👉 चिकित्सक का व्यक्तित्व तपःपूत होता है
इस दृढ़ता के लिए चिकित्सक में संवेदनशीलता के साथ सहिष्णुता भी जरूरी है। वैसे तो यह अनुभूत सच है कि संवदनशीलता, सहिष्णुता, सहनशीलता को विकसित करती है। फिर भी इसके विकास पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि रोगी अवस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से असहाय होने के साथ मानसिक रूप से चिड़चिड़ा हो जाता है। उसमें व्यावहारिक असामान्यताओं का पनपना सामान्य बात है। यदा- कदा तो ये व्यावहारिक असामान्यताएँ इतनी अधिक असहनीय होती हैं, जिन्हें उसके सगे स्वजन भी नहीं सहन कर पाते। उनकी भी यही कोशिश होती है कि अपने इस रोगी परिजन को किसी चिकित्सक के पल्ले बांधकर अपना पीछा छुड़ा लें। ऐसे में चिकित्सक की सहनशीलता उसकी चिकित्सा विधियों को असरदार एवं कारगर बना सकती है।
यूं तो सम्बन्धों का स्वरूप कोई भी हो, पर सम्बन्ध सूत्र हमेशा ही कोमल- नाजुक होते हैं। पर चिकित्सक एवं रोगी के सम्बन्ध सूत्रों की कोमलता व नाजुकता कुछ ज्यादा ही बढ़ी- चढ़ी होती है। थोड़ा सा भी आघात इन्हें हमेशा के लिए तहस- नहस कर सकता है। ऐसे में चिकित्सक को विशेष सावधान होना जरूरी है। क्योंकि रोगी के विगत अनुभवों की कड़वाहट उसे अपनी चिकित्सा साधना से धोनी होती है। कई बार रोगी के पिछले अनुभव अति दुःखद होते हैं। इनकी पीड़ा उसे हमेशा सालती रहती है। विगत में मिले हुए अपमान, लांछन, कलंक, धोखे, अविश्वास को वह भूल नहीं पाता। यहाँ तक कि उसका सम्बन्धों एवं अपनेपन से भरोसा उठ चुका होता है। ऐसी स्थिति में वह चिकित्सक को भी अविश्वसनीय नजरों से देखता है। उसे भी बेइमान व धोखेबाज समझता है। बात- बात पर उस पर चिड़चिड़ाता व गाली बकता है। उसकी इस मनोदशा को सुधारना व संवारना चिकित्सक का काम है। संवेदनशील सहनशीलता का अवरिाम प्रवाह ही यह चमत्कार कर सकता है।
स्थिति जो भी हो रोगी कुछ भी कहे या करे, उसके प्रत्येक आचरण को भुलाकर उसकी चिकित्सा करना चिकित्सक का धर्म है, उसका कर्तव्य है। आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो उसकी अनिवार्यता और भी बढ़ी- चढ़ी है। सच्चा आध्यात्मिक चिकित्सक वही है जो रोगी की अनास्था को आस्था में, अविश्वास को विश्वास में, अश्रद्धा को श्रद्धा में, द्वेष को मित्रता में, घृणा को प्रेम में बदल दे। इसी को उसके तपस्वी व्यक्तित्व एवं आध्यात्मिक रूप से ऊर्जावान होने का प्रमाण माना जा सकता है। हर युग में आध्यात्मिक चिकित्सा वही करते रहे हैं। महाप्रभु चैतन्य ने जघाई- मघाई के साथ यही किया था। योगी गोरखनाथ ने दस्यु दुर्दम के साथ यही चमत्कार किया था। स्वयं युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव ने हजारों रोगियों की इसी विधि से चिकित्सा की। डाकू अंगुलीमाल की महात्मा बुद्ध के द्वारा की गयी आध्यात्मिक चिकित्सा को सभी जानते हैं। यह सत्य कथा आज भी किसी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए आदर्श है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 55
इस दृढ़ता के लिए चिकित्सक में संवेदनशीलता के साथ सहिष्णुता भी जरूरी है। वैसे तो यह अनुभूत सच है कि संवदनशीलता, सहिष्णुता, सहनशीलता को विकसित करती है। फिर भी इसके विकास पर विशेष ध्यान देना आवश्यक है। क्योंकि रोगी अवस्था में व्यक्ति शारीरिक रूप से असहाय होने के साथ मानसिक रूप से चिड़चिड़ा हो जाता है। उसमें व्यावहारिक असामान्यताओं का पनपना सामान्य बात है। यदा- कदा तो ये व्यावहारिक असामान्यताएँ इतनी अधिक असहनीय होती हैं, जिन्हें उसके सगे स्वजन भी नहीं सहन कर पाते। उनकी भी यही कोशिश होती है कि अपने इस रोगी परिजन को किसी चिकित्सक के पल्ले बांधकर अपना पीछा छुड़ा लें। ऐसे में चिकित्सक की सहनशीलता उसकी चिकित्सा विधियों को असरदार एवं कारगर बना सकती है।
यूं तो सम्बन्धों का स्वरूप कोई भी हो, पर सम्बन्ध सूत्र हमेशा ही कोमल- नाजुक होते हैं। पर चिकित्सक एवं रोगी के सम्बन्ध सूत्रों की कोमलता व नाजुकता कुछ ज्यादा ही बढ़ी- चढ़ी होती है। थोड़ा सा भी आघात इन्हें हमेशा के लिए तहस- नहस कर सकता है। ऐसे में चिकित्सक को विशेष सावधान होना जरूरी है। क्योंकि रोगी के विगत अनुभवों की कड़वाहट उसे अपनी चिकित्सा साधना से धोनी होती है। कई बार रोगी के पिछले अनुभव अति दुःखद होते हैं। इनकी पीड़ा उसे हमेशा सालती रहती है। विगत में मिले हुए अपमान, लांछन, कलंक, धोखे, अविश्वास को वह भूल नहीं पाता। यहाँ तक कि उसका सम्बन्धों एवं अपनेपन से भरोसा उठ चुका होता है। ऐसी स्थिति में वह चिकित्सक को भी अविश्वसनीय नजरों से देखता है। उसे भी बेइमान व धोखेबाज समझता है। बात- बात पर उस पर चिड़चिड़ाता व गाली बकता है। उसकी इस मनोदशा को सुधारना व संवारना चिकित्सक का काम है। संवेदनशील सहनशीलता का अवरिाम प्रवाह ही यह चमत्कार कर सकता है।
स्थिति जो भी हो रोगी कुछ भी कहे या करे, उसके प्रत्येक आचरण को भुलाकर उसकी चिकित्सा करना चिकित्सक का धर्म है, उसका कर्तव्य है। आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए तो उसकी अनिवार्यता और भी बढ़ी- चढ़ी है। सच्चा आध्यात्मिक चिकित्सक वही है जो रोगी की अनास्था को आस्था में, अविश्वास को विश्वास में, अश्रद्धा को श्रद्धा में, द्वेष को मित्रता में, घृणा को प्रेम में बदल दे। इसी को उसके तपस्वी व्यक्तित्व एवं आध्यात्मिक रूप से ऊर्जावान होने का प्रमाण माना जा सकता है। हर युग में आध्यात्मिक चिकित्सा वही करते रहे हैं। महाप्रभु चैतन्य ने जघाई- मघाई के साथ यही किया था। योगी गोरखनाथ ने दस्यु दुर्दम के साथ यही चमत्कार किया था। स्वयं युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव ने हजारों रोगियों की इसी विधि से चिकित्सा की। डाकू अंगुलीमाल की महात्मा बुद्ध के द्वारा की गयी आध्यात्मिक चिकित्सा को सभी जानते हैं। यह सत्य कथा आज भी किसी आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए आदर्श है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 55