बुधवार, 28 सितंबर 2022

👉 आमदनी खर्च करने का उद्देश्य क्या हो?

आप यह उद्देश्य सामने रखिये कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को जीवनरक्षक पदार्थ और निपुणता दायक वस्तुएँ पर्याप्त परिणाम में प्राप्त होती रहें। जब तक ये चीजें न आ जावें, तब तक किसी प्रकार की आराम या विलासिता की वस्तुओं से बचे रहिये। यदि किसी का स्वास्थ्य खराब है, तो पहले उसकी चिकित्सा होनी चाहिए। यदि किसी विद्यार्थी का अध्ययन चल रहा है, तो उसके लिए सभी को थोड़ा बहुत त्याग करना चाहिए। कृत्रिम आवश्यकताओं को दूर करने का सब को प्रयत्न करना चाहिए। शिक्षा, त्याग और पारस्परिक सद्भाव से सभी सामूहिक परिवार के लिए प्रयत्नशील हो।

प्रत्येक व्यक्ति की अपने खर्च पर गंभीरता से विचार कर कृत्रिम आवश्यकताओं, व्यसनों, फैशन, मिथ्या प्रदर्शन, फिजूल खर्ची कम करनी चाहिए। आदतों को सुधारना ही श्रेष्ठ और स्थायी है। ऐश आराम और विलासिता के खर्चो को कम करके बचे हुए रुपये को जीवन रक्षक अथवा निपुणता दायक या किसी टिकाऊ खर्च पर व्यय करना चाहिए। बचत का रुपया बैंक में भविष्य के आकस्मिक खर्चों, विवाह शादियों, मकान, या बीमारियों के लिए रखना चाहिए। प्रत्येक पैसा समझदारी से जागरुक रह कर भविष्य पर विश्वास न करते हुए खर्च करने से प्रत्येक व्यक्ति को अधिकतम संतोष और सुख होगा।

कमाई और आमदनी से नहीं, आपकी आर्थिक स्थिति आपके खर्च से नापी जाती है। यदि खर्च आमदनी से अधिक हुआ तो बड़ी आय से क्या लाभ?

हम एक प्रिंसिपल महोदय को जानते हैं जिन्हें 800 रु. मासिक आमदनी होती थी। किन्तु वे 200 रु. माह बार घर से और खर्चे के लिए मंगवाते थे। सदैव हाथ तंग रखते और वेतन के कम होने का रोना रोया करते थे।

दूरदर्शी व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं और खर्चों का पहले से ही बजट तैयार करता है। उसकी आय वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति में ही व्यय नहीं होती प्रत्युत वह भविष्य के लिए, बच्चों की शिक्षा, विवाह, बुढ़ापे के लिए धन एकत्रित रखता है। अपनी परिस्थिति के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य बचाता है।



किसी कवि ने कहा है-
कौडी कौडी जोड़ि कै, निधन होत धनवान।
अक्षर अक्षर के पढ़े, मूरख होत सुजान॥


आप बचत कर सकते हैं?

📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1950 पृष्ठ 12

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👉 अध्यात्म एक प्रकार का समर (अमृतवाणी) भाग 1

🌞 गायत्री मंत्र हमारे साथ- साथ-
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

मित्रो! कर्म के आधार पर प्रत्येक अध्यात्मवादी को क्षत्रिय होना चाहिए, क्योंकि "सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्" अर्थात इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय ही लड़ते हैं। बेटे, अध्यात्म एक प्रकार की लड़ाई है। स्वामी नित्यानन्द जी की बंगला की किताब है 'साधना समर'। 'साधना समर' को हमने पढा, बड़े गजब की किताब है। मेरे ख्याल से हिंदी में इसका अनुवाद शायद नहीं हुआ है। उन्होंने इसमें दुर्गा का, चंडी का और गीता का मुकाबला किया है। दुर्गा सप्तशती में सात सौ श्लोक हैं और गीता में भी सात सौ श्लोक हैं। दुर्गा सप्तशती में अठारह अध्याय हैं, गीता के भी अठारह अध्याय हैं। उन्होंने ज्यों का त्यों सारे के सारे दुर्गा पाठ को गीता से मिला दिया है और कहा है कि साधना वास्तव में समर है। समर मतलब लड़ाई, महाभारत। यह महाभारत है, यह लंकाकाण्ड है। इसमें क्या करना पड़ता है? अपने आप से लड़ाई करनी पड़ती है, अपने आप की पिटाई करनी पड़ती है, अपने आप की धुलाई करनी पड़ती है और अपने आप की सफाई करनी पड़ती हैं। अपने आप से सख्ती से पेश आना पड़ता है।

हम बाहर वालों के साथ जितनी भी नरमी कर सकते हैं वह करें। दूसरों की सहायता कर सकते हैं, उन्हें क्षमा कर सकते हैं, दान दे सकते हैं, उदार हो सकते हैं, दूसरों को सुखी बनाने के लिए जितना भी, जो कुछ भी कर सकते हो, करें। लेकिन अपने साथ, अपने साथ हमको हर तरह से कड़क रहना चाहिए, अपनी शारीरिक वृत्तियों और मानसिक वृत्तियों के विरुद्ध हम जल्लाद के तरीके से, कसाई के तरीके से इस तरह से खड़े हो जाएँ कि हम तुमको पीटकर रहेंगे, तुमको मसलकर रहेंगे, तुमको कुचलकर रहेंगे। अपनी इंद्रियों के प्रति हमारी बगावत इस तरह की होनी चाहिए और अपनी मनःस्थिति के विरुद्ध बगावत इस स्तर की होनी चाहिए।

हम अपनी मानसिक कमजोरियों को समझें, न केवल समझें, न केवल क्षमा माँगे, वरन उनको उखाड़ फेंके। गुरुजी, क्षमा कर दीजिए। बेटे, क्षमा का यहाँ कोई लाभ नहीं, अँग्रेजों के जमाने में जब कांग्रेस वह आंदोलन शुरू हुआ था, तब यह प्रचलन था कि माफी माँगिए, फिर छुट्टी पाइए। जब अँग्रेजों ने देखा कि ये तो माफी माँगकर छुट्टी ले जाते हैं, फिर दोबारा आ जाते हैं। उन्होंने कहा ऐसा ठीक नहीं है, जमानत लाइए पाँच हजार रुपए की। जो जमानत लाएगा, उसी को हम छोड़ेंगे, नहीं तो नहीं छोड़ेंगे। माफी ऐसे नहीं मिल सकती। फिर पाँच- पाँच हजार की जमानतें शुरू हुईं। जिनको जरूरी काम थे, उन्हें इस तरह की जमानत पर छोड़ देते थे। फिर पाँच हजार की इन्क्वायरी शुरू हुई। उन्हें सी०आई०डी० ने रिपोर्ट दी कि साहब, ये जमानत पर चले जाते हैं और पाँच हजार से ज्यादा का आपका नुकसान कर देते है। फिर उन्होंने जमानतें भी बंद कर दी।

अपने साथ कड़ाई करिए

मित्रो! भगवान ने भी ऐसा किया है कि माफी देने का रोड रास्ता बंद कर दिया है। किसी को माफी दीजिए गुरुजी! माफी कहाँ है यहाँ, दंड भोग। इसलिए क्या करना पड़ेगा? अपने साथ में कड़ाई करने की जिस दिन आप कसम खाते हैं, जिस दिन आप प्रतिज्ञा करते है कि हम अपनी कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। अपनी शारीरिक कमजोरियों के प्रति और अपनी मानसिक कमजोरियों के प्रति कड़क बनेंगे। बेटे, दोनों क्षेत्रों में इतनी कमजोरियों भरी पड़ी हैं कि इन्होंने हमारा भविष्य चौपट कर डाला, व्यक्तित्व का सत्यानाश कर दिया। अध्यात्म यहाँ से शुरू होता है। यहाँ से ही भगवान को मानने वाली बात शुरू होती है, भगवान का दर्शन शुरू होता है। अंगार के ऊपर चढ़ी हुई परत को जिस तरह हम साफ कर देते हैं और वह चमकने लगता है, उसी तरह हमारी आत्मा पर मलीनताओं की जो परत चढ़ी हुई हैं। मलीनताओं की इन परतों को हम धोते हुए चले जाएँ तो भीतर बैठे हुए भगवान का, आत्मा का साक्षात्कार हो सकता है।

मंत्र नहीं, मर्म से जानें

क्यों साहब लक्स साबुन से हम कपड़ा धोए कि हमाम से धोएँ या सके से धोएँ। बेटे, मेरा दिमाग मत खा। तू चाहे तो सर्फ से धो सकता है, लक्स से- सम्राट से धो सकता है, हमाम से धो सकता है, नमक से, रीठा से धो सकता है। महाराज जी! क्या गायत्री मंत्र से मेरा उद्धार हो जाएगा? चंडी के मंत्र से उद्धार हो जाएगा या हनुमान जी के मंत्र से उद्धार होगा? बेटे, इसमें बस इतना फर्क है जितना कि सर्फ और सनलाइट में फर्क होता है और कोई खास बात नहीं है। हनुमान जी के मंत्र से भी साफ हो सकता है। तू हिंदू है या मुसलमान है तो भी साफ हो सकता है। बस तू ठीक तरीके से इस्तेमाल कर। गुरुजी! गायत्री मंत्र से मुक्ति मिल जाती है या 'राम रामाय नमः '' से। बेटे, अब मैं इससे कहीं आगे चला गया हूँ। अब मैं यह बहस नहीं करता कि गायत्री मंत्र का जप करेंगे तो आपकी मुक्ति होगी और हनुमान जी का जप करेंगे, तो मुक्ति नहीं होगी। बेटे, सब भगवान के नाम हैं। साबुन में केवल लेबल का फर्क है, असल में उनका उद्देश्य एक है।

मित्रो! साधना का उद्देश्य एक है कि हमारी भीतर वाली मनःस्थिति की सफाई होनी चाहिए, जो हमारी शरीर को विकृतियों और मानसिक विकृतियों के लिए जिम्मेदार है। हमारी मानसिक और शारीरिक विकृतियों ही हैं, जिन्होंने हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी की है। अगर हम इस दीवार को नहीं हटा सकते, तो हमारे पड़ोस में बैठा हुआ भगवान हमें साक्षात्कार नहीं दे सकता। बेटे, भगवान में और हम में दीवार का फर्क है, जिससे भगवान हमसे कितनी दूरी पर है? गुरुजी! भगवान तो लाखों- करोड़ों कि०मी० दूर रहता है? नहीं बेटे, करोड़ों कि०मी० दूर नहीं रहता। वह हमारे हृदय की धड़कन में रहता है, लपडप के रूप में हमारी साँसों में प्रवेश करता है। हमारी नसों में गंगा- जमुना की तरह से उसी का जीवन प्रवाहित होता है। हमारा प्राण भगवान है और हमारे रोम- रोम में समाया हुआ है। तो दूर कैसे हुआ? दूर ऐसे हो गया कि हमारे और भगवान के बीच में एक दीवार खड़ी हो गई। उस दीवार को गिराने के लिए जिस छेनी- हथौड़े का इस्तेमाल करना पड़ता है, उसका नाम है पूजा और पाठ।

क्रमशः जारी
परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य 

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👉 कर्म ही सर्वोपरि

नमस्याओ देवान्नतु हतविधेस्तेऽपि वशगाः, विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियत कर्मैकफलदः।
फलं कर्मायतं किममरणैं किं च विधिना नमस्तत्कर्मेभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवित॥

(भतृहरिकृत नीति शतक 75 वाँ श्लोक)
 
हम सब जिन देव शक्तियों को अर्चना-आराधना के उपायों और विधानों को जानने के लिए उत्सुक रहते हैं, वे देव-सत्ताएँ भी विधि-व्यवस्था से ही बँधी दीखती है । दैवी विधानों की अवहेलना वे भी नहीं करतीं । तो क्या उस सृष्टि-संचालक विधान की और उसके विधाता की ही वन्दना की जाय ? पर हमारे भाग्य का निर्धारण तो वह विधि-व्यवस्था हमारे ही कर्मो के अनुसार करती है । यही उसका सुनिश्चित नियम है । हमारे अपने ही कर्मो का फल प्रदान करने की प्रक्रिया वह चलाता रहता है ।

इस प्रकार हमारे भोगों, उपलब्धियों और प्रवृत्तियों के एकमात्र सूत्र संचालक हमारे स्वयं के कर्म ही हैं । तब फिर देवताओं और विधाता को प्रसन्न करने की चिन्ता करते रहना कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? हमारा साध्य और असाध्य तो कर्म ही है । वही वन्दनीय है-अभिनन्दनीय है, वही वरण और आचरण के योग्य है । दैवी विधान भी उससे भिन्न और उसके विरुद्ध कुछ कभी नहीं करता । कर्म ही सर्वोपरि है । परिस्थितियों और मनःस्थितियों का वही निर्माता है । उसी की साधना से अभीष्ट की उपलब्धि सम्भव है ।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1980 पृष्ठ 1


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