बुधवार, 21 मार्च 2018
👉 उपासना बिना कल्याण नहीं (भाग 1)
🔶 चन्द्रमा तब चमकता है जब उस पर सूर्य चमकता है। जब वह चमक उसे प्राप्त नहीं होती है तो अमावस्या के दिन यथास्थान रहते हुए भी उसका अस्तित्व लुप्त प्रायः ही रहता है। होते हुए भी न होने जैसी स्थिति उसकी रहती है। पृथ्वी के उतने भाग में दिन रहता है जितने पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं। जितने भाग पर वे नहीं चमकती वहीं घोर अन्धकार छाया रहता है, और हाथों-हाथ सूझ नहीं पड़ता। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में है। उस पर जब परमात्मा का प्रकाश चमकता है जो उज्ज्वल और दीप्तिमान दीखता है और जब वह चमक बन्द हो जाती है तो मानव शरीर धारी एक निकृष्ट नर-पशु के रूप में एक घृणित एवं निकम्मा अस्तित्व मात्र ही दृष्टि गोचर होता है। परमात्मा से दूर रहने वालों मनुष्य बहुधा मनुष्यता से रहित ही पाये जाते हैं।
🔷 आत्मा, परमात्मा का एक अंश मात्र है। उसे जो कुछ शक्ति और प्रतिभा प्राप्त है ईश्वर की ही विभूति है। जिसमें वह विभूति जितनी कम पड़ जाती है वह उतना ही दीन-हीन बना रहता है। शक्ति का स्रोत जिस उद्गम से प्रवाहित होता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेने से सामान्य जीव को भी शक्ति का पुँज बनने में देर नहीं लगती। बिजलीघर के साथ जुड़े हुए पतले-पतले तार अपने भीतर इतनी शक्ति धारण कर लेते हैं कि उनके द्वारा सैकड़ों घोड़ों की शक्ति वाली मशीनें धड़-धड़ाती हुई चलने लगती हैं। उनको स्पर्श करने वाले बल्ब अन्धेरी रात को दिन जैसा प्रकाशवान बना देते हैं। बिजली घर से जब तक सम्बन्ध है तभी तक उन तारों में यह विभूति रहती है कि उनके स्पर्श से चमत्कार उत्पन्न हो सके जब वह सम्बन्ध कट जाता है, तारों को बिजली घर के विद्युत भण्डार की धारा का प्रवाह मिलना रुक जाता है तो फिर उनका कोई महत्व नहीं रह जाता। देखने से पहले जैसा लगने पर भी वे न प्रकाश उत्पन्न करते हैं और न मशीनें चला पाते हैं। तार का मूल्य बिजली घर से सम्बन्ध होने के कारण हो तो या, वह टूट गया तो फिर उसकी महत्ता कहाँ स्थिर रह सकती थीं?
🔶 आत्मा के द्वारा अनेक लौकिक और पारलौकिक प्रयोजन पूर्ण किये जाते हैं। अनेकों सफलता और समृद्धियों को प्राप्त करने का श्रेय आत्म-बल को ही दिया जा सकता है। शरीर की दृष्टि से सब मनुष्य लगभग समान होते हैं। देह के बल पुञ्जों में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। फिर भी मनुष्य-मनुष्य के बीच जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है। एक भीरु है तो दूसरा दुस्साहसी। एक दुष्ट है तो दूसरा महात्मा। एक तृष्णा वासना की मृग मरीचिका में भटकता है, दूसरा आनन्द और उल्लास की परितृप्ति का रसास्वादन करता है। एक के उद्वेग और शोक सन्ताप का ठिकाना नहीं, दूसरे को सन्तोष की शान्ति आह्लादित किये रहती है। एक को सम्पूज्य और दूसरे को तिरस्कृत देखते हैं। एक प्रगति की ओर बढ़ रहा है तो दूसरा पतन के गर्त में गिरता ही चला जा रहा है। इस प्रकार के असाधारण अन्तर मनुष्य की आन्तरिक आत्मिक स्थिति की भिन्नता के कारण ही उत्पन्न होते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1964 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/April/v1.6
🔷 आत्मा, परमात्मा का एक अंश मात्र है। उसे जो कुछ शक्ति और प्रतिभा प्राप्त है ईश्वर की ही विभूति है। जिसमें वह विभूति जितनी कम पड़ जाती है वह उतना ही दीन-हीन बना रहता है। शक्ति का स्रोत जिस उद्गम से प्रवाहित होता है उसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेने से सामान्य जीव को भी शक्ति का पुँज बनने में देर नहीं लगती। बिजलीघर के साथ जुड़े हुए पतले-पतले तार अपने भीतर इतनी शक्ति धारण कर लेते हैं कि उनके द्वारा सैकड़ों घोड़ों की शक्ति वाली मशीनें धड़-धड़ाती हुई चलने लगती हैं। उनको स्पर्श करने वाले बल्ब अन्धेरी रात को दिन जैसा प्रकाशवान बना देते हैं। बिजली घर से जब तक सम्बन्ध है तभी तक उन तारों में यह विभूति रहती है कि उनके स्पर्श से चमत्कार उत्पन्न हो सके जब वह सम्बन्ध कट जाता है, तारों को बिजली घर के विद्युत भण्डार की धारा का प्रवाह मिलना रुक जाता है तो फिर उनका कोई महत्व नहीं रह जाता। देखने से पहले जैसा लगने पर भी वे न प्रकाश उत्पन्न करते हैं और न मशीनें चला पाते हैं। तार का मूल्य बिजली घर से सम्बन्ध होने के कारण हो तो या, वह टूट गया तो फिर उसकी महत्ता कहाँ स्थिर रह सकती थीं?
🔶 आत्मा के द्वारा अनेक लौकिक और पारलौकिक प्रयोजन पूर्ण किये जाते हैं। अनेकों सफलता और समृद्धियों को प्राप्त करने का श्रेय आत्म-बल को ही दिया जा सकता है। शरीर की दृष्टि से सब मनुष्य लगभग समान होते हैं। देह के बल पुञ्जों में कोई विशेष अन्तर नहीं होता। फिर भी मनुष्य-मनुष्य के बीच जमीन आसमान का अन्तर पाया जाता है। एक भीरु है तो दूसरा दुस्साहसी। एक दुष्ट है तो दूसरा महात्मा। एक तृष्णा वासना की मृग मरीचिका में भटकता है, दूसरा आनन्द और उल्लास की परितृप्ति का रसास्वादन करता है। एक के उद्वेग और शोक सन्ताप का ठिकाना नहीं, दूसरे को सन्तोष की शान्ति आह्लादित किये रहती है। एक को सम्पूज्य और दूसरे को तिरस्कृत देखते हैं। एक प्रगति की ओर बढ़ रहा है तो दूसरा पतन के गर्त में गिरता ही चला जा रहा है। इस प्रकार के असाधारण अन्तर मनुष्य की आन्तरिक आत्मिक स्थिति की भिन्नता के कारण ही उत्पन्न होते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति अप्रैल 1964 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1964/April/v1.6
👉 नारी को विकसित किया जाना आवश्यक है। (भाग 4)
🔶 राम हमारे घरों में आये, इसके लिए कौशल्या की जरूरत है। कृष्ण का अवतार देवकी की कोख ही कर सकती है। कर्ण, अर्जुन और भीम के पुनः दर्शन करने हों तो कुँती तैयार करनी पड़ेगी। हनुमान चाहिये तो अंजनी तलाश करनी होगी। अभिमन्यु का निर्माण कोई सुभद्रा ही कर सकती है। शिवाजी की आवश्यकता हो तो जीजाबाई का अस्तित्व पहले होना चाहिये यदि इस ओर से आँखें बंद कर ली गई और भारतीय नारी को जिस प्रकार अविद्या और अनुभव हीनता की स्थिति में रहने को विवश किया गया है, उसी तरह आगे भी रखा गया हो आगामी पीढ़ियाँ और भी अधिक मूर्खता उद्दंडता लिए युग आवेगी और हमारे घरों की परिपाटी को नरक बना देंगी। परिवारों से ही समाज बनता है फिर सारा समाज और भी घटिया लोगों से भरा होने के कारण अब से भी अधिक पतनोन्मुखी हो जायेगा।
🔷 आज हमारे बालकों की क्या स्थिति है, इसे बाहर ढूंढ़ने जाने या कोई रिपोर्ट तैयार कराने की जरूरत नहीं है। हममें से हर कोई अपने-अपने घरों को देख सकता है और छाती पर हाथ रखकर कह सकता है कि अपने बच्चों के गुण कर्म स्वभाव के संबंध में संतोष है या असन्तोष? अब अंधे माता-पिता को कंधे पर बिठा कर तीर्थ यात्रा कराने वाले श्रावण कुमार ढूंढ़ने न मिलेंगे। पिता का संकेत और विमाता की इच्छा मात्र प्रतीत होते ही वन गमन करने वाले राम आज किसी घर में तलाश तो किये जाएं?
🔶 भाई के लिये जान देने वाले भरत और लक्ष्मण शायद ही किसी विरले घर में मिलें? पति के आदेश पर बिक जाने वाली शैव्या आज कितने पतियों को प्राप्त है यह जानना कठिन है। ऐसे उच्च मानसिक स्तर से भरे हुए परिवार आज ढूंढ़े नहीं मिल सकते। इसका एकमात्र कारण है- नारी की अधोगति। जब सोता ही सूखा गया तो नाले में पानी कहाँ से बहेगा? जब नारी की दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पड़ी है तो उससे उत्पन्न होने वाली सन्तान के समुन्नत होने की आशा करना दुराशा मात्र ही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1960 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/December/v1.27
🔷 आज हमारे बालकों की क्या स्थिति है, इसे बाहर ढूंढ़ने जाने या कोई रिपोर्ट तैयार कराने की जरूरत नहीं है। हममें से हर कोई अपने-अपने घरों को देख सकता है और छाती पर हाथ रखकर कह सकता है कि अपने बच्चों के गुण कर्म स्वभाव के संबंध में संतोष है या असन्तोष? अब अंधे माता-पिता को कंधे पर बिठा कर तीर्थ यात्रा कराने वाले श्रावण कुमार ढूंढ़ने न मिलेंगे। पिता का संकेत और विमाता की इच्छा मात्र प्रतीत होते ही वन गमन करने वाले राम आज किसी घर में तलाश तो किये जाएं?
🔶 भाई के लिये जान देने वाले भरत और लक्ष्मण शायद ही किसी विरले घर में मिलें? पति के आदेश पर बिक जाने वाली शैव्या आज कितने पतियों को प्राप्त है यह जानना कठिन है। ऐसे उच्च मानसिक स्तर से भरे हुए परिवार आज ढूंढ़े नहीं मिल सकते। इसका एकमात्र कारण है- नारी की अधोगति। जब सोता ही सूखा गया तो नाले में पानी कहाँ से बहेगा? जब नारी की दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पड़ी है तो उससे उत्पन्न होने वाली सन्तान के समुन्नत होने की आशा करना दुराशा मात्र ही है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1960 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/December/v1.27
👉 The Spirituality & its Reality. (Part 1)
🔶 So much high faculties and life of a man have been provided to us for what job and BHAGWAN has sent you at which specific time?—To fulfill our obligations. This backward nation, backward civilization, backward culture and backward caste—all were just crying in pain with disastrous chaos to be let loose and was needing your help. The humanity was begging but you kept ignoring it under pretence that you have your own business to do, have to do service, have to give birth to children and earn money. You said that but humanity asked you, ‘‘ I need your money.’’ ‘‘I need your time.’’ ‘‘I need your labour.’’ The humanity asked your labour, time and money but you just denied. You are an offender and even BARAH BHAGWAN does not spare an offender.
🔷 I said that I go and I did just that. Now I go to HIMAALAYA but will not allow my friends to keep crying in pain of sin. I will lift you to carry you and will tear your stomach apart if its need be. I will do that ruthlessly as only blessing is not my job. To tear your stomach apart is also my job.
🔶 Blessing is the job of almost every gentle man and it should be that. Such men maintained their honesty and moral that giving is the duty and responsibility of every man. It is the demand of the spirituality; I do not do any favour to you or others. It is my spirituality and anyone’s spirituality will not allow one to sit in peace. It will keep cursing, hurting and saying, ‘‘O man! You are not born for eating, rather for giving.’’ It is your right to give and what you gave to this world? Spirituality says & pinches.
📖 From Akhand Jyoti
🔷 I said that I go and I did just that. Now I go to HIMAALAYA but will not allow my friends to keep crying in pain of sin. I will lift you to carry you and will tear your stomach apart if its need be. I will do that ruthlessly as only blessing is not my job. To tear your stomach apart is also my job.
🔶 Blessing is the job of almost every gentle man and it should be that. Such men maintained their honesty and moral that giving is the duty and responsibility of every man. It is the demand of the spirituality; I do not do any favour to you or others. It is my spirituality and anyone’s spirituality will not allow one to sit in peace. It will keep cursing, hurting and saying, ‘‘O man! You are not born for eating, rather for giving.’’ It is your right to give and what you gave to this world? Spirituality says & pinches.
📖 From Akhand Jyoti
👉 आत्मावलोकन का सरल उपाय—एकान्तवास (भाग 2)
🔶 पिछला शिविर, जो आपसे पहले का गया है, उसमें ढेरों आदमी ऐसे थे, जो अपना वजन छह-छह पौण्ड बढ़ाकर ले गए; क्योंकि जो उन्होंने हल्का-सात्विक भोजन किया, वह ठीक तरीके से हजम हुआ, कम मात्रा में खाया, पेट पर दबाव कम पड़ा, हर तरह से हजम होता चला गया और रक्त बढ़ता गया तथा उनकी सेहत में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। आप भी ऐसे ही कर लेंगे, जो जायकेदार चीजें हैं, जो न केवल महँगी होती हैं, बल्कि हानिकारक भी होती हैं, उनसे आप अपना पिण्ड छुड़ा लें, तो समझना चाहिए आपने एक ऐसे भूत-प्रेत से पिण्ड छुड़ा लिया, जो देखने में तो बड़ा आकर्षक मालूम पड़ता था; पर आपको पटक-पटक के मारता था। इस दृष्टि से उपवास का भी महत्त्व तो है; लेकिन उपवास के महत्त्व से भी बढ़कर है अनुशासन का महत्त्व। अब आपको एक नई दिशा पकड़नी है, अब आपको एक नया जन्म लेना है। आप एक नया जन्म लेने की कोशिश कीजिए और यह कोशिश कीजिए कि पिछला समय हमारा जीवन सामान्य स्तर का था।
🔷 घिनौना तो मैं क्यों कहूँ? पर आप यह मान सकते हैं कि घटिया स्तर का जीवन था। घटिया ही कहना पड़ेगा, घटिया क्यों न कहें? घटिया मुझे इसलिए कहना चाहिए कि आपके अन्दर भगवान् ने जो क्षमताएँ दी हैं, अगर आपने सही तरीके से उनका विकास किया होता, तो यकीन रखें, आप दूसरे कबीर हो गए होते; आप यकीन रखें, आप दूसरे रविदास और गुरुनानक हो गए होते; आप यकीन रखें, आप दूसरे विवेकानन्द रहे होते और दयानन्द रहे होते; गाँधी हो गए होते; अब्राहम लिंकन हो गए होते। यह भी तो सब घटिया और छोटे स्तर के लोग थे; लेकिन जब उन्होंने अपने आप को समझ लिया और अपने आपकी सही दिशाधारा को ठीक पकड़ लिया और उसी रास्ते पर क्रमबद्ध रूप से चलते चले, तो कहाँ-से पहुँच गये?
🔶 आपके लिए भी यह पूरे तरीके से मुमकिन था; पर आप कर नहीं पाये, क्यों? दिक्कत क्या थी? पैसा नहीं था? साधन नहीं थे? बेकार बात मत करिए! न पैसे से कोई ताल्लुक है, न साधनों से कोई ताल्लुक है, न कठिनाइयों से कोई ताल्लुक है; केवल एक ही बात से ताल्लुक है कि आपका मनःसंस्थान बहुत गया-बीता बना रहा और उसमें से यह विचार न आया कि हमको महान जीवन के अनुरूप अपनी विचारधारा बना लेनी चाहिए। बस, यही एक कारण था। अब आप उस कमी को यहाँ पूरी कर ले जाइए। यह बीच का समय मिला है आपको। बीच का समय नया जन्म लेने का समय है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)
http://awgpskj.blogspot.in/2018/03/1_19.html
🔷 घिनौना तो मैं क्यों कहूँ? पर आप यह मान सकते हैं कि घटिया स्तर का जीवन था। घटिया ही कहना पड़ेगा, घटिया क्यों न कहें? घटिया मुझे इसलिए कहना चाहिए कि आपके अन्दर भगवान् ने जो क्षमताएँ दी हैं, अगर आपने सही तरीके से उनका विकास किया होता, तो यकीन रखें, आप दूसरे कबीर हो गए होते; आप यकीन रखें, आप दूसरे रविदास और गुरुनानक हो गए होते; आप यकीन रखें, आप दूसरे विवेकानन्द रहे होते और दयानन्द रहे होते; गाँधी हो गए होते; अब्राहम लिंकन हो गए होते। यह भी तो सब घटिया और छोटे स्तर के लोग थे; लेकिन जब उन्होंने अपने आप को समझ लिया और अपने आपकी सही दिशाधारा को ठीक पकड़ लिया और उसी रास्ते पर क्रमबद्ध रूप से चलते चले, तो कहाँ-से पहुँच गये?
🔶 आपके लिए भी यह पूरे तरीके से मुमकिन था; पर आप कर नहीं पाये, क्यों? दिक्कत क्या थी? पैसा नहीं था? साधन नहीं थे? बेकार बात मत करिए! न पैसे से कोई ताल्लुक है, न साधनों से कोई ताल्लुक है, न कठिनाइयों से कोई ताल्लुक है; केवल एक ही बात से ताल्लुक है कि आपका मनःसंस्थान बहुत गया-बीता बना रहा और उसमें से यह विचार न आया कि हमको महान जीवन के अनुरूप अपनी विचारधारा बना लेनी चाहिए। बस, यही एक कारण था। अब आप उस कमी को यहाँ पूरी कर ले जाइए। यह बीच का समय मिला है आपको। बीच का समय नया जन्म लेने का समय है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)
http://awgpskj.blogspot.in/2018/03/1_19.html
👉 गुरुगीता (भाग 69)
👉 गुरु ही इष्ट है, इष्ट ही गुरु है
🔶 अपने इन कृपालु सद्गुरु को किस भाँति ध्यायें? किस तरह उनकी धारणा करें? इस साधना विधान को स्पष्ट करते हुए भगवान् सदाशिव माता भवानी से कहते हैं-
हृदंबुजे कर्णिकमध्यसंस्थे सिंहासनेसंस्थितदिव्यमूर्तिम्।
ध्यायेद्गुरुं चन्द्रकलाप्रकाशं चित्पुस्तकाभीष्टवरं दधानम्॥ ९१॥
श्वेताम्बरं श्वेतविलेपपुष्पं मुक्ताविभूषं मुदितं द्विनेत्रम्।
वामांङ्कपीठस्थितदिव्यशकिं्त मन्दस्मितं सांद्रकृपानिधानम्॥ ९२॥
🔷 (शिष्य धारणा करें) उसके हृदय कमल की कर्णिकाओं के बीच स्थित सिंहासन में गुरुदेव की दिव्यमूर्ति विराजमान है। इस दिव्यमूर्ति से शुभ्र चाँदनी सा प्रकाश विकीर्ण हो रहा है। इन सद्गुरुदेव के एक हाथ में पुस्तक है और दूसरा हाथ वर प्रदान करने की मुद्रा में ऊपर उठा है॥ ९१॥ सद्गुरुदेव श्वेत वस्त्र पहने हुए हैं, उन्होंने श्वेत लेप धारण किया है। वे श्वेत पुष्प एवं मोतियों की माला से अलंकृत हैं। उनके दोनों नेत्रों से आनन्द छलक रहा है। उनके वामभाग में उनकी लीला सहचरी दिव्य शक्ति माँ विद्यमान हैं। ऐसे मधुर मधुमय मुस्कान बिखेरने वाले गुरुदेव का ध्यान करना चाहिए॥ ९२॥
🔶 गुरुगीता के इन मंत्रों में सद्गुरु के ध्यान की विशिष्ट विधि है। इस विधि का एक खास मकसद है। जिसे ध्यान के सूक्ष्म ज्ञाता जान सकते हैं। जो ध्यान के अर्थ व सत्य से परिचित हैं, वे जानते हैं कि ध्यान मात्र एकाग्रता नहीं है। यह आत्मशोधन की प्रक्रिया के साथ अपनी कल्पनाओं व कामनाओं के अनुसार ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के नियंत्रण व नियोजन की विधि है। हमारी चाहत क्या है? इसी के अनुसार ध्यान का विधान तय किया जाता है। ध्यान के उग्र रूप शत्रु संहार के लिए होते हैं। ध्यान में राजस भाव की प्रगाढ़ता वैभव एवं समृद्धि देती है। ध्यान का परम सात्त्विक सौम्य रूप ज्ञान देने वाला होता है। गुरुगीता में वर्णित इस ध्यान विधि में सात्त्विक एवं राजस रूप का मिश्रित भाव है। गुरुदेव के श्वेत वस्त्र सात्त्विक भाव को प्रगाढ़ करते हैं, किन्तु उनका मोतियों की माला एवं पुष्प से अलंकृत स्वरूप राजस भाव की वृद्धि करता है। इन दोनों भावों के मिश्रण से ध्यान का यह स्वरूप ज्ञान व मोक्ष देने के साथ लौकिक व सांसारिक ऐश्वर्य को भी देने वाला है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 110
🔶 अपने इन कृपालु सद्गुरु को किस भाँति ध्यायें? किस तरह उनकी धारणा करें? इस साधना विधान को स्पष्ट करते हुए भगवान् सदाशिव माता भवानी से कहते हैं-
हृदंबुजे कर्णिकमध्यसंस्थे सिंहासनेसंस्थितदिव्यमूर्तिम्।
ध्यायेद्गुरुं चन्द्रकलाप्रकाशं चित्पुस्तकाभीष्टवरं दधानम्॥ ९१॥
श्वेताम्बरं श्वेतविलेपपुष्पं मुक्ताविभूषं मुदितं द्विनेत्रम्।
वामांङ्कपीठस्थितदिव्यशकिं्त मन्दस्मितं सांद्रकृपानिधानम्॥ ९२॥
🔷 (शिष्य धारणा करें) उसके हृदय कमल की कर्णिकाओं के बीच स्थित सिंहासन में गुरुदेव की दिव्यमूर्ति विराजमान है। इस दिव्यमूर्ति से शुभ्र चाँदनी सा प्रकाश विकीर्ण हो रहा है। इन सद्गुरुदेव के एक हाथ में पुस्तक है और दूसरा हाथ वर प्रदान करने की मुद्रा में ऊपर उठा है॥ ९१॥ सद्गुरुदेव श्वेत वस्त्र पहने हुए हैं, उन्होंने श्वेत लेप धारण किया है। वे श्वेत पुष्प एवं मोतियों की माला से अलंकृत हैं। उनके दोनों नेत्रों से आनन्द छलक रहा है। उनके वामभाग में उनकी लीला सहचरी दिव्य शक्ति माँ विद्यमान हैं। ऐसे मधुर मधुमय मुस्कान बिखेरने वाले गुरुदेव का ध्यान करना चाहिए॥ ९२॥
🔶 गुरुगीता के इन मंत्रों में सद्गुरु के ध्यान की विशिष्ट विधि है। इस विधि का एक खास मकसद है। जिसे ध्यान के सूक्ष्म ज्ञाता जान सकते हैं। जो ध्यान के अर्थ व सत्य से परिचित हैं, वे जानते हैं कि ध्यान मात्र एकाग्रता नहीं है। यह आत्मशोधन की प्रक्रिया के साथ अपनी कल्पनाओं व कामनाओं के अनुसार ब्रह्माण्डीय ऊर्जा के नियंत्रण व नियोजन की विधि है। हमारी चाहत क्या है? इसी के अनुसार ध्यान का विधान तय किया जाता है। ध्यान के उग्र रूप शत्रु संहार के लिए होते हैं। ध्यान में राजस भाव की प्रगाढ़ता वैभव एवं समृद्धि देती है। ध्यान का परम सात्त्विक सौम्य रूप ज्ञान देने वाला होता है। गुरुगीता में वर्णित इस ध्यान विधि में सात्त्विक एवं राजस रूप का मिश्रित भाव है। गुरुदेव के श्वेत वस्त्र सात्त्विक भाव को प्रगाढ़ करते हैं, किन्तु उनका मोतियों की माला एवं पुष्प से अलंकृत स्वरूप राजस भाव की वृद्धि करता है। इन दोनों भावों के मिश्रण से ध्यान का यह स्वरूप ज्ञान व मोक्ष देने के साथ लौकिक व सांसारिक ऐश्वर्य को भी देने वाला है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 110
👉 ईश्वर की भक्ति (भाग 1)
🔷 जिसको अपने पर विश्वास नहीं, वह ईश्वर पर विश्वास नहीं कर सकता। ऐसे आत्म-घातियों को अपने पाप का परिणाम भोगने के लिये ईश्वर छोड़ देता है और वह धैर्यपूर्वक तब तक उसी कुछ मदद न करने के लिए ठहरा रहता है, जब तक कि वह आत्म-घात करना न छोड़ दे। माता तब तक बच्चे को निर्दयतापूर्वक धूप में खड़ा रहने देती है जब तक कि वह फिर चोरी न करने की प्रतिज्ञा नहीं करता। भक्त का प्रथम लक्षण आत्म-विश्वास है। आत्म-विश्वास का अर्थ है परमात्मा में विश्वास करना। जो आत्मा के सच्चिदानन्द स्वरूप की झाँकी करता है, वही प्रभु के निकट तक पहुँच सकता है। ईश्वर नामक सर्वव्यापक सत्ता में प्रवेश करने का द्वार आत्मा में होकर है, वही इस खाई का पुल है।
🔶 अन्य उपायों से प्रभु को प्राप्त करने वालों का प्रयत्न ऐसा है जैसे पुल का तिरस्कार करके गहरी नदी का कोई और मार्ग तलाश करते फिरना। आचार्यों का अनुभव है कि—”दैवापि दुर्बल घातकः” क भी दुर्बलों का घातक है। अविश्वासी और आत्म-घाती निश्चय ही विपत्ति में पड़े रहते हैं और बिना पतवार के जहाज की तरह इधर-उधर टकराते हुए जीवन का उद्देश्य नष्ट करते रहते हैं। एक क्रूर कर्ता अपराधी की जेल की जैसे निष्पक्ष जज कुछ सुनवाई नहीं करता और सरसरी में खारिज कर देता है, वैसे ही आत्म तिरस्कार करने वालों को ईश्वर के यहाँ भी तिरस्कार प्राप्त होता है और उनकी प्रार्थना निष्फल चली जाती है।
🔷 ईश्वर से की गई प्रार्थना का तभी उत्तर मिलता है जब हम अपनी शक्तियों को काम में लावें। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता और अज्ञान यह सब गुण यदि मिल जाएं तो मनुष्य की दशा वह हो जाती है जैसे कि किसी कागज के थैले के अन्दर तेजाब भर दिया जाए। ऐसा थैला अधिक समय तक न ठहर सकेगा और बहुत जल्द गल कर नष्ट हो जाएगा। ईश्वरीय नियम, बुद्धिमान माली के सदृश हैं, वह निकम्मे घास कूड़े को उखाड़ कर फेंक देता है और योग्य पौधों की भरपूर साज-सँभाल रखकर उन्हें उन्नत बनाता है। जिस खेत में निकम्मे खरपतवार उग पड़ें उसमें अन्न की फसल मारी जाएगी। भला ऐसे किसान की कौन प्रशंसा करेगा, जो अपने खेत की ऐसी दुर्दशा कराता है। निश्चय ही ईश्वरीय नियम निकम्मे पदार्थों की गन्दगी हटाते रहते हैं, ताकि सृष्टि का सौंदर्य नष्ट न होने पावे। यह कहावत बिलकुल सच है कि—ईश्वर उसकी मदद करता है जो खुद अपनी मदद करता है, अपने पैरों पर खड़ा होने वाले को पीठ थपथपाने वाले दूसरे लोग भी मिल जाते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 2
🔶 अन्य उपायों से प्रभु को प्राप्त करने वालों का प्रयत्न ऐसा है जैसे पुल का तिरस्कार करके गहरी नदी का कोई और मार्ग तलाश करते फिरना। आचार्यों का अनुभव है कि—”दैवापि दुर्बल घातकः” क भी दुर्बलों का घातक है। अविश्वासी और आत्म-घाती निश्चय ही विपत्ति में पड़े रहते हैं और बिना पतवार के जहाज की तरह इधर-उधर टकराते हुए जीवन का उद्देश्य नष्ट करते रहते हैं। एक क्रूर कर्ता अपराधी की जेल की जैसे निष्पक्ष जज कुछ सुनवाई नहीं करता और सरसरी में खारिज कर देता है, वैसे ही आत्म तिरस्कार करने वालों को ईश्वर के यहाँ भी तिरस्कार प्राप्त होता है और उनकी प्रार्थना निष्फल चली जाती है।
🔷 ईश्वर से की गई प्रार्थना का तभी उत्तर मिलता है जब हम अपनी शक्तियों को काम में लावें। आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता और अज्ञान यह सब गुण यदि मिल जाएं तो मनुष्य की दशा वह हो जाती है जैसे कि किसी कागज के थैले के अन्दर तेजाब भर दिया जाए। ऐसा थैला अधिक समय तक न ठहर सकेगा और बहुत जल्द गल कर नष्ट हो जाएगा। ईश्वरीय नियम, बुद्धिमान माली के सदृश हैं, वह निकम्मे घास कूड़े को उखाड़ कर फेंक देता है और योग्य पौधों की भरपूर साज-सँभाल रखकर उन्हें उन्नत बनाता है। जिस खेत में निकम्मे खरपतवार उग पड़ें उसमें अन्न की फसल मारी जाएगी। भला ऐसे किसान की कौन प्रशंसा करेगा, जो अपने खेत की ऐसी दुर्दशा कराता है। निश्चय ही ईश्वरीय नियम निकम्मे पदार्थों की गन्दगी हटाते रहते हैं, ताकि सृष्टि का सौंदर्य नष्ट न होने पावे। यह कहावत बिलकुल सच है कि—ईश्वर उसकी मदद करता है जो खुद अपनी मदद करता है, अपने पैरों पर खड़ा होने वाले को पीठ थपथपाने वाले दूसरे लोग भी मिल जाते हैं।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1943 पृष्ठ 2
👉 गीता के ये नौ सूत्र याद रखें, जीवन में कभी असफलता नहीं मिलेगी
👉 सूत्र नं० 9
🔶 श्लोक-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
🔷 अर्थ-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
🔶 सूत्र-
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकार अपना काम करते रहो। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।
🔶 श्लोक-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतु र्भूर्मा ते संगोस्त्वकर्मणि ।।
🔷 अर्थ-
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन। कर्म करने में तेरा अधिकार है। उसके फलों के विषय में मत सोच। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और कर्म न करने के विषय में भी तू आग्रह न कर।
🔶 सूत्र-
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को बिना फल की इच्छा से अपने कर्तव्यों का पालन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से करना चाहिए। यदि कर्म करते समय फल की इच्छा मन में होगी तो आप पूर्ण निष्ठा से साथ वह कर्म नहीं कर पाओगे। निष्काम कर्म ही सर्वश्रेष्ठ परिणाम देता है। इसलिए बिना किसी फल की इच्छा से मन लगाकार अपना काम करते रहो। फल देना, न देना व कितना देना ये सभी बातें परमात्मा पर छोड़ दो क्योंकि परमात्मा ही सभी का पालनकर्ता है।
👉 नारी को विकसित किया जाना आवश्यक है। (भाग 3)
🔶 भारतीय समाज प्राचीन काल में इसलिए समुन्नत था कि प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार की सर्वांगीण उन्नति का ध्यान रखता था, आज की तरह केवल धन के पीछे पागल न था। सर्वांगीण प्रगति के महत्व को जब से भुलाया जाने लगा तब से पारिवारिक प्रगति रुक गई। धन कमाने वाले, ऊंचे औहदों पर नौकरी करने वाले लड़के बच्चे अब भी घरों में पैदा होते हैं, पर उनके द्वारा कोई ऐसा कार्य नहीं होता जिस पर गर्व करने की जी चाहे।
🔷 यह स्पष्ट है कि व्यक्ति का निर्माण उसकी माता करती है। माता का ज्ञान अनुभव और अन्तःकरण जितना विकसित होगा, उतना ही बालकों का मन और मस्तिष्क भी विकसित होगा। अच्छे पेड़ हमेशा अच्छी भूमि में पनपते हैं। बीज कितना ही बढ़िया क्यों न हो यदि भूमि ऊसर है तो वहाँ न तो फसल पक सकती है और न अच्छा बगीचा लग सकता है। इसी प्रकार अच्छी माताओं के होने पर ही सुसंतान की आशा की जा सकती है और जिन घरों में सुसंतति है उन्हें ही घर कहना चाहिये। अन्यथा दुर्बुद्धि और दुर्गुणी, रोगी और आलसी बालकों के घर को तो नरक का नमूना ही कह सकते हैं। वहाँ निरन्तर कलह, ईर्ष्या, द्वेष, असंतोष, चोरी, अवज्ञा, अपकीर्ति एवं उत्पात की आग जलती रहेगी। ऐसे घरों में उसी तरह गुजारा करना पड़ता है जैसे सूत मरघट में अपनी जिन्दगी गुजारता है।
🔶 माता के संस्कार बालक पर जाते हैं यह एक निश्चित तथ्य है। इसलिये जिन्हें अपने घर को सुसंतति से हरा-भरा, फला-फूला देखना हो उन्हें पहले माता का निर्माण करना चाहिए। लोग इतना ही करते हैं कि बालक स्वस्थ हो इसके लिये गर्भावस्था में स्त्री को घी दूध, मेवा, लड्डू आदि खिलाते हैं। दूध अधिक निकले इसके लिए माता को जीरा, सोंठ, बबूल का गोंद आदि खिलाते हैं। इससे लोगों की बुद्धि में इतनी समझदारी तो जान पड़ती है कि वे माता को खिलाने से उसका लाभ बालक को मिलने की बात स्वीकार करते हैं। बच्चा बीमार हो तो माता को परहेज से रहने की अमुक चीज खाने, अमुक न खाने की हिदायत करते हैं। पर यह बुद्धिमानी यहीं समाप्त हो जाती है। कैसा अच्छा होता यदि लोग यह भी अनुभव करते कि माता के ज्ञान, अनुभव और अन्तःकरण के विकास का प्रभाव बालकों पर भी अवश्य पड़ेगा। इसलिये सन्तान को सुयोग्य बनाने के लिए पहले उसकी माता को सुयोग्य बनाना आवश्यक है। यदि इतनी जानकारी लोगों की रही होती तो आज हमारे समाज का स्तर ही दूसरा हुआ होता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1960 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/December/v1.27
🔷 यह स्पष्ट है कि व्यक्ति का निर्माण उसकी माता करती है। माता का ज्ञान अनुभव और अन्तःकरण जितना विकसित होगा, उतना ही बालकों का मन और मस्तिष्क भी विकसित होगा। अच्छे पेड़ हमेशा अच्छी भूमि में पनपते हैं। बीज कितना ही बढ़िया क्यों न हो यदि भूमि ऊसर है तो वहाँ न तो फसल पक सकती है और न अच्छा बगीचा लग सकता है। इसी प्रकार अच्छी माताओं के होने पर ही सुसंतान की आशा की जा सकती है और जिन घरों में सुसंतति है उन्हें ही घर कहना चाहिये। अन्यथा दुर्बुद्धि और दुर्गुणी, रोगी और आलसी बालकों के घर को तो नरक का नमूना ही कह सकते हैं। वहाँ निरन्तर कलह, ईर्ष्या, द्वेष, असंतोष, चोरी, अवज्ञा, अपकीर्ति एवं उत्पात की आग जलती रहेगी। ऐसे घरों में उसी तरह गुजारा करना पड़ता है जैसे सूत मरघट में अपनी जिन्दगी गुजारता है।
🔶 माता के संस्कार बालक पर जाते हैं यह एक निश्चित तथ्य है। इसलिये जिन्हें अपने घर को सुसंतति से हरा-भरा, फला-फूला देखना हो उन्हें पहले माता का निर्माण करना चाहिए। लोग इतना ही करते हैं कि बालक स्वस्थ हो इसके लिये गर्भावस्था में स्त्री को घी दूध, मेवा, लड्डू आदि खिलाते हैं। दूध अधिक निकले इसके लिए माता को जीरा, सोंठ, बबूल का गोंद आदि खिलाते हैं। इससे लोगों की बुद्धि में इतनी समझदारी तो जान पड़ती है कि वे माता को खिलाने से उसका लाभ बालक को मिलने की बात स्वीकार करते हैं। बच्चा बीमार हो तो माता को परहेज से रहने की अमुक चीज खाने, अमुक न खाने की हिदायत करते हैं। पर यह बुद्धिमानी यहीं समाप्त हो जाती है। कैसा अच्छा होता यदि लोग यह भी अनुभव करते कि माता के ज्ञान, अनुभव और अन्तःकरण के विकास का प्रभाव बालकों पर भी अवश्य पड़ेगा। इसलिये सन्तान को सुयोग्य बनाने के लिए पहले उसकी माता को सुयोग्य बनाना आवश्यक है। यदि इतनी जानकारी लोगों की रही होती तो आज हमारे समाज का स्तर ही दूसरा हुआ होता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -दिसंबर 1960 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1960/December/v1.27
👉 The Effect of Sitting with the King
🔶 A long time ago a poor Brahmin deposited his money with a merchant. He thought that when his little daughter will grow up, he will use the money and its interest for her marriage.
🔷 Many years passed by. He now went to the merchant to claim his money. But he was shocked to find that the merchant refused even to recognize him, and said, "You never deposited any money with me." The poor Brahmin took his complaint to the King. The king could not take any direct action against the merchant due to lack of evidence, but he thought of a plan. It was announced that he next day there will be a great royal procession passing through the main streets of the city. The King told the poor Brahmin, "You should wait for my procession, near the merchant's house."
🔶 The next day everyone lined up along the streets to witness the royal procession and greet the King. When the procession reached the merchant's house, the King suddenly ordered it to halt. The King then addressed the poor Brahmin as Guruji, and requested to sit beside him and then the procession continued. The King dropped the Brahmin after sometime. The wicked merchant saw all this and trembled with fear. "Oh dear! This Brahmin is King's Guru", he thought, "If he complains against me, I will be in big trouble" The merchant immediately searched for the Brahmin and said, "I am sorry. Due to some mistake in the accounts your money was not traceable. Now, I have found out hat you had actually deposited the money with me. Please forgive me" The merchant gave back all the money along with the interest. He also gave lots gifts for the marriage of the Brahmin's daughter. Then the Brahmin thought, "Sitting near the King for a very short while has achieved so much. Then sitting near God - who is the King of all Kings can surely work wonders. True prayer and meditation is surely like sitting near God"
📖 From Akhand Jyoti
🔷 Many years passed by. He now went to the merchant to claim his money. But he was shocked to find that the merchant refused even to recognize him, and said, "You never deposited any money with me." The poor Brahmin took his complaint to the King. The king could not take any direct action against the merchant due to lack of evidence, but he thought of a plan. It was announced that he next day there will be a great royal procession passing through the main streets of the city. The King told the poor Brahmin, "You should wait for my procession, near the merchant's house."
🔶 The next day everyone lined up along the streets to witness the royal procession and greet the King. When the procession reached the merchant's house, the King suddenly ordered it to halt. The King then addressed the poor Brahmin as Guruji, and requested to sit beside him and then the procession continued. The King dropped the Brahmin after sometime. The wicked merchant saw all this and trembled with fear. "Oh dear! This Brahmin is King's Guru", he thought, "If he complains against me, I will be in big trouble" The merchant immediately searched for the Brahmin and said, "I am sorry. Due to some mistake in the accounts your money was not traceable. Now, I have found out hat you had actually deposited the money with me. Please forgive me" The merchant gave back all the money along with the interest. He also gave lots gifts for the marriage of the Brahmin's daughter. Then the Brahmin thought, "Sitting near the King for a very short while has achieved so much. Then sitting near God - who is the King of all Kings can surely work wonders. True prayer and meditation is surely like sitting near God"
📖 From Akhand Jyoti
👉 आत्मावलोकन का सरल उपाय—एकान्तवास (भाग 1)
गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
🔶 आप जिस कल्प-साधना सत्र में आए हुए हैं, उसका उद्देश्य समझने की कोशिश करें। अनगढ़ और अस्त-व्यस्त जीवन को सुव्यवस्थित जीवन में बदल देने की बात इस कल्प-साधना में विशेष रूप से ध्यान रखी गई है। जीवनभर हम अनगढ़ रहे हैं, बन्दरों की तरह उचक-मचक करने वाले, लक्ष्यहीन बच्चों की तरह इधर-उधर भागने वाले और तरह-तरह की चीजों पर मन चलाने वाले हम रहे हैं; न कोई अनुशासन मन के ऊपर रहा, न कोई लक्ष्य रहा और न कोई दिशा रही। बस, यही है हमारे जीवन की संक्षिप्त कहानी और इस कहानी में अब नया अध्याय जुड़ना चाहिए। फिर आपकी अस्त-व्यस्तता को अनुशासन में बदल जाना चाहिए और आपकी लक्ष्यहीनता को अब एक दिशा पकड़ लेनी चाहिए कि अब हमारा जीवन किधर जाएगा?
🔷 इसी का प्राथमिक अभ्यास कराने के लिए आपको कल्प-साधना शिविर में बुलाया गया है। आप अपनी मनःस्थिति को उसी के अनुरूप बनाइए। क्रियाएँ जो आपसे कराई जा रही हैं, ये क्रियाएँ अपने आप में भी महत्त्वपूर्ण हैं। उपवास अपने आप में भी लाभदायक होता है। पेट पर इसका असर पड़ता है; पर आप यहाँ तक सीमित मत रहिए। उपवास के लिए हम क्यों बुलाते हैं आपको? उपवास तो आप घर पर भी कर सकते हैं, बहुत-से आदमी करते भी हैं; नवरात्रि पर उपवास करते हैं, दूसरे उपवास करते हैं; पर यहाँ हमने केवल उपवास के ही लिए नहीं बुलाया आपको। यहाँ हमने आपको अनुशासन पालने करने के लिए बुलाया है—तरह-तरह के अनुशासन। शुरुआत तो आपकी जीभ से कराई है। जीभ का अनुशासन अगर आप निभा लेंगे, तो और दूसरे अनुशासन, जो जीवन के लिए और अत्यधिक उपयोगी हैं, उनको भी आप पालने में सफल हो जाएँगे।
🔶 गाँधीजी ने अपनी ‘सप्त महाव्रत’ नाम की पुस्तक में पहला अध्याय अस्वाद का लिखा है। उन्होंने कहा है कि जो आदमी अपनी जीभ पर काबू कर लेगा, वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर और मन पर भी काबू प्राप्त कर लेगा। उन्होंने यह भी लिखा है कोई आदमी ब्रह्मचर्य की बात विचार करता हो, तो उसको पहले अपनी जीभ पर काबू पाने की कोशिश करनी चाहिए। जिस आदमी की जीभ पर लगाम नहीं है, वह ब्रह्मचर्य का कभी पालन नहीं कर पायेगा। उच्छृंखल जीभ न केवल आहार को उच्छृंखल बनाती है, न केवल मस्तिष्क को उच्छृंखल बनाती है, बल्कि हमारी विकृतियों को भड़काने में भी काम आती है, इसलिए जीभ का अनुशासन आवश्यक माना गया है। आप इस उद्देश्य को समझिये। आप खाली दलिया खायेंगे, जौ, चावल खाएँगे, वह तो ठीक है; खाएँगे, तो अच्छी बात है; खाएँगे, तो सात्विक है। अनावश्यक वस्तुएँ न खाएँगे, तो कौन-सी हर्ज की बात है? आवश्यक वस्तुओं को एक महीने रहकर खाएँगे, यह तो बहुत अच्छी बात है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
🔶 आप जिस कल्प-साधना सत्र में आए हुए हैं, उसका उद्देश्य समझने की कोशिश करें। अनगढ़ और अस्त-व्यस्त जीवन को सुव्यवस्थित जीवन में बदल देने की बात इस कल्प-साधना में विशेष रूप से ध्यान रखी गई है। जीवनभर हम अनगढ़ रहे हैं, बन्दरों की तरह उचक-मचक करने वाले, लक्ष्यहीन बच्चों की तरह इधर-उधर भागने वाले और तरह-तरह की चीजों पर मन चलाने वाले हम रहे हैं; न कोई अनुशासन मन के ऊपर रहा, न कोई लक्ष्य रहा और न कोई दिशा रही। बस, यही है हमारे जीवन की संक्षिप्त कहानी और इस कहानी में अब नया अध्याय जुड़ना चाहिए। फिर आपकी अस्त-व्यस्तता को अनुशासन में बदल जाना चाहिए और आपकी लक्ष्यहीनता को अब एक दिशा पकड़ लेनी चाहिए कि अब हमारा जीवन किधर जाएगा?
🔷 इसी का प्राथमिक अभ्यास कराने के लिए आपको कल्प-साधना शिविर में बुलाया गया है। आप अपनी मनःस्थिति को उसी के अनुरूप बनाइए। क्रियाएँ जो आपसे कराई जा रही हैं, ये क्रियाएँ अपने आप में भी महत्त्वपूर्ण हैं। उपवास अपने आप में भी लाभदायक होता है। पेट पर इसका असर पड़ता है; पर आप यहाँ तक सीमित मत रहिए। उपवास के लिए हम क्यों बुलाते हैं आपको? उपवास तो आप घर पर भी कर सकते हैं, बहुत-से आदमी करते भी हैं; नवरात्रि पर उपवास करते हैं, दूसरे उपवास करते हैं; पर यहाँ हमने केवल उपवास के ही लिए नहीं बुलाया आपको। यहाँ हमने आपको अनुशासन पालने करने के लिए बुलाया है—तरह-तरह के अनुशासन। शुरुआत तो आपकी जीभ से कराई है। जीभ का अनुशासन अगर आप निभा लेंगे, तो और दूसरे अनुशासन, जो जीवन के लिए और अत्यधिक उपयोगी हैं, उनको भी आप पालने में सफल हो जाएँगे।
🔶 गाँधीजी ने अपनी ‘सप्त महाव्रत’ नाम की पुस्तक में पहला अध्याय अस्वाद का लिखा है। उन्होंने कहा है कि जो आदमी अपनी जीभ पर काबू कर लेगा, वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर और मन पर भी काबू प्राप्त कर लेगा। उन्होंने यह भी लिखा है कोई आदमी ब्रह्मचर्य की बात विचार करता हो, तो उसको पहले अपनी जीभ पर काबू पाने की कोशिश करनी चाहिए। जिस आदमी की जीभ पर लगाम नहीं है, वह ब्रह्मचर्य का कभी पालन नहीं कर पायेगा। उच्छृंखल जीभ न केवल आहार को उच्छृंखल बनाती है, न केवल मस्तिष्क को उच्छृंखल बनाती है, बल्कि हमारी विकृतियों को भड़काने में भी काम आती है, इसलिए जीभ का अनुशासन आवश्यक माना गया है। आप इस उद्देश्य को समझिये। आप खाली दलिया खायेंगे, जौ, चावल खाएँगे, वह तो ठीक है; खाएँगे, तो अच्छी बात है; खाएँगे, तो सात्विक है। अनावश्यक वस्तुएँ न खाएँगे, तो कौन-सी हर्ज की बात है? आवश्यक वस्तुओं को एक महीने रहकर खाएँगे, यह तो बहुत अच्छी बात है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)
👉 गुरुगीता (भाग 68)
👉 गुरु ही इष्ट है, इष्ट ही गुरु है
🔶 गुरुगीता के मंत्र शिष्यों के अन्तर्मन को कषाय-कल्मष से मुक्त करते हैं। इसमें भक्ति की धारा बहाकर सद्गुरु की भावचेतना से जोड़ते हैं। शिष्य का अन्तर्मन जब तक कलुषित है, कल्मष से लथ-पथ है तब तक उसे सद्गुरु की सत्ता का सार्थक बोध नहीं हो पाता। यहाँ तक कि लौकिक-सांसारिक दृष्टि से उनके पास रहकर भी आध्यात्मिक दृष्टि से वह उनसे कोसों दूर रहता है। देह की दृष्टि से भले ही वह गुरुदेव से कितना ही नजदीक रहे, पर आत्मा की दृष्टि से उनसे अपरिचित बना रहता है। यह अपरिचय-परिचय में बदले। परिचय प्रगाढ़ता में परिवर्तित हो और प्रगाढ़ता पवित्र भावनाओं में बदल जाए इसके लिए गुरुगीता के मंत्रों की साधना सर्वोत्तम उपाय है।
🔷 शिष्यों के मन के मैल को धोने वाली गुरुगीता के पूर्व मंत्र में चेताया गया है कि देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व कोई भी गुरु से विमुख होने पर किसी को मोक्ष नहीं मिलता। भगवान् शिव के वचन हैं कि गुरुदेव का ध्यान सभी तरह के आनन्द का प्रदाता है। इससे सांसारिक सुखों के साथ मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। इसलिए प्रत्येक शिष्य का यह पावन संकल्प होना चाहिए कि मैं अपने सद्गुरु का ध्यान करूँगा। ये गुरुदेव ब्रह्मानन्द का परम सुख देने वाले, द्वन्द्वातीत एवं सभी भावों से परे हैं। ये प्रभु नित्य, शुद्ध, निराभास, निराकार एवं माया से परे हैं। उन्हें मेरा नित्य नमन है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 108
🔶 गुरुगीता के मंत्र शिष्यों के अन्तर्मन को कषाय-कल्मष से मुक्त करते हैं। इसमें भक्ति की धारा बहाकर सद्गुरु की भावचेतना से जोड़ते हैं। शिष्य का अन्तर्मन जब तक कलुषित है, कल्मष से लथ-पथ है तब तक उसे सद्गुरु की सत्ता का सार्थक बोध नहीं हो पाता। यहाँ तक कि लौकिक-सांसारिक दृष्टि से उनके पास रहकर भी आध्यात्मिक दृष्टि से वह उनसे कोसों दूर रहता है। देह की दृष्टि से भले ही वह गुरुदेव से कितना ही नजदीक रहे, पर आत्मा की दृष्टि से उनसे अपरिचित बना रहता है। यह अपरिचय-परिचय में बदले। परिचय प्रगाढ़ता में परिवर्तित हो और प्रगाढ़ता पवित्र भावनाओं में बदल जाए इसके लिए गुरुगीता के मंत्रों की साधना सर्वोत्तम उपाय है।
🔷 शिष्यों के मन के मैल को धोने वाली गुरुगीता के पूर्व मंत्र में चेताया गया है कि देव, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व कोई भी गुरु से विमुख होने पर किसी को मोक्ष नहीं मिलता। भगवान् शिव के वचन हैं कि गुरुदेव का ध्यान सभी तरह के आनन्द का प्रदाता है। इससे सांसारिक सुखों के साथ मोक्ष की प्राप्ति भी होती है। इसलिए प्रत्येक शिष्य का यह पावन संकल्प होना चाहिए कि मैं अपने सद्गुरु का ध्यान करूँगा। ये गुरुदेव ब्रह्मानन्द का परम सुख देने वाले, द्वन्द्वातीत एवं सभी भावों से परे हैं। ये प्रभु नित्य, शुद्ध, निराभास, निराकार एवं माया से परे हैं। उन्हें मेरा नित्य नमन है।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 108
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