शनिवार, 5 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 19)

गुरुचेतना में समाने की साहसपूर्ण इच्छा

शिष्य संजीवनी का यह सूत्र बड़ा अटपटा सा है, किन्तु इसमें बड़े ही रहस्यमय सच समाए हैं। और सच कहो तो अध्यात्म सदा से रहस्य ही है। रहस्य का मतलब ही होता है कि जिसे खोजने तो हम निकल सकते हैं, परन्तु जिस दिन हम उसे खोज लेंगे उस दिन हमारा कोई पता ही न होगा। अध्यात्म के अलावा जितनी दूसरी खोजें हैं, वे तथ्य परक हैं। तथ्य और रहस्य में एक भारी फरक है।

और वह भारी फरक यह है कि तथ्य चाहे जिस किसी चीज से सम्बन्धित हो, सदा ही  बुद्धि से नीचे रहता है, लेकिन रहस्य हमेशा ही बुद्धि से ऊपर रहता है। तथ्य की गहराई को जब बुद्धि खोजने जाती है, तो स्वयं खो जाती है। तथ्यों को हम अपनी मुट्ठी में रखने में समर्थ होते हैं, पर रहस्य स्वयं हमें ही अपनी मुट्ठी में रख लेता है।

शिष्य संजीवनी का यह पाँचवा सूत्र कुछ ऐसा ही है। सूत्रकार इस मानवीय स्वभाव से परिचित है कि मनुष्य इच्छा किए बिना रह नहीं सकता। हर पल एक नयी इच्छा-नयी चाहत मन में अंकुरित होती रहती है। इच्छाओं की यह बेतरतीब बाढ़ हमारा सारा जीवन रस चूस लेती है। सूत्रकार कहते हैं कि इसका उलटा भी सम्भव है। यानि कि यदि इच्छा के स्वरूप को बदल दिया जाय, तो इच्छा का यह नया रूप हमारे जीवन रस को चूसने या सोखने की बजाय बढ़ाने वाला सिद्ध हो सकता है।

इसके लिए करना इतना भर होगा- कि जो तुम्हारे भीतर है, केवल उसी की इच्छा करो। जबकि हम करते इसके ठीक उल्टा हैं। उसे चाहते हैं- उसे पाने की कोशिश करते हैं, जो बाहर है। ये बाहर की इच्छाएँ किसी भी तरह यदि पूरी हो भी जाती हें, तो भी परेशानियाँ और अंधेरा ही बढ़ता है।

क्रमशः जारी
डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/guruc
आलोचना से डरें नहीं- उसके लिये तैयार रहें। (भाग 3)

अपनी निष्पक्ष समीक्षा आप कर सकना यह मनुष्य का सबसे बड़ा साहस है। अपने दोषों को ढूँढ़ना, गिनना और समझना चाहिए। साथ ही यह प्रयत्न करना चाहिए कि उन दुर्गुणों को अपने व्यक्तित्व में से अलग कर दिया जाय। निर्दोष और निर्मल व्यक्तित्व विनिर्मित किया जाय। जिस प्रकार हम दूसरों के पाप और दुर्गुणों से चिढ़ते हैं और उनकी निन्दा करते हैं वैसी ही सख्ती हमें अपने साथ भी बरतनी चाहिए और यह चेष्टा करनी चाहिए कि निन्दा करने का कोई आधार ही शेष न रहे और अप्रिय आलोचना के वास्तविक कारणों का ही उन्मूलन हो जाय।

अपने आप से लड़ सकना शूरता का सबसे बड़ा प्रमाण है। दूसरों से लड़ सकने को तो निर्जीव तीर तलवार भी समर्थ हो सकते हैं पर अपने से लड़ने के लिए सच्ची बहादुरी की जरूरत पड़ती है।

हम अपनी आलोचना आप करें ताकि बाहर वालों को निन्दात्मक आलोचना करने का अवसर ही न मिले। हम प्रशंसा के योग्य रीति-नीति अपनायें ताकि हर दिशा से प्रशंसा के प्रमाण अपने आप बरसने लगें।

समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति सितम्बर 1972 पृष्ठ 20
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/September.20
---धुएं की दिवार-----
 
(दिवार दिलों में नहीं हो)

अमीचंद ने कुलाह सिर पर जमाया, फिर शीशे के सामने खड़ा होकर पगड़ी बाँधने लगा। उसकी नज़र शीशे के बीचोंबीच पड़ी बारीक तरेड़ पर ठहर गईं। वह और भी उदास हो गया....टूटे शीशे में मुँह देखना शुभ नहीं होता...आज हाट से दूसरा शीशा ज़रूर खरीदकर लायेगा। बँटवारे के बाद आज पहली बार वह बेलेवालाँ जा रहा था, पर उसके मन में कोई उत्साह नहीं था। पहले हर महीने वह  बेलेवालाँ के हाट से सबके लिए ज़रूरी सामान लाता था, दुलीचंद और उसके बच्चों के लिए भी, पर आज.....। उसने खिड़की के बाहर उदास निगाह डाली, अपने पुश्तैनी मकान को दो हिस्सों में बाँटती दीवार उसके दिल को चीरती चली गई। बँटवारे वाले दिन से उसके और दुलीचंद के बीच बातचीत बिल्कुल बंद थी।

बाहर दुलीचंद गाय को दुहने की तैयारी कर रहा था। दूसरे अन्य सामान के साथ गाय छोटे भाई के हिस्से में गई थी। तभी अमीचंद की नज़र अपनी दस वर्षीया बेटी पर पड़ी, जो हाथ में लस्सी वाला बड़ा गिलास लिये दबे कदमों से अपने चाचा की ओर बढ़ रही थी। वह चिल्लाकर उसे रोकना चाहता था, पर आवाज़ गले में फँसकर रह गई। उसका दिल ज़ोर–ज़ोर से धड़कने लगा।

दुली ने मुस्करा कर अपनी भतीजी की ओर देखा, जवाब में वह भी धीरे से हँसी। दुलीचंद ने उसके हाथ से गिलास लपक लिया और चटपट उसे दूध की धारों से भर दिया। अमीचंद साँस रोके इस दृश्य को देख रहा था। ठीक उसी समय दुलीचंद की पत्नी घर से निकली। उसे पूरा विश्वास था कि बहू उसकी बेटी के हाथ से दूध का गिलास छीनकर पटक देगी और न जाने क्या–क्या बकेगी। बँटवारे के समय कैसे मुँह उघाड़कर उसके सामने आ खड़ी हुई थी। अमीचंद यह देखकर हैरान रह गया कि बहू के चेहरे पर हल्की मुस्कान रेंगी और कहीं पति उसे देख न ले, इस डर से उल्टे कदमों भीतर चली गई।

उसकी बेटी ने एक साँस में ही दूध का गिलास खाली कर दिया और वापस घर की ओर दौड़ पड़ी। अमीचंद की आँखें भर आईं । उसने वापस शीशे के सामने आकर तरेड़ पर हाथ फेरा तो एक बाल उसके हाथ में आ गया, और शीशा बिल्कुल साफ हो गया। उसे बेहद खुशी हुई, लगा घरके बीच की दीवार अदृश्य हो गई है।

अमीचंद उत्साह से भरा हुआ घर से बाहर आया और अड़ोस–पड़ोस को सुनाता हुआ ऊँची आवाज में बोला, ‘ ‘ओए दुली, मैं बेलेवालाँनजा रहा हूँ। तुम्हें जाने की जरूरत नहीं। मैं तुम सबके लिए सामान लेता आऊँगा।’’

शुभ प्रभात। आज का दिन आप के लिए शुभ एवं मंगलमय हो।

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