धन वैभव से शारीरिक सुख-साधन मिल सकते हैं। विलास सामग्री कुछ क्षण इन्द्रियों में गुदगुदी पैदा कर सकती है, पर उनसे आन्तरिक एवं आत्मिक उल्लास मिलने में कोई सहायता नहीं मिलती। धूप-छाँव की तरह क्षण-क्षण में आते-जाते रहने वाले सुख-दुःख शरीर और जीवन के धर्म हैं। इनसे छुटकारा नहीं मिल सकता। जिनने अपनी प्रसन्नता इन बाह्य आधारों पर निर्भर कर रखी है, उन्हें असन्तोष एवं असफलता का ही अनुभव होता रहेगा। वे अपने को दुःखी ही अनुभव करेंगे।
सच्चा एवं चिरस्थायी सुख आत्मिक सम्पदा बढ़ाने के साथ बढ़ता है। गुण, कर्म, स्वभाव में जितनी उत्कृष्टता आती है, उतना ही अन्तःकरण निर्मल बनता है। इस निर्मलता के द्वारा परिष्कृत दृष्टिकोण हर व्यक्ति , हर घटना एवं हर पदार्थ के बारे में रचनात्मक ढंग से सोचता और उज्ज्वल पहलू देखता है। इस दृष्टिकोण की प्रेरणा से जो भी क्रिया-पद्धति बनती है, उसमें सत्य, धर्म एवं सेवा का ही समावेश होता है।
परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम ही स्वर्ग है। स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं, वह तो मनुष्य के सोचने, देखने और करने की उत्कृष्ट मिश्रित प्रक्रिया मात्र है। जो केवल ऊँचा ही सोचता और ऊँचा ही करता है, उसे हर घड़ी स्वर्ग का आनन्द मिलेगा। उसके सुख का कभी अन्त नहीं।
~ स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति मई 1966 पृष्ठ 1
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