सोमवार, 28 अगस्त 2017

👉 Heard the Bhagwat four times

🔴 Parikshit Maharaj heard Bhagwat Puran from Shukdeo and attained salvation. A rich man on hearing this, developed great respect for the Bhagwat, and got eager to listen to it from a Brahmin to get liberated.

🔵 He searched and found a profound priest of Bhagwat. He told him his intention of hearing the Bhagwat. The priest told him that this is Kaliyug, all the pious activities in this age is reduced four times, thus he had to listen to it for four times. The reason behind the priest’s proposition was to get enough money out of the deal. He gave the fees to the priest and heard four Bhagwat lectures but it was of no use. The man then met a higher level of saint. He asked him, how Parikshit could get and he didn’t after listening to the Bhagwat.

🔴 The saint told him, that Parikshit Maharaj had known the death to be imminent and was completely detached from the world while hearing and Shukdeo Muni was narrating without the feeling of any kind of greed.

🔵 Whoever has got the knowledge in the form of an advice, free of any kind of self vested interests, that has produced desired results.

🌹 From Pragya Puran

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 56)

🌹  परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे

🔴 सामाजिक कुरीतियों से हिंदू समाज इतना जर्जर हो रहा है कि इन विकृतियों के कारण जीवनयापन कर सकना भी मध्यम वर्ग के लोगों के लिए कठिन होता चला जा रहा है। बच्चों का विवाह एक नरभक्षी पिशाच की तरह हर अभिभावक के सिर पर नंगी तलवार लिए नाचता रहता है। विवाह के दिन जीवन भर के गाढ़ी कमाई के पैसों को होली की तरह फूँक देने के लिए हर किसी को विवश होना पड़ता है। हत्यारा दहेज छुरी लेकर हमारी बच्चियों का खून पी जाने के लिए निर्भय होकर विचरण करता रहता है।

🔵 मृत्युभोज, औसर- मोसर, नेगचार, मुंडन, दस्टौन, जनेऊ और भी न जाने क्या- क्या ऊट- पटांग काम करने के लिए लोग विवश होते रहते हैं और जो कुछ कमाते हैं, उसका अधिकांश भाग इन्हीं फिजूलखर्चियों में स्वाहा करते रहते हैं। जेवर बनवाने में रुपए में से आठ आने हाथ रहते हैं, जान- जोखिम ईर्ष्या, अहंकार, सुरक्षा की चिंता, ब्याज की हानि आदि अनेक आपत्तियाँ उत्पन्न होती रहती हैं, फिर भी परम्परा जो है। सब लोग जैसा करते हैं, वैसा ही हम क्यों न करें? विवेक का परम्पराओं की तुलना में परास्त हो जाना, वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा कि बकरे का शेर की गरदन मरोड़ देना। आश्चर्य की बात तो अवश्य है, पर हो यही रहा है।
 
🔴 शरीर के रोगी, मन के मलीन और समाज के कुसंस्कारी होने का एक ही कारण है- अविवेक यों हम स्कूली शिक्षा ऊँचे दर्जे तक प्राप्त किए रहते हैं और अपने ढंग की चतुरता भी खूब होती है, पर जीवन की मूलभूत समस्याओं को गहराई तक समझने में प्रायः असमर्थ ही रहते हैं। बाहरी बातों पर खूब बहस करते और सोचते- समझते हैं, पर जिस आधार पर हमारा जीवनोद्देश्य निर्भर है, उसकी ओर थोड़ा भी ध्यान नहीं देते। इसी का नाम है- अविवेक विचारशीलता का यदि अभाव न हो और गुण- दोष की दृष्टि से अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक समस्याओं पर सोचना समझना आरंभ करें, तो प्रतीत होगा कि बुद्धिमत्ता का दावा करते हुए भी हम कितनी अधिक मूर्खता से ग्रसित हो रहे हैं।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.77

http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v2.14

👉 विशिष्ट प्रयोजन के लिये, विशिष्ट आत्माओं की विशिष्ट खोज (भाग 5)

🔵 युग संधि में जागृत आत्माओं को यही करना पड़ता है। समस्या 700 करोड़ मनुष्यों की है। वे एक स्थान पर नहीं समस्त भूमंडल पर बिखरे हुए बसे हैं। अनेक भाषा बोलते हैं। अनेक धर्म सम्प्रदायों का अनुसरण करते हैं। शासन पद्धतियों और सामाजिक परम्पराओं में भिन्नता है। मनःस्थिति और परिस्थिति में भी भारी अन्तर है। इतना होते हुए भी उन सबसे सर्म्पक साधना है। युग चेतना से परिचित और प्रभावित करना है। इतना ही नहीं सर्म्पकै प्रशिक्षण और अनुरोध को इतना प्रभावी बनाना है जिसके दबाव में लोग अपनी आदतों, इच्छाओं और गतिविधियों में अभीष्ट परिवर्तन कर सकने के लिए हिम्मत ही नहीं तत्पर भर हो सकें। यह कार्य कहने सुनने में सरल प्रतीत हो सकता है। पर वस्तुतः उतना कठिन और जटिल है। ऐसा उत्तरदायित्व उठाने वालों को कैसा होना चाहिए उसका अनुमान लगाने पर यही कहना पड़ता है कि उनकी मजबूती-घहराती नदियों पर मीलों लम्बे पुल का-उस पर दौड़ने वाले वाहनों का बोझा उठा सकने वाले पायों जैसी होनी चाहिए।

🔴 आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति को समाज की संरचना के लिए आन्दोलन परक कार्य ही करना पड़े। वह क्षेत्र छोटा होता है और उसमें थोड़े से व्यक्ति ही खप सकते हैं।सृजन प्रोजन बहुत बड़ा है। उसके असंख्यों पक्ष है। उनमें से जो जिसे कर सके वह उसे सँभाले। कला, साहित्य, विज्ञान, उत्पादन, व्यवसाय, शिक्षा, स्वास्थ्य जैने अनेकों क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें बिना अधिक जन-सर्म्पक साधे भी अभीष्ट प्रयोजनों में निरत रहा जा सकता है और आन्दोलनकारियों से भी अधिक महत्व का ऐसा कार्य किया जा सकता है जो नवयुग की आवश्यकता में अपने ढंग से पूरा करने में असाधारण योगदान कर सके। युद्ध जीतने में सभी को तलवार नहीं चलानी पड़ती। वे लोग भी द्वितीय पंक्ति के सैनिक ही हैं जो युद्ध सामग्री बनाते अथवा सैनिकों पर पड़ने वाले खर्च को अपने परिश्रम से जुटाते हैं।

🔵 आन्दोलकारियों-प्रचारकों की तरह ही वे लोग भी उपयोगी हैं जो उनके लिए साधन सामग्री जुटाने अथवा कार्य क्षेत्र बनाने में तत्पर रहते हैं। ऐसे लोगों का घर रह कर काम करना भी परिव्राजको की ही तरह महत्वपूर्ण कार्य है। हर व्यक्ति की मानसिक संरचना एवं परिस्थिति परिव्राजकों की भूमिका निभाने की नहीं होती। होती भी हो तो उस कार्य के लिए सीमित संख्या में ही सुयोग्य व्यक्ति चाहिए। अधिक सृजन शिल्पी तो अपने-अपने ढंगों के उत्तरदायित्व सँभालते हुए अपने निर्वाह की व्यवस्था चलाते हुए समन्वित प्रक्रिया अपनायेंगे और लक्ष्य की प्राप्ति में अपने ढंग का ऐसा योगदान करेंगे जिसकी महत्ता को किसी प्रकार कम सराहनीय नहीं कहा जा सकता। जन्म समय के आधार पर यह निर्धारण भी किया जाता हैं कि कौन प्रतिभा किस प्रयोजन में लगे, जिससे उसका साँसारिक निर्वाह भी चलता रहे। और युग सृजन में भागीदार बनने का सौभाग्य भी मिलता रहे।


🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति- फरवरी 1980 पृष्ठ 47
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1980/February/v1.48

👉 आत्मचिंतन के क्षण 28 Aug 2017

🔴 मानव जीवन की प्रगति और सुख-शान्ति आन्तरिक स्तर की उत्कृष्टता पर निर्भर रहते हैं। इस उत्कृष्टता की पुष्टि एवं अभिवृद्धि के लिए ही उपासना तंत्र का आविर्भाव हुआ हैं। भौतिक सुख- साधन, बाहुबल और बुद्धिबल के आधार पर कमाये जा सकते हैं पर गुण-कर्म-स्वभाव की उत्कृष्टता पर निर्धारित समस्त विभूतियाँ हमारे आन्तरिक स्तर पर ही निर्भर रहती हैं। इस स्तर के सुदृढ़ और समुन्नत बनाने में उपासना का भारी योग रहता है। इसलिए अत्यन्त आवश्यक कार्यों की भाँति ही उपासना को दैनिक कार्यक्रम में स्थान मिलना चाहिए। जिस प्रकार जीविका उपार्जन, आहार, विश्राम, सफाई, गृहस्थ पालन, विद्याध्ययन, मनोरंजन आदि का ध्यान रखा जाता है, वैसा ही ध्यान उपासना का भी रखा जाना चाहिए।

🔵 मानव जीवन की प्रगति उसके सद्गुणों पर निर्भर है। जिनके गुण कर्म स्वभाव का निर्माण एवं विकास ठीक प्रकार हुआ है वे सुसंयत व्यक्तित्व वाले सज्जन मनुष्य अनेकों बाधाओं और कठिनाइयों को पार करते हुए अपनी प्रगति का रास्ता ढूँढ़ लेते हैं। विपरीत परिस्थितियों एवं बुरे स्वभाव के व्यक्तियों को भी, प्रतिकूलताओं को भी सुसंस्कृत मनुष्य अपने प्रभाव एवं व्यवहार से बदल सकता है और उन्हें अनुकूलता में परिणत कर सकता है। इसके विपरीत जिसके स्वभाव में दोष दुर्गुण भरे पड़े होंगे वह अपने दूषित दृष्टिकोण के कारण अच्छी परिस्थितियों को भी दूषित कर देगा। संयोगवश उन्हें अनुकूलता द्वारा सुविधा प्राप्त भी हो तो दुर्गुणों के आगे वह देर तक ठहर न सकेगी। दूषित दृष्टिकोण जहाँ भी होगा वहाँ नारकीय वातावरण बना रहेगा। अनेकों विपत्तियाँ वहाँ से उलझती रहेंगी।

🔴 हमें सद्गुणों की जननी आस्तिकता को धैर्य और विवेकपूर्वक अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। ईश्वर का भय मनुष्य को नेक रास्ते पर चलाते रहने में सबसे बड़ा नियंत्रण है। राजकीय कानून या सामाजिक दंड की दुस्साहसी लोग उपेक्षा करते रहते है। अपराधों और अपराधियों का बाहुल्य, पुलिस और जेल का भय भी इन्हें कम नहीं कर पाता। पर यदि किसी को ईश्वर पर पक्का विश्वास हो, अपने चारों ओर प्रत्येक प्राणी में कण-कण में ईश्वर को समाया हुआ देखे, तो उसके लिए किसी के साथ अनुचित व्यवहार कर सकना संभव नहीं हो सकता। कर्मफल की ईश्वरीय अविचल व्यवस्था पर जिसे आस्था होगी वह अपना भविष्य अन्धकारमय बनाने के लिए कुमार्ग पर बढ़ने का साहस कैसे कर सकेगा? दूसरों को ठगने या परेशान करने का अर्थ है ईश्वर को ठगना या परेशान करना। ऐसी भूल उससे नहीं हो सकती जिसके मन में ईश्वर का विश्वास, भय और कर्मफल की अनिवार्यता का निश्चय गहराई तक जमा हुआ है।

🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 कुत्सा भड़काने वाली अश्लीलता को मिटाया जाय (भाग 1)

🔵 अश्लीलता को अनैतिक माना गया है। शरीर के वे अंग जो कामाचार से सम्बन्धित हैं उन्हें निर्वस्त्र न रखने की मर्यादा है। उन पर दृष्टिपात करने से कामुकता भड़कती और उन मर्यादाओं को तोड़ने के लिए मन चलता है जो नर और नारी के बीच शील मर्यादाओं का पुल बाँधें हुए है।

🔴 मनुष्यता के साथ कितने ही ऐसे शील जुड़े हुए हैं जो पशु-पक्षियों में कीट पतंगों में नहीं है। उनमें अस्तेय नहीं है। किस वस्तु पर किसका अधिकार है यह ज्ञान उन्हें नहीं होता इसलिए खानपान की वस्तुएँ जिसे जहाँ मिलती है वह वहाँ से हथियाने लगता है। दया, क्षमा, उदारता, कृतज्ञता जैसे गुण भी उनमें नहीं होते। स्वार्थ को तनिक सा आघात लगते ही वे क्रुद्ध होते और लड़ने मरने को तैयार हो जाते हैं। इसी प्रकार यौनाचार के सम्बन्ध में कोई मर्यादा उनमें नहीं है। भिन्न लिंग के साथ यौनाचार करने में उन्हें कोई लज्जा, भय, संकोच नहीं होता। किन्तु मनुष्य को वैसी छूट नहीं है। मनुष्य वस्त्र पहनते हैं। विशेषकर कामुकता से संबंधित अवयवों को ढ़ककर रहते हैं। यह मानवोचितशील है। इसकी मर्यादाओं का उल्लंघन करना अश्लीलता कहलाती है, जो हेय मानी गई है।

🔵 जननेन्द्रिय, जंघाए, वक्ष, कमर जैसे अवयव देखने से कामोत्तेजना उभरती है और यौनाचार के लिए मन चलता है। इसलिए स्त्रियाँ भी और पुरुष भी इन अंगों को ढक कर रखते हैं। इनके नग्न प्रदर्शन से मनोविकार भड़कते हैं, जो यौनाचार शील पर आघात पहुँचाते हैं।

🔴 मानवीय शील के अंतर्गत अपनी वैध धर्मपत्नी या धर्म पति के साथ ही यौनाचार की छूट है। अन्यों के साथ विभिन्न सम्बन्धों की विधा है। स्त्रियाँ अन्य पुरुषों के साथ पिता, भाई या पुत्र के सम्बन्ध रखें इसी प्रकार पुरुषों को नारियों के प्रति माता, बहिन या पुत्री के भाव रखने चाहिए। कामुकता की दृष्टि इन मर्यादाओं को तोड़ती और मानवशील को आघात पहुँचाती है। इसीलिए चोरी जैसे अपराधों में उसे गिना गया है।

🌹 क्रमश जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1984 पृष्ठ 45

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1984/October/v1.45

👉 आज का सद्चिंतन 28 Aug 2017


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 28 Aug 2017


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