सामाजिक ढर्रे जब बहुत पुराने हो जाते हैं, तब उनमें जीर्णता और कुरूपता उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। इसे सुधारा और बदला जाना चाहिए। समय की प्रगति से जो पिछड़ जाते हैं, समय उन्हें कुचलते हुए आगे बढ़ जाता है। ऋतु परिवर्तन के साथ आहार-विहार की नीति भी बदलनी पड़ती है। युग की माँग और स्थिति को देखकर हमें सोचना चाहिए कि वर्तमान की आवश्यकताएँ हमें क्या सोचने और करने के लिए विवश कर रही हैं। विचारशीलता की यही माँग है कि आज की समस्याओं को समझा जाय और सामयिक साधनों से उन्हें सुलझाने का प्रयत्न किया जाय।
उपासना का आरम्भ कहाँ से किया जाय? इसका उदाहरण किसी स्कूल में जाकर देखा जा सकता है। वहाँ नये छात्रों का वर्णमाला, गिनती, सही उच्चारण, सही लेखन आदि से शिक्षण आरम्भ किया जाता है और पीछे प्रगति के अनुसार ऊँची कक्षाओं में चढ़ाया जाता है। स्नातक बनने के उपरान्त ही अफसर बनने की प्रतियोगिता में प्रवेश मिलता है और जो उस कसौटी पर खरे उतरते हैं उन्हें प्रतिभा के अनुरूप ऊँचे दर्जे के दायित्व सौंपे जाते हैं।
अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को व्रतशीलता की दीक्षा लेनी पड़ती है। व्रत का अर्थ मात्र आहार क्रम में न्यूनता लाना नहीं है वरन् यह भी है कि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए संकल्पवान होना, औचित्य को अपनाये रहने में किसी दबाव या प्रलोभन से अपने को डगमगाने न देना। श्रेष्ठता के मार्ग से किसी भी कारण विचलित न होना। जो दृढ़तापूर्वक ऐसी व्रतशीलता का निर्वाह करते हैं उन्हें अपने चारों ओर ईश्वर की सत्ता ज्ञान चक्षुओं से विद्यमान दीख पड़ती है। उन्हें किसी शरीरधारी की छवि चर्म चक्षुओं से देखने में न वास्तविकता प्रतीत होती है न आवश्यकता।
उपासना का आरम्भ कहाँ से किया जाय? इसका उदाहरण किसी स्कूल में जाकर देखा जा सकता है। वहाँ नये छात्रों का वर्णमाला, गिनती, सही उच्चारण, सही लेखन आदि से शिक्षण आरम्भ किया जाता है और पीछे प्रगति के अनुसार ऊँची कक्षाओं में चढ़ाया जाता है। स्नातक बनने के उपरान्त ही अफसर बनने की प्रतियोगिता में प्रवेश मिलता है और जो उस कसौटी पर खरे उतरते हैं उन्हें प्रतिभा के अनुरूप ऊँचे दर्जे के दायित्व सौंपे जाते हैं।
अध्यात्म क्षेत्र में प्रवेश करने वाले को व्रतशीलता की दीक्षा लेनी पड़ती है। व्रत का अर्थ मात्र आहार क्रम में न्यूनता लाना नहीं है वरन् यह भी है कि सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए संकल्पवान होना, औचित्य को अपनाये रहने में किसी दबाव या प्रलोभन से अपने को डगमगाने न देना। श्रेष्ठता के मार्ग से किसी भी कारण विचलित न होना। जो दृढ़तापूर्वक ऐसी व्रतशीलता का निर्वाह करते हैं उन्हें अपने चारों ओर ईश्वर की सत्ता ज्ञान चक्षुओं से विद्यमान दीख पड़ती है। उन्हें किसी शरीरधारी की छवि चर्म चक्षुओं से देखने में न वास्तविकता प्रतीत होती है न आवश्यकता।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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