बुधवार, 9 दिसंबर 2020

👉 नालायक

"बेटा , हमारा एक्सीडेंट हो गया है। मुझे ज्यादा चोट नहीं आई पर तेरी माँ की हालत गंभीर है। कछ पैसों की जरुरत है और तेरी माँ को खुन भी देना है। "बासठ साल के माधव जी ने अपने बडे बेटे से फोन पर कहा।

"पापा, मैं बहुत व्यस्त हूँ आजकल। मेरा आना नही हो सकेगा। मुझे विदेश मे नौकरी का पैकेज मिला है तो उसी की तैयारी कर रहा हूँ। आपका भी तो यही सपना था ना? इसलिये हाथ भी तंग चल रहा है। पैसे की व्यवस्था कर लीजिए मैं बाद मे दे दुँगा। "उनके बडे इंजिनियर बेटे ने जबाब दिया।

उन्होनें अपने दुसरे डाॅक्टर बेटे को फोन किया तो उसने भी आने से मना कर दिया। उसे अपनी ससुराल मे शादी मे जाना था। हाँ इतना जरुर कहा कि पैसों की चिंता मत कीजिए मै भिजवा दूँगा।

यह अलग बात है कि उसने कभी पैसे नहीं भिजवाए। उन्होंने बहुत मायुसी से फोन रख दिया। अब उस नालालक को फोन करके क्या फायदा। जब ये दो लायक बेटे कुछ नही कर रहे तो वो नालायक क्या कर लेगा?

उन्होंने सोचा और बोझिल कदमों से अस्पताल मे पत्नी के पास पहूँचे और कुरसी पर ढेर हो गये। पुरानी बातें याद आने लगी।

माधव राय जी स्कुल मे शिक्षक थे। उनके तीन बेटे और एक बेटी थी।बडा इंजिनियर और मझला डाक्टर था। दोनौ की शादी बडे घराने मे हुई थी। दोनो अपनी पत्नियों के साथ अलग अलग शहरों मे रहते थे। बेटी की शादी भी उन्होंने खुब धुमधाम से की थी।

सबसे छोटा बेटा पढाई मे ध्यान नही लगा पाया था। ग्यारहवीं के बाद उसने पढाई छोड दी और घर मे ही रहने लगा। कहता था मुझे नौकरी नही करनी अपने माता पिता की सेवा करनी है पर मास्टर साहब उससे बहुत नाराज रहते थे।

उन्होंने उसका नाम नालायक रख दिया था। दोनों बडे भाई पिता के आज्ञाकारी थे पर वह गलत बात पर उनसे भी बहस कर बैठता था। इसलिये माधव जी उसे पसंद नही करते थे।

जब माधव जी रिटायर हुए तो जमा पुँजी कुछ भी नही थी। सारी बचत दोनों बच्चों की उच्च शिक्षा और बेटी की शादी मे खर्च हो गई थी। शहर मे एक घर्, थोडी जमीन और गाँव मे थोडी सी जमीन थी। घर का खर्च उनके पेंशन से चल रहा था।

माधव जी को जब लगा कि छोटा सुधरने वाला नही तो उन्होंने बँटवारा कर दिया और उसके हिस्से की जमीन उसे देकर उसे गाँव मे ही रहने भेज दिया। हालाँकि वह जाना नही चाहता था पर पिता की जिद के आगे झुक गया और गाँव मे ही झोपडी बनाकर रहने लगा।

माधव जी सबसे अपने दोनो होनहार और लायक बेटों की बडाई किया करते। उनका सीना गर्व से चौडा हो जाता था। पर उस नालायक का नाम भी नही लेते थे।

दो दिन पहले दोनो पति पत्नी का एक्सीडेन्ट हो गया था। वह अपनी पत्नी के साथ सरकारी अस्पताल मे भर्ती थे। डाॅक्टर ने उनकी पत्नी को आपरेशन करने को कहा था।

"पापा, पापा!" सुन कर तंद्रा टुटी तो देखा सामने वही नालायक खड़ा था। उन्होंने गुस्से से मुँह फेर लिया। पर उसने पापा के पैर छुए और रोते हुए बोला "पापा आपने इस नालायक को क्यो नही बताया? पर मैने भी आपलोगों पर जासुस छोड रखे हैं।खबर मिलते ही भागा आया हूँ।"

पापा के विरोध के वावजुद उसने उनको एक बडे अस्पताल मे भरती कराया। माँ का आपरेशन कराया। अपना खुन दिया। दिन रात उनकी सेवा मे लगा रहता कि एक दिन वह गायब हो गया।

वह उसके बारे मे फिर बुरा सोचने लगे थे कि तीसरे दिन वह वापस आ गया। महीने भर मे ही माँ एकदम भली चंगी हो गई। वह अस्पताल से छुट्टी लेकर उन लोगों को घर ले आया। माधव जी के पुछने पर बता दिया कि खैराती अस्पताल था पैसे नही लगे हैं।

घर मे नौकरानी थी ही। वह उन लोगों को छोड कर वापस गाँव चला गया।

धीरे धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। एक दिन यूँ ही उनके मन मे आया कि उस नालायक की खबर ली जाए। दोनों जब गाँव के खेत पर पहुँचे तो झोपडी मे ताला देख कर चौंके। उनके खेत मे काम कर रहे आदमी से पुछा तो उसने कहा "यह खेत अब मेरे हैं।"

"क्या? पर यह खेत तो...." उन्हे बहुत आश्चर्य हुआ। "हाँ। उसकी माँ की तबीयत बहुत खराब थी। उसके पास पैसे नही थे तो उसने अपने सारे खेत बेच दिये। वह रोजी रोटी की तलाश मे दुसरे शहर चला गया है। बस यह झोपडी उसके पास रह गई है। यह रही उसकी चाबी। "उस आदमी ने कहा।

वह झोपडी मे दाखिल हुये तो बरबस उस नालायक की याद आ गई। टेबुल पर पडा लिफाफा खोल कर देखा तो उसमे रखा अस्पताल का नौ लाख का बिल उनको मुँह चिढाने लगा।

उन्होंने अपनी पत्नी से कहा - "जानकी तुम्हारा बेटा नालायक तो था ही झुठा भी है।"
अचानक उनकी आँखों से आँसू गिरने लगे और वह जोर से चिल्लाये -"तु कहाँ चला गया नालायक, अपने पापा को छोड कर। एक बार वापस आ जा फिर मैं तुझे कहीं नही जाने दुँगा।" उनकी पत्नी के आँसू भी वहे जा रहे थे।

और माधव जी को इंतजार था अपने नालायक बेटे को अपने गले से लगाने का।
सचमुच बहुत नालायक था वो।।

👉 विचारों से कार्य प्रेरणा

कार्यों का मूल, विचार है। मस्तिष्क में जिस प्रकार के विचार घूमते हैं उसी प्रकार के कार्य होने लगते हैं। जिस वर्ग के लोग स्वार्थपरता, तृष्णा, वासना और अहंता के विचारों में डूबे रहते हैं वहाँ नाना प्रकार के क्लेश, कलह, दुष्कर्म एवं अपराध निरन्तर बढ़ते रहते हैं। पर जहाँ परमार्थ, संयम, संतोष और नम्रता आदर्शवाद को प्रधानता दी जाती है वहाँ सर्वत्र सत्कर्म होते दिखाई पड़ते हैं और उसके फलस्वरूप, सतयुगी सुख शान्ति का वातावरण बन जाता है। जिस प्रकार स्वस्थ शरीर से स्वच्छ मन का संबंध है उसी प्रकार स्वच्छ मन के ऊपर सभ्य समाज की सम्भावना निर्भर है। 

यदि शरीर बीमार पड़ा रहेगा तो मन में निम्न श्रेणी के विचार ही आवेंगे। अस्वस्थ व्यक्ति देर तक उच्च भावनाऐं अपने मन में धारण किये नहीं रह सकता। उसी प्रकार अस्वच्छ मन वाले व्यक्तियों से भरा समाज कभी सभ्य कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता। मानव जाति एकता, प्रेम, प्रगति, शान्ति एवं समृद्धि की ओर अग्रसर हो, इसका एकमात्र उपाय यही है कि लोगों के मन आदर्शवाद, धर्म, कर्तव्यपरायणता, परोपकार एवं आस्तिकता की भावनाओं से ओत-प्रोत रहें। इस दिशा में यदि हमारे कदम उठते रहेंगे तो उन्नति के लिए जिन योग्यताओं एवं क्षमता की आवश्यकता है वे सब कुछ ही समय में अनायास प्राप्त हो जायेंगी। पर यदि दुर्गुणी लोग बहुत चतुर और साधन सम्पन्न बनें तो भी उस चतुरता और क्षमता के दुरुपयोग होने पर विपत्ति ही बढ़ेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जुलाई 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ८१)

ध्यान से उपजती है—अतीन्द्रिय संवेदना
    
ऐसे परम पवित्र महान् आचार्य इस श्रीरंगम के पीठ में आसीन थे। श्रीरंगम में मेले की भारी भीड़ थी। दर्शनार्थियों का ताँता लगा था। इन दर्शनार्थियों की भीड़ में एक विचित्र व्यक्ति भी था। लोग उसे भय, घृणा और आतंक मिश्रित नजरों से देख रहे थे। इन देखने वालों के मन में बहुत कुछ उमड़-घुमड़ रहा था; पर किसी में साहस ही नहीं था कि कोई उससे कुछ कहे। यह दृश्य ही कुछ ऐसा था। यह विचित्र व्यक्ति उस इलाके का खूंखार दस्यु दुर्दम था। और वह एक महिला के साथ उस पर छतरी लगाए जा रहा था। उसकी नजरों में उस महिला के लिए भारी वासनात्मक आसक्ति थी। प्रभु मन्दिर में भी इस वासना भरे कुत्सित दृश्य को लोग हज़म नहीं कर पा रहे थे। पर कोई कहता भी क्या?
    
आचार्य रामानुज ने भी यह विचित्र दृश्य देखा। उन्हें भी कुछ अटपटा लगा। असमंजस भरे स्वर में उन्होंने अपने एक शिष्य से पूछा भगवान् श्रीरंगम के पवित्र स्थान में यह कौन है? शिष्य ने डाकू दुर्दम की कथा, उसके अत्याचारों के वीभत्स विवरणों के साथ सुना डाली। आचार्य शिष्य की सारी बातें सुनते रहे। इन बातों में उस महिला का जिक्र भी कई बार आया, जिसके पीछे यह डाकू छतरी लगाए जा रहा था। सारी कथा सुनने के बाद आचार्य ने अपने इस शिष्य से कहा- तुम जाकर उसे बुला लाओ। पर क्यों भगवन्! शिष्य ने लगभग सहमते हुए कहा। प्रश्न न करो वत्स! बस तुम उसे बुला दो। भगवान् उस पर कृपा करना चाहते हैं।
    
आचार्य की रहस्य वाणी शिष्य की समझ में न आयी। फिर भी उसने आदेश का पालन किया। डाकू दुर्दम भी इस अप्रत्याशित बुलावे के लिए तैयार न था। वह भी आचार्य की आध्यात्मिक विभूतियों की कथाएँ सुन चुका था। सो इस बुलावे पर उसे भी थोड़ा डर लगा। क्योंकि अपने मन के किसी कोने में उसे अपने पापों का बोध था। इसलिए अनजाने भय के पाश में बँधकर आचार्य के समीप जा पहुँचा। आचार्य ने उसे देखा। उनकी इस दृष्टि में उसके लिए करुणापूरित वात्सल्य था। बड़े प्यार से उन्होंने उससे पूछा- तुम्हारे साथ में जो देवी हैं, वे कौन हैं वत्स? इस सवाल के उत्तर में दुर्दम ने लज्जा से अपना सिर झुका लिया। वैसे भी आचार्य की अतीन्द्रिय संवेदनाओं से भला क्या छुपता?
    
आचार्य ने फिर से टटोलने वाली नजरों से उसे देखते हुए दुर्दम से पुनः सवाल किया- वत्स, इस स्त्री में तुम्हें क्या अच्छा लगता है? डाकू दुर्दम ने अबकी बार थोड़ा झिझकते हुए उत्तर दिया- भगवन् मैं इसके रूप और सौन्दर्य से मोहित हूँ। और यदि इससे भी श्रेष्ठ सौन्दर्य की झलक तुम्हें मिल जाय तो? तब तो मैं इसे छोड़ दूँगा, दुर्दम ने उत्तर दिया। आचार्य उसके इस उत्तर पर मुस्कराए और बोले- नहीं तुम इसे छोड़ना मत। इससे विवाह करना और एक सद्गृहस्थ की भाँति रहना। ऐसा कहते हुए आचार्य ने उसके सिर पर धीरे-धीरे हाथ फेरा। लगभग तीन पल वे ऐसा ही करते रहे। बाद में उन्होंने उसे तीन थपकियाँ दीं। इतना करते ही दुर्दम जैसे चेतना शून्य हो गया। बस वह निस्पन्द बैठा रहा। उसकी आँखों से आँसू झरते रहे। काफी देर बाद उसकी चेतनता बाह्य जगत् में लौटी। अब तो बस उसकी एक ही रट थी, मुझे वही दृश्य, वही अनुभूति बार-बार चाहिए। मुझे प्रभु का वही सौन्दर्य सतत निहारना है।
    
शान्त स्वर में आचार्य ने कहा- इसके लिए तुम ध्यान करो वत्स! तुमने जो अनुभव किया- वह सब ध्यान का अनुभव था। हाँ बस बात इतनी है कि यह ध्यान तुम्हें मेरे प्रयास से लगा। आगे तुम्हें स्वयं प्रयास करने होंगे। ध्यान करते-करते अतीन्द्रिय संवेदना के जागरण से ये अनुभव तुम्हें नित्य होंगे। आचार्य के वचन दुर्दम के लिए प्रेरणा बन गए और उनकी कृपा से हुए आध्यात्मिक अनुभव उसके लिए ऊर्जा का स्रोत। अतीन्द्रिय संवेदनों से हुई अनुभूति ने डाकू दुर्दम को महान् सन्त में बदल दिया।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १३९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

All World Gayatri Pariwar Official  Social Media Platform > 👉 शांतिकुंज हरिद्वार के प्रेरणादायक वीडियो देखने के लिए Youtube Channel `S...