गुरुचेतना में समाने की साहसपूर्ण इच्छा
शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा सा है, किन्तु इसमें बड़े ही रहस्यमय सच समाए हैं। और सच कहो तो अध्यात्म सदा से रहस्य ही है। रहस्य का मतलब ही होता है कि जिसे खोजने तो हम निकल सकते हैं, परन्तु जिस दिन हम उसे खोज लेंगे उस दिन हमारा कोई पता ही न होगा। अध्यात्म के अलावा जितनी दूसरी खोजें हैं, वे तथ्य परक हैं। तथ्य और रहस्य में एक भारी फरक है।
और वह भारी फरक यह है कि तथ्य चाहे जिस किसी चीज से सम्बन्धित हो, सदा ही बुद्धि से नीचे रहता है, लेकिन रहस्य हमेशा ही बुद्धि से ऊपर रहता है। तथ्य की गहराई को जब बुद्धि खोजने जाती है, तो स्वयं खो जाती है। तथ्यों को हम अपनी मुट्ठी में रखने में समर्थ होते हैं, पर रहस्य स्वयं हमें ही अपनी मुट्ठी में रख लेता है।
शिष्य संजीवनी का यह पाँचवा सूत्र कुछ ऐसा ही है। सूत्रकार इस मानवीय स्वभाव से परिचित है कि मनुष्य इच्छा किए बिना रह नहीं सकता। हर पल एक नयी इच्छा-नयी चाहत मन में अंकुरित होती रहती है। इच्छाओं की यह बेतरतीब बाढ़ हमारा सारा जीवन रस चूस लेती है। सूत्रकार कहते हैं कि इसका उलटा भी सम्भव है। यानि कि यदि इच्छा के स्वरूप को बदल दिया जाय, तो इच्छा का यह नया रूप हमारे जीवन रस को चूसने या सोखने की बजाय बढ़ाने वाला सिद्ध हो सकता है।
इसके लिए करना इतना भर होगा- कि जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो। जबकि हम करते इसके ठीक उल्टा हैं। उसे चाहते हैं- उसे पाने की कोशिश करते हैं, जो बाहर है। ये बाहर की इच्छाएँ किसी भी तरह यदि पूरी हो भी जाती हें, तो भी परेशानियाँ और अंधेरा ही बढ़ता है।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/guruc
शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा सा है, किन्तु इसमें बड़े ही रहस्यमय सच समाए हैं। और सच कहो तो अध्यात्म सदा से रहस्य ही है। रहस्य का मतलब ही होता है कि जिसे खोजने तो हम निकल सकते हैं, परन्तु जिस दिन हम उसे खोज लेंगे उस दिन हमारा कोई पता ही न होगा। अध्यात्म के अलावा जितनी दूसरी खोजें हैं, वे तथ्य परक हैं। तथ्य और रहस्य में एक भारी फरक है।
और वह भारी फरक यह है कि तथ्य चाहे जिस किसी चीज से सम्बन्धित हो, सदा ही बुद्धि से नीचे रहता है, लेकिन रहस्य हमेशा ही बुद्धि से ऊपर रहता है। तथ्य की गहराई को जब बुद्धि खोजने जाती है, तो स्वयं खो जाती है। तथ्यों को हम अपनी मुट्ठी में रखने में समर्थ होते हैं, पर रहस्य स्वयं हमें ही अपनी मुट्ठी में रख लेता है।
शिष्य संजीवनी का यह पाँचवा सूत्र कुछ ऐसा ही है। सूत्रकार इस मानवीय स्वभाव से परिचित है कि मनुष्य इच्छा किए बिना रह नहीं सकता। हर पल एक नयी इच्छा-नयी चाहत मन में अंकुरित होती रहती है। इच्छाओं की यह बेतरतीब बाढ़ हमारा सारा जीवन रस चूस लेती है। सूत्रकार कहते हैं कि इसका उलटा भी सम्भव है। यानि कि यदि इच्छा के स्वरूप को बदल दिया जाय, तो इच्छा का यह नया रूप हमारे जीवन रस को चूसने या सोखने की बजाय बढ़ाने वाला सिद्ध हो सकता है।
इसके लिए करना इतना भर होगा- कि जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो। जबकि हम करते इसके ठीक उल्टा हैं। उसे चाहते हैं- उसे पाने की कोशिश करते हैं, जो बाहर है। ये बाहर की इच्छाएँ किसी भी तरह यदि पूरी हो भी जाती हें, तो भी परेशानियाँ और अंधेरा ही बढ़ता है।
क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
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