ....

'यदि आपको याद हो, जब में चौथी क्लास में पढ़ता था, तब एक दिन सुबह सुबह मेरे सहपाठी ने उस दिन उसकी महंगी घड़ी  चोरी होने की आपसे शिकायत की थी, आपने क्लास का दरवाज़ा बन्द करवाया और सभी बच्चो को क्लास में पीछे एक साथ लाइन में खड़ा होने को कहा था, फिर आपने सभी बच्चों की जेबें टटोली थी, मेरी जेब से आपको घड़ी मिल गई थी, जो मैंने चुराई थी, पर चूंकि आपने सभी बच्चों को अपनी आंखें बंद रखने को कहा था तो किसी को पता नहीं चला कि घड़ी मैंने चुराई थी।

टीचर उस दिन आपने मुझे लज्जा व शर्म से बचा लिया था, और इस घटना के बाद कभी भी आपने अपने व्यवहार से मुझे यह नही लगने दिया कि मैंने एक गलत कार्य किया था, आपने बगैर कुछ कहे मुझे क्षमा भी कर दिया और दूसरे बच्चे मुझे चोर कहते इससे भी बचा लिया था।'

ये सुनकर टीचर बोली,
'मुझे भी नही पता था बेटा कि वो घड़ी किसने चुराई थी' वो व्यक्ति बोला,'नहीं टीचर, ये कैसे संभव है? आपने स्वयं अपने हाथों से चोरी की गई घड़ी मेरे जेब से निकाली थी।'

टीचर बोली.....
'बेटा मैं जब सबके पॉकेट चेक कर रही थी, उस समय मैने कहा था कि सब अपनी आंखे बंद रखेंगे, और वही मैंने भी किया था, मैंने स्वयं भी अपनी आंखें बंद रखी थी'

मित्रो....
किसी को उसकी ऐसी शर्मनाक परिस्थिति से बचाने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है?

यदि हमें किसी की कमजोरी मालूम भी पड़ जाए तो उसका दोहन करना तो दूर, उस व्यक्ति को ये आभास भी ना होने देना चाहिये कि आपको इसकीं जानकारी भी है।

👉 आज का सद्चिन्तन Today Thought 13 Oct 2019




👉 आलस्य एक प्रकार की आत्म-हत्या ही है (भाग १)

 ‘आलस्य एक घोर पाप है’—ऐसा सुनकर कितने ही आश्चर्य में पड़कर सोच सकते हैं क्या अजीब-सी बात है! भला आलस्य किस प्रकार पाप हो सकता है? पाप तो चोरी, डकैती, लूट-खसोट, विश्वासघात, हत्या, व्यभिचार आदि कुकर्म ही होते हैं। इनसे मनुष्य का नैतिक पतन होता है और वह धर्म से गिर जाता है। आलस्य किस प्रकार पाप माना जा सकता है? आलसी व्यक्ति तो चुपचाप एक स्थान पर पड़ा-पड़ा जिन्दगी के दिन काटा करता है। वह न तो अधिक काम ही करता है और न समाज में घुलता-मिलता है, इसलिये उससे पाप हो सकने की सम्भावना नहीं के समान ही नगण्य रहती है।

पाप क्या है? वह हर आचार-व्यवहार एवं विचार पाप ही है जिससे किसी को अनुचित रीति से शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट अथवा हानि हो। आत्म-हिंसा अथवा आत्म-हानि एक जघन्य-पाप कहा गया है। आलसी सबसे पहले इसी पाप का भागी होता है। मनुष्य को शरीररूपी धरोहर मिली हुई है। निष्क्रिय पड़ा रहकर आलसी इसे बरबाद किया करता है जबकि उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि कोई समझदार व्यक्ति उससे इस अपराध का उपालम्भ करता है तो वह बड़े दम्भ से यही कहता है कि शरीर उसका अपना है। रखता है या बर्बाद करता है—इस बात से किसी दूसरे का क्या सम्बन्ध हो सकता है?

आलसी का यह अहंकार स्वयं एक पाप है। उसका यह कथन उसकी अनधिकारिक अहमन्यता को घोषित करता है। शरीर किसी की अपनी संपत्ति नहीं। वह ईश्वर-प्रदत्त एक साधन है जो भव बन्धन में बँधी आत्मा को इस शरीर रूपी साधन को उद्देश्य-दिशा में उपभोग करने क  कर्तव्य भर ही मिला है। उसे अपना समझने अथवा बरबाद करने का अधिकार किसी को नहीं है। आलसी निरन्तर इस अनधिकार चेष्टा को करता हुआ पाप करता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1966 पृष्ठ 23

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1966/November/v1.23

👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ७९)

👉 अथर्ववेदीय चिकित्सा पद्धति के प्रणेता युगऋषि

आध्यात्मिक चिकित्सा के आचार्य परम पूज्य गुरुदेव ने वैदिक महर्षियों की परम्परा के इस युग में नवजीवन दिया। उन्होंने अध्यात्म चिकित्सा के वैदिक सूत्रों, सत्यों एवं रहस्यमय प्रयोगों की कठिन साधना दुर्गम हिमालय में सम्पन्न की। उनके द्वारा दिए गए संकेतों के अनुसार यह जटिल साधना स्वयं वैदिक युग के महर्षियों के सान्निध्य में सम्पन्न हुई। वामदेव, कहोड़, अथर्वण एवं अंगिरस आदि ये महर्षि अभी भी अपने अप्रत्यक्ष शरीर से देवात्मा हिमालय में निवास करते हैं। परम गुरु स्वामी सर्वेश्वरानन्द जी ने पूज्य गुरुदेव को उनसे मिलवाया था। उन सबने गुरुदेव की पात्रता, पवित्रता व प्रामाणिकता परख कर उन्हें अध्यात्म चिकित्सा के सभी रहस्यों से अवगत कराया।

यूं तो ऐसी रहस्यात्मक चर्चाएँ गुरुदेव कम ही किया करते थे। फिर भी यदा- कदा प्रश्रों के समाधान के क्रम में उनके मुख से ऐसे रहस्यात्मक संकेत उभर आते थे। ऐसे ही क्रम में एक दिन उन्होंने कहा था कि अध्यात्म चिकित्सा की बातें बहुत लोग करते हैं, लेकिन इसका मर्म बहुत इने- गिने लोग जानते हैं। अध्यात्म चिकित्सा दरअसल वेदविद्या है। यूं तो इसका प्रारम्भ ऋग्वेद से ही हो जाता है, यजुष और साम में भी इसके प्रयोग मिलते हैं। लेकिन इसका समग्र व संवर्धित रूप अथर्ववेद में मिलता है। इस अथर्वण विद्या को सही व सम्यक् ढंग से जानने पर ही अध्यात्म चिकित्सा के सभी रहस्य जाने जा सकते हैं। यह बताने के बाद उन्होंने धीमे स्वर में कहा कि मैंने स्वयं महर्षि अथर्वण एवं महर्षि अंगिरस से इन रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया है।

शब्द व्युत्पत्ति के आधार पर ‘अथर्वा’ शब्द का अर्थ ‘अचंचलता की स्थिति’ है। ‘थर्व इति गतिर्नाम न थर्व इति अथर्वा’। थर्व का मतलब गति है और गति का अर्थ चंचलता है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक आदि सभी प्रकार की चंचलता को अथर्वविद्या की अध्यात्म चिकित्सा से नियंत्रित करके साधक सम्पूर्ण स्वस्थ व स्थितप्रज्ञ बनाया जाता है। परम पूज्य गुरुदेव के मुख से हमने एक और बात सुनी है। वह कहते थे कि वैदिक वाङ्मय में अथर्ववेद के ‘ब्रह्मवेद’, ‘भैषज्यवेद’ आदि कई नाम मिलते हैं। इन्हीं में से एक नाम ‘अथर्वाङ्गिरस’ भी है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ १११

👉 गुरुवर की वाणी

आज की विषम परिस्थितियों में युग निर्माण परिवार के व्यक्तियों को महाकाल ने बड़े जतन से ढूंढ़-खोजकर निकाला है। आप सभी बड़े ही महत्त्वपूर्ण एवं सौभाग्यशाली हैं। इस समय कुछ खास जिम्मेदारियों के लिए आपको महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। भगवान् के कार्य में भागीदारी निभानी है। आप धरती पर केवल बच्चे पैदा करने और पेट भरने के लिए नहीं आए हैं, बल्कि आज की इन विषम परिस्थितियों को बदलने में भगवान् की मदद करने के लिए आए हैं।

भगवान् अगर किसी पर प्रसन्न होते हैं, तो उसे बहुत सारी धन-सम्पत्ति देते हैं तथा औलाद देते हैं, यह बिलकुल गलत ख्याल है। वास्तविकता यह है कि जो भगवान् के नजदीक होते हैं उन्हें धन-सम्पत्ति एवं औलाद से अलग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में ही उनके द्वारा यह संभव हो सकता है कि वे भगवान् का काम करने के लिए अपना साहस एकत्रित कर सकें और श्रेय प्राप्त कर सके। इससे कम कीमत पर किसी को भी श्रेय नहीं मिला है।

हमारी उनसे प्रार्थना है, जो जागरूक हैं। जो सोये हुए हैं उनसे हम क्या कह सकते हैं। आपसे कहना चाहते हैं कि फिर कोई ऐसा समय नहीं आयेगा, जिसमें आपको औलाद या धन से वंचित रहना पड़े, परन्तु अभी इस जन्म में इन दोनों की बाबत न सोचें। विराम लगा दें। आपको भगवान् के काम के अन्तर्गत रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता सदा पूरी होती रहेगी, इसके लिए किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।

अगले दिनों धन का संग्रह कोई नहीं कर सकेगा, क्योंकि आने वाले दिनों में धन के वितरण पर लोग जोर देंगे। शासन भी अगले दिनों आपको कुछ जमा नहीं करने देगा। अतः आप मालदार बनने का विचार छोड़ दें। आप अगर जमाखोरी का विचार छोड़ देंगे तो इसमें कुछ हर्ज नहीं है। अगर आप पेट भरने-गुजारे भर की बात सोचें तो कुछ हर्ज नहीं है। आप सन्तान के लिए धन जमा करने, उनके लिए व्यवस्था बनाने की चिन्ता छोड़ देंगे। उन्हें उनके ढंग से जीने दें। संसार में जो आया है, वह अपना भाग्य लेकर आया है।

आगामी दिनों प्रज्ञावतार का कार्य विस्तार होने वाला है। उस काम की जिम्मेदारी केवल ब्राह्मण तथा संत ही पूरा कर सकते हैं। आपको इन दो वर्गों में आकर खड़ा हो जाना चाहिए तथा प्रज्ञावतार के सहयोगी बनकर उनके कार्य को पूरा करना चाहिए। अगर आप अपने खर्च में कटौती करके तथा समय में से कुछ बचत करके इस ब्राह्मण एवं सन्त परम्परा को जीवित कर सकें, तो आने वाली पीढ़ियां आप पर गर्व करेंगी। अगर समस्याओं के समाधान करने के लिए खर्चे में कुछ कमी आती है, तो हम आपको सहयोग करेंगे।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सितम्बर-1980 शान्तिकुंज में उद्बोधन

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