सोमवार, 23 जनवरी 2023

👉 स्वर्ग प्राप्ति के लिए ऊँचा सोचें, अच्छा करें।

धन वैभव से शारीरिक सुख-साधन मिल सकते हैं। विलास सामग्री कुछ क्षण इन्द्रियों में गुदगुदी पैदा कर सकती है, पर उनसे आन्तरिक एवं आत्मिक उल्लास मिलने में कोई सहायता नहीं मिलती। धूप-छाँव की तरह क्षण-क्षण में आते-जाते रहने वाले सुख-दुःख शरीर और जीवन के धर्म हैं। इनसे छुटकारा नहीं मिल सकता। जिनने अपनी प्रसन्नता इन बाह्य आधारों पर निर्भर कर रखी है, उन्हें असन्तोष एवं असफलता का ही अनुभव होता रहेगा। वे अपने को दुःखी ही अनुभव करेंगे।

सच्चा एवं चिरस्थायी सुख आत्मिक सम्पदा बढ़ाने के साथ बढ़ता है। गुण, कर्म, स्वभाव में जितनी उत्कृष्टता आती है, उतना ही अन्तःकरण निर्मल बनता है। इस निर्मलता के द्वारा परिष्कृत दृष्टिकोण हर व्यक्ति , हर घटना एवं हर पदार्थ के बारे में रचनात्मक ढंग से सोचता और उज्ज्वल पहलू देखता है। इस दृष्टिकोण की प्रेरणा से जो भी क्रिया-पद्धति बनती है, उसमें सत्य, धर्म एवं सेवा का ही समावेश होता है।

परिष्कृत दृष्टिकोण का नाम ही स्वर्ग है। स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं, वह तो मनुष्य के सोचने, देखने और करने की उत्कृष्ट मिश्रित प्रक्रिया मात्र है। जो केवल ऊँचा ही सोचता और ऊँचा ही करता है, उसे हर घड़ी स्वर्ग का आनन्द मिलेगा। उसके सुख का कभी अन्त नहीं।

~ स्वामी विवेकानन्द
📖 अखण्ड ज्योति मई 1966 पृष्ठ 1

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👉 अपनी स्थिति के अनुसार साधना चाहिए।

साधु, संत और ऋषियों ने लोगों को अपने-अपने ध्येय पर पहुँचने के अनगिनत साधन बतलाये हैं। हर एक साधन एक दूसरे से बढ़कर मालूम होता है, और यदि वह सत्य है, तो उससे यह मालूम होता है कि ये सब साधन इतनी तरह से समझाने का अर्थ यह है कि ज्यादातर एक कोई भी साधन उपयोग में आ सकता है। और यह है भी स्वाभाविक ही कि वह किसी एक के लिए उपयोगी हो।

परन्तु बहुधा ऐसा होता है कि बहुत से साधन अपने अनुकूल नहीं होते। कठिनाई यह है कि हम लोगों में वह शक्ति नहीं है कि उस साधन को खोज निकालें जिसके कि हम सचमुच योग्य हैं। इसके विपरीत हम दूसरे ऐसे साधन अनिश्चित समय के लिए अपनाते हैं जो हमारी शारीरिक और मानसिक स्थिति के अनुकूल नहीं होते। आज ऐसे अनुभवी पथ-प्रदर्शकों की भी भारी कमी है जो अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यह जान लें कि किस व्यक्ति के अनुकूल क्या साधन ठीक होगा।

जो व्यक्ति जिस साधना का अधिकारी है, उसी के अनुकूल कार्यक्रम उसके सामने रखा जाना चाहिए। बालकों का शिक्षण और अध्ययन भी इसी आधार पर होना चाहिए। रुचि के अनुकूल दिशा में शिक्षा मिलने पर बालक थोड़े ही समय में आश्चर्यजनक उन्नति कर लेता है। इसके विपरीत जो कार्यक्रम उसकी रुचि न होते हुए भी लादा जाता है वह बड़ी कठिनाई से जैसे-तैसे पार पड़ता है।

हमें चाहिए कि अपना एक ध्येय निर्धारित करें और उस लक्ष्य को पूरा करने के लिए ऐसे साधन चुनें जो निर्धारित उद्देश्य की ओर तेजी से हमें बढ़ा ले चलें, साथ ही उन साधनों का अपनी रुचि, प्रकृति और स्थिति के अनुकूल होना भी आवश्यक है। यदि ऐसा न हुआ तो उत्साह थोड़े ही समय में शिथिल हो जाता है और दुर्गम मार्ग पर चलने का अभ्यास न होने से बीच में ही यात्रा तोड़ने को विवश होना पड़ता है।

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लक्ष्य-लक्ष्य के अनुकूल, साधन-साधन के अनुकूल, अपनी स्थिति- इन तीन बातों का जहाँ समन्वय हो जाता है यहाँ सफलता मिलने में संशय नहीं रहता। हमें अपना विवेक इतना जाग्रत करना चाहिए जो इस दिशा में समुचित ज्ञान रखता हो और अपने उज्ज्वल प्रकाश में हमें अभीष्ट लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सके।

📖 अखण्ड ज्योति- मई 1949 पृष्ठ 23

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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