सोमवार, 7 जून 2021

👉 रिश्तों की अहमयित

"मैंने कोरोना को नहीं हराया"   

मैं एक प्रायवेट कम्पनी में बाबू हूँ। हमेशा की तरह मैं कम्पनी में काम कर रहा था।
मुझे हल्का बुखार आया,शाम तक सर्दी भी हो गई। पास ही के मेडिकल स्टोर से दवाइयां बुला कर खाई।
3-4 दिन थोड़ा ठीक रहा,एक दिन अचानक साँस लेने में दिक्कत हुई। ऑक्सीजन लेवल कम होने लगा। मेरी पत्नी तत्काल रिक्शा में लेकर मुझे अस्पताल पहुंची। सरकारी अस्पताल में पलंग फुल चल रहे थे, मैं देख रहा था मेरी पत्नी मेरे इलाज के लिये डॉक्टर के सामने गिड़गिड़ा रही थी। अपने परिवार को असहाय-सा बस देख ही पा रहा था। मेरी तकलीफ बढ़ती जा रही थी।

मेरी पत्नी मुझे हौंसला दिला रही थी, कह रही थी, कुछ नहीं होगा हिम्मत रखो। (यह वही औरत थी जिसे मैं हमेशा कहता था कि तुम बेवकूफ औरत हो, तुम्हें क्या पता दुनिया में क्या चल रहा है?)

उसने एक प्रायवेट अस्पताल में लड़ झगड़ कर मुझे भर्ती करवाया, फिर अपने भाई याने मेरे साले को फोन लगाकर सारी बातें बताई। उसकी उम्र होगी 20 साल करीबन (जो मेरी नजर में आवारा और निठल्ला था जिसे मेरे घर आने की परमीशन नहीं थी।)

वह अक्सर मेरी गैर हाजरी में ही मेरे घर आता-जाता था। अपने देवर को याने मेरे छोटे भाई को फोन लगा कर उसने बुलाया, जो मेरे साले की उम्र का ही था (जो बेरोजगार था और मैं उसे कहता था - "काम का ना काज का दुश्मन अनाज का")

दोनों घबराते  हुए अस्पताल पहुंचे। दोनों की आंखो में आंसू थे। दोनों कह रहे थे कि -
आप घबराना मत आपको हम कुछ नहीं होने देंगे। डॉक्टर साहब कह रहे थे कि हम 3-4 घन्टे ही ऑक्सीजन दे पायेंगे फिर आपको ही सिलेंडर की व्यवस्था करनी होगी।

मेरी पत्नी बोली- डॉक्टर साहब ये सब हम कहां से लायेंगे? तभी मेरा भाई और साला बोले- हम लायेंगे सिलेंडर आप इलाज शुरु कीजिए। दोनों वहां से रवाना हो गये। मुझ पर बेहोशी छाने लगी और जब होश आया तो मेरे पास ऑक्सीजन सिलेंडर रखा था। मैंने पत्नी से पूछा- ये कहां से आया? उसने कहा- तुम्हारा भाई और मेरा भाई दोनों लेकर आये हैं। मैंने पूछा- कहां से लाये?

उसने कहा- ये तो वो ही जाने?

अचानक मेरा ध्यान पत्नी की खाली कलाइयों पर गया। मैंने कहा - तुम्हारे कंगन कहां गये? (कितने साल से लड़ रही थी कंगन दिलवाओ कंगन दिलवाओ।अभी पिछ्ले महिने शादी की सालगिरह पर दिलवाये थे बोनस मिला था उससे।) वह बोली - आप चुपचाप सो जाइये कंगन यहीं हैं कहीं नहीं गये । मुझे उसने दवाइयां दी, मैं आराम करने लगा। नींद आ गई जैसे ही नींद खुली क्या देखता हूं- *मेरी पत्नी कई किलो वजनी सिलेंडर को उठा कर ले जा रही थी ।
(जो थोड़ा - सा भी वजनी सामान उठाना होता था मुझे आवाज देती थी।)

आज कैसे कई किलो वजनी सिलेंडर तीसरी मंजिल से नीचे ले जा रही थी और नीचे से भरा हुआ सिलेंडर ऊपर ला रही थी। मुझे गुस्सा आया मेरे साले और मेरे भाई पर , ये दोनों कहाँ मर गये? फिर सोचा आयेंगे तब फटकारुंगा। फिर पड़ोस के बैड पर भी एक सज्जन भर्ती थे उनसे बातें करने लगा - मैंने कहा कि अच्छा अस्पताल है नीचे सिलेंडर आसानी से मिल रहे हैं।

उन्होंने कहा - क्या खाक अच्छा अस्पताल है यहां से 40 किलोमीटर दूर बड़े शहर में 7-8 घन्टे लाइन में लगने के बाद बड़ी  मुश्किल से एक सिलेंडर मिल पा रहा है।आज ही अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से 17 मौतें हुई हैं ।

मैं सुनकर घबरा गया, सोचने लगा कि शायद मेरा साला और भाई भी ऐसे ही सिलेंडर ला रहे होंगे। पहली बार दोनों के प्रति सम्मान का भाव जागा था। कुछ सोचता इससे पहले पत्नी बड़ा-सा खाने का टिफ़िन लेकर आती दिखी। पास आकर बोली - उठो खाना खा लो। उसने मुझे खाना दिया ।एक कौर खाते ही मैंने कहा - ये तो माँ ने बनाया है। उसने कहा - हां माँ ने ही बनाया है।

माँ कब आई गाँव से? उसने कहा - कल रात को ।अरे! वो कैसे आ गई अकेले तो वो कभी नहीं आई शहर ।

पत्नी बोली बस से उतर कर ऑटो वाले को घर का पता जो एक पर्चे मे लिखा था वह दिखा कर घर पहुंच गई ।

(मेरी माँ ने शायद बाबूजी के स्वर्गवास के बाद पहली बार ही अकेले सफर किया होगा । गाँव की जमीन मां बेचने नहीं दे रही थी तो मेरी माँ से मनमुटाव चल रहा था । कहती थी मेरे मरने के बाद जैसा लगे वैसा करना, जीतेजी तो नहीं बेचने दूंगी ।) पत्नी बोली -मुझे भी अभी मेरी मां ने बताया कि आपकी माँ रात को आ गई थी । वो ही अपने घर से खाना लेकर आई है । मैंने कहा- पर तुम्हारी मां को तो पैरों में तकलीफ है, उनसे चलते नहीं बनता है । (मेरे ससुर के स्वर्गवास के बाद बहुत कम ही घर से निकलती है।)

पत्नी बोली आप आराम से खाना खाइये।
 मैं खाना खाने लगा  कुछ देर बाद मेरे फटीचर दोस्त का फोन आया । बोला हमारे लायक कोई काम हो तो बताना (मैंने मन में सोचा जो मुझसे उधार ले रखे हैं 3000 वही वापस नहीं किया, काम क्या बताऊं तुझे ? फिर भी मैंने मन में कहा - ठीक है जरुरत होगी तो बता दूंगा।)
 मैंने मुंह बना कर फोन काट दिया 16 दिनों तक मेरी पत्नी सिलेंडर ढोती रही मेरा भाई और साला लाईन में लगकर सिलेंडर लाते रहे।

फिर हालत में सुधार हुआ और 18 वें दिन अस्पताल से छुट्टी हुई । मुझे खुद पर गर्व था कि मैंने कोरोना को हरा दिया। मैं फूला नहीं समा रहा था।

घर पहुंच कर असली कहानी पता चली कि, मेरे इलाज में बहुत सारा रुपया लगा है। कितना ये तो नहीं पता पर मेरी पत्नी के सारे जेवर जो उसने मुझसे लड़-लड़ कर बनवाये थे,बिक चुके थे।मेरे साले के गले की चेन बिक चुकी थी,जो मेरी पत्नी ने मुझसे साले की जनेऊ में 15 दिन रूठ कर जबरजस्ती दिलवाई थी।मेरा भाई जिस बाइक को अपनी जान से ज्यादा रखता था वो भी घर मे दिखाई नहीं दे रही थी। मेरी माँ जिस जमीन को जीतेजी नहीं बेचना चाहती थी मेरे स्वर्गीय बाबूजी की आखरी निशानी थी , वो भी मेरे इलाज मे बिक चुकी थी।
                                       
मेरी पत्नी से लड़ाई होने पर मैं गुस्से में कहता था कि जाओ अपनी माँ के घर चली जाओ वो मेरे ससुराल का घर भी गिरवी रखा जा चुका था।मेरे निठल्ले दोस्त ने जो मुझसे 3000 रुपये लिए थे, ब्याज सहित वापस कर दिये थे।  जिन्हें मैं किसी काम का नहीं समझता था,वे मेरे जीवन को बचाने के लिये पूरे बिक चुके थे। मैं अकेला रोये जा रहा था बाकि सब लोग खुश थे क्योंकि मुझे लग रहा था सब कुछ चला गया ,और उन्हें लग रहा कि मुझे बचा कर उन्होंने सब कुछ बचा लिया।

अब मुझे कोई भ्रम नहीं था कि मैंने कोरोना को हराया है क्योंकि कोरोना को तो मेरे अपनों ने, परिवार ने हराया था।

सब कुछ बिकने के बाद भी मुझे लग रहा था कि आज दुनिया में मुझसे अमीर कोई नहीं है।

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग २८)

सुख का केन्द्र और स्रोत आत्मा

मनुष्य की अपनी आत्मा ही सब कुछ है। आत्मा से रहित वह एक मिट्टी का पिण्ड मात्र ही है। शरीर से जब आत्मा का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तो वह मुर्दा हो जाता है। शीघ्र ही उसे बाहर करने और जलाने दफनाने का प्रबन्ध किया जाता है। संसार के सारे सम्बन्ध आत्मा द्वारा ही सम्बन्धित हैं। जब तक जिसमें आत्मभाव बना रहता है, उसमें प्रेम और सुख आदि की अनुभूति बनी रहती है और जब यह आत्मीयता समाप्त हो जाती है वही वस्तु या व्यक्ति अपने लिये कुछ भी नहीं रह जाता। किसी को अपना मित्र बड़ा प्रिय लगता है। उससे मिलने पर हार्दिक आनन्द की उपलब्धि होती है। न मिलने से बेचैनी होती है। किन्तु जब किन्हीं कारणोंवश उससे मैत्री भाव समाप्त हो जाता है अथवा आत्मीयता नहीं रहती तो वह मित्र अपने लिए, एक सामान्य व्यक्ति बन जाता है। उसके मिलने न मिलने में किसी प्रकार का हर्ष विषाद नहीं होता। बहुत बार तो उससे इतनी विमुखता हो जाती है कि मिलने अथवा दिखने पर अन्यथा अनुभव होता है। प्रेम, सुख और आनन्द की सारी अनुभूतियां आत्मा से ही सम्बन्धित होती हैं, किसी वस्तु, विषय, व्यक्ति अथवा पदार्थ से नहीं। सुख का संसार आत्मा में ही बसा हुआ है। उसे उसमें खोजना चाहिये। सांसारिक विषयों अथवा वस्तुओं में भटकते रहने से वही दशा और परिणाम सामने आयेगा, जो मरीचिका में भूल मृग के सामने आता है।

मनुष्य की अपनी विशेषता ही उसके लिये उपयोगिता तथा स्नेह सौजन्य उपार्जित करती है। विशेषता समाप्त होते ही मनुष्य का मूल्य भी समाप्त हो जाता है और तब वह न तो किसी के लिये आकर्षक रह जाता है और न प्रिय! इस बात को समझने के लिए सबसे अधिक निकट रहने वाले मां और बच्चे को ले लीजिये। माता से जब तक बच्चा दूध और जीवन रस पाता रहता है, उसके शरीर से अवयव की तरह चिपटा रहता है। उसे मां से असीम प्रेम होता है। जरा देर को भी वह मां से अलग नहीं हो सकता। मां उसे छोड़कर कहीं गई नहीं कि वह रोने लगता है। किन्तु जब इसी बालक को अपनी सुरक्षा तथा जीवन के लिये मां की गोद और दूध की आवश्यकता नहीं रहती अथवा रोग आदि के कारण मां की यह विशेषता समाप्त हो जाती है तो बच्चा उसकी जरा भी परवाह नहीं करता। वह अलग भी रहने लगता है और स्तन के स्थान पर शीशी से ही बहल जाता है। मनुष्य की विशेषतायें ही किसी के लिए स्नेह, सौजन्य अथवा प्रेम आदि की सुखदायक स्थितियां उत्पन्न करती हैं।

किन्तु मनुष्य की इस विशेषता का स्रोत क्या है। इसका स्रोत भी आत्मा के सिवाय और कुछ नहीं है। बताया जा चुका है कि आत्मा से असम्बन्धित मनुष्य शव से अधिक कुछ नहीं होता। जो शव है, मुर्दा है अथवा अचेतन या जड़ है, उनमें किसी प्रकार की प्रेमोत्पादक विशेषता के होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मनुष्य के मन प्राण और शरीर तीनों का संचालन, नियन्त्रण तथा पोषण आत्मा की सूक्ष्म सत्ता द्वारा ही होता है। आत्मा और इन तीनों के बीच जरा-सा व्यवधान आते ही सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है। सुन्दर, सुगठित और स्वस्थ शरीर की दुर्दशा हो जाती है। प्राणों का स्पन्दन तिरोहित होने लगता है और मन मतवाला होकर मनुष्य को उन्मत्त और पागल बना देता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ४४
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग २८)

शिवभक्त, परम बलिदानी दधीचि
    
तप-साधना, लौकिक-अलौकिक विद्याओं का अन्वेषण-अनुसंधान, अपने अंतेवासियों में इनका अध्ययन-अध्यापन यही इनका प्रमुख कार्य था। इसके अलावा वह गौतमी तट पर आश्रम बनाकर कुछ विशेष साधनाएँ सम्पन्न कर रहे थे। उस समय उनके पास कुछ विशेष अनुसंधानप्रिय छात्र ही थे। देवर्षि नारद अपनी स्मृतियों को ताजा करते हुए बोले-उस समय मैं गया था उन देवमानव के पास। अपनी अतिविशिष्ट साधना में लीन रहने के बावजूद वह मुझसे मिले। ओह! जितना सुरम्य-सुरभित उनकी आभा थी, उससे कहीं अधिक दिव्य वे स्वयं थे। देवमानव एवं अतिमानव होने के सभी लक्षण उनमें साकार थे।
    
तत्त्वचर्चा एवं भक्तिचर्चा करते हुए मैंने उनसे सहज पूछ लिया-हे महर्षि! आपकी साधना का साध्य क्या है? उत्तर में वह मुस्कराते हुए बोले-हे देवर्षि! मेरी साधना भी शिवभक्ति है और मेरा साध्य भी वही है। जब मैं समाधि में होता हूँ तो प्रतिपल-प्रतिक्षण मेरी भावचेतना का सरित प्रवाह उन भगवान भोलेनाथ की चेतना के महासागर में विलीन होता रहता है। उन कृपासिन्धु में मेरे अस्तित्व का बिन्दु विलीन-विलय होता रहता है और जब मैं जाग्रत होता हूँ तो समस्त प्राणियों में उन्हीं की अनुभूति करते हुए उनकी सेवा करता रहता हूँ। देवर्षि मेरा समस्त तप एवं सभी विद्याएँ लोकसेवा के लिए है। मेरे सभी कर्मों का सार मेरे आराध्य की सेवा है।
    
अपनी बातें कहते हुए उनका अस्तित्व भक्ति से भीग गया। वह बड़े विगलित स्वर में बोले- देवर्षि! मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन में न तो धन कमाया है और न साधन जुटाये हैं। बस केवल तप किया एवं शिवभक्ति की है। यही मेरी लोकसेवा का माध्यम है। आपके जीवन की अंतिम चाहत क्या है ऋषिश्रेष्ठ?- मेरा यह प्रश्न सुनकर वह चिंतित हो उठे। उन्हें अपने अस्तित्व में कहीं कोई चाहत ढूँढे न मिली। उनका अस्तित्व तो शुभ्र-निरभ्र आकाश की भाँति हो गया था, जिसमें तप का पूर्ण चन्द्र प्रकाशित था। जिसमें अनगिन विद्याओं के तारकगण टके थे। चाहत और इच्छा की धुँध तो वहाँ थी ही नहीं।
    
फिर भी उन्होंने स्वयं को कुरेदा और बोल उठे-देवर्षि मैं चाहता हूँ कि मेरी चेतना ही नहीं मेरा शरीर भी लोकसेवा में लग जाये। उस दिन जैसे नियति स्वयं उनके मुख से बोल रही थी। उनके स्वयं के हृदय मंदिर में नित्य विद्यमान भगवान सदाशिव जैसे उन क्षणों में एवमस्तु कह रहे थे। कुछ वर्षों में ही उन महान् ऋषि का कथन साकार हो उठा। वृत्रासुर के आतंक से पीड़ित देवराज ने जब देवगणों के साथ जाकर उनसे उनकी अस्थियाँ माँगीं तो वे बोले- देवराज मैं धन्य हुआ। मेरी अस्थियाँ देवत्व के संवर्धन में लगेंगी। इनसे असुरता का विनाश होगा, इससे अधिक मेरे लिए और कोई सुयोग-सौभाग्य नहीं।
    
उन्होंने हँसते-हँसते अपने जीवन काल में अपनी अस्थियों का दान दे डाला। लोकसेवा के लिए इतना महान् बलिदान देने वाला धरती पर न कभी हुआ था और न होगा। बड़ी आसानी से उन्होंने योगबल से स्वयं की देह का त्याग कर दिया। उनकी अस्थियों से वज्र बना और असुरता का संहार हुआ। उनकी भावचेतना भगवान सदाशिव में विलीन हो गयी।’’ देवर्षि के मुख से यह भक्तिकथा सुनकर सभी ने हाथ जोड़कर भक्तश्रेष्ठ दधीचि एवं भगवान भोलेनाथ को प्रणाम किया और शिवरात्रि के अर्चन की तैयारियों में लग गये।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ५५

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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