गुरुवार, 23 सितंबर 2021

👉 शोरगुल किसलिये

मक्खी एक हाथी के ऊपर बैठ गयी। हाथी को पता न चला मक्खी कब बैठी। मक्खी बहुत भिनभिनाई आवाज की, और कहा, ‘भाई! तुझे कोई तकलीफ हो तो बता देना। वजन मालूम पड़े तो खबर कर देना, मैं हट जाऊंगी।’ लेकिन हाथी को कुछ सुनाई न पड़ा। फिर हाथी एक पुल पर से गुजरने लगा बड़ी पहाड़ी नदी थी, भयंकर गङ्ढ था, मक्खी ने कहा कि ‘देख, दो हैं, कहीं पुल टूट न जाए! अगर ऐसा कुछ डर लगे तो मुझे बता देना। मेरे पास पंख हैं, मैं उड़ जाऊंगी।’

हाथी के कान में थोड़ी-सी कुछ भिनभिनाहट पड़ी, पर उसने कुछ ध्यान न दिया। फिर मक्खी के विदा होने का वक्त आ गया। उसने कहा, ‘यात्रा बड़ी सुखद हुई, साथी-संगी रहे, मित्रता बनी, अब मैं जाती हूं, कोई काम हो, तो मुझे कहना, तब मक्खी की आवाज थोड़ी हाथी को सुनाई पड़ी, उसने कहा, ‘तू कौन है कुछ पता नहीं, कब तू आयी, कब तू मेरे शरीर पर बैठी, कब तू उड़ गयी, इसका मुझे कोई पता नहीं है। लेकिन मक्खी तब तक जा चुकी थी सन्त कहते हैं, ‘हमारा होना भी ऐसा ही है। इस बड़ी पृथ्वी पर हमारे होने, ना होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

हाथी और मक्खी के अनुपात से भी कहीं छोटा, हमारा और ब्रह्मांड का अनुपात है। हमारे ना रहने से क्या फर्क पड़ता है? लेकिन हम बड़ा शोरगुल मचाते हैं। वह शोरगुल किसलिये है? वह मक्खी क्या चाहती थी?

वह चाहती थी कि हाथी स्वीकार करे, तू भी है,,,,, तेरा भी अस्तित्व है, वह पूछना चाहती थी। हमारा अहंकार अकेले नहीं जी सकता,,,,,,, दूसरे उसे मानें, तो ही जी सकता है।

इसलिए हम सब उपाय करते हैं कि किसी भांति दूसरे उसे मानें, ध्यान दें, हमारी तरफ देखें और हमारी उपेक्षा न हो।

सन्त विचार- हम वस्त्र पहनते हैं तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,, स्नान करते हैं सजाते-संवारते हैं ताकि दूसरे हमें सुंदर समझें,,,,,,, धन इकट्ठा करते, मकान बनाते, तो दूसरों को दिखाने के लिये,,,,,,,, दूसरे देखें और स्वीकार करें कि हम कुछ विशिष्ट हैं, ना कि साधारण।

हम मिट्टी से ही बने हैं और फिर मिट्टी में मिल जाएंगे,,,,,,,,

हम अज्ञान के कारण खुद को खास दिखाना चाहते हैं,,, वरना तो हम बस एक मिट्टी के पुतले हैं और कुछ नहीं।

अहंकार सदा इस तलाश में रहता है कि वे आंखें मिल जाएं, जो मेरी छाया को वजन दे दें।

याद रखना चाहिए आत्मा के निकलते ही यह मिट्टी का पुतला फिर मिट्टी बन जाएगा इसलिए हमे झूठा अहंकार त्याग कर,,, जब तक जीवन है सदभावना पूर्वक जीना चाहिए और सब का सम्मान करना चाहिए,,,, क्योंकि जीवों में परमात्मा का अंश आत्मा  है।
 

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ६६)

एक ही सत्ता ओत-प्रोत है

ब्रह्माण्ड की शक्तियों का और पिण्ड की—मनुष्य की शक्तियों का एकीकरण कहां होता है शरीर शास्त्री इसके लिए सुषुम्ना शीर्षक, मेडुला आवलांगाटा—की ओर इशारा करते हैं। पर वस्तुतः वह वहां है नहीं। मस्तिष्क स्थित ब्रह्मरन्ध्र को ही वह केन्द्र मानना पड़ेगा, जहां ब्राह्मी और जैवी चेतना का समन्वय सम्मिलन होता है।

ऊपर के तथ्यों पर विचार करने से यह एकांगी मान्यता ही सीमित नहीं रहती कि जड़ से ही चेतन उत्पन्न होता है इन्हीं तथ्यों से यह भी प्रमाणित होता है कि चेतन भी जड़ की उत्पत्ति का कारण है। मुर्गी से अण्डा या अण्डे से मुर्गी—नर से नारी या नारी से नर—बीज से वृक्ष या वृक्ष से बीज जैसे प्रश्न अभी भी अनिर्णीत पड़े हैं। उनका हल न मिलने पर भी किसी को कोई परेशानी नहीं। दोनों को अन्योन्याश्रित मानकर भी काम चल सकता है। ठीक इसी प्रकार जड़ और चेतन में कौन प्रमुख है इस बात पर जोर न देकर यही मानना उचित है कि दोनों एक ही ब्रह्म सत्ता की दो परिस्थितियां मात्र हैं। द्वैत दीखता भर है वस्तुतः यह अद्वैत ही बिखरा पड़ा है।

न केवल चेतन समुदाय अपितु सृष्टि का प्रत्येक कण पूर्णता के लिये लालायित और गतिशील है। भौतिक-जीवन में जिसके पास स्वल्प सम्पदा है वह और अधिक की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है, पर जो धनाढ्य हैं उन्हें भी सन्तोष नहीं। उसी के परिमाण में बह और अधिक प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील दिखाई देता है। बड़े-बड़े सम्राट तक अपनी इस अपूर्णता को पाटने के लिये आपाधापी मचाते और दूसरे साम्राज्यों की लूटपाट करते पाये जाते हैं तो लगता है सृष्टि का हर प्राणी साधनों की दृष्टि से अपूर्ण है इस दिशा में पूर्णता प्राप्त करने की हुड़क हर किसी में चढ़ी बैठी दिखाई देती है।

इतिहास का विद्यार्थी अपने आपको गणित में शून्य पाता है तो वह अपने आपको अपूर्ण अनुभव करता है, भूगोल का चप्पा छान डालने वाले को संगीत के स्वर बेचैन कर देते हैं उसे अपना ज्ञान थोथा दिखाई देने लगता है, बड़े-बड़े चतुर वकील और बैरिस्टरों को जब रोग बीमारी के कारण डाक्टरों की शरण जाना पड़ता है तो उनका अपने ज्ञान का—अभिमान चकनाचूर हो जाता है। बौद्धिक दृष्टि से हर प्राणी सीमित है और हर कोई अगाध ज्ञान का पण्डित बनने की तत्पर दिखाई देता है।

नदियां अपनी अपूर्णता को दूर करने के लिये सागर की ओर भागती हैं, वृक्ष आकाश छूने दौड़ते हैं, धरती स्वयं भी अपने आपको नचाती हुई न जाने किस गन्तव्य की ओर अधर आकाश में भागी जा रही है, अपूर्णता की इस दौड़ में समूचा सौर-मण्डल और उससे परे का अदृश्य संसार सम्मिलित है। पूर्णता प्राप्ति की बेचैनी न होती तो सम्भवतः संसार में रत्ती भर भी सक्रियता न होती सर्वत्र नीरव सुनसान पड़ा होता, न समुद्र उबलता, न मेघ बरसते, न वृक्ष उगते, न तारागण चमकते और न ही वे विराट् की प्रदक्षिणा में मारे-मारे घूमते?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १०४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ६६)

ज्ञान ही है भक्ति का साधन

इन सात्त्विक दृश्यावलियों के बीच गायत्री महामन्त्र के द्रष्टा महान् ऋषि विश्वामित्र ने कहा- ‘‘हे महर्षि आश्वालायन! आपकी प्रतिभा, विद्या, ज्ञान की कथाएँ ऋषियों के समूह में सादर कही-सुनी जाती हैं। आप अपने अनुभवों में घोलकर भक्ति एवं ज्ञान के सम्बन्ध का निरूपण करें।’’ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के इस प्रस्ताव ने आश्वलायन ऋषि को असमंजस में डाल दिया। सम्भवतः वह इसके लिए तैयार नहीं थे। इसीलिए उन्होंने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ कहा भी, ‘‘मैं तो यहाँ आप सब महनीय जनों के संग के लिए आया हूँ, फिर इस भक्ति अमृत के मध्य मेरी वाणी कितनी उपयुक्त एवं सार्थक होगी।’’ आश्वलायन के इन स्वरों के साथ देवों एवं ऋषियों के अनुरोध के स्वर भी तीव्र हो उठे।
    
इस आग्रह को वे ठुकरा न सके और कहने लगे कि ‘‘मैं आप सभी के आदेशों को शिरोधार्य करके अपना अनुभव सत्य कहने का प्रत्यन कर रहा हूँ। परन्तु इसका निष्कर्ष तय करने की जिम्मेदारी आप सबकी है। मेरी ये अनुभूतियाँ तब की हैं, जबकि मैं युवावस्था को पारकर प्रौढ़ावस्था में प्रवेश कर रहा था। अपने अध्ययन के प्राथमिक चरण से ही मुझे सराहना मिली थी। आचार्यगण मुझे प्रतिभा एवं विद्या का पर्याय मानते थे। अनेकों किम्वदन्तियाँ मेरे बारे में प्रचारित हो रही थीं। युवावस्था आते तक मैंने सभी विद्याओं एवं कलाओं में निपुणता प्राप्त कर लीं परन्तु न जाने क्यों मन बेचैन रहता था। जब-तब एक बैचेनी मुझे घेर लेती थी। इसे हटाने के लिए मेरे सभी तर्क निष्फल थे। सारा शास्त्र ज्ञान अधूरा था।
    
आखिरकार मैं हिमालय आ गया। सोचा यही था कि हिमवान की शीतलता अवश्य मेरी आन्तरिक ऊष्णता का शमन करेगी। यहाँ आकर मैं यूँ ही सुमेरू की शृखंलाओं के बीच भ्रमण करने लगा। यहाँ भ्रमण करते हुए मुझे परम दीर्घजीवी देवों के भी पूज्य महर्षि लोमश मिले। उन्होंने मेरे सिर पर आशीष का हाथ रखा। उनका वह स्पर्श अतिअलौकिक था। इस स्पर्श ने मेरी सारी क्षुधा, तृषा, थकान व बेचैनी हर ली। एक विचित्र सी शीतल प्रफुल्लता की लहर मेरे अस्तित्त्व में प्रवाहित हो उठी और मेरे रोम-रोम पुलकित हो गये। इस एक क्षण के अनुभव में मेरे अतीत के सम्पूर्ण अनुभव धुल गए।
    
मेरी प्रतिभा व विद्या का दम्भ जाता रहा। मेरे वे नुकीले तर्क जो सदा औरों को आहत करते रहते थे, आज पिघल गए। मैं तो बस हिमशिखरों के मध्य खड़े कालजयी महर्षि लोमश को निहारता रह गया। मुझे तो यह भी सुधि नहीं रही कि मैं उनके पावन चरणों में माथा नवाऊँ पर उन करूणामय महर्षि ने मेरा हाथ थामा और मुझे एक ओर ले चले। थोड़ी दूर चलने के बाद एक गुफा आ गयी। यहाँ का वातावरण अति सुरम्य था। परम प्रशान्ति यहाँ छायी थी। इस गुफा के पास ही एक सुन्दर जल स्रोत था, जहाँ सुन्दर पक्षी जलक्रीड़ा कर रहे थे। आस-पास के स्थान में मखमली घास उगी थी। इस घास के बीच-बीच पर सुगन्ध बिखेरते पुष्पित पौधे लगे थे। इस वातावरण को मैं देर तक थकित-चकित देखता रह गया। उन क्षणों में मैं भावों से भरा था, और मेरे मुख से एक भी शब्द उच्चारित नहीं हो रहा था, पर महर्षि लोमश बड़े मधुर स्वरों से मुझे कह रहे थे- वत्स आश्वलायन! ज्ञान के दो रूप हैं- पहला है विवेक और दूसरा है बोध। जो ज्ञान इन दोनों रूपों से वंचित हो, उसे ज्ञान नहीं अज्ञान कहेंगे। कोरी बौद्धिकता से जानकारियों का बोध तो बढ़ता है, परन्तु इससे सत्य, सद्वस्तु की झलक नहीं मिलती। ज्ञान के अनुभव की प्रथम झलक विवेक के रूप में मिलती है। फिर वह अक्षरज्ञान से हो अथवा अक्षरातीत अवस्था में पहुँचकर।
    
यह विवेक हुआ तो वासनाएँ स्वयं ही भावनाओं में रूपान्तरित हो जाती हैं और अन्तःकरण में भक्ति अंकुरित होती है। प्रभु के स्मरण, उनमें समर्पण, विसर्जन से इस भक्ति का परिपाक होता है और तब ज्ञान का दूसरा रूप बोध के रूप में प्रकट होता है। इस अवस्था में मनुष्य को परात्पर तत्त्व का साक्षात्कार होता है। वह सत्य के झरोखे से ऋत् की झांकी देखता है। यह बुद्धि की सीमा से सर्वथा पार व परे है। यहाँ न तर्क है और अनुमान। यहाँ पर तो प्रभु की शाश्वतता का साकार व सम्पूर्ण बोध है। अपने इस कथन को पूरा कहने के पूर्व आश्वलायन की भावनाएँ बरबस आँखों से छलक पड़ीं। जिस-तिस तरह से वह स्वयं को संयत करते हुए बोले- मैं तो यही कह सकता हूँ कि भक्ति ज्ञान का सार है।’’ आश्वलायन के इस वचन को आत्मसात करते हुए देवर्षि नारद ने अपने सूत्र का सत्योच्चार किया-
‘तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके’॥ २८॥
    
‘‘उसका (भक्ति का) साधन ज्ञान ही है, किन्हीं (आचार्यों) का यह मत है।’’ इस सूत्र को सुनने के साथ सभी के मन मौन में डूब गए। सम्भवतः इस सत्य का कोई अन्य पहलू अवतीर्ण होने की प्रतीक्षा में रत था।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ११७

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